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पूरी तरह से कोई नहीं लौटता घर

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पूरी तरह से कोई नहीं लौटता घर
बदरंग दीवार की एक खुरचन
तुम्हारी बिंदिया समेटे
आईने की कतरन
बर्फ़ की लड़ियों का पिघलते हुए
टप टप कर छज्जे के नीचे
पानी के कटोरे में गिरने की आवाज़
गर्म कड़ाही में फोड़न की छौंक से
उठता धुंआ
और कलाई पर उभरे
तुम्हारी उंगलियों के निशान
सबकुछ समेट कर कंगाल मन
जब निकलता है कोई यात्रा पर
कहीं लौटने के लिए
पूरी तरह से कोई नहीं लौटता घर
जो ईंटें बच गई
दीवारें, छत बनाते हुए
उनके तिर्जक में क़ैद आग में
सिंकती रोटियां
और जीभ निकाल कर
हांफता हुआ कुत्ता
ठंढे राख पर निढाल जिस्म
स्वर्ग के द्वार तक जो सहयात्री था
उसकी मलिन कुंठा का उद्गार
कृष्ण की बांसुरी सा बुलाता है
पूरी तरह से कोई नहीं लौटता घर
साथ रह जाती हैं शहर की रोशनियां
और गलियों के अंधेरे
सस्ते चाय खाने की मेज़ पर उभरे
पसीने की छाप
हमारी उंगलियों के निशान
सवारियों के दरवाज़े के हैंडल पर
वे जब चाहेंगे ढूंढ लेंगे हमें
गीले फ़र्श पर उभरे
हमारे पैरों के निशान से
बुझे हुए अलाव पता देते हैं
बंजारों की टोली का
और मेरे उतरन
जो बिखरे पड़े हैं यहां वहां
कुछ शब्दों के ढेर पर
इन रेतीले ढूहों पर
कभी गाता था कोई मलंग
रात के सन्नाटे में
ढूंढ लेंगे वे
आवर्जना के स्रोत में
निष्प्रभ बहते हुए
पूरी तरह से कोई नहीं लौटता घर
जितना कुछ समेट लेते हो तुम
कहीं उससे ज़्यादा छोड़ जाते हो पीछे
अकिंचन समुद्र
लौटता है बच्चे को उसकी गेंद
थोड़ा नमक के साथ
हम सब अधूरे लौटते हैं घर
और, अचानक डूबने से पहले
उंकड़ु बैठ जाते हैं कुछ पल
वो दूर पहाड़ी की चोटी पर
पूरी तरह से कोई नहीं लौटता घर

  • सुब्रतो चटर्जी

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