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आदिवासी तबाही की ओर

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आदिवासी तबाही की ओर

Kanak Tiwariकनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़

2011 की जनगणना के मुताबिक आदिवासियों (अनुसूचित जनजातियों) की जनसंख्या 10,42,81, 034 है. वह देश की कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है. बोलियों, भाषाओं, जनसंख्या तथा रहन सहन आदि को लेकर आदिवासियों में कई विविधताएं हैं. पूर्वोत्तर राज्य समूह मोटे तौर पर तिब्बती, बर्मन, माॅन-खमेर तथा भारतीय-यूरोपीय जैसे तीन मुख्य समूहों में बांटे जाते हैं. कुछ जनजातियां बहुत ही पिछड़ेपन की वजह से अतिसंवेदनशील जनजातीय समूहों में रखी गई हैं.

आदिवासियों ने राष्ट्रीय जीवन में ज्यादातर एकांत में रहते सुदूर तथा बीहड़ जंगली इलाकों में लगभग आत्मनिर्भर लेकिन खुदमुख्तारी का जीवन व्यतीत किया है. प्रशासनिक तंत्र उनको अलग थलग रखने और राष्ट्रीय जीवन की मुख्यधारा से नहीं जोड़ने की भी रुचि में रहता आया है. आजादी के बाद संविधान में जनजातीय लोगों को विशेष दर्जा देने के लिए कई प्रावधान बनाया गया. संसद ने कई सुरक्षात्मक लगते कानून बनाकर उनके हितों को सुरक्षित रखने की लगातार कोशिशें की. तमाम कोशिशों के बावजूद सच लेकिन यही है कि आदिवासियों के जीवन स्तर में केवल मामूली सुधार आ पाया है. अनुसूचित जनजाति का मानव विकास सूचकांक (एच.डी.आई.) बाकी जनसंख्या की तुलना में बहुत कम है. साक्षरता दर में भी अंतर बहुत है. गरीबी रेखा के नीचे अन्य समुदायों के मुकाबिले आदिवासी परिवार ज्यादा हैं. आरक्षण के प्रावधान के बावजूद सरकारी नौकरियों में उनका प्रतिशत उनकी जनसंख्या के अनुपात में नहीं ही है. इस तरह उनकी हालत बाकी लोगों की अपेक्षा काफी खराब है.

आदिवासियों के लिए बनाए गए अधिनियम –

  1. अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (FRA),
  2. अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989,
  3. निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा (आरटीई) अधिनियम, 2009,
  4. भूमि अर्जन, पुनर्वास और पुनव्र्यवस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता अधिकार अधिनियम, 2003,
  5. पंचायत के प्रावधान अनुसूची क्षेत्रों में विस्तारण अधिनियम, 1996 (PESA), तथा
  6. संविधान की पांचवीं एवं छठी अनुसूची के प्रावधान ईमानदारी और कठोरतापूर्वक लागू नहीं किये जाते. इस तिलिस्म के चलते उनके कानूनी अधिकारों का उल्लंघन होता है.

आदिवासियों में साक्षरता की कमी है. आदिवासी अपने कल्याण हेतु सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं की भी जानकारी नहीं रखते. कई जनजातीय लोग कथित रूप से नक्सली कहकर जेलों में डाल दिए जाते हैं. अदालती कार्यवाहियां तो जनजातियों को डराती ही रहती हैं. वे प्रशासनिक अराजकता से भी पीडि़त किए जाते हैं. कई अनुसूचित जनजातियां वनवासी हैं. उनके रहायशी इलाके तो आरक्षित वन तथा सुरक्षित वन घोषित कर दिए गये हैं. उन्हें बिना मुआवजा हटा दिया जाकर बेदखल कर दिया जाता रहा है. सभी जनजातियां अनुसूचित जनजातियों का संवैधानिक दर्जा भी नहीं हासिल कर सकी हैं. इसके चलते इन जनजातियों की हालत ज्यादा खराब है. उन्हें पांचवीं अनुसूची एवं पेसा के प्रावधानों द्वारा दिए गये अधिकार एवं सुरक्षा नहीं मिल सकते. इन वर्गों के लिए वन अधिकार अधिनियम भी ढीले-ढाले तौर पर ही लागू किया है.

जंगल तथा पहाडि़यां आदिवासी पहचान के मुख्य इलाके हैं. उनकी भूमियों का एक बड़ा भाग वन क्षेत्रों में आता है. दूरदराज क्षेत्र की अधिकतर जनजातियां बिना किसी अधिकार, हक हुकूक एवं हित के वन भूमि पर रहती आई हैं. उन बेघर जनजातियों हेतु वन अधिकारों की मान्यता अधिनियम, 2006 के तहत उनके अधिकारों की सुरक्षा एवं बसाहट के लिए कोई स्पष्ट और अमलकारी विधिक प्रावधान नहीं है. भूमि अधिग्रहण, पुनरुद्धार एवं पुनर्वास में उचित मुआवजे एवं पारदर्शिता अधिकार अधिनियम 2013 के तहत जनजातियों को दिया गया मुआवजा अक्सर कम ही होता है.

आदिवासियों के साथ एक समस्या और भी है. भूमि पर एकल व्यक्ति के बदले वे सामुदायिक अधिकार में भरोसा रखते हैं इसलिए भूमि संबंधित मामलों में उनके पास मालिकी हक का लिखित प्रमाण नहीं होता. आदिवासियों के दावे ज्यादातर मौखिक सबूत पर ही आधारित होते हैं, नतीजतन उनके मालिकी हक स्थापित करने में कठिनाइयां पैदा होती रहती हैं. जनजातियों को प्रमाणीकरण एवं दावों के निपटारे के पहले ही बेदखल कर दिया जाता है. इसके चलते उनकी आर्थिक स्थिति और पारंपरिक वन प्रथाओं में गिरावट आ रही है.

शिक्षा, ट्रेनिंग, नगरी सभ्यता से महरूम तथा जरूरी संचार संसाधनों वगैरह की कमी के बावजूद आदिवासी वन के एडवेंचर पर ही निर्भर रहे हैं. आदिवासियों ने सदियों में दुर्लभ खेती करने की अपनी पद्धति का आविष्कार भी कर लिया. खेती भी उनके आर्थिक जीवन का एक बुनियादी साधन है. कृषि की कई नई देशज तक्नालाॅजी और प्रविधियों तक को उन्होंने एक तरह से स्वयमेव ईजाद किया. उनकी शारीरिक तथा रोजमर्रा की जरूरतें न्यूनतम होती हैं. उन्हें आजकल के लोकप्रिय अंगरेजी शब्द ‘मिनिमल‘ (अल्पतम) के अर्थ में औद्योगिक पश्चिमी सभ्यता के दंश से पीडि़त लोग भी आदिवासियों से प्रेरित होकर अब भी आदत में शुमार कर रहे हैं.

सुंदर और दुर्गम पहाडि़यों तथा जंगलों के माहौल में आदिवासी हजारों वर्षों से जीवित और स्वायत्त रहते आए हैं. प्रकृति के कई आकस्मिक प्रकोप मसलन भूकंप, ज्वालामुखी, भूस्खलन, सूखा, अतिवृष्टि वगैरह भी उन्हें विचलित नहीं कर पाए. प्रकृति को जीतने का उनमें न तो कोई नवसाम्राज्यवादीनुमा अहंकार रहा और न ही उन्होंने उस प्रकोप को खुद की किसी पापजनित गतिविधि का दंड समझा. राज्य की किसी भी प्रशासनिक शक्ति या संस्था से उनका सरोकार बेरुख होने के कारण नहीं रहा है. राज्यशक्ति ने भी उनसे भौगोलिक, सामाजिक और आधिकारिक दूरी बनाए रखी. उन्हें उपेक्षित करने का विचार शुरुआती राज्यतंत्र का अनिवार्य अंग भी नहीं बना.

भारतीय आदिवासी जीवन में सबसे पहला, बड़ा, परिणामकारी और घुमावदार मोड़ ब्रिटिश हुकूमत के भारत में पैर जमाने के बाद आया. आदिवासियों ने कथित नागरिक सभ्यता के वंशजों से कहीं पहले वीरोचित अर्थ में बर्तानवी अत्याचार का खुलकर मैदानी मुकाबला भी किया. ब्रिटिश शासन ने ‘अपवर्जित क्षेत्र’ और ‘आंशिक अपवर्जित क्षेत्र’ का वर्गीकरण आदिवासी इलाकों के लिए प्रशासनिक व्यवस्था को चुस्तदुरुस्त करने की आड़ में किया था. पूर्वोत्तर राज्यों के लिए ‘अपवर्जित क्षेत्र’ और शेष भारत के आदिवासी इलाकों के लिए ‘आंशिक अपवर्जित क्षेत्र’ की शासकीय परिभाषा रची गई.

संविधान की छठी अनुसूची इसी बात को ध्यान में रखकर पूर्वोत्तर के सघन आदिवासी इलाकों के लिए अधिनियमित की गई. उसके तहत आदिवासियों की परंपराओं, रूढि़यों, संस्कृति, सामाजिक प्रबंधन, आर्थिक तंत्र और वन तथा वनोत्पादों के अधिकारों सहित कृषि के पुराने पैटर्न ने कम से कम मात्रा में छेड़छाड़ करना शामिल किया. शेष भारत के आदिवासी क्षेत्रों के लिए पूर्वोत्तर के मुकाबले शहरी सभ्यता से बेहतर संपर्क, आवागमन के साधन, अन्य संचार व्यवस्था, भौगोलिक रचना और मालूम, नामालूम कई कारणों से पांचवीं अनुसूची की अधिनियमित रचना का कूटनीतिक फैसला ब्रिटिश बुद्धि की प्रेेरणा से भारतीय संविधान सभा ने कर दिया. उसके अनुसार केन्द्र अथवा राज्य शासन तथा राज्यपाल के संवैधानिक अधिकारों के तहत आदिवासी विकास के नाम पर उनकी चली आ रही सदियों पुरानी जीवन पद्धति को ही खंडित कर दिया.

भारत वैसे भी सदियों से ग्रामीण सभ्यता, लोकसंस्कृति, गणतांत्रिक व्यवस्था, प्रकृति-निर्भर जीवन पद्धति और नए जीवन मूल्यों को विकसित करने की प्रजातांत्रिक परंपराओं से जूझते रहने का इतिहास रचता रहा. इतर आदिवासी इलाके के ग्रामीण क्षेत्रों तथा उनके बरक्स आदिवासी इलाकों में परिवर्तन के ढांचे के मूलभूत तत्वों में काफी अंतर देखने में आता रहा है. नागर सभ्यता में वर्ग और वर्ण की व्यवस्था की पैठ तथा बढ़ोत्तरी हो जाने के कारण भारतीय समाज अपने तकनीकी, तात्विक, वास्तविक और संगठनात्मक स्तर पर विभाजित और खंडित होते होते अब तो लगभग विभाजित हो ही गया है.

आदिवासी जीवन की जरूरतें शासकीय, शहरी या अन्य तथाकथित सभ्य इलाकों में औपचारिक रूप से विकसित बाजारतंत्र के अर्थशास्त्र पर कायम नहीं रही हैं, न ही उन्हें ऐसी ज़रूरतें महसूस हो पाईं. एक लंबे अरसे तक उनके लिए कुदरत और जंगल तथा उसके सभी स्त्रोत और वन-उत्पाद ही सामाजिक, आर्थिक और वास्तविक जीवन का आधार रहे हैं. उनमें गरीब और अमीर, साधनसंपन्न और साधनविहीन, उच्च वर्ग या अकिंचन जैसे अन्दरूनी भेद विभेद नहीं रहे. इस कारण उनका कोई एक उपवर्ग या हिस्सा गरीबी और भुखमरी की कगार पर खड़ा होने को मजबूर नहीं हुआ. इसके ठीक उलट आधुनिक शहरी और मशीनी सभ्यता ने विभाजन, विग्रह और विसंगत दंष झेले हैं.

शासक, नगरसेठ, नौकरशाह, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैष्य, शूद्र, दलित, अछूत और अकिंचन जैसे सैकड़ों शहरी विभाजनकारी विशेषण हैं. ये कथित विकसित और आधुनिक सभ्यताओं के माथे पर कलंक की तरह चिपकाए जा सकते हैं. जंगल आदिवासी के केवल आर्थिक सहकार का माहौल भर नहीं रहा. अपनी कुदरती संरचना बनाकर जंगल आदिवासी जीवन संगीत, संस्कृति, कलात्मक मौलिकता और पशु पक्षियों के प्रति प्रेम और सहयोग जैसी अबूझ और अनोखी अंतर्लय को विकसित करते रहने का विश्वविद्यालय होता गया है. जंगल से आदिवासी का अलग होना कल्पना में भी नहीं हो सकता. उसने कभी भी वन की सरहदों को लक्ष्मणरेखा की तरह स्वीकार नहीं किया. ब्रिटिश हुकूमत व्यवस्था से शुरू होकर आज तक उसी शासन पद्धति का दबदबा कमोबेश कायम है. इस बदइंतजामी का भारतीय आदिवासी जीवन पर सीधा और घातक असर अंगरेजों के शासन काल से शुरू होकर स्थायी होता लग रहा है.

आदिवासियों ने सदियों में सिद्ध किया कि जीवन की सामूहिकता, मनुष्यों की आपसी अंतनिर्भरता के साथ साथ सामाजिक मूल्यों के उद्भव, विकास और पालन के लिए अकादेमिक शिक्षण, मशीनी शासन तंत्र और जीवन मूल्यों को समझने की दृष्टियों के विकास की आड़ में अलगाव को जज्ब करना कतई आवश्यक नहीं है. आदिवासी को तथाकथित विकास योजनाओं के नाम पर सदियों से निवास कर रहे स्थानों से बेदखल करना, उन्हें आवासहीन बनाकर शहरी माहौल में लगभग प्रदूषित इलाकों में धकेल कर मजदूरी वगैरह के अनिच्छुक कामों में जबरिया खपा देना और आदिवासी इलाकों में सिंचाई उद्योग, वन प्रबंधन, विद्युत वगैरह के कई उपादानों का काॅरपोरेटी सरंजाम खड़ा कर आदिवासी क्षेत्रों की सामाजिक संरचना को शहरी संपर्क से जोड़कर तबाह करना भी तो हुआ.

यूरोपीय नस्ल की जीवन पद्धति, विदेशों से आवागमन तथा शिक्षा और व्यापार के लिए भारतीयों का प्रवास, आर्थिक व्यवस्था में मशीनीकृत ढांचे का उपयोग और उद्भव, शिक्षा के ढांचे में मूलभूत और मशीनी व्यवस्था पर निर्भर तंत्र आधारित विकास, व्यापार के नाम पर बाजारवाद का नया ककहरा ये सब घातक कारक रहे हैं. ऐसे सोच को भारतीय शहरी साभ्यतिक जीवन से कोई परहेज नहीं था. फिर उसे आदिवासियों की निपट निरक्षरता, सादगी, अहिंसकता और मासूमियत के रहते उनका शोषण कर लेना अपेक्षाकृत सरल था.

एक कुटिल कानून भारतीय वन अधिनियम के नाम से किया गया. आदिवासियों के पुश्तैनी व्याकरण में छूट, कंसेशन, लाइसेंस, परमिट, अनुमति जैसे नए शब्दों को ठूंसकर उनमें अधिकारविहीनता, लाचारी, निराशा और लुट जाने का मनोवैज्ञानिक भावबोध इंजेक्ट कर दिया गया. प्रशासनिक कुटिलता द्वारा लादी गई ऐसी मानसिकता तात्कालिक नहीं, स्थायी चरित्र की हो गई है. आजादी के बाद जनप्रतिनिधियों द्वारा लिखे इतिहास के पहले संविधान में भी वह समीकरण हल नहीं किया गया जो पेचीदा प्रबंधन अंगरेज भारत के लोकतांत्रिक शासकों को सौंप देने के लिए कैबिनेट मिशन योजना के कुटिल चक्र में फंसाकर चले गए थे. कुदरती परंपराओं, यादों की संभावना, व्यावहारिक बुद्धि और आंतरिक आग्रहों को दाखिलखारिज करते वन विभाग नाम के शासन तंत्र को प्रतिनिधिक रोबोट बनाकर आदिवासी जीवन की मुश्कें बांधने के लिए जंगलों का एकाधिकारी कह दिया गया. समय बीतता गया. सरकारी बेडि़यां आदिवासी को अपनी निगाह, तांत्रिकता, शोषण और दोहन करने की मुद्राओं में लगभग क्रूर होकर जकड़ती चली गई. नए दौर के युवा आदिवासियों तथा ठूंठ बना दी गई कई पुश्तैनी व्यवस्थाओं ने यह भी अहसास कर लिया कि शासन उनके पुश्तैनी आत्मानुशासन के मुकाबले शायद श्रेष्ठतर विकल्प हो. उसके सामने झुकने और हुक्म बजा लाने के अलावा अब उनके जीवन में कोई ठौर नहीं है.

शासनतंत्र जानबूझकर ऐतिहासिकता पर क्रूरता का पोचारा फेरता रहा है. व्यापक सामाजिक जीवन का सबसे ज्यादा अनोखा, मानवीय, कुदरती प्रेमी, दार्शनिक समझ को ही यादों के इतिहास में धुंधला करता पूरी तौर पर मिटाया जा रहा है. सत्ता नाम का शब्द सभ्यता, संस्कृति, संगीत, सामाजिकता और सामूहिकता पर इस कदर हावी हो गया है, जिससे मनुष्य जीवन के सभी स्वाभाविक लक्षण तक अपनी निर्दोशिता, मासूमियत और सकारात्मकता के बावजूद सरकारी ऑक्टोपस की जकड़ में कैद हो जाए.

आदिवासी जीवन में हस्तक्षेप करने के लिए उसमें विस्थापन का भ्रूण इंजेक्ट कर दिया गया. ऐसे तिलिस्म की तो आदिवासी कल्पना ही नहीं कर सकता था. भूमि का आदिवासी-अर्थ उसके लिए ऐसा क्षेत्र या इलाका है, जहां सहकार और सामूहिकता के जरिए ही संपत्ति का बोध उसके सामाजिक अधिकार का अहसास बनकर उसमें समाता रहा है. सरकारी हुक्मनामे के कारण आदिवासी अपनी पुश्तैनी समझ से ही बेदखल कर दिया गया. उसे समझ नहीं आया कि जिस भूमि पर वह कभी कभार, यूं ही या अमूमन हर सम्भावित स्थिति में भी समाज के अंश के रूप में काश्त करता था, अब भूमि का फकत उतना टुकड़ा ही उसका खुद का अधिकार कहलाएगा. यह तो भूमिस्वामी को ही एक तरह से खुद की भूमि का नया मुख्तारनामा पाना सिद्ध हुआ. उस कथित स्वामित्व का सीधा रिश्ता सरकार नामक अदृश्य लेकिन हर जगह उपस्थित दमनकारी संस्था से हो गया.

मालिक बनी संस्था ने पटवारी नाम का मौके पर मौकापरस्त राजस्व अधिकारी बनाया. पटवारी के अधिकार दस्तावेजों, रजिस्टर और कई तरह के कागजातों का अंबार, भूमि के रखरखाव, बदलाव, वर्णन या परिभाषित करने के लिए चित्रगुप्त और यमराज के लेखे से कम नहीं होते. पटवारी कागजातों में ही दर्ज हो सकता था कि अमुक भूमि का मालिकी हक, कब्जा, विस्थापन, सरकारी स्वामित्व में ला दी गई भूमियों पर अतिक्रमण, जोत का अधिकार वगैरह शामिल माना जाए.

आदिवासी की खुद की ईजाद की गई अर्थव्यवस्था में कई तत्व शामिल रहे हैं. शामिल शरीक गतिविधियों में शिकार करना, कृषि के लिए खेतों या क्षेत्र में परिवर्तन या अदल बदल भी करना, कुछ चुने हुए भूखंडों में स्वेच्छा से सामाजिक समझदारी के तहत खेती करना तथा पशुओं से संबंधित हर तरह की गतिविधि का लगातार विकास करते रहना उसके अर्थशास्त्र के दिन ब दिन विकास के अलग अलग पड़ाव समझे जाते रहे हैं. गैर-खेतिहर गतिविधियों में पेड़ों का बहुत महत्वपूर्ण उपयोग, दोहन तथा निस्तार होता रहा है. राज्य द्वारा इस अर्थशास्त्र को अपने कानूनी तथा अधिनियमित तंत्र से जकड़कर एक तरह से आदिवासी अधिकारों की समझ पर ही डकैती कर दी गई.

शुरू में तो यही लगा कि राज्य का अधिकार केवल प्रतीकात्मक तौर पर कायम करने के लिए रचा गया है, फिर दृश्य पर वन विभाग के अधिकारियों का प्रवेश और हस्तक्षेप होने लगा. शांत और स्वैच्छिक चले आ रहे आदिवासी अधिकारों में कटौती कर दी गई. परम्पराओं को नये प्रयोग के सामने घुटने टेकने पर मजबूर किया जाने लगा. आदिवासियों में कसैला अहसास उगा कि उनके जीवन के मुख्य लक्षण याने सामूहिकता को ही खत्म कर दिया जाना एक नया शगल या फितूर है. उन्हें मजबूर किया गया कि वे जंगल की उपजों और माहौल का उपभोग और दोहन बहुत कम और जरूरी निजी हितों के लिए ही सरकारी नियंत्रण में रहकर कर सकेंगे.

राज्य ने उसे मुद्रा या करेंसी के आंकड़ों की अंकगणित में फंसा दिया. उससे आदिवासी जीवन के अहसास को ही एक तरह से विस्थापित कर नियंत्रित और संकुचित कर दिया. वन का उपभोग तथा प्रबंधन करने के नाम पर कड़े नियमों के जरिए आदिवास को जकड़ दिया गया. यह दबाव या हुक्म भी जारी किया गया कि आदिवासी वन उत्पादों के स्वागत और उन्हें सुविधाएं देने के लिए कानून के पाबन्द हैं. इसके एवज में उसे बतौर टोकन के तौर पर या कभी कभी तो पूूरी तौर से बेगार लेते भी अहसान से लाद दिया जाता. मानो उसका जीवन अब इन्हीं अनुभवों को महसूस करते रहने के लिए सरकार ने बंधक रख लिया है.

सरकारी नियमों और अफसरों के दमन का एक असर और हुआ. उससे त्रस्त होकर कुछ आदिवासियों को यह विकल्प बेहतर और कारगर लगा कि वे और ज्यादा घने जंगलों की ओर पीछे हटते कूच करें जिससे सरकारी षड्यंत्र और आदेशों का कोड़ा उनकी पीठ पर न पड़े. वे उस महौल से ही उखड़ते रहें, जहां वे अपना पुश्तैनी आशियाना बनाए बैठे थे. घने जंगलों में नई बसाहट बनाने की मजबूरियों में उन्हें जीवनयापन के पहले से न्यूनतर साधनों पर गुजारा करने के लिए मजबूर होना पड़ने लगा.

व्यापारिक और औद्योगिक जरूरतों के कारण कुदरती जंगल काटे जाने लगे. पूंजीवाद के इस सांप ने सरकारी कानूनों को ही अपना केचुल बनाकर उसमें प्रवेश किया. इसी कुटिलता ने तो आखिरकार अपने ही परिवेश और जीवन की चली आ रही सामूहिकता से आदिवासियों की बेदखली पूरी तौर पर सुनिश्चित कर दी. यदि वह रहना भी चाहता, तो उसे बरायनाम कुछ वेतन या मेहनताना दिया जाकर अहसास कराया जाता कि वह अपने ही इलाके की कुदरत का स्वामी रहा आने के बावजूद सरकारी व्यवस्था में बेबस बना दिया गया है. आदिवासी क्षेत्रों में (स्वाभाविक ही) जनसंख्या का घनत्व बिरला होता है. इस वजह से व्यापारिक पैटर्न पर वन संपत्ति का दोहन शुरू करने के बाद सरकारों को बाहरी मजदूरों को वहां लाने की जरूरत महसूस हुई.

बाहरी मजदूरों को कुछ बेहतर वेतन या सेवा शर्तों के लालच के साथ साथ प्रभावित आदिवासी इलाकों में अस्थायी कारणों के बावजूद भविष्य की स्थितियों के लिए भी बसाहट की तरह रखा जाने लगा. अर्धशहरी क्षेत्रों या अन्य गांवों, कस्बों से लाए गए श्रमिकों का बेहद मासूम और भोले आदिवासियों से थोपा गया सामाजिक सहकार होने से आदिवासियों को अपनी मानसिकता में कुंठा और घुटन होना स्वयमेव महसूस होने लगा. यह जबरिया हस्तक्षेप सरकारों, कानूनों, पूंजीपतियों, नौकरशाहों और चुने हुए लेकिन निहित स्वार्थों के एजेन्ट बनते, लगते आदिवासी जनप्रतिनिधियों के द्वारा भी पुष्पित, पल्ल्वित और पोशित होता रहा. वन विभाग के अधिकारी, प्रबंधक और निगम आदि के वनों के शोषक व्यापारियों के अलग अलग तरह के चेहरे और संस्करण ही रहे हैं, उन्हें पुलिसिया ताकतों से भी लैस किया जाने लगा.

अंगरेजी हुकूूमत के कठोर हुक्मनामों के खिलाफ भारत में सबसे पहले और सबसे ज्यादा मर्दानगी का विद्रोह आदिवासियों ने ही किया है. उन्हें पूरी तौर पर कुचल दिये जाने या दबाये जाने का अहसास और भरोसा अंगरेज हाकिमों को भी नहीं होता था. फिर भी शोषण की घटनाएं बदस्तूर जारी रही. वन क्षेत्रों में लोकनिर्माण के कार्याे जैसे सड़क, पुल, पुलिया, रपटा, बांध, भवन आदि बनाने में आदिवासियों को मजदूरों के रूप में तब्दील किया जाना भी जरूरी ही होता रहा. मजदूरी बतौर धन का लालच देने पर भी आदिवासी मजदूर मुनासिब संख्या में आगे नहीं आते थे. आदिवासी को इस तरह से व्यापक तौर पर नियमित आदत में ढालने नयी व्यवस्था के तहत शराब पीना नया, निजी और फिर सामाजिक अनुभव बनाया जाता रहा. शहरी सभ्यता ने उनका मनोवैज्ञानिक शोषण करते शराबखोरी के जंगल में उन्हें धकेल दिया.

आदिवासी के जीवन में ऐच्छिक मदिरापान का अपना अनोखा सांस्कृतिक इतिहास और अहसास रहा है. उन्होंने उसे कभी भी उद्योग, व्यापार या सामाजिक दुर्गण नहीं समझा। पहले ब्रिटिश और बाद में भारतीय शहरी सभ्यता की कुटिल निगाहों से उसकी यह मासूम प्रथा भी विकृत की जाने लगी। एक आत्मनिर्भर मदिरा उपभोग की पारंपरिकता को सरकार और व्यवस्था पर निर्भर मदिरापान की नई साजिश में ढाल दिया गया।

इस तरह आदिवासी समाज को धीरे-धीरे कानूनतोड़क समाज में बदलता देखा जाने लगा. मदिरापान किए बिना न तो उसकी जरूरतें, परंपराएं और तीज त्यौहार सार्थक हो सकते थे, न ही वह ऐसे छोटे अपराध किए बिना अपनी मदिरा उपभोग की यथास्थिति कायम रख सकता था. आदिवासी के जीवन में सरकारी अपराधविज्ञान ने पूरी धमक के साथ अपने दखल की दस्तक दी. मुकदमे हजारों की संख्या में पैदा किए जाने लगे, जिनका कोई औचित्य नहीं था. वे एक तरह से कैंसर की तरह भी उगाए गए.

शुरुआत में तो आदिवासी के दिमाग के उपचेतन को सरकार द्वारा ईजाद की या थोपी गई अधिकार हस्तक्षेप की कोशिश असुविधाजनक लगने के बावजूद आपत्तिजनक नहीं लगी. तब तक उसने भी जीवनयापन के लिए उपलब्ध होते रहे सभी तरह के वनउत्पादों के मिलते रहने के कारण शाल वृक्षों की कटाई को खतरे की घंटी नहीं समझा था. जंगल से आध्यात्मिक (रूहानी) तथा मनोवैज्ञानिक रोमांस आदिवासी का सदियों पुराना रोमांचकारी तर्जुबा रहा है. वह अनुभव धीरे-धीरे एक तरह की जीवन-अनुभूति में बदल चुका था. जीवन से ऐसी आंतरिक संगति उसे प्राकृतिक वन-संगीत की सिम्फनी से लबरेज रखती थी. वह आत्मतुष्ट स्वाभाविक जीवन पद्धति का आदी हो चुका था.

जंगल उसके जीवन में एक तरह का एडवेंचर, उन्माद, उत्साह और उत्फुल्लता का स्वाभाविक और बुनियादी कारक रहे है. उसका यह अहसास आज तक कायम है. सरकारी स्तर पर ठूंस दी गई व्यापारिक नस्ल की शराबखोरी आदिवास के जीवन में बहुत घातक और बदलावकारी हस्तक्षेप होती गई है. जंगलों की तबाही और ठेकेदारी के जरिए उसका व्यापारीकरण साहूकारों के साथ गलबहियां कर आदिवासी जीवन को उसे नष्ट करने के लिए कैंसर की तरह उगाई गई प्रवृत्तियां ही समझी जा सकती हैं.

नए तरह के तत्व और व्यक्ति आदिवासी जीवन में हस्तक्षेप, प्रयोग, परिवर्तन या तरक्की के नाम पर आए या भेजे गए. जनजातियों को मजबूर किया गया कि अपनी खेतिहर उपजें और कुदरती वन उपज बाजार नामक नई व्यावसायिक एजेंसी को ऐसी कीमतों पर बेचने के लिए मजबूर हों जिन्हें सरकार और बाजार ने अपने अधिकारों के जरिए खरीदने के लिए तय कर लिया है. आदिवासी तो क्या शहरी नागरिक जीवन को भी कभी समझ नहीं आ पाया कि कर्ज लेना कितना बड़ा स्थायी अभिशाप और किस तरह है. कर्ज में लिये मूल धन की ब्याज सहित अदायगी के बावजूद वह कैसा चक्रवृद्धि ब्याज है, जो कर्जदार की गर्दन पर फांसी के फंदे की तरह जल्लाद साहूकारों के हाथों में हर वक्त मचलता रहता है.

ऐसे भयानक शोषण की हालत में धीरे-धीरे अपनी कृषि और वनोपज से महरूम होता, शराबखोरी और कर्जखोरी में जकड़ा जाता आदिवासी समाज उन बुनियादी संरचनाओं तक को बेच देने के लिए लाचार कर दिया गया जो उसके जीवनयापन का ही कारण रही हैं. स्त्रियों के शील और सम्मान के प्रति चरित्रवान रहा आदिवासी समाज कथित सभ्य लोगों के कुटैव के कारण उनसे ही स्त्रियों के शील की रक्षा कर पाने में लाचार होना भी महसूस करता रहा. धीरे-धीरे उसमें यह मानसिकता तपेदिक के बीमार की तरह घर करती गई कि वह दिखने में तो आदिवासी परंपराओं से पोषित लगता अपने अतीत का वर्तमान है, लेकिन दरअसल उसे अपनी स्वायत्तता, इयत्ता, अनोखापन, पहचान और प्रकृति से लगाव को लगभग पूरी तौर पर खो देना पड़ा है.

प्रकृति आधारित जीवन में स्वायत्त आदिवासी धीरे-धीरे आर्थिक पैमानों पर गरीब होता चला गया. उसकी खेतिहर भूमियां भी उससे छीनी जाने लगी. जिन वनोत्पादों पर वह निर्भर था, वे भी उससे जबरिया खरीद लिए जाते रहे. शहरी सभ्यता का आदिवासी जीवन से पूरी तौर पर अजनबीपन, अपरिचय और अलगाव रहने से कथित आर्य नागर जीवन का प्रत्यक्ष आक्रमण वन संस्कृति पर नहीं हुआ था. अछूत या दलित वर्ग की सामाजिक संरचना और जीवन को उच्च वर्गों से दैनिक सहकार के साथ अलगाव की मनोवैज्ञानिक स्थितियों का ठहराव होते होते सदियों का समय लगा था.

जंगलों में गैरआदिवासी वर्गसमूह शासक, ठेकेदार, व्यापारी या अन्य चेहरों और चोचलों में लैस होकर पहुंचा. वह अपनी बौद्धिक श्रेष्ठता, सियासी हुनर, आर्थिक तंत्र और व्यापारिक कुटिलता के चलते प्रकृति के सभी स्त्रोतों पर कब्जा जमाता वनों में नया वर्चस्वकारी शासक वर्ग बनता गया. इस वर्ग का शहरी सभ्यता, सरकार, नौकरशाहों, आधुनिक प्रविधियों और उन सब जीवन संसाधनों से सरोकार था जो उसे लगातार समृद्ध बनाते रह सकते थे. सरकार ने तथाकथित कानूनों की रचना के माध्यम से गैरकुलशील समझे जाते अशिक्षित, निरक्षर, मासूम और सीधे साधे आदिवासियों को कानूनी व्यवस्थाओं में जकड़कर इतना लाचार कर दिया कि क्रूर, कुटिल और कथित कुलशील आक्रामकों ने बहुत तेजी से उनकी बर्बादी का दस्तूर कायम रखा.

यह सब अब तो भारत के अनुसूचित जनजाति क्षेत्रों को बेहद तकलीफ के साथ झेलना पड़ रहा है. सरकारी व्यवस्था पर निर्भर होकर उन्हें अपने स्वामित्व से वंचित होकर किराएदार या लाइसेंसधारी बनाने का अजीबोगरीब प्रयोग किया गया है. शिक्षा और आधुनिक समझ से वंचित होने के कारण आदिवासी की बहुमूल्य संपत्तियां औने पौने और बरायनाम दरों पर खरीदी जाने लगी. मसलन उसके कब्जे का एक पेड़ काटकर उसे इतने कम मूल्य पर बेचने की समझाइश का कुचक्र रचा गया, मानो वह पेड़ उसके जीवन और अस्तित्व की अतिरिक्तता रहा हो.

लकड़ी का एक टुकड़ा भी खेती के लिए हल बनाने यदि वह काट लेता, तो उसे जंगल विभाग के जंगली कानून वन उत्पाद की चोरी के आरोप में अपनी गिरफ्त में लेकर मुलजिम बनाकर उसका दमन और शोषण करते रहे. यदि वह विरोध करता तो उसे वन अधिनियम के अतिरिक्त भारतीय दंड संहिता के क्रूर कानूनों में परिभाषित कथित अपराधों के चंगुल में गिरफ्तार कर जेलों में ठूंस दिया जाने लगा. वहां से जमानत के अभाव में उसका छूटना लगभग असंभव होता रहा. फिर तो यह भी होता रहा कि निर्धारित अधिकतम सजा की अवधि के बाद भी आदिवासी का जेल से छूटना उसके अज्ञान, अशिक्षा और गरीबी के कारण उसके जीवन प्रारब्ध का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाने लगा. बहुत कम संख्या में गैरआदिवासियों के कुछ मानव अधिकार संगठनों के अपवादों को छोड़कर सभ्यता, सरकार और समाजचेता व्यक्तियों से आदिवासियों को अपेक्षित सहायता मिलने का कोई उत्साहजनक या गौरवपूर्ण इतिहास-अनुभव पढ़ने में नहीं आता.

किताबी ज्ञान की तुलना में दुनियावी और कुदरती स्त्रोतों से मिले अनुभव ज्यादा प्रामाणिक होते हैं. यही तो आदिवासी के जीवन ने साक्षर नागर समाज को लगातार अहसास कराया है. विशेषकर जनजातीय क्षेत्रों में सरकारों द्वारा जितने भी प्रोजेक्ट, परियोजनाएं और प्रयोग किए गए, उनमें पहले यह व्यापक परीक्षण नहीं किया गया कि वन जीवन की सभी बारीकियों से ऐसे नये अभियान की कितनी और कब तक सुसंगति बैठ सकती है. कई बार ऐसे कार्यक्रम परिणामधर्मी और युगांतरकारी दिखते भर रहे, लेकिन उनमें खर्च की गई धनराशि के अनुपात में उपलब्धि का आंकड़ा लचर या सिफर ही रहा है.

ऐसी भी परियोजनाएं लाई जाती रहीं जिनमें व्यय होने वाला शासकीय भार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आदिवासियों या उनके क्षेत्रों पर टैक्स लगाकर वसूल भी किया जाता रहा. आदिवासी तो क्या साक्षर व्यक्ति को भी पता नहीं होता कि वह क्यों और कैसे दस्तावेज पर अपना हस्ताक्षर या अंगूठा किन विपत्तियों को संभावित तौर पर आमंत्रित करने के लिए लगाने मजबूर है. फितरतें सरकारी योजनाओं को लगातार असफल करती ऐसे ढर्रे पर आ खड़ी करती रहीं जिन्हें सुधार पाना सरकारों के लिए अब संभव होता भी नहीं दिख रहा है, इसका फौरी नतीजा आदिवासी इलाकों में सरलता से देखने में आता है.

सरकारें हैं कि मासूम आदिवासियों की लूट के इस हुनर में अब तक लगातार जश्नजूं हैं. प्रशासनिक तंत्र में आधुनिकीकरण, मशीनीकरण और तकनालाॅजी का प्रवेश और विकास हो गया है. वह तो औसत साक्षर नागरिकों तक को भी समझ नहीं आता. उस वजह से आदिवासी इलाकों में तो कथित हितग्राहियों को अपने अधिकारों को ज्यादा तेजी से खोना पड़ रहा है. इसके साथ-साथ भारत में विधायिका महत्वपूर्ण कानून उत्पादक संस्था है. आजादी के बाद केन्द्र और राज्य के स्तर पर इतनी अधिक संख्या में नए अधिनियमों की रचना और पुराने अधिनियमों में संषोधन किया जाता रहा है कि अदालतें और वकील भी कानून की बारीकियों पर सही जगह उंगली नहीं रख पाते. इन सब बातों का खामियाजा बिना किसी गलती किए भी आदिवासियों को सबसे ज्यादा झेलना तो पड़ रहा है.

कई सरकारी अधिकारी आदिवासी क्षेत्रों में पदस्थापना से बचने के बावजूद वहां ट्रांसफर कर दिए जाते हैं. तब वे सरकार के प्रति उपजी अपनी प्रतिहिंसा का बदला आदिवासी समस्याओं के निदान करने में भुनाते रहते हैं. उनकी प्राथमिकता हर वक्त यही होती है कि जैसे भी हो उन्हें काला पानी के उस इलाके से वापस कर उनके वांछित शहरों में भेज दिया जाए. यह सोच, प्रकल्प और उद्यम यदि नीयतन ठीक भी हो तब भी अपनी प्रक्रियात्मक खोट के कारण उस छुरी की तरह है, जो आदिवास के जीवन अहसास के खरबूजे पर उसे काटने के लिए ही गिरती है.

सदियों से आदिवासियों का इत्मीनान भी रहा है कि वे शहरी सभ्यता के पूरक हैं, उसके अधीन या उससे कमतर नहीं. सदियों से नागर सभ्यता और सामंती शासन से दूर, मुक्त और निरपेक्ष रहे वन क्षेत्र प्राकृतिक संपदा से भरपूर होने के कारण सत्ता की लालच के स्वाभाविक शिकार बने. तरह-तरह के खनिज पदार्थ और वन उत्पाद उनमें सत्तामूलक महत्वाकांक्षाएं उगाते रहे कि बड़ी सिंचाई योजनाएं, विद्युत उत्पादन प्रोजेक्ट और खनिज आधारित उद्योग लगाने के लिए वन क्षेत्र मानो उनके लिए इतिहास ने सदियों से सुरक्षित रखे थे. चपल, कुटिल और विरल बुद्धि के ब्रिटिश शासकों ने ऐसी तमाम परियोजनाओं को लगाने में अपनी तरफ से देर नहीं की.

मशीनी सभ्यता का यह एक तरह से भारत के लिए अभिशाप और भविष्य के भारत के लिए वरदान भी रहा कि वह अपनी आजादी के बाद उसे प्राप्त और उपलब्ध वैज्ञानिक ज्ञान और अनुभव से किस तरह अपनी आर्थिक संरचना को चुस्तदुरुस्त करे. ब्रिटेन की औद्योगिक हविश के चलते आदिवासी इलाकों में पारंपरिक प्रशासन के लिए कोई विकल्प शेष नहीं बचा. आदिवासियों और अन्य श्रमिकों का सभ्यता के प्रतिमानों पर लगातार हाशियाकरण होता रहा. वह स्थिति स्वतंत्रता के सत्तर वर्ष बाद भी जस की तस बिना थके अट्टहास कर रही है.

जितने भी आर्थिक, औद्योगिक और अन्य योजनाएं शासकीय फाइलों में उपजती हैं, उनके किताबी ज्ञान में जमीनी हकीकत का संदर्भ काल्पनिक ज्यादा होता है. वह आदिवासी जीवन में ठहरी हुई सचाइयों से मुठभेड़ कर ही नहीं सकता. रूबरू भी नहीं होना चाहता. उसे अपनी किसी भी परियोजना के लिए आदिवासियों के सांस्कृतिक, मानवीय, तकनीकी और अनुभवसिद्ध कौशल की जरूरत या इच्छा महसूस नहीं होती. वह उन्हें केवल मजदूर, किसान या बेगार करने वाला कर्मी मानने के साथ साथ अपने प्रकल्पों को मनुष्य आधारित बनाने से परहेज करता है. इसकी भी पृष्ठभूमि में नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों के साथ काॅरपोरेटी गठजोड़ की कुटिलता होती है.

आदिवासी इलाके तो केवल संदर्भ की तरह इस्तेमाल होते हैं. वजह यह है कि उनके ही पास धरती के नीचे हर तरह के खनिज और धरती के ऊपर हर तरह के वनोत्पाद और धरती पर सबसे सस्ती दरों पर अकुशल श्रमिक उपलब्ध होते हैं. इन सरकारी योजनाओं में एक और आग्रह है. अपना फौरी मुनाफा हासिल करने के लिए नेता- नौकशाह-काॅरपोरेट गठजोड़ बहुत तेज गति से विकास करने का मुखौटा लगाए है. वह अपने आर्थिक लाभ का सपना साकार कर लेना चाहता है. ऐसा आर्थिक लाभ वह भविष्य की पीढि़यों के लिए भी नहीं छोड़ना चाहता. तेज गति होने के कारण आदिवासी वृत्ति का सहकार नहीं हो पाता इसलिए वह ऐसी परियोजनाओं में भागीदारी या सेवा करने के लिए बुलाया जाने पर भी झिझकता रहता है.

औद्योगिक, खनिज, सिंचाई और विद्युत प्रोजेक्ट आदिवासियों की छातियों पर ही अमूमन उगाए गए हैं, लेकिन ‘दिया तले अंधेरा’ जैसी कहावत को चरितार्थ करते उन प्रकल्पों का सीधा लाभ उन्हें नहीं मिल पाया. अंगेजों के बनाए बदनाम भू अर्जन अधिनियम 1984 के तहत स्वेच्छया या जबरिया अर्जित भूमि का इतना कम मुआवजा दिया जाने लगा जो आदिवासी को मजबूर करता कि वह अपने प्रभावित इलाके से बेदखल होने पर लगभग मुफलिसी की जिंदगी जीने खुद ही विकल्प ढूंढे. उसका जीवन बूर्जुआ नौकरशाही की समझ और साम्राज्यवादी उद्योगधर्मिता के चारों ओर चकरघिन्नी की तरह घूमते रहने को मानो प्रतिशोधित किया गया.

बरायनाम मिला मुआवजे का धन आदिवासी से लूट लेने के लिए शराब ठेकेदार और साहूकार की मज्ञैजूदगी शासन ने पहले ही तय और स्थापित कर रखी थी. इस तरह एक सुरचित जीवन श्रृंखला की अस्तित्वहीन नामालूम इकाइयों में तब्दीली करने की सरकारी कुसमझ बल्कि षड़यंत्र के कारण बदलते रहने को भी आदिवासी जीवन कहा जाता है. आधुनिक अर्थशास्त्र बेदखल किए जाते आदिवासियों को लगातर गरीब बना रहा है. इसके बाद भी देश के कर्णधार कथित आर्थिक सूचकांक को संपन्न होने का प्रमाणपत्र जारी कर रहे हैं. एक सुगठित समाज यदि इकाइयों में टूट रहा है, तो उससे भी तो भारतीय सामाजिक संरचना को ही नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है.

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