कनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़
दस करोड़ से अधिक आबादी वाले आदिवासी अभी भी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं जातीय रूप से उचित अध्यात्मिक पहचान यदि कोई है जिसे उनके धर्म का नाम दिया जा सके, उसे खोज रहे हैं. पुरातत्व एवं सांस्कृति के क्षेत्र में इतिहासकार व मानव विज्ञानी द्वारा किये गए खोज, अध्ययन अनुसार ये स्थापित तथ्य है कि आदिवासी जैसा कि इस शब्द का अर्थ है कि 6000 साल पहले से यहां के बासिन्दे ये मूल निवासी रहे हैं.
आदिवासी अधिकांशतः पहाड़ी क्षेत्र व भीतरी जंगलों के वासी हैं. हालांंकि शुरूआत में वे भारत में बहने वाली नदियों के किनारे के महत्वपूर्ण क्षेत्र में खेती संबंधी गतिविधियों द्वारा संपोषण एवं निर्वाह के लिए रहते थे. शायद आर्य सभ्यता के उद्भव के बाद आदिवासियों का या तो नरसंहार कर दिया गया या भीतरी जंगलों की ओर खदेड़ दिये गये, जहां वे अपनी संपोषण एवं जीवन निर्वाह के लिए बसे. उत्रोतर सामंती शासन के औपनिवेषिक काल में भी वे भीतरी जंगलों में रहे.
ब्रिटिश प्रशासन द्वारा आदिवासियों को पहले से ही काफी प्रताड़ित किया गया था, जिसने उनका वन उपज, भूमि, जल और खनन खनिजों पर उनके प्राकृतिक अधिकारों को लूट लिया. इसके परिणामस्वरूप भारत को अपनी स्वतंत्रता मिलने के बाद उनका जीने का सहारा उनके सामूहिक ज्ञान में अन्यथा जारी रहा.
1951 की जनगणना से पहले एक स्तंभ प्रदान किया गया था, जिसमें आदिवासियों ने अपना उल्लेख किया था कि वे किसी भी औपचारिक धर्म जैसे भारत में हिंदू धर्म सहित इस्लाम, ईसाई, पारसी, बौद्ध और जैन धर्म का पालन नहीं करते हैं. 1951 की जनगणना के बाद आदिवासियों को उनकी पसंद के धर्म के संदर्भ में पहचान देने के लिए कोई स्तंभ प्रदान नहीं किया गया है, उन्हें हिंदू बहुसंख्यकों ने खुद को हिंदू के रूप में उल्लेख करने के लिए मजबूर किया है, जिसने आदिवासियों के एक महत्वपूर्ण वर्ग को परेशान किया है.
भारत में ब्रिटिश शासन के आगमन के साथ-साथ लाखों आदिवासियों को उनकी गरीबी, अशिक्षा और यूरोपीय धार्मिक संस्थानों द्वारा शैक्षिक और चिकित्सा सुविधाओं के कारण धार्मिक मिशनरियों द्वारा ईसाई धर्म में परिवर्तित कर दिया गया. आज की तारीख में आदिवासी अपने पहचान योग्य धर्म के वास्तविक मूल का पता लगाते हिंदू धर्म और ईसाई धर्म के बीच पीस गये हैं.
आदिवासी बुद्धिजीवी विरोध करते हुए कहते हैं कि वोट बैंक की राजनीति के कारण हिंदुत्व के राजनीतिक संगठन मुख्य रूप से प्राचीन प्रचलित बहुसंख्यक धर्म के साथ आदिवासियों की मजबूरन पहचान कराते हैं. उनका यह भी आरोप है कि आदिवासी संस्कृति, परंपराओं, त्योहारों और जीवन की अन्य बारीक बारीकियों को जान-बूझकर उनके जीवन दर्शन के खिलाफ सामान्य हिन्दुमय बना दिया गया है.
झारखंड और छत्तीसगढ़ के कुछ क्षेत्रों में और ओडिशा में भी ईसाई धर्म का प्रसार अभी भी वास्तविक आदिवासी पहचान के लिए चिंता का एक और कारण है, जो औपचारिक धर्मों की आड़ में आदिवासियों की वन क्षेत्रों में जबरन किया गया कॉरपोरेट औद्योगिक गतिविधियों से जुड़ कर उनकी पहचान को जीर्ण-शीर्ण किया.
आदिवासियों की आंदोलन ने पहले ही गति पकड़ ली है कि आदिवासियों को अपने धर्म को निरूपित करते हुए एक सही नाम का चयन करने की अनुमति दी जानी चाहिए, जो मूल रूप से प्रकृति के घटकों जैसे अग्नि, वायु, जल, जंगल, जानवरों और यहां तक कि कुछ खोज करने वाले कीटों से संबंधित है, उसमें रहस्यवाद और आध्यात्मिकता है. आदिवासी किसी भी औपचारिक देवता की पूजा नहीं करते हैं जैसे कई औपचारिक धर्मों के अनुयायी करते हैं.
आदिवासियों का एक और वजनदार तर्क है. आदिवासियों का एक और दमदार तर्क हैं. उनका मानना है कि हिन्दुओं और मुसलमानों की बहुल आबादी को छोड़ उनकी आबादी बौद्ध की गणना के आधार पर 8.02 करोड़, ईसाई 3.19 करोड़, सिख 2.08 करोड़ और जैनी 44.51 लाख से अधिक है. आदिवासियों का एक और तर्क है कि उन्हें अल्पसंख्यक नहीं कहा जाना चाहिए ऐसे में जब वे देश के प्राचीनतम पहचान हैं और बाद के हमलावरों जिन्होंने उनका दमनकारी प्रशासनिक तरीके से दमन कर प्राकृतिक आवास के भीतरी जंगलों में खदेड़े रखा, वे उनकी पहचान अल्पसंख्यक के रूप में नहीं कर सकते हैं.
और बाद में उन्हें गर्त वे बहुत दुखी भी हैं और वे संवैधानिक बहसों में उनकी उत्पत्ति का उल्लेख करते हुए भारत के इतिहास में और भविष्य में भी उन्हें सही परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए करते हैं. वे यह भी तर्क देते हैं कि 2021 की जनगणना के आयोजन के दौरान एक संसदीय विधेयक उन्हें विशिष्ट धर्म की पहचान करने और उनका उल्लेख करने में सक्षम बनाता है, जिसे लाने में देर किया जा रहा है.
यह एक विचित्र स्थिति है कि एक ओर बौद्ध, जैन और सिख हिंदू धर्म की तुलना में अन्य धर्म होते हुए भी, उन्हें अपने व्यक्तिगत कानूनों में हिंदू संहिता के हुक्म का पालन करना पड़ता है, जबकि इसके विपरीत आदिवासी हिंदू माने जाते हैं फिर भी उन्हें विवाह, तलाक, विरासत, रखरखाव, संरक्षकता और गोद लेने संबंधित अपने व्यक्तिगत कानूनों में हिंदू संस्कारों का पालन करने के लिए कोई भी वैधानिक मजबूरी नहीं है.
भारत दुनिया का एकमात्र देश है जहां कई धर्म अपने संविधान की भावना के अनुसार एक सांप्रदायिक सद्भाव में सह-अस्तित्व रखते हैं. हालांकि, बड़ी संख्या में अंतर-धार्मिक प्रतिद्वंद्विताएं लाजिमी हैं और अल्पसंख्यक धर्मों ने सामाजिक व्यवस्था में अपने सम्मानजनक अस्तित्व के विलुप्त होने के खतरे को महसूस किया है. हालांंकि कई सदियों से अदिवासियों को यहां की प्रमुख सभ्यता और बहुसंख्यक धर्म से अलग रखा गया है फिर भी वे अपनी धार्मिक पहचान के बारे में कोई संवैधानिक रुख अपनाने की स्थिति में नहीं हैं.
ऐसे संवैधानिक मुद्दों को सर्वसम्मति से हल करने की आवश्यकता है और साथ ही किसी भी नागरिक को दिए गए मौलिक अधिकारों के संबंध में संविधान की कमान है कि वह किसी भी अल्पसंख्यक धार्मिक पहचान या कमजोर कमजोर वर्ग, जाति या समूह से संबंधित है, हालांकि सदियों से भारतीय समाज से दूर जंगलों में रहते आये आदिवासी किसी भी जातिगत समाज को नहीं मानते हैं.
(अंग्रेजी में लिखित इस लेख का अनुवाद प्रबुद्ध विद्वान मीरा दत्ता ने किया है.)
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