कोई आम आदमी यदि होम लोन नहीं चुका पाए तो उसकी सूचना अखबारों में बड़े-बड़े सार्वजनिक विज्ञापन देकर छपवाई जाती है और संपत्ति को नीलाम कर दिया जाता है. लेकिन जब बात अडानी-अम्बानी जैसे धन कुबेरों की आती है तो कर्ज देने वाले बैंक ही उनकी ढ़ाल बनकर खड़े हो जाते हैं कि हम उनके लोन डिफॉल्ट के बारे में कोई सूचना सार्वजनिक नहीं करेंगे.
रिजर्व बैंक के बड़े डिफॉल्टर की जानकारी आरटीआई के माध्यम से देने के निर्देश के विरोध में एचडीएफसी बैंक, एसबीआई, कोटक महिंद्रा बैंक और आईडीएफसी फर्स्ट बैंक समेत कई निजी बैंक ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है. दरअसल बड़े प्रयासों के बाद रिजर्व बैंक ने इन बैंकों को आरटीआई कानून के अंतर्गत बड़े डिफॉल्टर की जानकारी साझा करने का निर्देश दिया था, जिसका यह बैंक विरोध कर रहे हैं.
ऐसी यह पहली याचिका नहीं है. पंजाब नेशनल बैंक और यूनियन बैंक ऑफ इंडिया ने इस मामले में कुछ दिनों पहले ही सुप्रीम कोर्ट का रूख किया था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इनकी याचिका खारिज कर दी थी. फिर भी यह बैंक नहीं माने और अब एक नयी याचिका लेकर कोर्ट के सामने पहुंच गए.
आखिर बैंक को अपनी निरीक्षण रिपोर्ट और जोखिम आकलन से जुड़ी सूचना साझा करने में समस्या क्या है ? अगर कोई न लोन चुका रहा है, न ब्याज भर रहा है तो उसकी जानकारी साझा करने में बुराई क्या है ? 6 साल से यह मामला लटका कर बैठे हुए हैं.
2015 में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया बनाम जयंतिलाल एन. मिस्त्री मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने आरबीआई से कहा था कि वे आरटीआई एक्ट के तहत डिफॉल्टर्स लिस्ट, निरीक्षण रिपोर्ट इत्यादि जारी करें. अभी तक जो भी सूची जारी की गई है वो सब पुराने डिफॉल्ट मामलों की है.
आपको याद होगा कि 2020 मार्च के मध्य में राहुल गांधी ने सदन में विलफुल डिफॉल्टर का मुद्दा उठाया था. उन्होंने प्रधानमंत्री से 50 विलफुल डिफॉल्टर के नाम पूछे, जिसका जवाब देते हुए वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ने कहा कि इसमें छुपाने की कोई बात नहीं है लेकिन उस वक्त भी जो सूची पेश की गई वह पुरानी सूची थी.
2015 में जो एनपीए ढ़ाई लाख करोड़ था, वो आज 12 लाख करोड़ से ज्यादा कैसे हो गया ? कौन-कौन उद्योगपति है जिसके लोन NPA हो रहे हैं ? क्या देश के आम नागरिक को इतनी महत्वपूर्ण बात भी जानने का अधिकार नहीं है ?
हमारा आपका मेहनत से कमाया पैसा जो इन बैंकों में जमा है, उसी के आधार पर इन बड़े उद्योगपतियों को लोन देता है. ये बड़े-बड़े बैंक क्या लोन अपनी जेब से देते हैं जो हमें यह नहीं बताएंगे कि किसका कितना कर्ज बाकी है ? और किसने कर्ज डुबो दिया है ?
2
आप लोन बांटते रहिए, हम खाते रहेंगे. आप लोन दबाते रहिए, हम आपको वोट/समर्थन देते रहेंगे. बीते 8 साल में बैंकों पर 10 लाख 80 हज़ार करोड़ के डूबे लोन थे. यह आंकड़ा मार्च 2018 तक का है.
20 जुलाई को मोदी सरकार ने संसद में बताया कि मार्च 2021 को बैंकों का डूबा लोन 8.35 लाख करोड़ हो गया है. यानी मार्च 2018 से 2021 तक 2 लाख करोड़ से ज़्यादा के लोन दबाए गए. इसे सलीके से बोला गया झूठ कहते हैं, जो हरिशंकर परसाई जी के मुताबिक देश में सच माना जाता है.
संसद की कार्यवाही और कामकाज से वास्ता न रखने वाले मूर्ख इसे ही सच मानकर गर्व करते हैं कि देखो, मोदी के डर से लोग लोन वापस करने लगे हैं. नीचे RBI का जो चार्ट है, उसे इन दोगले भक्तों को देखना चाहिए. यह 2013-14 से बैंकों के डूबने की कहानी है.
मोदी सरकार ने बीते साल अप्रैल से दिसंबर तक चुपके से 1.15 लाख करोड़ के लोन माफ कर दिए. फिर इस साल जनवरी से मार्च के बीच 70 हज़ार करोड़ फिर दबाए गए. कुल मिलाकर 1.85 लाख करोड़. इस तरह अप्रैल 2013 से मार्च 2021 तक 10 लाख 83 हज़ार करोड़ के बैंक लोन दबाए जा चुके हैं. लेकिन मोदी सरकार पूरी बेशर्मी से संसद में कहती है कि वह पेट्रोल-डीजल पर एक्साइज की लूट मचाकर टीका और अनाज बांट रही है.
नियमानुसार, 90 दिन में लोन की क़िस्त न चुकाने पर डिफ़ॉल्ट मान लिया जाता है. फिर 1-4 साल में भी लोन नहीं वसूला जा पा रहा हो तो बैंक अपने खाते से उसे हटाकर डूबा हुआ मान लेती है. लेकिन लोन राशि के बराबर ही बैंक को पैसे का इंतज़ाम करना पड़ता है, ताकि घाटे की भरपाई हो सके.
मोदी सरकार के मुताबिक मार्च 2020 तक डूबा लोन 8.96 लाख करोड़ था. बैंकों ने 1.85 लाख करोड़ दबा दिए, बचना चाहिए 7.11 लाख करोड़. लेकिन मोदी सरकार ही खुद मान रही है कि मार्च 2021 तक 8.35 लाख करोड़ का लोन डूबा हुआ है. यानी माफ करने के बाद भी डूबा लोन कम नहीं हुआ क्योंकि, इसी बीच और भी लोग लोन खाकर बैठ गए. पूरा आंकलन करें तो मार्च 2021 तक कुल 19.18 लाख करोड़ का लोन डूबा हुआ है.
एक बात और, अगर डूबे खाते में जाने के बाद लोन की आंशिक/पूरी रिकवरी होती है तो उसे बैंक की आमदनी माना जाता है – जो कि मूर्ख अंधभक्तों के लिए गर्व का विषय है. 2001 से 2012-13 के बीच 100 रुपये के लोन में रिकवरी 24 रुपये थी, अप्रैल 2014 से मार्च 2018 के बीच रिकवरी 14 रुपये हो गई. यानी मोदी राज में मुखौटा ओढ़े दीमक देश को खूब चाट रहे हैं. तभी गाहे-बगाहे उनसे मोदी की जय-जयकार सुनाई देती है. आजकल ऐसे मुखौटे वालों को खूब पहचानने लगा हूं.
भारत की इकॉनमी तेज़ी से ढह रही है. प्याज़ न खाने वाली हमारी विद्वान वित्त मंत्री और गटर गैस, 2एबी के जनक प्रधानमंत्री शायद विश्व बैंक का डेटा भी नहीं देखते. नीचे कुछ ग्राफ्स में दोनों को समझाता हूं – (ये RBI का नहीं विश्व बैंक का डेटा है)
- बीते 7 साल में घरेलू जमा राशि जीडीपी के मुकाबले सिर्फ़ 3% बढ़ी है, यानी 22 से 25%.
- लेकिन पूंजी का निर्माण घटा है. ये ‘पूरा घर बेच दूंगा’ की सरकार है.
- प्रति व्यक्ति उपभोग खर्च में भारत पाकिस्तान से भी नीचे है.
- अगर सॉफ्टवेयर सेवाओं के निर्यात का सहारा न होता तो भारत के प्रधानमंत्री आज IMF के सामने कटोरा लेकर खड़े होते.
- 2014 में FDI देश की जीडीपी का 1.7% थी, जो अब 1.76% है.
- दलाल स्ट्रीट की बीट संभालने वाले दलाल पत्रकार ध्यान दें. 2014 से नेट पोर्टफोलियो में निवेश लगभग 0 है. CNBC जैसे फ़र्ज़ी चैनलों को इकोनॉमिक्स फिर पढ़ना चाहिए.
मेरी चिंता इस बात की है कि बीतते वक़्त के साथ नरेंद्र मोदी सरकार की मुट्ठी से रेत फिसलती जा रही है. GST, नोटबन्दी और रेरा के साथ ही चीनी सामानों ने सेवा क्षेत्र की जिस कदर वाट लगाई है, उसे अब सुधारा नहीं जा सकता.
यूं समझ लीजिए कि आपके हाथ सिर्फ़ 5 लाख ही हैं, बाकी अगर ज़मीन में खज़ाना गड़ाया हो तो वही जमा पूंजी है. बाकी सब माया है. जो असल है, वह कटोरा है.
- गिरीश मालवीय एवं सौमित्र राय
[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]