भारत ही नहीं दुनिया भर में आदिवासी रह रहे हैं और उन तमाम देशों की सरकारें आदिवासी समुदायों के साथ न केवल सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध ही रखती है, बल्कि उनके हिफाजत के लिए भी पूरी तरह मुस्तैद रहती है. उनके इलाकों में आने-जाने जैसे विभिन्न मामलों के लिए एक अलग तरीके से कानून भी बनाती है और उस कानून की हिफाजत भी करती है.
दुनिया में भारत एकलौता ऐसा देश है जहां भारत सरकार आदिवासियों को कीड़े मकौड़े की तरह खत्म कर देना चाहती है. इतना ही भारत सरकार के इस मंसुबे को अमलीजामा पहनाने के लिए देश का सर्वोच्च न्यायालय और पुलिसिया तंत्र पूरी मुस्तैदी से काम भी कर रहा है, जिसमें आदिवासियों के गांवों को घेरकर उजारना, जला डालना, उसे उसके जमीन से बेदखल कर भगा देना, विरोध करने पर उसके औरतों के साथ बलात्कार करना, मर्दों को थाने में पीटना, हत्या कर देना, बिजली के करंट लगाना जैसी क्रूर कार्रवाई इस देश की सरकार और उसका पुलिसिया गिरोह आये दिन कर रही है और इस क्रूर कार्रवाई को माओवादियों के साथ निपटने के नाम पर समर्थन हासिल करने की कोशिश की जाती है.
ऐसे में हमारे लिए आदिवासियों की समस्याओं को समझना सबसे प्राथमिक काम बन जाता है क्योंकि जंगलों-पहाड़ों के बीच बसे इन आदिवासियों की जानकारी से शेष देश के लोग बहुत हद तक अनजान ही रहते हैं. यही कारण है कि देश में आदिवासियों के समर्थन में बुलंद आवाज नहीं उठ पाती है. जो प्रगतिशील ताकत आवाज उठाती भी है तो उसे अर्बन नक्सल बताकर खामोश करने की घृणित कोशिश की जा रही है. ऐसे वक्त में हम यहां प्रसिद्ध इतिहासकार रामचन्द्र गुहा की पुस्तक ‘भारत गांधी के बाद’ का एक अध्याय अपने पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत कर रहे हैं. – सम्पादक
ये आदिवासी पूरी ताकत से महज अपनी हिफाजत ही नहीं करते बल्कि ये अपने दुश्मनों पर बहुत हिम्मत से वार भी करते हैं … किसी तरह का खतरा और भय उन्हें नहीं सताता.
नागाओं पर टिप्पणी करते हुए एक ब्रिटिश अधिकारी, सन् 1840
I
पूरे पचास के दशक में जब भारत सरकार कश्मीर घाटी पर अपनी पकड़ मजबूत बनाने की कोशिश कर रही थी तो इसकी प्रभुसत्ता और वैद्यता को हिमालय के दूसरे छोर पर भी चुनौती दी जा रही थी. यह नई दिल्ली की ‘नागा समस्या’ थी, जिसे कश्मीर समस्या की तुलना में दुनिया में कम लोग जानते थे, हालांकि यह उतनी ही पुरानी बल्कि उससे भी पुरानी और कठिन समस्या थी.
नागा समुदाय के लोग कई आदिवासियों के समूह थे जो भारत-बर्मा सीमा के पास हिमालय के पूर्वी इलाके में रहते थे. अपने पहाड़ी ठिकानों में सुरक्षित वे शेष भारत में चल रही सामाजिक और राजनीतिक हलचलों से कटे हुए थे. अंग्रेजों ने भी उन पर ढ़ीले-ढ़ाले तरीके से ही शासन किया था. उन्होंने मैदानी लोगों को उनके बीच नहीं जाने दिया और न ही उनके आदिवासी कानूनों और मान्यताओं से छेड़छाड़ ही की. सिर्फ वे कभी-कभार उनके विद्रोहों को दबाने के लिए उनकी धड़पकड़ करते थे या फिर अपने सैन्य अभियानों के लिए नागा समुदाय से सैनिक नियुक्त करते थे. हालांकि 10वीं सदी के मध्य से नागा इलाकों में कुछ अमेरिकी बैपटिस्ट पादरी जरूर जाने लगे थे और उन्होंने सफलतापूर्वक कई नागा समुदायों को इसाई बना लिया था.
उस समय नागा पहाड़ियां असम का हिस्सा हुआ करती थीं जहांं भारतीय मापदंड के हिसाब से भी कुछ ज्यादा ही विविधता थी. इसकी सरहदें चीन, बर्मा और पूर्वी पाकिस्तान से लगती थी और यह ऊपरी और निचले इलाके में बंटा हुआ था. यहांं सैकड़ों अलग-अलग समुदाय के लोग बसे हुए थे. मैदानी इलाकों में असमी बोलने वाले हिंदू रहते थे जो संस्कृति और धार्मिक बंधनों के द्वारा भारत की विशाल मुख्यभूमि से जुड़े हुए थे. आदिवासियों के महत्वपूर्ण समूहों में मिजो, खासी, गारों और जयंतिया प्रमुख थे, जिन्होंने उन पहाडियों का नाम अपने समुदाय के पीछे जोड़ लिया था (या पहाडियों का नाम अपने समुदाय के नाम पर रख दिया था) जहां वे रहते थे. इस इलाके में दो रजवाड़े थे जहांं उसी तरह की हिंदू और आदिवासियों की मिश्रित आबादी थी.
उत्तर-पूर्वी भारत के आदिवासियों में शायद नागा सबसे ज्यादा स्वायत्त थे. उनका क्षेत्र भारत-बर्मा सीमा पर था. हकीकत में भारत में जितनी नागाओं की आबादी थी उतनी ही सरहद पर बर्मा में भी थी. कुछ नागाओं का सम्पर्क असम के हिंदू गांंवों से था जिन्हें वे नमक के बदले चावल बेचते थे. फिर भी नागा समुदाय के लोग कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन की जद से बहुत बाहर थे. वहांं किसी तरह का सत्याग्रह या सविनय अवज्ञा आंदोलन नहीं हुआ था, बल्कि हकीकत में उजली टोपी पहने किसी गांधीवादी नेता ने इन पहाड़ियों का दौरा तक नहीं किया था. कुछ आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ भीषण लड़ाई जरूर लड़ी थी लेकिन समय के साथ दोनों ही पक्ष दूसरे को आपसी सम्मान से देखने लगे थे. एक तरह से अपना कर्तव्य मानकर अंग्रेजों ने कुछ हद तक पैतृक सहानुभूति का प्रदर्शन किया था और वे अपनी प्रजा को आधुनिक दुनिया के भ्रष्टाचार से ‘बचाकर’ रख रहे थे.
नागा प्रश्न सन् 1946 से शुरू हुआ जब भारत में ब्रिटिश राज के भाग्य का निर्धारण सत्ता के तत्कालीन केंद्रों दिल्ली और शिमला में किया जा रहा था. पूरे देश में चुनाव करवाए जा रहे थे. कैबिनेट मिशन ने भारत का दौरा किया और चला भी गया, उधर वायसराय कांग्रेस और लीग के नेताओं के साथ सम्मेलन कर रहे थे. दूसरी तरफ उप-महाद्वीप के सुदूर पूर्वी कोने में नागाओं को अपने भविष्य की चिंता सताने लगी. जनवरी 1946 में नागाओं के एक समूह से कुछ लोग ‘जो पढ़े लिखे ईसाई थे और प्रभावशाली ढ़ंग से अंग्रेजी बोलते थे’ उन्होंने नागा नेशनल कांउसिल या एनएनसी का गठन किया. यह नागा राष्ट्रवादी आंदोलन का अद्भुत बीजारोपण था जो कि मध्यवर्गीय बुद्विजीवियों द्वारा शुरू किया गया था. उन्होंने द नागा नेशन के नाम से अपनी एक पत्रिका भी निकाली, जिसकी ढ़ाई सौ प्रतियांं नागा इलाकों में बांट दी गई.[1]
एनएनसी सभी नागाओं के प्रतिनिधित्व का दावा करता था और उनके ‘आत्मनिर्णय के अधिकार’ की बात करता था. यह एक ऐसा शब्द था जिसके यहां और दूसरी जगहों पर भी कई तरह के अर्थ निकलते थे और कई बार वे अर्थ परस्पर विरोधाभासी भी होते थे. लड़ाकू परम्परा वाले और अंग्रेज समेत सभी बाहरी लोगों से युद्ध करने का इतिहास रखनेवाले अनगामी नागाओं की राय में आत्मनिर्णय का मतलब एक पूर्ण स्वतंत्र राज्य था जहांं का शासन ‘नागाओं का, नागाओं के लिए और नागाओं द्वारा चलाया जाता.’ दूसरी तरफ अनगामियों की तुलना में उदार माने जानेवाले आओ समुदाय के नागाओं की राय में अगर उनकी जमीन और उनके रीतिरिवाजों के सुरक्षा की गारंटी दी गई और उन्हें अपना कानून बनाने और लागू करने दिया गया तो वे सम्मानजनक तरीके से भारत में रह सकते थे.
एनएनसी की शुरूआती बैठकों में इन दो समूहों के बीच भारी बहस हुई जिसका विवरण नागा नेशन के पन्नों पर देखा जा सकता है. एक नौजवान अनगामी ने लिखा कि ‘नागा समुदाय के लोग एक राष्ट्र हैं, क्योंकि हम एक राष्ट्र के रूप में अपने आपको महसूस करते हैं. लेकिन अगर हम वाकई में राष्ट्र हैं तो फिर हम अपनी संप्रभुता का चुनाव क्यों नहीं करते ? हम मुक्त होना चाहते हैं, हम अपनी मर्जी की जिंदगी जीना चाहते हैं…हम नहीं चाहते कि दूसरे लोग हमारे साथ रहें.’ इसके जवाब में एक आओ डाक्टर ने लिखा कि ‘नागाओं के पास आवश्यक धन, प्रशिक्षित लोग और बुनियादी ढांचा नहीं हैं जिससे हम एक राष्ट्र हासिल करने का दावा कर सके. मौजूदा समय में मुझे लगता है कि हम नागाओं के लिए आजादी का विचार बहुत ही दूर की कौड़ी है. हम अपनी सरकार कैसे चला पाएंगें ?’ इस बीच नागाओं का उदारवादी खेमा कांग्रेस नेतृत्व के साथ वार्ता करने लगा था. जुलाई, 1946 में एनएनसी महासचिव टी. सखरी ने जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखा जिसके बाद नेहरू ने उन्हें जवाब दिया कि नागाओं को पूरी स्वायत्तता मिलेगी, लेकिन वो स्वायत्तता भारतीय संघ के दायरे में ही होगी. नेहरू ने कहा कि नागाओं को अपनी न्यायिक प्रणाली स्थापित करने की छूट होगी ‘ताकि बाहर के लोग उनके इलाके में जाकर प्रभाव स्थापित न कर पाएं और उनका शोषण कर लाभ न उठा पाएं.’ सखरी ने अब ऐलान कर दिया कि नागा समुदाय के लोग भारत के साथ अपना संबंध बरकरार रखेंगे लेकिन साथ ही उसने कहा कि ’एक विशिष्ट समुदाय के तौर पर … हमें अपनी प्रतिभा और रूचि के अनुसार भी विकास करना है. हम अपने इलाकों में अपने स्वशासन के अधिकार का उपयोग करेंगे लेकिन व्यापक मुद्दों पर हम भारत के साथ जुडे रहेंगे.'[2]
लेकिन कट्टरपंथियों की राय इसके बिल्कुल उलट थी. वे अभी भी पूर्ण आजादी की मांग पर अड़े हुए थे. इस काम में कुछ ब्रिटिश अधिकारी भी उनकी मदद कर रहे थे जिन्हें ये गवारा नहीं था कि नागा इलाके हिंदुओं के प्रभाव में आ जाए. एक ब्रिटिश अधिकारी ने सुझाव दिया कि उत्तर-पूर्व के आदिवासी इलाकों को ‘क्राउन काॅलनी’ के रूप में संगठित कर देना चाहिए जहांं सीधे लंदन से शासन चलाया जाय और उन्हें स्वतंत्र भारत के अधीन न रखा जाए.[3] दूसरे अधिकारी ने सुझाव दिया कि नागाओं को आजादी के लिए लड़ाई लड़नी चाहिए क्योंकि वैसे भी भारतीय गणराज्य बहुत जल्दी बिखर जाएगा. मार्च, 1947 में लुसाई हिल्स (पहाड़ियों) के सुपरिटेंडेंट ने लिखा कि –
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद लुसाई राजनीति की शुरूआत से ही मेरी लुसाई के लोगों को जो सलाह रही है वो ये कि शेष भारत के साथ अपने भविष्य के संबंधों को लेकर चिंता में न पड़े. इस बात की भविष्यवाणी कोई नहीं कर सकता कि भारत की स्थिति दो साल बाद कैसी रहेगी या भारत राजनीतिक रूप से एक रह पाएगा भी या नहीं. मैं अपनी छोटी बेटी को इस बात के लिए प्रोत्साहित नहीं करूंगा कि वो जिंदगी भर अविवाहित रहने की शपथ खा ले, लेकिन मैं इस बात को उससे भी बड़ा अपराध मानूंगा कि वह किसी अपरिपक्व लड़के के साथ शैशवावस्था में ही विवाह के लिए राजी हो जाए.[4]
जून 1947 में एनएनसी नेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल ने असम के गवर्नर सर अकबर हैदरी से भारत के साथ नागाओं के जुड़ने की शर्तें तय करने के संदर्भ में मुलाकात की. दोनों पक्ष इस बात पर राजी हो गए कि आदिवासियों की जमीन पर बाहरी लोगों को अधिकार करने नहीं दिया जाएगा, नागाओं की धार्मिक परम्पराओं के साथ छेड़छाड़ नहीं की जाएगी और सरकारी कर्मचारियों की बहाली में एनएनसी की बात मानी जाएगी. उसके बाद एनएनसी नेताओं का एक प्रतिनिधिमंडल दिल्ली गया जहांं वे नेहरू से मिले. नेहरू ने एक बार फिर उनसे कहा कि उन्हें स्वायत्तता दी जा सकती है लेकिन आजादी की मांग स्वीकार्य नहीं है. उन्होंने महात्मा गांधी से भी मुलाकात की जिसके बारे में तब से लेकर आजतक कई तरह की बातें कही जा रही है. गांधी ने उनसे कहा कि अगर उनकी इच्छा है तो वे अपनी आजादी की घोषणा कर सकते हैं, उन्हें भारत में शामिल होने के लिए कोई मजबूर नहीं कर सकता. अगर इसके खिलाफ नई दिल्ली की सरकार सेना भेजती है तो गांधी खुद इसका विरोध करने नागा पहाड़ियों तक जाएंगे. उन्होंने उनसे साफ तौर पर कहा कि ‘किसी भी नागा के उपर गोली चलाने से पहले मैं अपने उपर गोली चलाने को कहूंगा.[5] हालांकि गांधी की संकलित रचनाओं में (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी) छपा उनका बयान थोड़ा कम नाटकीय है. गांधीजी को ये कहते हुए उद्धृत किया गया है कि ‘निजी तौर पर मैं सोचता हूं कि आप सब मुझसे संबंधित हैं, भारत से संबंधित हैं लेकिन अगर आप ऐसा नहीं मानते हैं तो कोई आपको मजबूर नहीं कर सकता.’ महात्मा ने नागा प्रतिनिधिमंडल से ये भी कहा कि आजादी का असली प्रमाण आर्थिक आत्मनिर्भरता है. उन्हें अपने खाने-पीने की वस्तुएं और अपने कपड़ों का उत्पादन खुद ही करना चाहिए. उन्होंने कहा कि ‘आप लोग सभी तरह की हस्तकलाओं में निपुणता हासिल कीजिए. वही शांतिपूर्ण आजादी का रास्ता है. अगर आप राइफल, बंदूक और तोपों की बात करेंगे तो वह एक बेवकूफाना बात होगी.[6]
नागा आजादी के सबसे प्रबल समर्थक खोनोमाह के अनगामी थे. खोनोमाह नागा इलाके में एक गांव है जहां के लोगों ने 1879-80 के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ भारी लड़ाई लड़ी थी, जो बेनतीजा रही थी और जहां के लोगों को पूरे नागा पहाड़ियों में ‘जाना जाता था और लोग उनसे भय खाते थे.’[7] पीपल्स इंडीपेंडेस लीग के रूप में एक गुट ने अमेरिकी स्वतंत्रता सेनानियों से कुछ शब्द और उनके नारे उधार लेकर (और साभार) पूर्ण आजादी के आह्वान के साथ नागा पहाड़ियों में पर्चें बांटे थे. उन पर्चों पर लिखा था – ‘यह मेरी जीवंत भावना है और ईश्वर की कृपा से मैं मरते दम तक ये भावना पालूंगा – आजादी अभी और आजादी सदा के लिए (जाॅन एडमस), ईश्वर के अधीन यह राज्य स्वतंत्रता का नया जन्म लेगा (अब्राहम लिंकन), मुझे आजादी दो या मुझे मौत दे दो (पेट्रिक हेनरी) !’[8]
उस बीच अंग्रेजों ने हिंदुस्तान को अलविदा कह दिया और भारत की नई सरकार अपने आपको मजबूत करने में लग गई. असम के गवर्नर के सचिव ने नागाओं से कहा कि वे लोग एकतीस करोड़ के देश के खिलाफ कामयाबीपूर्वक विद्रोह करने के लिए संख्या में बहुत कम हैं. नागा नेशन में लिखते हुए उसने नागाओं की तुलना हड्डी मुंह में दबाए एक कुत्ते से की जो पानी में दूसरे कुत्ते को एक बड़ी हड्डी मुंह में दबाए देखता है और वह उस मरीचिका का पीछा करता है. आखिर में उस कुत्ते को कुछ भी हाथ नहीं लगता, उसके पास जो हड्डी होती है वो उसे भी खो देता है. उस अधिकारी ने निष्कर्ष निकालते हुए कहा कि ‘एक बिल्कुल ही नामुमकिन ‘आजादी’ रूपी एक बड़ी हड्डी को हासिल करने के लिए नागाओं को हाथ में आती हुई ‘स्वायत्तता’ नहीं खोनी चाहिए.’
लेकिन इस उदाहरण ने पढ़े-लिखे नागाओं के बीच अच्छा संदेश नहीं दिया. एक नाराज एनएनसी नेता ने टिप्पणी की, ‘हड्डी, हड्डी … तो क्या वह सोचता है कि हम कुत्ते हैं ?’ हालांकि यही चेतावनी अच्छी भाषा में चाल्स पाउसे ने भी दी जो वहां से सेवानिवृत्त होकर जा रहे डिप्टी कमिश्नर थे. पाउसे को नागा लोग काफी प्यार करते थे और उसकी इज्जत करते थे. नागा नेशन में ही लिखते हुए पाउसे ने कहा कि ‘नागाओं को भारतीय संघ के अधीन स्वायत्ता की बात मान लेनी चाहिए, उनके लिए यही उचित है क्योंकि उनके लिए आजादी का मतलब होगा कबीलाई लड़ाई, जिस वजह से तो न तो उन्हें अस्पताल की सुविधा नसीब होगी न ही स्कूलों की. वे नमक हासिल नहीं कर पाएंगे, मैदानी इलाकों के साथ कारोबार नहीं कर पाएंगे और नागा इलाकों में हर जगह दु:ख का साम्राज्य पसरा होगा.'[9]
II
इधर नागाओं का बुद्धिजीवी गर्व अपनी आजादी को परिभाषित करने में लगा था, उधर नई दिल्ली में देश की संविधान सभा की बैठक हो रही थी. बहस के मुद्दों में ये भी शामिल था कि आजाद और लोकतांत्रिक भारत में आदिवासियों की स्थिति क्या होगी. 30 जुलाई, 1947 को जयपाल सिंह ने संविधान सभा को ‘नागा पहाड़ियों में चल रही कुछ वहृत ही अप्रिय घटनाओं के होने की सूचना दी.’ जयपाल सिंह को ‘प्रतिदिन एक टेलीग्राम मिल रहा था’ और सबसे हाल में जो ‘टेलीग्राम आया था वह पहले की तुलना में ज्यादा भ्रामक था. ऐसा लगता था कि हरेक टेलीग्राम पिछले से एक कदम ज्यादा हताशा से भरा हुआ है.’ जयपाल सिंह के मुताबिक नागाओं को इस बात को मानने के लिए गुमराह किया गया है कि उनकी स्थिति रजवाड़ों के समान ही है और एक बार अगर अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाते हैं तो वे भी देशी रजवाड़ों की तरह ही अपनी संभ्रुता की घोषणा कर सकते हैं. जब नागा प्रतिनिधिमंडल नेहरू और गांधी से मिलने दिल्ली आया था तो वह जयपाल सिंह से भी मिला था. जयपाल ने उन्हें साफ-साफ इस ‘कटु तथ्य’ से अवगत करा दिया कि नागा पहाड़िया हमेशा से भारत का हिस्सा रही हैं, इसलिए उनके देश से अलग होने का कोई सवाल ही नहीं उठता.[10]
जयपाल सिंह खुद भी आदिवासी थे. वे उन लाखों-करोड़ों आदिवासियों में से एक थे जिनका घर प्रायद्वीपीय भारत के हृदय स्थली में स्थित पहाड़ी और जंगली इलाकों में पड़ता था. इन लोगों को आदिवासी (यानी मूल निवासी) के तौर पर जाना जाता था. लेकिन केन्द्रीय भारत के आदिवासी उन आदिवासियों से थोड़े अलग थे जो उत्तर-पूर्व में रहते थे। हालांकि वे भी अपने उत्तर-पूर्व के भाईयों की तरह जीवनयापन के लिए कृषि और जंगलों पर ही निर्भर थे. उन्हीं की तरह उनके बीच भी कोई जाति का बंधन नहीं था बल्कि वे कबीलाई आधार पर संगठित थे. उनके यहां भी देश के विकसित माने जाने वाले हिस्सों की तरह लैंगिक असमानता नहीं के बराबर थी लेकिन उनमें और उत्तर-पूर्व के आदिवासियों में कुछ फर्क भी था. नागा या उस इलाके के अन्य आदिवासियों के विपरीत केंद्रीय भारत के आदिवासियों का हिंदू कृषक समाज के साथ पुराना रिश्ता था. वे वस्तुओं और सेवाओं का आदान-प्रदान करते थे, कभी-कभी एक ही देवी-देवताओं को भी मानते थे और ऐतिहासिक रूप से एक ही तरह के राज्यों या रियासतों का हिस्सा रहे थे.
हालांकि ऐसा नहीं था ये संबंध विवादित नहीं हुए थे. अंग्रेजी शासन के आने के बाद आदिवासी इलाके व्यापारीकरण और बस्तियों बसाने के लिए खोल दिए गए थे. जिन जंगलों में वो रहते थे, उसका अचानक एक अच्छा-खासा बाजार मूल्य हो गया था. उसी तरह उन इलाकों से होकर बहने वाली नदियों का पानी और धरती के नीचे पाए जानेवाले खनिज मूल्यवान संसाधन बन गए थे. कुछ-कुछ इलाके अभी भी अछूते थे लेकिन लगभग सभी जगहों पर आदिवासियों को जंगल और जमीन के हक से वंचित किया जा रहा था और वे सूदखोर महाजनों के चंगुल में फंसते जा रहे थे. ‘बाहरी आदमियों’ को आदिवासियों के संसाधन को हड़पने वाले व्यक्ति के तौर पर देखा जाने लगा. उदाहरण के लिए छोटानागपुर पठार के इलाके में गैर-आदिवासियों को ‘दिकू’ कहकर पुकारे जाने लगा. यह शब्द अपने आपमें आदिवासियों के मन में बाहरी लोगों के प्रति भय और नाराजगी दोनों ही व्यक्त करता था.[11]
संविधान सभा ने आदिवासियों की इस असुरक्षा और असहायता का स्वतःस्फूर्त ढंग से संज्ञान लिया और इस बात पर कई दिनों तक बहस चली कि उनके लिए क्या किया जाना चाहिए. आखिरकार यह तय किया गया कि इस तरह के करीब 400 समुदायों को ’अनुसूचित जनजाति’ का दर्जा दिया जाए. इनकी कुल आबादी देश की आबादी की 7 फीसदी थी और इन्हें विधायिकाओं और सरकारी नौकरी में आरक्षण प्रदान किया गया. संविधान का भाग पांच केन्द्रीय भारत के आदिवासियों से संबंधित है. इसमें आदिवासियों के लिए एक आदिवासी सलाहकार परिषद, सूद पर आधारित महाजनी प्रथा पर रोक और बाहरी आदमियों के हाथों आदिवासियों की जमीन बेचने पर पाबंदी का प्रावधान किया गया है. संविधान का भाग छह उत्तर-पूर्व के आदिवासियों से संबंधित है. इसमें स्थानीय स्वायत्तता, जिला और क्षेत्रिय परिषदों का गठन, भूमि, जंगल और जल के स्रोतों पर स्थानीय लोगों का अधिकार और राज्य सरकारों को वहां के खनिज पदार्थाें सें प्राप्त राजस्व को स्थानीय परिषदों के साथ साझा करने का निर्देश दिया गया है. खनिज राजस्व की साझेदारी एक ऐसी छूट है जो भारत के दूसरे इलाकों के अन्य किसी भी समुदाय को नहीं दी गई है.
जयपाल सिंह की राय थी कि आदिवासियों के लिए इन प्रावधानों का सही लाभ तब तक उन्हें नहीं मिलेगा जब तक कि भारतीय संघ के अंदर उन्हें एक अलग राज्य न हासिल हो जाए. उन्होंने इस संभावित राज्य का नाम झारखंड रखा और उनकी भविष्यदृष्टि में इस राज्य में उनका अपना गृह क्षेत्र छोटानागपुर का पठारी इलाका और बंगाल और उड़ीसा के आदिवासी जिले शामिल थे. यह प्रस्तावित राज्य 48,000 वर्ग मील में फैला होता और इसकी आबादी 1 करोड़ 20 लाख होती.[12]
इस विचार ने छोटानागपुर के युवाओं को काफी प्रभावित किया. इस तरह मई 1947 में जमशेदपुर की आदिवासी सभा ने नेहरू, गांधी और संविधान सभा से बिहार से काटकर झारखंड राज्य बनाने की मांग की. उनके मांगपत्र में कहा गया कि ‘आदिवासी संस्कृति और भाषा को बरकरार रखने और उसके विकास के लिए हम झारखंड राज्य की मांग करते हैं. हमें रीतिरिवाजों पर आधारित अपने कानूनों की सर्वाेच्चता बहाल रखनी है, अपनी जमीन की सुरक्षा करनी है और उससे भी बड़ी बात ये कि हमें लगातार हो रहे शोषण से मुक्ति पानी है.[13]
फरवरी 1948 में जयपाल सिंह ने अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के एक सम्मेलन में अध्यक्षीय भाषण दिया जिसकी स्थापना एक दशक पहले की गई थी और जयपाल सिंह शुरू से ही इसका नेतृत्व करते आ रहे थे. उन्होंने कहा कि कैसे आजादी मिलने के बाद ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद’ की जगह ‘बिहारी साम्राज्यवाद’ ने ले ली है, जो आदिवासियों के लिए सबसे बड़ी समस्या बनकर उभरी है. उन्होंने जमीन पर धीरे-धीरे बाहरी लोगों द्वारा अधिकार किए जाने की समस्या को सबसे महत्वपूर्ण समस्या के तौर पर चिन्हित किया और जल्द से जल्द झारखंड राज्य के गठन की मांग की. लेकिन खास बात यह थी कि इसके साथ ही उन्होंने भारतीय संघ के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का भी इजहार किया और ‘महात्मा गांधी की दुखद हत्या पर शोक’ प्रकट किया. जयपाल ने स्थानीय गौरव और व्यापक भारतीय राष्ट्रवाद का इजहार करनेवाला नारा दिया – ‘जय झारखंड, जय आदिवासी, जय हिंद !’[14]
अब आदिवासी महासभा का नाम बदलकर झारखंड पार्टी कर दिया गया और कई सालों तक धीरे-धीरे प्रचार करने के बाद यह पार्टी सन् 1952 के चुनावों में कूद पड़ी. इस पार्टी का चुनाव चिन्ह लड़ता हुआ मुर्गा था और इसे चुनावों में आशातीत सफलता हासिल हुई. खुद झारखंड पार्टी को इतनी बड़ी कामयाबी की उम्मीद नहीं थी. इसे लोकसभा की तीन सीटों और विधानसभा की तैंतीस सीटों पर कामयाबी हाथ लगी. ये सारी सीटें उसे बिहार के आदिवासी इलाकों में हासिल हुई थी जहां इसने सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी को अपेक्षाकृत बहुत धक्का पहुंचाया. कम से कम चुनावों में झारखंड राज्य की मांग का उद्देश्य स्थापित हो गया था.
III
जयपाल सिंह और उनकी झारखंड पार्टी ने आदिवासियों के लिए एक बीच का रास्ता निकाला. वो रास्ता था भारतीय संघ के भीतर स्वायत्ता का, जिसमें कानून के तहत उनकी जमीन और उनके रीतिरिवाजों के सुरक्षा की गारंटी दी जानी थी और आदिवासी बहुतल इलाकों को मिलाकार एक राज्य की स्थापना की जानी थी जबकि नागा अतिवादियों ने दूसरे रास्ते का समर्थन किया. वे पूरी आजादी चाहते थे और एक अलग संप्रभु नागा देश का स्वप्न पाले हुऐ थे. नागा सामुदाय के लोगों में इस विचार का समर्थन मुख्य रूप से अनगामी नागाओं ने किया जिसमें सबसे खास था खोनोमाह गांव का एक नागा व्यक्ति जो भविष्य में उस आंदोलन का मुख्य सूत्रधार बनने वाला था. वह भारतीय इतिहास के उन महत्वपूर्ण निर्माताओं में से एक है जिसकी जीवनी अभी तक अपने लिखे जाने का इंतजार कर रही है.
उस व्यक्ति का नाम था अनगामी जापू फिजो जिसके नाम से लगभग आधी शताब्दी तक उस आंदोलन को याद किया जाता रहा. फिजो का जन्म सन् 1913 में हुआ था. वह दिखने में साफ और अच्छी कदकाठी का था. बचपन में फिजो लकवे का शिकार हो गया था, जिस वजह से उसका चेहरा डरावने रूप में टेढ़ा लगता था. उसकी पढ़ाई-लिखाई ईसाई मिशन में हुई थी और उसे कविता लिखने का भी शौक था. उसने ’नागा राष्ट्रीय गीत’ भी लिखा था. उसने अपने जीवनयापन के लिए कुछ दिनों तक बीमा कंमनी में एजेंट का भी काम किया और फिर बर्मा चला गया. जब जापानियों ने बर्मा पर हमला किया तो उस समय वह बंदरगाह पर काम करता था. फिजो जापानियों के भारत विजय के अभियान में शामिल हो गया. उसे ये आश्वासन दिया गया कि अगर वे भारत में अंग्रेजों को हरा देते हैं तो नागाओं को आजादी दे दी जाएगी.[15]
द्वितीय विश्वयुद्ध के खात्मे के बाद फिजो भारत लौटा और वह नागा नेशनल कांउसिल में शामिल हो गया. उसने बहुत जल्द ही नागाओं के लिए एक अलग देश की मांग का जुनूनी समर्थन कर नागा नेशनल कांउसिल में अपनी खास जगह बना ली. उसकी मांग अक्सर ईसाईयत के रंग में रंगी होती और उसके नारे भी उसी संदर्भ से लिए जाते. फिजो उस प्रतिनिधिमंडल का सदस्य था जो जुलाई 1947 में महात्मा गांधी से दिल्ली में मिला था. तीन साल के बाद वह एनएनसी का अध्यक्ष चुना गया और उसने नागाओं के लिए ‘पूर्ण आजादी’ की मांग की. उसने इस उद्देश्य के प्रति संदेह का भाव रखनेवाले और इससे इत्तेफाक न रखनेवाले नेताओं का दमन कर दिया जो भारत सरकार के साथ मिलकर संविधान के दायरे में कोई समाधान चाहते थे. फिजो के सामर्थन में नागा समुदाय के बहुत से नौजवान आ खड़े हुए. दिसंबर 1950 में उस इलाके का दौरा करते हुए क्वेकर (रिलीजियस सोसाइटी ऑफ फ्रेंड्स के सदस्य) होरेस अलेक्जेंडर ने दो एनएनसी सदस्यों से मुलाकात की और पाया कि ‘उनमें ‘आजादी’ शब्द को लेकर दीवानगी है और उन्हें ऐसा लगा कि भारतीय संविधान के अधीन कोई भी समाधान या धमकी उन्हें अपने मत से नहीं डिगा पाएगा.'[16]
फिजो एक बहुत ही ऊर्जावान व्यक्ति था और उसका व्यक्तित्व बहुत ही प्रेरणास्पद था. सन् 1951 में वह और उसके समर्थकों ने नागा पहाड़ियों का व्यापक दौरा किया. यह दौरा नागा आजादी का समर्थन करनेवाले एक दस्तावेज पर हस्ताक्षर और अंगूठे के निशान एकत्रित करने के लिए किया गया था. बाद में यह दावा किया गया कि उस हस्ताक्षर अभियान के दस्तावेजों के बंडल का वजन अस्सी पाउंड था और यह एक व्यापक जनमत संग्रह के समान था ‘जिसमें 99.99 प्रतिशत लोगों ने आजादी के पक्ष में हस्ताक्षर किया था.’[17]
ये आंकड़े एक अधिनायकवादी समाज से समानता की याद दिलाते हैं। उदाहरण के लिए ऐसे ही 99.99 फीसदी रूसियों ने स्टालिन को अपना सर्वाेच्च नेता का मान दिया था. हालांकि इसमें कोई शक नहीं कि फिजो और उनके असंख्य समर्थक आजादी चाहते थे.
अब तक भारत को आजादी मिले चार साल बीत चुके थे. ब्रिटिश अधिकारियों की जगह भारतीय अधिकरियों ने ले ली थी, हालांकि नागा पहाड़ियों के इलाके पर सरकार का कोई प्रभाव नहीं पड़ा था. दिल्ली का सत्ताधारी राजनीतिक वर्ग बटवारें के घाव को सहला रहा था, सरकार शरणार्थियों की समस्या से जूझ रही थी और देशी रजवाड़ों का भारतीय संघ में विलय करवाया जा रहा था. सरकार के पास इतनी फुरसत नहीं थी कि वो नागा समस्या की तरफ ध्यान दे सके. हालांकि सन् 1951 के अंतिम सप्ताह में प्रधानमंत्री ने चुनाव प्रचार के संबंध में असम के तेजपुर का दौरा जरूर किया था. वे अपनी पार्टी के लिए आम चुनाव का प्रचार करने वहां गए थे. फिजो अपने तीन साथियों के साथ उनसे मिलने आया. जब एनएनसी के अध्यक्ष ने उनसे आजादी की मांग की तो नेहरू ने इसे एक ‘बकवासपूर्ण मांग’ बताया और कहा कि यह ‘इतिहास के पहिए को मोड़ने की एक कोशिश’ है. उन्होंने कहा कि नागा ‘किसी भी अन्य भारतीय नागरिक की तरह स्वतंत्र हैं’ और भारतीय संविधान के अधीन अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिए उन्हें ‘पर्याप्त स्वायत्तता’ मिली हुई है.
उन्होंने फिजो और उसके साथियों को उनके लिए ‘और भी ज्यादा सांस्कृतिक, प्रशासनिक और वित्तीय स्वायत्तता की मांग संबंधी प्रस्ताव पेश करने के लिए आमंत्रित किया.’ उन्होंने कहा कि उनकी मांग पर सहानुभूतिपूर्वक विचार किया जाएगा और जरूरत पड़ी तो इसके लिए संविधान भी संशोधित किया जा सकता है. लेकिन साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि नागाओं के लिए आजादी की मांग का कोई प्रश्न ही नहीं है.[18]
इसके जवाब में एनएनसी ने चुनाव का बहिष्कार किया. जब देश में कांग्रेस की चुनी हुई सरकार स्थापित हो गई तो फिजो ने एक बार फिर प्रधानमंत्री से मुलाकात को वक्त मांगा. फरवरी 1952 के दूसरे सप्ताह में फिजो और उसके दो अन्य साथी दिल्ली में प्रधानमंत्री से मिले. प्रधानमंत्री ने एक बार फिर उन्हें कहा कि नागा स्वतंत्रता का कोई प्रश्न नहीं है लेकिन उनके लिए ज्यादा से ज्यादा स्वायत्तता पर विचार किया जा सकता हैं लेकिन फिजो अपनी मांग पर अडिग रहे. प्रेस कांफ्रेस में फिजो ने कहा कि ‘नागा आजादी के लिए हम अपना संघर्ष जारी रखेंगे और एक दिन आएगा जब हम (एक अलग मुल्क के रूप में) नेहरू से इस समस्या के दोस्ताना समाधान के लिए मुलाकात करेंगे.’ फिजो के मन में जिस आजाद नागा देश की कल्पना थी उसमें भारत के दो लाख नागा और उसके बाद फिजो के मुताबिक ’नो मैन्स लैंड’ (भारत और बर्मा के बीच की सीमारेखा) के दो लाख नागा और बर्मा के चार लाख नागा नागरिक भी शामिल होते.[19]
उसके बाद झारखंड के नेता जयपाल सिंह ने फिजो और उसके दोस्तों को दोपहर के भोजन पर बुलाया. एक पत्रकार जो वहां मौजूद था उसने पाया कि ‘एनएनसी का नेता (फिजो) एक छोटे कद का, मंगोलियन नस्ल सा दिखनेवाला और छरहरे बदन का इंसान था. वह चश्मा लगाए हुए था जिसके पीछे से उसके लक्ष्य केंद्रित आंखों की आग झ्रलक रही थी.’ उस पत्रकार ने जयपाल सिंह को ये भी कहते हुए सुना कि ‘यद्यपि वे नागा उद्देश्यों का समर्थन करते हैं लेकिन वे भारत को विखंडित करने वाले किसी भी प्रयास का विरोध करते हैं जिसमें पाकिस्तान जैसे एक और मुल्क का जन्म हो.’ जयपाल ने फिजो को ये भी सलाह दी कि वे एक आजाद देश की मांग छोड़कर उत्तर-पूर्व में झारखंड की तरह आदिवासियों के लिए एक अलग राज्य की मांग करें जिसके लिए वह खुद संघर्ष कर रहे थे. इसके जवाब में फिजो ने कह कि ’नागा समुदाय के लोग मंगोल नस्ल के हैं और उनका भारत के लोगों से कोई नस्लीय संबंध नहीं है.’ फिजो ने कहा कि वह भारत और बर्मा के नागाओं को संगठित कर उनके लिए एक अलग देश बनाने की उम्मीद कर रहा है. लेकिन उस जगह पर मौजूद पत्रकार ने जैसा विश्लेषण किया उसके मुताबिक ‘दिल्ली के सरकारी दृष्टिकोण से ऐसा देश बिल्कुल नामुमकिन था, क्योंकि कई देशों के बीच रणनीतिक महत्व वाला वह दुरूह पहाड़ी इलाका था और नागाओं की आजादी को स्वीकार करना एक खतरनाक फैसला हो सकता था.[20]
IV
अक्टूबर, 1952 में प्रधानमंत्री ने नाॅर्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफा) का दौरा किया और वहां सप्ताह भर रहे. नेहरू को प्रायद्वीपीय भारत के आदिवासियों के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी थी जिनके परंपराओं और जीवन के प्रति दृष्टिकोण की उन्होंने प्रशंसा की थी. उसी साल जून में नई दिल्ली में सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक कांफ्रेस को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने उन लोगों की आलोचना की जो आदिवासियों को अपने से ‘दोयम दर्जा प्रदान करना चाहते थे.’ नेहरू की राय में ‘सभ्य जगत को आदिवासियों से काफी कुछ सीखने की जरूरत है जो काफी अनुशासनप्रिय हैं और भारत के बहुत सारे लोगों की तुलना में लोकतांत्रिक हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि वे ऐसे लोग हैं जो गीत गाते हैं, नृत्य करते हैं और जिंदगी का आनंद उठाते हैं. वे वैसे लोग नहीं है जो शेयर बाजार में बैठकर एक दूसरे पर चिल्लाते हैं और सोचते हैं कि वे सभ्य हैं.’[21]
नेहरू की उत्तर-पूर्व की पहली विस्तृत यात्रा ने उनके आदिवासियों के प्रति प्रशंसा भाव को मजबूत ही किया. उन्होंने सरकार में शामिल अपने एक मित्र को लिखा कि उनकी यात्रा ‘मन को काफी प्रफुल्ल कर देने’ वाली रही है. उन्होेंने इच्छा जाहिर की कि ‘भारत के दूसरे इलाके की जनता को इन इलाकों के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानना चाहिए. हमें इस मेल-जोल से काफी फायदा होगा.’ उन कथित आदिवासी लोगों द्वारा बनाई गई कलाकृतियों को देखकर नेहरू ताज्जुब में पड़ गए. ये कलाकृतियां उनके जीवन में ‘बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखनेवाले हथकरघों द्वारा बुनकर बनाई गई थीं.’ हालांकि इसका खतरा बरकरार था कि मैदानी इलाकों में स्थापित कारखानों द्वारा निर्मित बहुत ही सस्ते सामानों से उनको कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता. नेहरू इस ‘मजबूत विचार के साथ दिल्ली लौटे कि हमें इन आदिवासियों के हित में सही कदम उठाने चाहिए.’[22]
प्रधानमंत्री ने अपने दौरे के बारे में एक लंबी रिपोर्ट लिखी जिसे उन्होंने सभी मुख्यमंत्रियों को भेजा. उन्होंने लिखा कि ‘आदिवासी लोगों को … असमियों के साथ मिला देने के लिए एक आंदोलन चल रहा है, जबकि मेरी राय यह है कि उनकी संस्कृति को बचाकर रखा जाना चाहिए.’ नेहरू की राय में ‘हमें आदिवासियों को यह यकीन दिलाना होगा कि उन्हें अपनी जिंदगी जीने और अपनी इच्छा और प्रतिभा के हिसाब से तरक्की करने का पूरा अधिकार है. उनके लिए भारत की भूमिका सिर्फ संरक्षणकारी शक्ति की ही नहीं, बल्कि तारणहार की भी होगी.’
नागा जिलों के पड़ोस में पड़नेवाले इलाके नेफा में भी काफी संख्या में नागा समुदाय के लोग रहते थे. हालांकि नेहरू ने एक स्वतंत्र नागा देश की मांग को ‘बकवासपूर्ण’ बताते हुए खारिज कर दिया था लेकिन उनकी राय में ‘नागा इलाकों की स्थिति इतनी नहीं बिगड़ती अगर स्थानीय अधिकारियों द्वारा इसे ढंग से संभाल लिया गया होता और कुछ कुख्यात हो चुके अधिकारियों को वहां से हटा दिया जाता. इसके अलावा उनके रीतिरिवाजों और परंपराओं से छेड़खानी करने की जरा सी भी कोशिश नागाओं को भड़का सकती थी और समस्या को बढ़ा सकती थी.’[23]
एक तरफ नेहरू अधिकारियों से नागा मामले में सहानुभूतिपूर्वक विचार करने की अपील कर रहे थे तो दूसरी तरफ एनएनसी उन्हें चेतावनी दे रही थी. इस चेतावनी को 24 अक्टूबर को दिल्ली भेजे एक पत्र में व्यक्त किया गया जिस समय प्रधानमंत्री नेफा के इलाके में थे. इस पत्र में फिजो और उसके लोगों ने जोर देकर कहा कि ‘भारतीयों और नागाओं के बीच कुछ भी एक जैसा नहीं है … जिस घड़ी हम किसी हिंदुस्तानी को देखते हैं हमारे दिलोदिमाग में एक निराशापूर्ण अंधेरा छा जाता है.’[24]
उसके छह महीने बाद बर्मा के प्रधानमंत्री यू नू के साथ नेहरू ने नागा राजधानी कोहिमा का दौरा किया. जब एक नागा प्रतिनिधिमंडल ने नेहरू से मिलने की इच्छा जाहिर की तो स्थानीय अधिकारियों ने साफ मना कर दिया. ये खबर कानों कान पूरे नागा इलाके में फैल गई. प्रधानमंत्री और उनके बर्मी अतिथि जब अपने सम्मान में आयोजित की गई एक जनसभा को संबोधित करने गए तो उन्होंने देखा कि सारे लोग एक-एक करके वहां से जा रहे हैं. एक विवरण के मुताबिक नागाओं ने जाते वक्त अपने शरीर के निचले हिस्से को नंगा कर लिया था. एक दूसरे विवरण के मुताबिक नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी की आवाज माइक्रोफोन से सुनाई दी – ‘पापा वे जा रहे हैं.’ इसके जवाब में नेहरू ने बड़े ही थके हुए स्वर में कहा – हां, बेटी मैं देख रहा हूंं.[25]
बाद में ऐसा कहा गया कि नागाओं द्वारा कोहिमा में उनकी जनसभा का बहिष्कार किए जाने की घटना ने नेहरू के रूख को कड़ा कर दिया. सच्चाई तो यह थी कि फिजो और उनके लोग किसी भी कीमत पर आजादी चाहते थे. वे पहले से ही हथियार जमा कर रहे थे और गांवों में ‘गृहरक्षक दस्ते’ का गठन कर रहे थे. दूसरी तरफ सरकार अर्द्धसैनिक बल असम राइफल्स की टुकड़ियां नागा जिलों की तरफ रवाना कर रही थी.
सन् 1953 की गर्मियों तक एनएनसी के शिखर नेता भूमिगत हो चुके थे. उनकी खोज में पुलिस ने अनगामियों के मजबूत गढ़ माने जाने वाले इलाकों में तलाशी ली, जिससे गांववाले भारत से और भी अलग-थलग होते गए. स्थानीय जानकारी और स्थानीय भाषा ज्ञान के अलावा विद्रोहियों को एक और भी बढ़त हासिल थी. ये बढ़त थी नागा इलाकों की दुरूह भौगोलिक बनावट. वैसे यह बहुत ही खूबसूरत इलाका था. एक ब्रिटिश यात्री ने इसका वर्णन करते हुए लिखा कि ‘यहां जो भी मैंने देखा है वह दृश्य बड़ा ही मनोरम है. यहां घने जंगलों से अटी पड़ी पर्वत श्रृंखलाएं हैं और जैसे-जैसे हम ऊपर की तरफ चढ़ते जाते हैं, वह परिवर्तित होता जाता है. धुंध से निकलती हुई पहाड़ी चोटियां ऐसी दिखती हैं मानो समंदर में कोई द्वीप हो.'[26] लेकिन यह इलाका छापामार लड़ाईयों के लिए भी काफी उपयुक्त था. जापानी अभियान के एक वरिष्ठ अधिकारी ने लिखा कि ‘यह ऐसा इलाका है कि अगर कायदे से तैयारी की जाए तो एक प्लाटून पूरी एक डिविजन को रोक सकती है और एक कंपनी पूरे आर्मी क्राॅप्स को रोक सकती है.’[27]
यह एक ऐसी लड़ाई थी जो दुनिया की निगाहों से बिल्कुल ओझल थी. किसी भी बाहरी व्यक्ति या पत्रकार को नागा जिलों में जाने की इजाजत नहीं थी. उस दौरान हुई घटनाओं को अपनी कल्पनाओं के सहारे लिखना बिल्कुल ही कठिन काम है. वहां बाद में गए संवाददाताओं और विद्वानों के विवरणों पर ही भरोसा किया जा सकता है. इन विवरणों से ऐसा लगता है कि सन् 1954 के बाद हालात बद से बदतर होते गए. उस साल के वसंत में कोहिमा शहर में मोटरसाइकिल पर सवार एक सेना अधिकारी ने सड़क पर चलनेवाले किसी आदमी को ठोकर मार दी. इसके विरोध में वहां स्थानीय लोगों की भारी भीड़ जमा हो गई। पुलिस ने विचलित होकर भीड़ पर गोली चला दी जिसमेें एक प्रतिष्ठित न्यायाधीश और एक एनएनसी नेता की मौत हो गई.
उस घटना ने नागाओं को बुरी तरह नाराज कर दिया. इस घटना ने ‘अवांछित भारतीयों’ के प्रति ‘उनके गुस्से को और भी भड़का दिया’ और विद्रोह पूरे नागा इलाके में फैल गया. एनएनसी पर कट्टरपंथियों का कब्जा हो गया और आवेदनों और प्रदर्शनों को त्याग दिया गया. हथियारबंद विद्रोह की तैयारी की जाने लगी. विद्रोहियों ने एक सुरक्षित इलाके तुएंगसांग में हथियारों को जमा करना शुरू कर दिया. जुन 1954 में असम राइफल्स ने कथित रूप से नागा विद्रोहियों के प्रति सहानुभूति रखनेवाले एक गांव पर हमला किया. सितंबर में कुछ विद्रोहियों ने ‘नागालैंड की एक संघीय सरकार’ के गठन का ऐलान किया.
अब तक हत्या और प्रतिहत्याओं के दौर नियमित अंतराल पर शुरू हो चुका था. जो गांव सरकार के समर्थन में थे उन पर विद्रोहियों का हमला होने लगा और जो गांव विद्रोहियों से सहानुभूति रखते थे उन पर सरकार का हमला होने लगा. वहां पहले से ही असम राइफल्स की 35 बटालियन तैनात थीं, अब सेना के एक डिविजन को भी बुला लिया गया. मार्च 1955 में तुएनसांग में एक भयंकर लड़ाई हुई. जब गोलीबारी खत्म हुई और धुएं का गुबार थमा तो साठ घर और अनाज रखने के कई भंडार राख हो चुके थे.[28]
उस गृहयुद्ध के बावजूद आपसी संवाद के कई माध्यम फिर भी खुले हुए थे. सितंबर 1955 में खुद फिजो अपने साथियों के साथ असम के मुख्यमंत्री से मिलने गया. उस मुलाकात का कोई भी विवरण उपलब्ध नहीं है. वार्ता खत्म होने के बाद नागा नेता वापस जंगलों में चल गए. हालांकि उनके एक सहयोगी टी. सखरी ने विचार व्यक्त किया कि नागा कभी भी भारतीय सेना को हराने की उम्मीद नहीं कर सकते. अपनी बात को कायदे से स्थापित करके नागा छापामारों को हथियार डाल देना चाहिए और नई दिल्ली की सरकार के साथ एक सम्मानजनक समझौता करने के लिए राजी हो जाना चाहिए.
जबकि दूसरी तरफ फिजो ने कहा कि हम एक ऐसी लड़ाई लड़ते रहेंगे जिसमें ‘अस्थायी युद्ध विराम, पीछे हटना और समझौते की कोई जगह नहीं होगी.’ यह सलाह कि उसे समझौता कर लेना चाहिए फिजो को काफी नागवार गुजरी. ऐसा महज इसलिए नहीं कि सखरी उसी की तरह खोनोमाह का अनगामी था, बल्कि इसलिए भी कि वह उसी के कबीले से ताल्लुक रखता था. ‘एक ऐसे समय में जब नागा विद्रोहियों के पाले में 15,000 हथियारबंद नौजवानों को अब तक का सबसे बड़ा छापामार दस्ता तैयार खड़ा था, सखरी की सलाह से फिजो काफी नाराज हुआ.’ लेकिन सखरी इस बात के प्रति आश्वस्त था कि वे कितने भी शक्तिशाली क्यों न हो जाएं, वे शक्तिशाली भारतीय राष्ट्र की विराट ताकत से पार नहीं पा सकते. उसने नागा गांवों का दौरा करना शुरू किया और गांव वालों को बताने लगा कि फिजो की अतिवादिता से हिंसा फैलेगी और इसके जवाब में प्रतिंहिंसा का दौर शुरू हो जाएगा.[29]
जनवरी 1956 में टी. सखरी को बिस्तर से खींचकर जंगल ले जाया गया जहां उन्हें काफी यातना दी गई और फिर उसकी हत्या कर दी गई. ऐसा माना गया कि फिजो ने उसकी हत्या के आदेश दिए थे, हालांकि उसने इससे साफ तौर पर इनकार किया. खैर जो हो, यह संदेश पूरे नागा इलाके में चला गया कि नागा उद्देश्य से दगाबाजी करनेवालों का क्या हश्र होगा. मार्च में विद्रोहियों द्वारा गठित नागालैंड की फेडरल गवर्नमेंट की तरफ से एक ताजा घोषणा की गई. नागालैंड के लिए एक राष्ट्रीय झंडे का निर्माण किया गया और नागा होमलैंड के विभिन्न इलाकों के लिए कमांडरों के नियुक्ति की घोषणा की गई. उसके बाद जुलाई में एक ऐसी घटना घटी जिसने भारत की छवि को उसी तरह धक्का पहुंचाया जिस तरह सखरी की हत्या ने नागा विद्रोहियों की छवि को पहुंचाया था.
विद्रोहियों के साथ झड़प के बाद सैनिकों का एक दस्ता कोहिमा लौट रहा था. शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था और किसी को भी सड़क पर निकलने की इजाजत नहीं थी. एक बुजुर्ग आदमी को सड़क पर देख सैनिकों ने उसे सड़क से हट जाने को कहा. जब उस आदमी ने विरोध किया तो जवानों ने उसे राइफल के कुंदों से बुरी तह पीटा और आखिरकार उसे पहाड़ी से नीचें फेंक दिया.
वह बुजुर्ग एक डाॅक्टर था जिसका नाम टी. हरालू था. वह नागा पहाड़ियों में एलोपैथी की चिकित्सा करनेवाला पहला डाॅक्टर था और वह कोहिमा और आसपास के इलाकों में काफी मशहूर और सम्मानित था. विद्रोहियों द्वारा सखरी की हत्या से जो भारत को प्रचार का फायदा मिला था वह डाॅक्टर की हत्या से खत्म हो गया. क्योंकि जिस तरह ‘विद्रोहियों द्वारा सखरी की हत्या ने उनके संगठन में फूट को बढ़ावा दिया था, उसी तरह डाॅक्टर हारालू की हत्या ने सबकुछ उल्टा कर दिया.’[30]
इस बीच नागा पहाड़ियों में सेना की मौजूदगी बढ़ती गई. नागा हिल्स फोर्स के नाम से एक नई सैनिक टुकड़ी का गठन किया गया जिसमें पहाड़ियों पर युद्ध करने में दक्ष सैनिकों का एक रेजीमेंट, 17 बटालियन इंफैट्री के जवान और असम राइफल्स के पचास प्लाटून शामिल किए गए. विद्रोहियों का भी अपना एक सैनिक ढ़ांचा था जो एक कमांडर-इन-चीफ (यह ओहदा एक काबिल रणनीतिकार कैटो संभाल रहा था) के अधीन काम करता था. उनके नीचे चार कमांडर थे और उनके सैनिक बटालियनों और कंपनियों में बंटे हुए थे. नागा विद्रोहियों के पास ब्रिटिश और जापानी राइफलें थी. उनके पास स्टेनगन, मशीनगन और द्वितीय विश्वयुद्ध के जमाने के छोड़े गए विशाल हथियारों के भंडार थे. इसके अलावा वे स्थानीय रूप से निर्मित कट्टे और हाथ से लड़ने के लिए पारंपरिक नागा तलवार दाव का प्रयोग भी करते थे.
नागाओं की इस नियमित सेना को सहायता देने के लिए बहुत ही प्रभावशाली अनियमित दस्ते भी मौजूद थे जो ‘स्वंयसेवक दल’, ‘कूरियर पार्टी’ और ‘महिला स्वयंसेवक संगठन’ में बंटे हुए थे. सबसे आखिरी संगठन में नर्सें थीं, जो मौका पड़ने पर बेहतरीन ढ़ंग से लड़ भी सकती थीं. इसके अलावा नागा विद्रोहियों को आम गांववालों का भी मौन समर्थन हासिल था. आतंकवाद विरोधी अभियान में भारतीय सेना ने बिखरे हुए इन गांवों को एक जगह लाकर स्थापित कर दिया जिसे ‘समूह गांव’ का नाम दिया गया. लोगों को रात में यहां सोना पड़ता था और सुबह वे खेतों में अपने काम पर जा सकते थे. सेना की यह रणनीति नागाओं के बीच अलोकप्रिय ही साबित हुई जो किसानों और विद्रोहियों के बीच सूचना के परवाह को तोड़ना चाहती थी.[31]
सन् 1956 के मध्य तक नागा पहाड़ियों में एक पूर्ण युद्ध शुरू हो चुका था. जुलाई के अंतिम सप्ताह में गृहमंत्री गोविंदवल्लभ पंत ने संसद में स्वीकार किया कि इन लड़ाइ्रयों में भारतीय सेना ने अपने 68 जवान खोए हैं जबकि 370 ‘विद्रोहियों’ को मार गिराया गया है. पंत ने फिजो पर सखरी की हत्या का आरोप लगाया और कहा कि सखरी ‘संवेदनशील और राष्ट्रभक्त समूहों का नेता’ था जबकि फिजो ‘नागा समुदाय को विनाश की तरफ’ ले जा रहे हैं. पंत ने कहा कि नागा आजादी की बात ‘महज एक खोखली’ बात है. उन्होंने उम्मीद जाहिर की कि ‘नागा समुदाय के लोग समझदारी से कम लेंगे और वे इस बात को महसूस करेंगे कि हम सब भारत से ताल्लुक रखते हैं.’[32]
भारतीय और अंतराष्ट्रीय प्रेस इस संघर्ष के बारे में नहीं लिख रहा था, न ही उनको वहां जाने की इजाजत ही थी लेकिन हम वहां चल रही घटनाओं की एक झलक एक नागा डाॅक्टर की चिट्ठी से प्राप्त कर सकते हैं जो उसने नागा पहाड़ियों के अंतिम ब्रिटिश डिप्टी कमिश्नर चाल्स पाउसे को लिखी थी. जून 1956 में लिखी गई वह चिट्ठी बताती है कि ‘नागा इलाकों के अंदरूनी हिस्से में एक दौरे के दौरान हमने हरेक रात नागा गांवों को आग में धू-धू कर जलते देखा. ये आग या तो सेना द्वारा लगाई गई थी या फिर नागा विद्रोहियों द्वारा, हालांकि इसके बारे में कोई नहीं जानता.’ नागा विद्रोहियों के नेता फिजो के बारे में इस पत्र में कुछ इस तरह की राय व्यक्त की गई है –
‘फिजो किसी भी नागा सरकारी अधिकारी के प्रति बहुत क्रूर होते जा रहे हैं. जब भी कभी कोई नागा अधिकारी उनकी पकड़ में आता है तो उसकी बुरी गत होती है. इससे भी ज्यादा खराब हालत उसकी होती है जो पहले कभी फिजो की परिषद में था लेकिन अब उनके अतिवादी रवैयों की वजह से संगठन छोड़ दिया है. बहुत सारे कबीलों के सरदार गायब हो गए हैं और कोई नहीं जानता कि वे कहां हैं या फिजो के लोगों ने उन्हें पकड़ लिया है. वाकई उनकी स्थिति बहुत ही खराब है, अगर वे सरकार के पास जाते हैं तो फिजो उन्हें पकड़ लेता है और अगर वे नहीं जाते हैं तो सरकार उन्हें पकड़ लेती है.’
दो महीनों के बाद उस नागा डाॅक्टर ने पाउसे को लिखा कि –
जिस तरह से मैं हालात को देख रहा हूंं 0.5 फीसदी लोग फिजो के साथ हैं. एक फीसदी लोग थोड़े ज्यादा उदार हैं. वे असम से अलग होकर दिल्ली की सरकार के अधीन आना चाहते हैं. शेष 98.5 फीसदी लोग चाहते हैं कि उन्हें अकेले छोड़ दिया जाए …. ये सही है कि जिस तरह से सेना ने यहां लोगों के साथ सलूक किया है और कर रही है … अब इस बात की बिल्कुल भी उम्मीद नहीं है कि नागाओं और सरकार के बीच किसी तरह का स्वैच्छिक सहयोग विकसित हो पाए.
उसने आगे लिखा कि सेना का नागा लोगों के साथ व्यवहार ऐसा है कि आनेवाले ‘पचास-सौ सालों तक नागा समुदाय और भारत सरकार के संबंध प्रभावित होते रहेंगे.’[33]
अगस्त 1956 में लोकसभा में नागा पहाड़ियों में चल रही उथल-पुथल पर एक लंबी बहस हुई. मणिपुर से आनेवाले एक मेइती सदस्य ने कहा कि हाल में उस इलाके से दौरा करने के दरम्यान किस तरह उसकी गाड़ियों के काफिले पर नागा विद्रोहियों ने हमला किया. अपने अनुभवों के आधार पर उसने कहा कि ‘ऐसा लगता है कि उन्हें हमारे जैसी जीवनशैली और चिंतनशैली में लाना बहुत ही कठिन है. खासकर, फिजो को समझाना असंभव जैसा है.’ उस सदस्य ने इस बात पर सहमति जाहिर की कि ‘नागाओं को आजादी नहीं मिलनी चाहिए’ लेकिन उन्हें तत्काल भारतीय संघ के अंदर एक अलग राज्य जरूर दे देना चाहिए.
इस बहस में हिस्सा लेनेवाले दूसरे सदस्य थे समाजवादी सांसद रिसांग किसींग जिन्होंने सेना द्वारा गांवों में आग लगा दिए जाने और बेकसूर लोगों की हत्या किए जाने की कटू आलोचना की (किसींग खुद मणिपुर के एक थांगकुल नागा समुदाय से ताल्लुक रखते थे). किसींग ने कहा कि ‘सेना ने स्थानीय भावनाओं के खिलाफ बहुत ही असम्मान का प्रदर्शन किया है. उसने मरे हुए नागाओं के शव को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित कर लोगों को भयभीत करने का काम किया है.’ किसींग ने कहा कि जब फिजो ने सन् 1951 और 52 में नेहरू से मुलाकात की थी तो ‘इस समस्या से संबंधित पक्ष एक दूसरे के मन को समझने में नाकाम रहे थे और उसके तुरंत बाद माहौल विषाक्त होता चला गया और संयम खत्म होता गया.’ उन्होंने आगे कहा कि ‘काश, प्रधानमंत्री ने उसी प्रकार के संयम और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण का परिचय दिया होता जिसके लिए वे अंतर्राष्ट्रीय कूटनय में मशहूर माने जाते हैं.’ उन्होंने कहा कि ‘जबसे दोनों पक्षों द्वारा क्रूर तौर-तरीकों का अपनाया जाना शुरू हुआ है तबसे बेदाग रिकाॅर्ड का दावा कौन कर सकता है ? पहला पत्थर वही फेंक सकता है जिसने कभी भी पाप न किया हो. मैं ये सवाल नागा विद्रोहियों और सरकार दोनों ही से पूछता हूंं.’ किसींग ने ‘नागा विद्रोहियों की आम माफी’, सांसदों के एक सर्वदलीय प्रतिननिधिमंडल को उस इलाके में भेजे जाने और सरकार और एनएनसी के बीच वार्ता की अपील की. उन्होंने फिजो के लोगों से भी अपील की कि वे समझौते के लिए राजी हो जाएं ‘क्योंकि दोनों पक्षों के बीच लगातार जारी शत्रुता का मतलब बेकसूर लोगों की बर्बादी ही होगी.’
प्रधानमंत्री ने अपने जवाब में स्वीकार किया कि कुछ लोगों की हत्याएं हुई हैं जिसमें से एक डाॅक्टरा हारालू भी शामिल हैं. उन्होंने कहा कि डाॅक्टर हारालू की हत्या ने हमें बहुत विचलित किया है लेकिन साथ ही उन्होंने दावा किया ‘अब तक आगजनी की जो भी घटनाएं हुई हैं वो ज्यादातर नागा विद्रोहियों द्वारा की गई हैं.’ उन्होंने तर्क दिया कि सरकार नागाओं के साथ सहयोग चाह रही है और उन्होंने पहले भी कई बार फिजो से कहा है कि नई दिल्ली की सरकार हमेशा संविधान के भाग-6 में किए जा सकने वाले सुधारों के संबंध में सुझावों का स्वागत करेगी जो उनकी जमीन और संसाधनों के बेहतर प्रबंधन से संबंधित है. हालांकि प्रधानमंत्री ने कहा कि अभी उचित वक्त नहीं है कि नागा पहाड़ियों में सांसदों का एक दल भेजा जाए. साथ ही उन्होंने जोर देकर कहा कि ‘नागा आजादी के बारे में मुझसे बात करने का कोई मतलब नहीं है … क्योंकि चीन, बर्मा और भारत के बीच उस छोटे से कोने को जिसका एक हिस्सा बर्मा में है, मैं आजाद ही मानता हूं.’[34]
दिसंबर 1956 में लंदन में भारतीय उच्चायोग द्वारा जारी एक रिपोर्ट में नागा पहाड़ियों में जारी सैन्य अभियान की ‘कामयाबी’ के बारे में बताया गया. इस रिपोर्ट में दावा किया गया कि सेना ने विद्रोहियों के प्रतिरोध की कमर तोड़ दी है और अब उस ‘अभियान को खत्म करने की प्रक्रिया में है.’ लगता है कि उस खबर को वहां के अखबारों ने हूबहू छाप दिया. कुछ सप्ताह के बाद मैनचेस्टर गार्जियन ने एक खबर प्रकाशित की जिसकी सुर्खी थी – ‘नागा विद्रोह लगभग समाप्त.’ इस खबर में कहा गया कि भारत सरकार ‘नागा उदारवादियों के साथ कुछ समझौता करनेवाली है और नागा विद्रोहियों में धीरे-धीरे आपस में ही असंतोष पनप आए हैं.’ हालांकि इस स्वतंत्र स्वीकारोक्ति का कोई लक्षण सामने नहीं आ रहा था और किसी नए सवेरे की आहट सुनाई नहीं दे रही थी.[35]
V
पचास के पूरे दशक में आदिवासियों द्वारा, एक राज्य की मांग को लेकर, चलाए जाने वाला झारखंड आंदोलन चलता रहा. जब सन् 1955 में राज्य पुनर्गठन आयोग ने उस इलाके का दौरा किया तो उन्हें हरेक जगह उन आंदोलनकारियों से मिलना पड़ा जो मांग कर रहे थे – झारखंड अलग प्रांत. जैसा कि उस आंदोलन में हिस्सा लेनेवाले एक व्यक्ति ने याद किया कि ‘झारखंड की मांग हरेक आदिवासी के चेहरे पर लिखी हुई थी.’[36]
उधर पूरे मणिपुर में एक मांग जोर पकड़ रही थी कि इस पूर्व रजवाड़े को भारतीय संघ के अंदर एक पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाए. इससे पहले साल 1949 में एक लोकप्रिय जनांदोलन ने वहां के महाराजा को सार्वभौम वयस्क मताधिकार के आधार पर एक विधानसभा के गठन को मजबूर किया था. लेकिन जब मणिपुर का भारत में विलय हो गया तो उस विधानसभा को भंग कर दिया गया. अब इस इलाके को ‘भाग सी’ राज्यों के समूह में शामिल कर लिया गया, जिसका मतलब था कि इसमें शासन के लिए कोई भी चुनी हुई संस्था नहीं होगी और उस इलाके का शासन मुख्य आयुक्त द्वारा चलाया जाएगा जो सीधे दिल्ली के प्रति जिम्मेदार होगा.
मणिपुर 8,600 वर्गमील में फैला हुआ था. उसमें महज 700 वर्गमील घाटी का इलाका था जहां मेइती समुदाय के 3,80,000 लोग बसे हुए थे. मेइती हिंदू धर्म के वैष्णव सम्प्रदाय से ताल्लुक रखते थे. उसके बाद शेष विशाल पहाड़ी इलाका 1,80,000 नागा और कूकी आदिवासियों द्वारा बसा हुआ था. इन्हीं आदिवासियों में से एक रिसांग किसींग भी था जिसका जिक्र पहले किया गया है. किसींग ने सन् 1954 में मणिपुर में एक प्रतिनिधि सरकार के गठन के लिए आंदोलन की शुरूआत की. किसींग और उसके साथी समाजवादियों ने इम्फाल में प्रतिदिन मुख्य आयुक्त के कार्यालय के सामने धरना देना शुरू किया. हजारों सत्याग्रहियों ने गिरफ्तारियां दीं जिसमें ज्यादातर महिलाएं थी. लेकिन सरकार उनकी मांग मांगने को राजी नहीं हुई. संसद में बोलते हुए गृहमंत्री ने कहा कि ‘भाग सी राज्यों में अलग विधानसभा के गठन का उचित वक्त अभी नहीं आया है. उन्होंने कहा कि ये राज्य देश की सीमा पर रणनीतिक महत्व के इलाके में हैं. वहां के लोग अभी भी राजनीतिक चेतना की दृष्टि से अपेक्षाकृत पिछड़े हुए हैं और इन राज्यों की प्रशासनिक मशीनरी अभी भी कमजोर है.’[37]
हमें इस बात की जानकारी नहीं है कि नागा नेशनल काउंसिल ने अलग राज्य के गठन के लिए झारखंड और मणिपुर में चल रहे आंदोलनों और भारत सरकार की इसके प्रति अनिच्छा को संज्ञान में लिया था या नहीं. वैसे भी फिजो और उसके लोग भारतीय संघ के अधीन एक राज्य की तुलना में ज्यादा महत्वाकांक्षी मांग को लेकर आंदोलन कर रहे थे. उन्हें संघ के अधीन राज्य नहीं चाहिए था, उन्हें तो संघ से बाहर एक अलग मुल्क चाहिए था. उनकी वह मांग बकवासपूर्ण हो सकती थी, लेकिन इसने हजारों नागाओं को लड़ाकू छापामार दस्ते में शामिल होने के लिए जरूर प्रेरित कर दिया.
उस समय तक यानी पचास के दशक के मध्य तक नागा इलाके में महज दो लाख नागा लोग थे. उतने ही लोग पड़ोस के नेफा के जिलों में थे और कोई अस्सी हजार लोग मणिपुर में थे. यानी नागाओं की कुल तादाद लगभग पांच लाख थी जिसमें से शायद दस हजार पूर्णकालिक संघर्ष में लगे हुए थे. हालांकि उन्होंने अपनी संख्या में कमी की भरपाई अपने मजबूत इच्छाशक्ति से कर ली थी. विद्रोहियों के एक छोटे से समुदाय ने भारत सरकार को बड़ी संख्या में सैनिक भेजने पर मजबूर कर दिया था.
उस समय बहुत कम भारतीय नागा संघर्ष के बारे में जानते थे. विदेशियों को तो इस बारे में लगभग कुछ मालूम ही नहीं था. फिर भी इस संघर्ष का देश की एकता, लोकतंत्र और सरकार की वैद्यता के लिए भारी महत्व था क्योंकि देश में कहीं भी, यहां तक की कश्मीर में भी सेना को इस काम के लिए भेजा नहीं गया था कि वो उन लोगों के विद्रोहों का दमन करे जो भारत के ही नागरिक थे. पहले दशक में देश को कई समस्याओं का सामना करना पड़ा. उनमें से कई आंदोलन वर्ग, धर्म, भाषा और क्षेत्र के आधार पर उठ खड़े हुए थे. इन आंदोलनों को तर्क और संवाद के जरिए सुलझा लिया गया था और बहुत कम मामलों में पुलिस का इस्तेमाल करना पड़ा था. लेकिन नागा पहाड़ियों में चल रहा संघर्ष इस तरह के किसी समाधान को स्वीकार करने को तैयार नहीं था. नागा नेशनल काउंसिल की मांग और भारत सरकार द्वारा दिए जा सकने वाली छूटों को बीच एक मौलिक अंतर था. ऐसा लग रहा था कि वह अंतर उस तर्क के प्रति लगाव था जिसके मुताबिक जो पक्ष सैनिक रूप से विजयी रहेगा वही जीत हासिल करेगा.
जवाहरलाल नेहरू नागा समस्या की खासियत से परिचित थे. यह बिल्कुल ही एक अलग किस्म का मामला था. मार्च 1955 में अपने कैबिनेट सहयोगियों को लिखते हुए नेहरू ने अगाह किया कि ‘हम उत्तर-पूर्व के आदिवासी इलाकों में एक कठिन समस्या से जूझ रहे हैं … हम अभी तक इन इलाकों के लोगों का दिल जीतने में कामयाब नहीं हो पाए हैं. हकीकत तो यह है कि वे हमसे दूर जा रहे हैं. नागा पहाड़ी जिलों में पिछले साढ़े तीन सालों से वे असहयोग करते आ रहे हैं और ऐसा उन्होंने महान अनुशासन और कामयाबी के साथ किया है.’[38]
एक साल के बाद नेहरू ने असम के मुख्यमंत्री को लिखा कि जब तक हथियारबंद विद्रोह चलता रहेगा, सेना वहां तैनात रहेगी लेकिन ‘इस समस्या को सैनिक दृष्टिकोण से अलग भी देखने की जरूरत है.’ उन्होंने लिखा कि ‘इसमें कोई शक नहीं कि एक सशस्त्र विद्रोह को सेना के द्वारा ही दमन किया जा सकता है लेकिन सैनिक समाधान के आधार पर टिका हमारा पूरा अतीत और वर्तमान का दृष्टिकोण एकमात्र उपाय नहीं है. हमने दुनिया की व्यापक समस्याओं के संदर्भ में इस बात को दोहराया है. जब हम अपने देशवासियों के साथ व्यवहार करें तो हमें ये बात याद रखनी चाहिए. उनके दिलों को जीतने की जरूरत है, ने कि उनका दमन करने की.’[39]
दुनिया की निगाहों से ओझल और ज्यादातर भारतीयों के लिए अज्ञात नागा विद्रोह भारत सरकार के लिए एक गंभीर सिरदर्द था. इसके अलावा नेहरू का शासनकाल सुरक्षित और स्थायी लग रहा था. यह एक लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई बहुमत की सरकार थी जिसके घरेलू और विदेशी नीतियों के पीछे एक राष्ट्रीय सहमति काम कर रही थी लेकिन बहुत जल्द ही दूसरी चुनौतियां सामने आनेवाली थी. ये चुनौतियां देश की परिधि पर नहीं बल्कि उन इलाकों से आनेवाली थीं जिसे हिंदुस्तान का ठोस हिस्सा माना जाता था.
संदर्भ
1. नागा नेशनल काउंसिल के शुरूआती सालों का विवरण मिल्ड्ररेड अर्चन के ’जर्नल आॅफ द स्टे इन द नागा हिल्स, 9 जुलाई टु 4 दिसंबर 1947’ से मिलता है। एमएसएस यूरो एफ 236/362ए ओआईओसी। आर्चर, जो कि नागा हिल्स के आखिरी डिप्यूटी कमिश्नर डब्ल्यू. जी. आर्चर की पत्नी थी, ने एनएनसी नेताओं के एक बड़े तबके का साक्षात्कार किया था और एनएनसी जर्नल में उसे प्रकाशित करवाया था। बाद के सालों में वह भारत में ब्रिटिश आर्ट की एक विशेषता बन गई.
2. चाल्स चेसी, द नागा इम्ब्रोग्लियो (कोहिमाः स्टेंडर्ड प्रिंटर्स एंड पब्लिशर्स, 1999) पृ. 33-6.
3. क्राउन काॅलोनी योजना का जिक्र नाॅर्थ-ईस्टर्न हिल यूनीवर्सिटी, शिलांग के प्रोफेसर डेविड शिमली की पुस्तक में किया गया है.
4. पी. एफ. एडमस को भेजा गया ए. आर. एच. मैकडोनल्ड का पत्र (आसाम के गवर्नन के सेक्रेटरी), 23 मार्च 1947, एमएसएस यूरो एफ 236/76, ओआईओसी में प्रतिलिपि। ’लुशाई हिल्स’ को अब लोग मिजो हिल्स के नाम से जानते हैं.
5. देखें ए. जेड. फिजो की द फेट आॅफ द नागा पीपलः एन अपील टु द वल्र्ड (लंदनः निजीतौर पर प्रकाशित, जुलाई 1960).
6. सीडब्ल्यूएमजी, खंड-88, पृ. 373-4. यह संदर्भ साफतौर पर बताता है कि गांधी नागाओं द्वारा बम और बंदूक के इस्तेमाल के बिल्कुल खिलाफ थे, हालांकि वे भारतीय सेना के इसी तरह के रवैये के भी खिलाफ थे.
7. देखें जे. एच. हट्टन की द अनगामी नागाज (लंदनः मैकमिलन, 1921) पृ. और अन्य जगह.
8. 30 अगस्त 1947 के नागा ’जर्नल’ में आर्चर का लेख देखें. गाॅड के नाम पर नागा लोगों से आह्वान और अमेरिकी स्वतंत्रता के नायकों का हवाला देने की वजह ये थी कि नागा लोग बैपिस्ट मिशन से काफी प्रभावित हुए थे जिसने उनका धर्मांतरण किया था.
9. 27 सितंबर और 23 अगस्त 1947 की प्रविष्टियां, आर्चर, ’जर्नल’.
10. सीएडी, खंड-4, पृ. 947-48.
11. आदिवासियों पर किए गए सार्थक अध्ययनों से शामिल है जी.एस. घुरये की द शेडूल्ड ट्राइब्स (बंबईः पाॅपुलर प्रकाशन, 1959, पहले सन् 1943 में एक अलग नाम से प्रकाशित)ः सी. वाॅन फ्यूरर हेमेनडोर्फ की ट्राइब्स आॅफ ईडियाः द स्ट्रगल फाॅर सरवाइवल (बर्कलेः यूनीवर्सिटी आॅफ कैलीफोर्निया प्रेस, 1982)ः वैरियर एल्विन की द ट्राइबल वल्र्ड आॅफ वैरियर एल्विनः एन आॅटोबायोग्राफी (बंबईः आॅक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी प्रेस, 1964) और के. एस. ंिसह की ट्राइबल सोसाइटी आॅफ इंडिया (नई दिल्लीः मनोहर, 1985) इसके अलावा देखें एंद्रे बेटिले की ’दं कन्सेप्ट आॅफ ट्राइब विद स्पेशल रिफरेंस टु इंडिया’. यह उनकी किताब सोसाइटी एंड पाॅलिटिक्स इन इंडियाः एसेज इन ए कम्परेटिव पर्सपेक्टिव (लंदनः एथलोन प्रेस, 1991) में प्रकाशित है.
12. देखें अगपित टिर्की की किताब झारखंड मूवमेंटः ए स्टडी आॅफ इट्स डायनामिक्स (नई दिल्लीः अदर मीडिया कम्यूनिकेशंस, 2002) अध्याय-2.
13. 1 मई 1947 को मेमोरेंडम, सबजेक्ट फाइल-37, सी, राजगोपालाचारी पेपर्स, पांचवीं किस्त, एनएमएमएल.
14. जयपाल के भाषण को रामदयाल मुंडा और एस. बोसु मल्लिक संपादित द झारखंड मूवमेंटः इंडिजिनस पीपल्स स्ट्रगल फाॅर आॅटोनाॅमी इन इंडिया (कोपेनहेगेनः आईडब्ल्यूजीआईए, 2003).
15. यह पैराग्राफ द करंट के 4, 11 और 18 जुलाई 1956 के एक अनाम रिपोर्ट और निर्मल निबेडाॅन के नागालैंड: द नाइट फाॅर द गुरिल्लाज (नई दिल्लीः लैसर, 1983) पृ. 24-5 पर आधारित है.
16. असम के गवर्नर जयरामदास दौलतराम को लिखा गया पत्र, 11 दिसंबर 1950, सबजेक्ट फाइल 188, सी. राजगोपालाचारी पेपर्स, पांचवीं किस्त, एनएमएमएल.
17. ए. लानुनुगसेंग आओ, फ्राॅम फिजो टु मोईवाः द नागाज नेशनल क्वेशचन इन नाॅर्थ-ईस्ट इंडिया (नई दिल्लीः मित्तल पब्लिकेशंस, 2002), पृ. 48-9.
18. ’नो इंडिपेंडेंस फाॅर नागाजः प्लेन स्पीकिंग बाई मिस्टर नेहरू’, टाइम्स आॅफ इंडिया, 1 जनवरी 1952.
19. ’डिमांड फाॅर नागा स्टेटः डेलीगेशन मीट्स नेहरू’ टाइम्स आॅफ इंडिया, 12 फरवरी 1952.
20. द करंट में कृष्णालाल श्रीधरनी की रिपोर्ट, 19 मार्च 1952.
21. जवाहरलाल नेहरू स्पीचेज में ’द ट्राइबल फोक’ खंड-2 (नई दिल्लीः पब्लिकेशन डिविजन, 1954) पृ. 576 एफ.
22. राजगोपालाचारी को नेेहरू का पत्र, 26 जनवरी 1952, सबजेक्ट फाइल-107, सी. राजगोपालाचारी पेपर्स, पांचवीं किस्त, एनएमएमएल.
23. नेफा दौरे पर उनकी रिपोर्ट एलसीएम, खंड-4 में पुर्नप्रकाशित की गई हैं. पृ. 147-65.
24. एनएनसी लेटर आॅफ 24 नवंबर 1952, करंट में उद्धृत, 15 अप्रैल 1953.
25. रामचंद्र गुहा की सेवेजिंग द सिविलाइज्डः वैरियर एल्विन, हिज ट्राइबल्स एंड इंडिया (शिकागोः यूनीवर्सिटी आॅफ शिकागो प्रेस, 1999) पृ. 285.
26. ’जर्नल’ में 10 जुलाई 1947 को आर्चर की प्रविष्टि.
27. आर्थर स्विन्सन, निबेडाॅन के नागालैंड में उद्धृत, पृ. 26.
28. असोसो योनुओ, द राइजिंग रागाजः ए हिस्टोरिकल एंड पाॅलिटिकल स्टडीज (दिल्लीः विवके पब्लिशिंग हाउस, 1974) पृ. 210-13.
29. फिजो और सखरी में विवाद का यह विवरण नेबेडाॅन के नागालैंड पृ. 57-68 पर आधारित है.
30. वही., पृ. 80-2.
31. ले. जनरल एस.पी.पी. थरोट, फ्राॅम रिवेली टु रिट्रीट (नई दिल्लीः एलाइड पब्लिशर्स, 1986) अध्याय-15, ’द नागाज’, पूर्वी कमान के कमांडिग आॅफिसर होने के नाते थरोट विद्रोहियों के खिलाफ चल रहे अभियान का नेतृत्व कर रहे थे.
32. देखें एमएसएस यूरो एफ 158/239 ओआइओसी की कतरनें.
33. चाल्स पाउसे को लिखा गया डाॅ. एस.आर.एस. लियांग का पत्र, जून 1956 और 13 अगस्त 1956 का पत्र. बाॅक्स-1, पाउसे पेपर्स, सीएसएएस.
34. लोकसभा डिबेट्स, 23 अगस्त 1956.
35. इंडिया न्यूज, 8 दिसंबर 1956ः मैनचेस्टर गार्जियन, 18 दिसंबर 1956. दोनों ही एमएसएस यूरो एफ 158/239, ओआईओसी.
36. इग्नेश कुजुर, ’झारखंड बिट्रेड’, मुंडा और बसु मल्लिक के द झारखंड मूवमेंट पृ. 16 एफएफ में.
37. लोकसभा डिबेट्स, 22 नवंबर 1954, द करंट, 16 फरवरी 1955.
38. टी.टी. कृष्णचारी पेपर्स में 9 मार्च 1955 के पत्र, एनएमएमएल.
39. विष्णुराम मेधी को लिखा गया नेहरू का पत्र, 13 मई 1956. उदयन मिश्रा के द पेरीफरी स्ट्राइक्स बैकः चैलेंजेज टु द नेशन-स्टेट इन आसाम एंड नागालैंड (शिमलाः इंस्टीच्यूट आॅफ एडवांस्ड स्टडीज, 200) पृ. 203-4 पर. पुर्नप्रस्तुत.
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