सुब्रतो चटर्जी
आज जब इस श्रृंखला की चौथी कड़ी लिख रहा हूं, बहुत कुछ बदल गया है. एक तस्वीर, जो अभी तक धुंधली थी, धीरे.धीरे स्पष्ट हो रहा है. दुनिया भर के इजारेदार, बेईमान पूंजीपतियों द्वारा संपोषित क्रिमिनल लोगों की सरकारें पूरे विश्व की संपदा को कुछेक हाथों में सीमित करने के लिए उनके लठैतों की तरह काम कर रहा है. कोई शक नहीं कि इसमें अग्रणी भूमिका हमारे यहां सदी का सबसे बड़ा क्रिमिनल ले रहा है.
बीते कल, दो घटनाएं प्रमुख रहीं. एक, बेरोजगारों द्वारा क्रिमिनल लोगों की सरकार के विरुद्ध प्रतिवाद करना, और दूसरा, लोकसभा से नई कृषि नीति का पास होना. कुछ लोगों का मानना है कि नौजवानों का यह सांकेतिक विरोध बहुत मायने नहीं रखता, क्योंकि क्रिमिनल लोगों की सरकार पर इसका कोई खास असर नहीं पडेगा. उनके अपने तर्क हैं. धर्म, जाति में बंटे हुए समाज की प्रतिरोध क्षमता क्षीण होते.होते लगभग अप्रभावी हो गई है, ऐसा उनका मानना है.
मैं इन निराशावादियों से इत्तेफाक नहीं रखता. मेरा मानना है कि जैसा कि मैंने पिछली बार भी लिखा था, जमीन की सतह के ठीक नीचे लावा फूटने की आवाज मुझे आ रही है, अब सच होता दिख रहा है.
निराशावादियों का दूसरा तर्क ये है कि बेरोजगारों का यह आंदोलन विपक्षी पार्टियों के इशारे पर हो रहा है, इसलिए राजनीति से प्रेरित है. वे ये नहीं सोचते कि रोजगार शून्य विकास का मॉडेल भी एक राजनीतिक सोच का ही परिणाम है, जिसका जवाब राजनीतिक ही होगा, आध्यात्मिक नहीं. फिर, जनतंत्र में विपक्ष होता किसलिए है, घुईंया छीलने के लिए ?
इसी बीच नई कृषि नीति का चतुर्दिक विरोध शुरु हो गया है. बहुत तेजी से राजनीतिक समीकरण बदलने के आसार हैं. अकाली दल, दुष्यंत चैटाला और अन्य सरकार समर्थक ताकतों का मोदी सरकार से मोहभंग बस आने वाले दिनों का एक संकेत भर है.
मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अंततः भाजपा इस प्रश्न पर दो फाड़ हो जाएगी. मैं स्पष्ट देख पा रहा हूं कि पार्टी के अंदर कॉरपोरेट परस्त ताकतें धीरे-धीरे अलग-थलग पड़ जाएंगी. ऐसा इसलिए होगा कि ज्यादातर सांसद, जिनको ग्रामीण जनता के बीच चुनाव के समय जाना है, किसानों के इस प्रतिरोध का सामना नहीं कर पाएंगे. भारतीय राजनीति में किसान विरोधी धारा कभी सफल नहीं हो सकती. हमें याद रखना होगा कि गांधी जी ने भी इस सच को समझा था, इसलिए उन्होंने चंपारन के नील खेतिहरों को साथ शुरु किया था.
चारु मजूमदार ने भी अपनी लड़ाई नक्सलबाड़ी के किसानों के साथ शुरु किया था. केरल, बंगाल, बिहार, हर जगह कम्युनिस्ट आंदोलन की शुरुआत किसानों की लड़ाई से शुरु हुई. महेंद्र सिंह टिकैत से लेकर चैधरी चरण सिंह तक किसानों के दम पर ही अपनी राजनीति चमकाते रहे. जाहिर है, वाम, दक्षिण, केंद्रीय राजनीतिक सोच वाले सभी विचारों की राजनीतिक लड़ाई के केंद्र में किसान ही रहे हैं.
भारत को यूं ही कृषि प्रधान देश नहीं कहा गया. वास्तव में भारत एक कृषक प्रधान देश है, इसे समझना होगा. अपनी विशिष्ट जीवन शैली, रूढ़ियों, मान्यताओं और विवशताओं के चलते भारतीय किसान अभी भी इंडिया के मॉल कल्चर से दूरी बनाए रखे है, और यही उनकी ताकत है. वे एक काल्पनिक महामारी के डर से नपुंसक जैसे मुंह पर पट्टी बांध घरों में दुबक कर अपने को अच्छा नागरिक साबित करने की होड़ में नहीं हैं. वे ताली थाली पीटकर हिजड़ों की गैंग में शामिल हो कर अपनी अस्मिता का सौदा नहीं करते. जेठ-बैसाख की धूप में एसी कमरों में बैठकर वे सुशांत रिया की कहानी नहीं सुनते. हां, वे चैपाल में ताड़ी पीते हुए दीपक पनवाड़ी की चीख पुकार का आनंद भले लेते हों, या जात के नाम पर वोट जरूर करते हैं, लेकिन सवाल जब जमीन और फसल की होती है, तब गोलबंद हो कर लड़ने निकल पड़ते हैं.
यहीं पर सरकार चूक गई. अपने कॉरपोरेट आंकाओं की बेशर्म कदमपोशी में साष्टांग बिछा हुआ नरेंद्र मोदी ने बिरनी के छत्ते में हाथ डाल दिया. अनपढ़, बेईमान बड़बोले ने सोचा कि जिस हिजडेपन के साथ भारत की शहरी आबादी ने निजीकरण को स्वीकार किया, उसी हिजड़ेपन से किसान भी कॉरपोरेट गुलामी को स्वीकार करेंगे.
ऐसा कभी नहीं होगा मोदी जी. चोरी, बेईमानी, ठगी, जनसंहार से शुरु हो कर कॉरपोरेट गुलामी तक का आपके जीवन का अनुभव आपको भारतीय किसानों की लड़ने की क्षमता को नहीं पहचानने देगा, मैं यह जानता था. श्रमजीवी लोगों को हार्वर्ड के उपर हार्ड वर्क को रख कर रिझाना आसान है, क्योंकि वे खुद को कहीं न कहीं मिट्टी और किताब की इस लड़ाई में मिट्टी की महक के साथ पकमदजपलि कर लेते हैं, लेकिन यह चुनाव तक ही सीमित रहता है. जब पेट पर लात पड़ती है तब सारे परशेप्शन हवा हो जाते हैं.
आज देश का युवा और किसान सड़क पर है. अगर जनता और विपक्ष इनके साथ नहीं खड़े हों तब इनको कोई फर्क नहीं पडेगा. वे अपनी लड़ाई जीत जाएंगे, क्योंकि वे सत्य और अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं. अप्रासंगिक होकर जिल्लत की जिंदगी जीने को वे अभिशप्त होंगे, वे जो आज खामोश हैं. इतिहास हर बार गद्दारों के पीछे देश को गोलबंद नहीं करता.
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