भारत में पीने के पानी का बाजार विकसित करने के लिये और उससे अकूत मुनाफा कमाने के लिये बड़ी कंपनियों ने कितनी साजिशें की हैं, सिस्टम के साथ मिल कर मनुष्य के नैसर्गिक अधिकारों को कितना कुचला है, सिर्फ यही विवरण अगर जान लिया जाए तो कारपोरेट राज के बृहत्तर उद्देश्यों को जानना, समझना आसान हो जाएगा.
अब वे अन्न के व्यापार ही नहीं, उसके उत्पादन की प्रक्रिया पर भी कब्जा जमाने के लिये तत्पर हैं और इसमें उनके साथ सत्ता का भरपूर समर्थन है. इतना कि इससे संबंधित बिल को पास करवाने के लिये राज्य सभा में संसदीय मर्यादाओं को खुलेआम तार-तार कर दिया गया.
भारत में पहली बार 1965 में इटली की एक कंपनी ने ‘बिसलेरी’ ब्रांड की शुरुआत मुम्बई से की और तब यहां के लोगों ने जाना कि पीने का पानी भी बेचा जा सकता है. तब शीशे की बोतलों में पानी बेचा जाता था और जाहिर है, इसका बेहद सीमित ग्राहक वर्ग था. ग्राहक आधार बढाने के लिये जरूरी था कि नैसर्गिक स्रोतों से मिलने वाले पेय जल को बदनाम किया जाए और बोतलबंद पानी का महिमामंडन किया जाए. इससे भी अधिक जरूरी यह था कि जनता के दिमाग से इस बात को निकाल दिया जाए कि पीने का स्वच्छ पानी सर्वत्र जन सुलभ करवाना व्यवस्था की जिम्मेदारी है.
महज तीन-चार दशकों में परिदृश्य यह सामने आया कि शहर तो शहर, सुदूर गांवों की पान-खैनी की गुमटियों पर भी बोतल बंद पानी की कतारें नजर आती हैं. कंपनियां मुनाफा कूट रही हैं. उनकी आड़ में नकली कार-बार करने वालों के भी पौ बारह हैं, जो बिसलेरी, किनले, बेली आदि ब्रांड्स की नकली बोतलें बेच कर मालामाल हो रहे हैं. 20 रुपये में एक बोतल. कहते हैं, नल के पानी से 10 हजार गुने अधिक कीमत है इस पानी की. और, स्वास्थ्य पर इसका असर…?
शुरुआती स्थापनाओं से उलट अब रिसर्च बताते नहीं थक रहे कि बोतल बंद पानी स्वास्थ्य के लिये कितना हानिकारक है, और कि जहां भी इन कंपनियों ने अपने प्लांट लगाए, वहां भूगर्भ का जलस्तर बेहद नीचे चला गया है.
नया कृषि बिल पास करवाकर भारत सरकार अब कारपोरेट कृषि को बढ़ावा देगी. आने वाले समय मे गांव-देहातों के कृषि आधारित सामाजिक-आर्थिक संबंध इससे बेहद प्रभावित होंगे. बहुत सारे लोग, जो आज कृषक हैं, कल मजदूर बनेंगे.
वे कहते हैं, यह किसानों के हित में ऐतिहासिक कदम है, जबकि अधिकतर किसान परेशान हैं कि यह सब क्या हो रहा है. वे इसके विरोध में आंदोलन पर आमादा हैं. आप आंदोलन करते रहिये. कानून तो बन गया. जाहिर है, बन गया तो लागू भी होगा, जब तक की इसे वापस नहीं ले लिया जाता.
जैसी अर्थनीति है हमारे देश की, जैसी राजनीति है, यह सब तो होना ही है. इसमें नई बात कुछ भी नहीं. हम बेहद तीव्र गति से कंपनी राज के चंगुल में फंसते जा रहे हैं. माननीय नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने के बाद तो यह गति तीव्रतम हो गई है. वैसे ही, जैसे मोदी राज में टैक्स की दर इतिहास में सर्वाधिक है.
सब्जी, खुदरा व्यापार आदि पर कारपोरेट प्रेतों की छाया सघन होती जा रही है. जो आज छोटे व्यापारी हैं, कल मजदूर बनने को तैयार रहें. वह भी ऐसी नौकरी, जिसमें मालिकों का हित ही कानून होगा. एक लात भर की औकात होगी नौकरी की. पता नहीं, कब वो लात पड़ जाए और कर्मचारो नौकरी से बाहर.
कृषि बिल के इस शोर-गुल में ही एक और श्रम कानून संशोधन बिल पास हुआ है. अब 300 से कम कर्मचारियों वाली कंपनियां बिना सरकार की मंजूरी के ही जब चाहे, छंटनी कर सकेंगी. मनुष्य के मनुष्य बनने का अधिकार हासिल करने के लिये सदियों तक संघर्ष होते रहे. कारपोरेट राज के राजनीतिक एजेंट मनुष्यों से मनुष्य होने का अधिकार फिर से छीनते जा रहे हैं. कम्पनी राज वापस लौट रहा है. आइए, अपनी नई गुलामी का स्वागत करें.
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