हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
कोई हथियार कंपनी सरकारी है तो उसका दायित्व है कि सरकार द्वारा आदेशित सामग्रियों का वह निर्माण करे. यह सरकार को सोचना है कि उसे किस वक्त कैसी और कितनी युद्ध सामग्रियों की आवश्यकता है. जितने और जैसे हथियारों की आवश्यकता होगी, सरकार आदेश देगी, कंपनी बनाएगी.
इन कंपनियों के शीर्ष अधिकारीगण, जो मूलतः सरकारी मुलाजिम होते हैं, उनका टेंशन यह नहीं होगा कि इतने हथियार जो बन गए हैं, उनकी खपत कैसे हो ? वे इसके लिये भी लॉबिंग नहीं करेंगे कि फलां हथियार बनाने का ऑर्डर मिल जाए ताकि खूब सारा मुनाफा कमा लिया जाए.
भारतीय आयुध कंपनियों ने अपनी कुशलता और अपने उत्पादों की गुणवत्ता का लोहा वैश्विक स्तरों पर मनवाया है. सरकारी संरक्षण और प्रोत्साहन ने वैज्ञानिकों को आयुध निर्माण के क्षेत्र में इनोवेशन के लिये सदैव प्रेरित किया और आज की तारीख में इस क्षेत्र में भारतीय वैज्ञानिकों और कंपनियों की जितनी भी उपलब्धियां है, वे मुख्यतः सरकारी क्षेत्र की ही हैं.
अब, इन आयुध कंपनियों का निजीकरण होगा. अभी कल ही, प्रधानमंत्री एक वेबिनार में कह रहे थे कि सरकार बिजनेस नहीं करेगी क्योंकि सरकारें बिजनेस करने के लिये नहीं होती. उन्होंने यह भी कहा कि जल्दी ही बड़े पैमाने पर पब्लिक सेक्टर की अधिकतर इकाइयों का निजीकरण कर दिया जाएगा. मैडम फाइनांस मिनिस्टर भी घूम-घूम कर यही कहती फिर रही हैं. हालिया बजट में भी उन्होंने कहा कि पब्लिक सेक्टर की इकाइयों को बेच कर इतने लाख करोड़ रुपये इकट्ठा किये जाएंगे आदि-आदि.
प्रधानमंत्री की यह बात मान लें कि सरकारें बिजनेस करने के लिये नहीं होती हैं लेकिन, यह मानने में भय का संचार होता है कि हथियार निर्माण एक बिजनेस है. जब किसी सामग्री का निर्माण बिजनेस बन जाता है तो उसकी खपत होनी जरूरी होती है, तभी तो लाभ होगा.
अमेरिका की बड़ी निजी कंपनियों ने 1930 और 40 के दशक में हथियार निर्माण के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश किया क्योंकि प्रथम विश्व युद्ध के बाद ही उन्हें लग गया था कि जल्दी ही दूसरा महायुद्ध छिड़ने वाला है. यह छिड़ा भी, और बावजूद इसके कि प्रथम विश्व युद्ध से त्रस्त मानवता द्वितीय विश्व युद्ध में ध्वस्त हो गई, उन कंपनियों ने अकूत मुनाफा कमाया. जब दूसरा महायुद्ध खत्म हुआ और अंतरराष्ट्रीय संगठनों की स्थापना के साथ दुनिया शांति के मार्ग पर चलने के प्रयासों में लग गई तो ये बड़े हथियार निर्माता बेचैन हो उठे.
1950 के दशक में इन हथियार कंपनियों ने पूर्व सैन्य अधिकारी आइजनहावर को अमेरिका का राष्ट्रपति बनवाने के लिये एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया. वे सफल भी हुए. द्वितीय विश्व युद्धोत्तर काल में शीत युद्ध की सघनता, तीसरी दुनिया में भीषण मार-काट, वैश्विक तनावों के प्रसार आदि में अमेरिका ने केंद्रीय भूमिका निभाई और इसमें आइजनहावर की आक्रामक नीतियों ने आग में घी का काम किया.
लाभ और हानि के फार्मूले पर चलती इन निजी हथियार कंपनियों ने शीत युद्ध के दौरान इतना मुनाफा कमाया जितना बाकी तमाम बिजनेस मिल कर भी नहीं कमा सके. इस तरह, दूसरे महायुद्ध के बाद मंद पड़ते हथियार के बिजनेस में बड़े ही शातिराना अंदाज में प्राण फूंके गए.
भारत की आयुध कंपनियां अब निजी हाथों में जाएंगी. इसके कर्मचारी परेशान हैं. वे इसके विरोध में कई बार हड़ताल कर चुके, लेकिन, उनके विरोध प्रदर्शनों और हड़तालों पर न मीडिया ने ध्यान दिया, न आम लोगों ने इनका संज्ञान लिया और न सरकार के कानों पर जूं रेंगी. वैसे भी, इन हड़ताली कर्मियों की निजी राजनीतिक रुझान और उपभोक्तावादी दौर में निर्मित उनके मध्यवर्गीय मानस ने उनके आंदोलनों को चरित्र बल से वंचित रखा, जिस कारण उनके तमाम विरोध अप्रभावी रहे.
सवाल है कि अब जब, कोई बड़ा कारपोरेट घराना इन आयुध कंपनियों को खरीदेगा तो वह क्या करेगा ? पहली बात, जब वह इन कंपनियों में बड़े पैमाने पर निवेश करेगा, फिर माल का उत्पादन करेगा तो उसकी खपत के बारे में भी सोचेगा. वह चाहेगा, और बिजनेश के प्वाइंट ऑफ व्यू से ऐसा सोचना गलत भी नहीं होगा, कि उसके उत्पादों की खपत बढ़ती ही जाए, बढ़ती ही जाए.
कहा जाता है कि इस दुनिया में अशांति की जड़ में वैश्विक हथियार निर्माताओं की बड़ी भूमिका है. उन्हें बड़ी असहजता होती है जब दुनिया शांति की बातें करती है. मानवता के आग्रही शान्तिकामी लोगों का कहना है कि दुनिया में जितनी भी हथियार कंपनियां हैं, उनका सरकारी अधिग्रहण कर उन्हें लाभ-हानि के दुष्चक्र से बाहर कर देना चाहिये. दुनिया की तीन चौथाई अशांति पर विराम लग जाएगा लेकिन, मुनाफा के नए-नए रास्ते तलाशते हथियारों के अंतरराष्ट्रीय सौदागर फिलहाल तो इतने मजबूत हैं कि इन शान्तिकामी लोगों के सदाशयी आग्रहों का कोई व्यावहारिक मतलब नहीं रह जाता.
भारत में भी अब वैश्विक हथियार कंपनियां भारतीय कंपनियों के साथ मिल कर संयुक्त उपक्रम स्थापित करने की योजनाओं पर काम कर रही हैं. एक से एक हथियार बनेंगे, भारी मात्रा में बनेंगे. फिर, उनकी खपत बढ़ाने के लिये लॉबिंग होगी. खपत होगी तभी तो मुनाफा होगा. शांति जाए भाड़ में.
‘सरकारें बिजनेस करने के लिये नहीं होतीं…’, प्रधानमंत्री ने कहा लेकिन, सरकारें इसके लिये भी नहीं होती कि शिक्षा और चिकित्सा को बिजनेस बना दिया जाए और फिर उस बिजनेस से अपना हाथ खींच लिया जाए. ‘नई शिक्षा नीति’ शिक्षा को बिजनेस के हवाले करने का दस्तावेज है. ‘आयुष्मान भारत योजना’ चिकित्सा को बिजनेस के रूप में सरकारी मान्यता देने का घोषणा-पत्र है.
सरकारी बैंक व्यापक भारतीय सन्दर्भों में सिर्फ बिजनेस के लिये ही नहीं थे. बीते पांच दशकों में ग्रामीण विकास में बैंकों की भूमिका का जब अध्ययन किया जाएगा तो इन्हें प्राइवेट करने की मंशा पर सन्देह होंगे ही.
अर्थव्यवस्था महज़ बिजनेस ही नहीं है और भारत जैसी जटिल सामाजिक संरचना में सरकारें अर्थ तंत्र का एक सीमा से अधिक कार्पोरेटाइजेशन नहीं कर सकती लेकिन, प्रधानमंत्री का हालिया वक्तव्य इन सन्दर्भों में किसी भ्रम की गुंजाइश नहीं छोड़ता. उनकी साफगोई और स्पष्ट दृष्टि की सराहना की जानी चाहिये लेकिन, उनकी इस दृष्टि का विश्लेषण भी किया जाना चाहिये. साफगोई और स्पष्ट दृष्टि हमेशा कल्याणकारी भी हो, यह जरूरी नहीं.
2024 आते-आते देश की 348 पब्लिक सेक्टर इकाइयों में 300 से अधिक का निजीकरण कर दिए जाने की योजना है. प्रधानमंत्री ने कहा कि रुग्ण इकाइयों को दुरुस्त करने की प्रक्रिया में कर दाताओं के पैसों का दुरुपयोग होता है लेकिन, उन्होंने यह नहीं बताया कि अच्छे-खासे लाभ में चल रही कार्य कुशल इकाइयों को निजीकृत करने के पीछे क्या तर्क है ? उन्होंने यह भी नहीं बताया कि 10 लाख करोड़ रुपयों से अधिक के एनपीए के कारण रुग्ण हो चुकी भारतीय बैंकिंग प्रणाली के पीछे करदाताओं के कितने पैसों की बर्बादी हो चुकी है ?
यह बताना तो वे चाहते भी नहीं होंगे कि आज अगर सरकारी बैंकों के निजीकरण का प्रस्ताव है तो इसके मूल में बैंकों के राष्ट्रीयकरण की अवधारणा की विफलता है या यह सत्ता-कारपोरेट के अनैतिक गठजोड़ के कुत्सित खेल का प्रतिफल है ? उसी तरह, वे इस पर भी कुछ खास बोलना नहीं चाहते होंगे कि लाभ कमाने वाली इकाइयों का निजीकरण पब्लिक सेक्टर की अवधारणा की विफलता है या सत्ता और कारपोरेट की जुगलबंदी का अनिवार्य निष्कर्ष ?
हालांकि, ‘सरकारें बिजनेस करने के लिये नहीं होती’ कह कर उन्होंने इस बहस को ही खत्म करने की कोशिश की कि लाभ कमाने वाली इकाइयों का निजीकरण क्यों हो. लेकिन, यहीं से एक बहस शुरू होती है कि बिजनेस है क्या ? और, सामाजिक-आर्थिक जीवन के किन-किन पहलुओं को बिजनेस के हवाले किया जाना चाहिये और किन्हें नहीं ? क्योंकि, भले ही बिजनेस समृद्धि लाता हो, अर्थ तंत्र और मनुष्य का संबंध सिर्फ बिजनेस की पारिभाषिक शब्दावली से ही निर्धारित नहीं किया जा सकता.
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