गुरूचरण सिंह
इस जीत ने यह साबित कर ही दिया है कि इच्छाशक्ति हो तो सीमित संसाधनों, सीमित अधिकारों के बावजूद अच्छा काम किया जा सकता है और यही मौजूदा राजनीतिक संस्कृति की असल परेशानी है. अगर पूरे देश में ऐसे सवाल पूछे जाने लगे तो …
अचानक यह हो क्या रहा है ? भाजपा का कोर कॉडर इतना मायूस क्यों है ? आत्मचिंतन के नाम पर हर बैठक में जूतम पैजार क्यों हो रहा है ? जैसे किसी खास दाव से, पत्ते बांटने की कलाकारी से जुए के हर टेबल पर अपनी जीत का परचम लहराने वाले किसी जुआरी को पहली बार किसी हार का मुंह देखना पड़ा हो. अभी तो यह 2 करोड़ आबादी वाला एक संघ शासित प्रदेश है, जिसके मुख्यमंत्री को तीन साल तक तो उप-राज्यपाल ने सुप्रीम कोर्ट का आदेश मिल जाने तक काम भी नहीं करने दिया था. मान लो कि यह पूरा राज्य होता जहां केवल आर्थिक मुद्दों पर ही काम किया गया होता और उसके चलते ही पार्टी को हार मिली होती, तब क्या होता ?
आम आदमी और उसके जरिए केंद्रीय व्यवस्था से परेशान देश का हर आदमी और बुद्धिजीवी इतना खुश क्यों है ? ऐसा क्या हट करके कर दिखाया है केजरीवाल ने ? जो भी काम हुआ है वह तो एक बृहत् नगरपालिका का ही काम है !! इस पर इतनी चिल्ल-पौं क्यों मची है ? देखा नहीं क्या इस जीत का पहला तोहफा ? केंद्र के इशारे पर गैस सिलेंडर के दाम ₹145 बढ़ा दिए गए. कुछ नहीं कर पाए न आप !! एक चूं तक नहीं निकली मुंह से !!
रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरतों को हल करने और पुलिस प्रशासन की मानसिकता को आम जनता के मुताबिक बदल सकने का भी जिसे अधिकार नहीं है, ऐसे आधे-अधूरे राज्य में मिली हार से भी यदि सत्ता प्रतिष्ठान इतना परेशान है तो समस्या की जड़ कहीं ओर होनी चाहिए ! चिंता का सबसे बड़ा कारण है भावनात्मक मुद्दों को दिल्ली की जनता द्वारा एक सिरे से नकार दिया जाना. जनाधार 40% हो जाने के बावजूद आठ में से एक सीट तो भाजपा को मायावती की मेहरबानी से ही मिली है, जहां आप उम्मीदवार महज 1500 वोट से हारा और बासपा ने लगभग 1800 वोट हासिल किए.
भावनात्मक मुद्दे ही भाजपा का सबसे घातक चुनावी हथियार था, जो इस चुनाव में भोथरा साबित हो गया है बशर्ते आपका पूरा ध्यान चुनाव प्रबंधन तक ही सीमित न रहे और पूरे पांच साल आप जनता के हित में काम करें.
‘आप’ की इस बड़ी जीत पर साल के आखिर में चुनाव प्रक्रिया से गुजरने वाले बिहार के मुख्यमंत्री ‘सुशासन बाबू’ नीतीश कुमार की मायूसी भरी पहली प्रतिक्रिया बहुत कुछ कह जाती है, जो सिर्फ़ इतना ही कह पाए कि ‘जनता ही मालिक !’ याद रहे पेंडुलम की तरह झूलने वाले नीतीश कुमार ने नागरिकता क़ानून विवाद पर भी अपना पुराना रुख़ बदल दिया था और खुल कर भाजपा का साथ दिया था. वैसे उसके पास ज्यादा विकल्प थे भी नहीं क्योंकि वह अपने निकट सहयोगी प्रशांत किशोर और पवन वर्मा को भी इसी सवाल पर दरकिनार कर चुके थे.
माथे पर चिंता की लकीरें इस वजह से कुछ और गहरा गई हैं कि पांच सालों में दिल्ली सरकार ने शिक्षा, स्वास्थ्य और बिजली से जुड़े मुद्दों पर जैसा काम कर के दिखाया है, वैसा कुछ भी नीतीश सरकार चौदह वर्षों के दौरान नहीं कर पाई. वह तो बस भाजपा जैसे प्रतीकों की राजनीति में ही उलझी रही है. किसी न किसी रूप में आज भी वहां माफिया राज ही चल रहा है. शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षा माफ़िया का इस क़दर बोलबाला है कि परीक्षाओं में नक़ल और जाली सर्टिफिकेट बनाने का कारोबार बिना किसी रोक-टोक चल रहा है. सरकारी स्कूलों में कंगाली और मातम छाया हुआ है और प्राइवेट स्कूल प्रशासन की मिलीभगत से मालामाल नज़र आते हैं. इन पब्लिक नामधारी स्कूल मालिकों को मनमानी फ़ीस वसूली की पूरी छूट मिली हुई है !
यही हाल सरकारी अस्पतालों का है, जिनमें भ्रष्टाचार का बोलबाला है और इधर मोहल्ला क्लिनिक खोल कर दिल्ली सरकार ने स्वास्थ्य सुविधाओं को लोगों के दरवाजे पर खड़ा कर दिया है और वह भी स्तरीय ! ऐसे में चिंता को होना तो स्वाभाविक ही है.
इस जीत ने यह साबित कर ही दिया है कि इच्छाशक्ति हो तो सीमित संसाधनों, सीमित अधिकारों के बावजूद अच्छा काम किया जा सकता है और यही मौजूदा राजनीतिक संस्कृति की असल परेशानी है. अगर पूरे देश में ऐसे सवाल पूछे जाने लगे तो … !!!
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