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भारत की अर्थव्यवस्था के ‘अच्छे दिन’

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भारत की अर्थव्यवस्था के 'अच्छे दिन'

Saumitra Rayसौमित्र राय

भारत की अर्थव्यवस्था दिन-ब-दिन बदहाली की तरफ बढ़ती जा रही है लेकिन बहुत कम लोगों को इसकी चिंता है. कहीं न कहीं अर्थशास्त्र का अल्प ज्ञान और बाजार की चमक-दमक उन्हें उलझाती है. राष्ट्रीय सांख्यिकी संस्थान (NSO) ने दो दिन पहले औद्योगिक उत्पादन के चौंकाने वाले आंकड़े दिए, लेकिन किसी का ध्यान नहीं गया. देश का औद्योगिक उत्पादन अक्टूबर के त्योहारी सीजन में भी सिर्फ 2% बढ़ा. यह बढ़ोतरी मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में थोड़े इजाफे के कारण रही.

पूंजीगत उत्पादों का निर्माण (निवेश का सूचक) 1.1% सिकुड़ गया. अक्टूबर में ही उपभोक्ता सामग्री का उत्पादन 6.1% सिकुड़ा. फैक्ट्री उत्पादन अगस्त के बाद 3.1% गिरा है.

जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का हिस्सा 15 से घटकर 12% पर आ गया है और 2017 के बाद से इस सेक्टर में नौकरियां 5 करोड़ से 2.5 करोड़ पर आ गई हैं. (विश्व बैंक डेटा)

अलबत्ता किसे फ़र्क़ पड़ता है. महंगाई का ग्राफ नीचे नहीं उतर रहा. देश 2022 में जा रहा है. यकीनन ये कसौटी का साल है – राजनीतिक और आर्थिक दोनों रूपों में. अगर अगले एक साल में हालात नहीं सुधरे तो समझें सब ख़त्म. कहीं न कहीं हम सभी को उसी का इंतज़ार है.

प्रधानमंत्री ने नरेंद्र मोदी आज दो दिन के लिए वाराणसी में हैं. किसलिए ? उन्हें काशी विश्वनाथ मंदिर के गलियारे का उद्घाटन करना है. इसका सीधा प्रसारण देशभर में होगा क्योंकि एक शासक का राजधर्म दिखाना है. मोदी का राजधर्म रोजी-रोटी, रोजगार, विकास को छोड़कर मंदिर तक सीमित रहा है. इंदिरा से लेकर UPA के वक़्त की अधिकांश परियोजनाओं के प्रचार को छोड़कर.

बात सिर्फ़ यूपी तक ही सीमित नहीं है, देश के किसी भी राज्य में मोदी के पास विकास के नाम पर दिखाने को कुछ नहीं है, यहां तक कि गुजरात में भी मोदी के तमाम जुमले झूठे निकले हैं. इसीलिए प्रचार के लिए बीजेपी को कभी चीन और अमेरिका तो कभी बंगाल के विकास को लूटना पड़ता है.

उधर चीन अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के ज़रिए घरेलू सस्ते माल को लाओस तक ले जाने का काम कर रहा है. 1860 में फ्रेंच नाविकों ने साइगॉन से मेकांग नदी तक का सफ़र शुरू किया था. बीच में लाओस और कंबोडिया में दर्जनों रुकावटें आईं और बात नहीं बनी. अब चीन ने करीब 6 बिलियन डॉलर खर्च कर लाओस तक रेल लाइन बिछा दी है.

भारत के बाज़ार में घरेलू मांग कम है. मोदी ने बीते 8 साल में सिवाय बतोलेबाज़ी के बाज़ार के विस्तार की कोई योजना नहीं बनाई लेकिन चीन अपने आर्थिक उपनिवेशवाद को लगातार फैला रहा है. जब भारत के पड़ोसी देशों में चीनी कच्चे माल का ढेर पड़ा होगा और सस्ते श्रम से बने उत्पाद दुनिया भर में बिकेंगे तो भारत क्या करेगा ?

भारत हवन करेगा. मंदिर बनाएगा. गाय और गोबर के उत्पाद बनाएगा. उधर, वही चीनी सस्ते उत्पाद भारत के अम्बानी-अडाणी को तबाह कर देंगे. ये सब 2025 तक होता हुआ हम देखेंगे.

काशी विश्वनाथ मंदिर के गलियारे का उद्घाटन करने के बाद मोदीजी 4 बैंकों को बेचने का प्लान लेकर आएंगे. वे बेच रहे हैं और चीन बना रहा है. सोच का फ़र्क़ है और यह फ़र्क़ एक गरीब चायवाला आज तक समझ नहीं सका.

बीते 8 साल में भारत ने 10 करोड़ के करीब नौकरियां खोई है. देश के निचले 50% आबादी के पास सिर्फ़ धोती और लंगोटी बची है. सबसे ऊपर के 10% के पास देश की 73% दौलत है. मोदी सरकार के इस निकम्मेपन को दुनिया देख रही है और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को 18वीं सदी की भयानक गरीबी के जाल में उलझता देख रही है.

फिर भी भक्तों की मूर्खता देखिये – जिस मोदी सरकार के पास 60 लाख से ज़्यादा खाली पड़े पदों को भरने की औकात नहीं, उससे 3 मोर्चे पर एक साथ जंग जीतने की उम्मीद की जाती है. अगर यही नज़रिया है तो देश की तबाही पर ताली-थाली और गाल बजाना ही चाहिए.

वहीं दूसरी ओर भारत के रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने कल देश में बैंकिंग सेक्टर के भविष्य को लेकर बहुत ही चिंताजनक बात कही. उन्होंने कहा कि लोगों को ‘ऊंचे ब्याज़ दरों’ के लालच में बैंकों में ज़्यादा पैसा रखने से बाज़ आना चाहिए. खासकर शहरी कोऑपरेटिव बैंक्स के लिए सरकार नए नियम लाने जा रही है. यानी जोखिम और बढ़ेगा.

दास के मुताबिक, इसमें जोखिम ज़्यादा है. साथ ही यह भी कहा कि बैंकों के डूबने पर 90 दिन में 5 लाख तक मिल जाएं, उसकी गारंटी नहीं है – अलबत्ता मोदीजी ने इसका वादा किया है. दास का यह भी कहना था कि 5 लाख तक की जमा राशि की वापसी सिर्फ़ अंतिम विकल्प है. मतलब आप समझ लें.

आप यह भी जान लें कि कल ही मोदीजी ने कुछ लोगों को उनके डूबे पैसे का एक लाख का चेक भी दिया. ऐसे 3 लाख से ज़्यादा लोगों को बरसों बाद अब ये चेक मिलेंगे. ये भारत की आज की इकॉनमी है और इसमें रोज़ हवा भरने वाली पेडिग्री मीडिया ने दास के बयान को खास तवज़्ज़ो नहीं दिया- वरना इससे हाहाकार मच जाता. तो बैंक ग्राहक बटोरने के लिए हैसियत से ज़्यादा ब्याज़ का ऑफर दे रहे हैं. यानी वे अतिरिक्त ब्याज़ बाजार के जोखिम को अनदेखा कर दे रहे हैं.

RBI इसे सुधार सकता है, लेकिन नहीं सुधार रहा बल्कि दोष जमाकर्ताओं पर डाल रहा है. वजह सब जानते हैं. यानी कुल मिलाकर RBI गवर्नर भारत के बैंकिंग सेक्टर और बाजार दोनों पर संदेह जता रहे हैं. यही देश की इकॉनमी का सच है, जिसमें किसी का भी पैसा बैंकों में सुरक्षित नहीं है. इससे अच्छे दिन की उम्मीद कभी की है ?

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