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अब जेल की एक नई दुनिया हमारी प्रतीक्षा कर रही थी

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राजनीतिक कार्यकर्ता अमिता शीरीं और इनके जीवनसाथी राजनीतिक कार्यकर्ता मनीष आजाद की 8 जुलाई, 2019 को हुई गिरफ्तारी से लेकर जेल जाने तक की कहानी हमें जरूर पढ़नी चाहिए.

अब जेल की एक नई दुनिया हमारी प्रतीक्षा कर रही थी

8 जुलाई 2019. रोज़ की तरह सुबह हुई. पर हमारी ज़िन्दगी में ये सुबह रोज़ की तरह नहीं हुई. सुबह के 5.30- 6 बजे होंगे. दो तीन दिनों की बारिश के बाद सुबह सूरज निकला था. आसमान साफ़ था. आंख खुलने के साथ ही मनीष पहले बिस्तर से उठा. मैं अभी बिस्तर में ही थी. अलसाई हुई. रात मैं चिली के क्रांतिकारी गायक विक्टर जारा की जीवन कथा ‘an unfinished song’ पढ़ रही थी. वह किताब मेरे सिरहाने रखी थी. मनीष रोज़ की तरह दरवाज़ा खोलकर छत पर गया. हमारा कमरा मकान में सबसे ऊपर था. मनीष ने नीचे देखा. सड़क पर घर के सामने तीन-चार गाड़ियां खड़ी थीं और लगभग 20-30 लोग खड़े थे.

मनीष ने सोचा कि शायद मकान मालिक के घर आए होंगे. तभी वे लोग धड़-धड़ करते हुए ऊपर आए और मनीष से कहा ‘अन्दर चलो.’ मनीष ने पूछा ‘आप लोग कौन हैं ?’ ‘मैं मनीष सोनकर एटीएस लखनऊ’ एक नाटे कद के आदमी ने अपना कार्ड दिखाया. इस बीच वे लोग धड़धड़ा कर कमरे में आ गए. उनके साथ दो महिलाएं भी आईं. आते ही वह कहने लगीं ‘लेटे रहिए’. तब तक मैं उठ कर बैठ गई थी. तभी मनीष अन्दर आया और उसने मुझसे कहा ‘देखो ये लोग आए हैं. पुलिस के लोग हैं’. मैं बाहर कमरे में आ गई. हम दोनो तखत पर बैठ गए. मनीष ने धीरे से मेरा हाथ दबाया और कहा ‘हमारी ज़िन्दगी का अब एक नया संघर्ष शुरू हो गया.’ मैंने आंखों से ही उसे आश्वस्त किया और कहा ‘तुम बिल्कुल चिन्ता मत करना, हम इसका सामना बहादुरी से करेंगे, डोन्ट वरी.’ उसने भी आश्वस्ति से सिर हिलाया. इस तरह हमने एक दूसरे को हिम्मत का आदान प्रदान किया.

उनमें से एक ने पूछने पर कहा – ‘मैं शैलेष त्रिपाठी – एटीएस लखनऊ से. आप लोगों के खिलाफ एफआईआर है. अपना कार्ड दिखाऊं क्या ?’ ‘हां दिखा दीजिए’ -मनीष ने कहा. तो उसने अपना कार्ड दिखाया. तब तक मनीष सोनकर जो शायद आपरेशन लीड कर रहा था, उसने हमारे मोबाईल फोन कब्ज़े में ले लिये. उसने पहले मनीष से नाम पूछा फिर मुझसे पूछा. ‘क्या करते हो तुम लोग ?’, उसने पूछा. मनीष ने कहा ‘मैं राजनीतिक सामाजिक काम करता हूं, ये पढ़ाती है.’ ‘खर्चा कैसे चलता है तुम लोगों का ?’ उसने पूछा. मैंने कहा ‘मुझे स्कूल से तनखाह मिलती है और हम लोग अनुवाद का काम करते हैं.’

इस बीच बाकी लोग घर में उथल-पुथल करने लगे. हमारे गद्दे जो ज़मीन में लगे थे, पलट दिये गए. ‘वकील कहां है, वकील कहां है?’ सोनकर ने पूछा. अच्छा ये लोग वकील लेकर आए हैं. मैंने मन में सोचा. तभी वकील अहमद नाम का एक छोटा सा पतला दुबला लड़का अन्दर आया. वह उनका कम्प्यूटर विशेषज्ञ था. उन्होंने हमारे तीन कम्प्यूटर, पेन ड्राइव, हार्ड डिस्क आदि कब्जे में ले लिया. वे हमारे स्पीकर, वाइस रिकार्डर, आदि भी एक चादर में बांधने लगे. मैंने देखा उसमें मेरा प्यारा बोस का स्पीकर भी था. उसे मैंने खासतौर पर एक अनुवाद करके खरीदा था. उस पर मैं अपना संगीत का रियाज़ करती थी. अपने सारे समानों में मुझे केवल अपने उस स्पीकर के चुराए जाने का सबसे ज़्यादा दुख है. न जाने अब वह किस अनम्यूजिकल पुलिस वाले के घर रखा होगा.

इस बीच मनीष ने टायलेट जाने की बात कही. पहले तो वे कहने लगे नहीं टायलेट नहीं जा सकते. इस पर मैंने और मनीष दोनो ने एक साथ विरोध किया, ‘अरे सुबह का समय है आप टायलेट क्यों नहीं जाने देंगे.’ तब मनीष सोनकर ने कहा कि ‘ठीक है जाओ लेकिन दरवाज़ा बन्द नहीं करोगे.’ इस पर हमने फिर से प्रतिवाद किया. हमारे बाथरूम में दो दरवाज़े थे, एक बाहर के कमरे में खुलता और दूसरा अन्दर के कमरे में. उन्होंने बाहर का दरवाज़ा बन्द कर दिया और अन्दर का खुला रखा. थोड़ी देर में मनीष बाहर आकर मेरे पास आ कर बैठ गया. तभी मनीष सोनकर बाहर से अन्दर आया, उसकी नज़र मनीष पर नहीं पड़ी. उसने अन्दर जाकर बाथरूम में झांका और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा -‘अरे वह कहां गया, कहां गया.’ उसकी बदहवासी देख कर मैं ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगी. मेरी खिलखिलाहट ने मेरा तनाव हल्का कर दिया. मनीष सोनकर खिसिया गया.

घर को उथल-पुथल करने के बाद वे मुझे एक कार में और मनीष को एक बुलेरो में ले कर चले. मेरे दोनो तरफ़ दो महिला सिपाही बैठी थीं. मैं अपने मुहल्ले को ध्यान से देख रही थी. सुबह का वक्त था. ज़्यादातर घर बन्द थे अभी. मैं अपने कमरे, अपनी छत, जो मुझे बहुत पसन्द थी, जिसमें पूरा आसमान आ जाता था, अपने मुहल्ले को हसरत भरी उदास नज़रों से देख रही थी, शायद मैं उन्हें छोड़कर हमेशा के लिए चली जा रही थी. हां, कुछ दिनों पहले मेरे एक गमले में रजनीगंधा का फूल उगा था, उसे मैंने अपने कमरे में रख लिया था. सुबह जब वे लोग मेरे घर में घुसे तो रजनीगंधा गम गम महक रही थी. इतने तनाव के बाद भी मेरे मन खयाल आ रहा था – ‘ये लोग रजनीगंधा को गिरफ्तार कर सकते हैं क्या, इसकी महक को कैद करके ले जा सकते हैं क्या.’ और मैं मन ही मन मुस्कुरा दी थी. ‘ये रजनीगंधा बेशक सूख जाएगा लेकिन क्या वे समूची दुनिया से रजनीगंधा की सारी महक चुरा सकते हैं क्या ?’

वे हमें लेकर पुलिस मुख्यालय के पीछे बने एक खाली मकान में लेकर पहुंचे. मुझे कश्मीर और अबूग़रेब समेत पूरे देश और दुनिया के यातनागृहों की याद आने लगी जो मैंने किताबों में बार-बार पढ़ा था. उस मकान में एक कमरे में एक मेज और दो कुर्सियां पड़ी थीं. हम कुर्सियों पर बैठ गए. फिर शुरू हुआ पूछताछ का दौर. ‘पैसे कहां से आते हैं ?’ मनीष ने बताया कि ‘ये नौकरी करती है, और हम दोनो मिल कर अनुवाद का काम करते हैं.’ तभी मनीष सोनकर चिल्लाया ‘घर में इतनी महंगी-महंगी जो किताबे हैं उसके लिए पैसा कहां से आया ?’ मुझे समझ में नहीं आया कि उसकी मूर्खता पर कैसे रिएक्ट करूं.

भोपाल में हमारे आठ-दस साल में हमारी एकमा़त्र पूंजी थीं वे किताबें. हम हर महीने दो चार किताबें खरीदते ही थे और जो उपहार में मिलती थीं वे अलग. वे किताबें घर की दूसरी चीज़ थीं जिनके खोने का हमे बेइन्तहां दु:ख था. खैर, मैं थोड़ा इत्मीनान में आ गई थी कि पूछताछ में हम दोनो साथ थे. लेकिन थोड़ी देर बाद उन्हें कुछ अहसास हुआ और उन लोगों ने हमे अलग-अलग कमरों में कर दिया. फिर अलग-अलग कमरों में ही शुरू हुआ हमारी पूछताछ का दौर. इस दौरान मेरे कान लगातार दूसरे कमरे से आ रही अस्पष्ट आवाज़ों पर लगे रहे. कहीं वे मनीष को टार्चर तो नहीं कर रहे ?

आन्ध्र पुलिस का एक बन्दा हाथ में पेन कापी लिए मुझसे पूछताछ करने लगा और डिटेलिंग नोट करता जा रहा था. उसने बिल्कुल शुरू से ही शुरू किया. कहां पैदा हुए, कब पैदा हुए, बचपन कहां बीता, फिर शिक्षा-दीक्षा, क्या विषय थे, घर के बारे में, घर के लोगों के बारे में. इसके बाद शुरू हुआ राजनीतिक जीवन के बारे में पूछताछ. मज़े की बात लगभग दो दिन की पूछताछ में तकरीबन 15 लोगों ने पूछताछ की और सभी ने लगभग एक ही तरह से एक ही सवाल पूछे और कुछ नोट किया. मैं शुरू में थोड़ी नर्वस थी पर बाद में वे मुझे कम, मैं उनको ज़्यादा पढ़ने लगी थी. मुझे डर बिल्कुल नहीं लग रहा था.

ये सरकारी मुलाज़िम अपने सामने बहुत बौने लग रहे थे. हालांकि जो उच्च अधिकारी थे उनमें एरोगेंस हर कोण से झलक रहा था लेकिन जो आम सिपाही थे और निम्न ओहदे के लोग थे वे हमसे बहुत नर्मी से पेश आ रहे थे. थोड़ा अर्दब हमारी पढ़ाई लिखाई का भी था. ‘पीएचडी करने के बाद आप तो किसी विश्वविद्यालय मंे प्रोफेसर हो सकती थीं, फिर आपने ये ज़िन्दगी क्यों चुनी?’ मैंने कहा ‘इतिहास की विद्यार्थी हूं, इतिहास ने ही मुझे ये बताया है कि इस दुनिया को बदलना कितना ज़रूरी है. वरना पढ़लिख कर सरकार की चाकरी तो बहुत से लोग कर रहे हैं. आप भी सरकार की सेवा में लगे हैं.’ मेरे यह कहने पर जो निचले स्तर के पुलिस वाले थे वो थोड़ा बैकफुट पर आ जाते. ‘अरे हम भी वही चाहते हैं जो आप लोग चाहते हैं, लेकिन हमार मजबूरी है ये नौकरी करना, हमें अपना परिवार भी पालना है.’ मैं उनकी मजबूरी पर सिर हिला देती.

फिर बीच में एक बड़ा अधिकारी आया जो शायद बंगाली था, (वह बीच-बीच में फोन पर बांग्ला में बात कर रहा था), शायद वह आईबी भोपाल का कोई आला अधिकारी था, कमरे में घुसते ही उसने मुझे मेरे अतीत के बारे में बोलना शुरू किया और फिर धमकी दी ‘अभी हम कुर्सी पर बिठा कर बहुत इज़्ज़त से बात कर रहे हैं. हम दूसरे तरीके भी अपना सकते हैं.’ बदले मंे मेरे जबड़े भिंच गए -‘आपको जो करना हो कर लीजिए, आपका अपरहैण्ड है, मुझे जो पता है, बता रही हूं.’ मैंने कहा.

मेरा सारा ध्यान मनीष पर लगा था- कहीं वे उसे टार्चर तो नहीं कर रहे. वे हम दोनो से सघन पूछताछ करते रहे. बारी-बारी से. आन्ध्र पुलिस के लोग काफी अनुभवी थे. उनके पूछताछ का स्तर भी काफ़ी बेहतर था. पर यू.पी. पुलिस के लोग अधिकांशतः ‘अनपढ़’ ही लग रह थे. मनीष सोनकर ने एक बार पूछा कि ‘तुम लोग मैगी क्यों खाते हो, मैगी तो फैक्ट्री में बनती है, तुम लोग तो फैक्ट्री विरोधी हो. तो वहां का बना सामान क्यों इस्तेमाल करते हो ?’ मुझे उसके सवाल पर हंसी आई. ‘इतना बेवकूफ़ आदमी तो पुलिस का अधिकारी ही हो सकता है.’ साम्यवाद, जो हमारा लक्ष्य है, कभी भी फैक्ट्रियों का विरोध तो नहीं करता. हां वह यह तय करता है कि उस पर मालिकाना किसका होगा. और ज़रूरत पड़ने पर ट्रैक्टर के कारखाने को तोप के कारखाने में बदल देता है. ये साम्यवाद में ही सम्भव है. मैंने मनीष सोनकर की बात का कोई जवाब नहीं दिया.

बीच-बीच में पूछताछ करने वाले बदलते रहे. वे आइडियोलाजिकल बहस भी करते. अधिकांश यही कहते ‘आपकी विचारधारा से हम भी सहमत हैं, हम भी वही चाहते हैं जो आप चाहते हैं, बस हम आपके तरीकों से असहमत हैं.’ मैंने यथासम्भव उनसे बहस की. उनसे कहा- ‘अगर आप मानते हैं कि यही सही है तो आप हमारे साथ क्यों नहीं आते. आप अपना पक्ष बदलते क्यों नहीं ? आप अन्याय करने वालों का साथ क्यों देते हैं ?’ इस पर वे परिवार पालने की दुहाई देने लगते. हालांकि मुझे पता था कि इनसे बहस करने से कोई फायदा नहीं. इसलिए मैंने ज़्यादा बहस नहीं की. इसी बीच आन्ध्र पुलिस का एक व्यक्ति आया और कहने लगा ‘सर (मनीष) बहुत इन्टेलिजेंट हैं, अगर कोशिश करते तो आईपीएस हो सकते थे.’ मैंने कहा ‘आप आईपीएस होने को ही बहुत बड़ा मानते हैं. मेरी नज़रों में आईपीएस होना कोई बड़ी बात नहीं है. मेरा मनीष क्रान्तिकारी है और एक क्रान्तिकारी बनना जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य होता है. जीवन में उससे ऊंचा कोई लक्ष्य नहीं हो सकता.’

बीच-बीच में वे मोबाइल पर कुछ फोटो दिखाते और पहचानने के लिए कहते. रात के 10 बज चुके थे. दिन भर की कवायद के बाद मैं थक चुकी थी. उन्होंने मुझे कहा कि ‘सो जाइये.’ वहीं बिस्तर पर एक गद्दा पड़ा था, मैं उसी पर लेट गई. नींद तो कोसों दूर थी. पास वाले कमरे में मनीष से पूछताछ चल रही थी. मेरे कान लगातार उधर ही लगे हुए थे. बातचीत की आवाज़ लगातार आ रही थी. न जाने वे उसे कितनी रात तक जगाने वाले थे. पता नहीं कब मेरी आंख लग गई.

सुबह मेरी नींद जल्दी खुल गई. मेरे साथ एटीएस लखनऊ की दो सिपाही थीं – प्रियंका दूबे और क्षिप्रा भारती. दोनो की बाॅडी लैंग्वेज और व्यवहार में जाति का असर साफ़ दिख रहा था. प्रियंका दूबे जब नहाने गई तो क्षिप्रा ने मुझसे बातचीत करनी शुरू की. वह तमाम पूछताछ करने वालों के साथ हुई मेरी बातचीत से प्रभावित थी. उसने पूछा ‘आप बुद्ध को मानती हैं ?.’ मैंने उनसे कहा कि ‘उनके दर्शन से एक हद तक सहमत हूं पर उन्हें भगवान नहीं मानती.’ जब उसे पता चला कि मैं अम्बेदकर समर्थक हूं तो वह मुझसे और भी खुल गई. वह बताने लगी ‘दीदी कितनी भी नौकरी कर लो लेकिन आफिस में लोग मुंह पर दलित विरोधी बातें करते हैं, पर क्या करें नौकरी करना है तो सब सहना पड़ता है.’ तभी प्रियंका नहा कर आ गई. वह चुप हो गई. प्रियंका किसी काम से बाहर निकली. उसने दूसरे कमरे में झांका और चिल्लाई ‘अरे वह (मनीष) कहां गया.’ मैं बिल्कुल घबरा गई. मैं ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगी ‘कहां लेकर गए हैं मनीष को.’ तभी कमरे से मनीष की आवाज़ आई ‘मैं यहीं हूं.’ मेरी जान में जान आई. वह कमरे के एक कोने में बिछाए गए गद्दे पर लेटा था. मनीष की आवाज़ की मजबूती मुझे और ताकत दे गई.

एटीएस का एक इंस्पेक्टर था राजेश राॅय. शायद यही नाम था उसका. वह थोड़ा साहित्य में दखल रखता था. उसने मुझसे कहा – ‘आपने अपने कमरे की दीवार पर जो कविता पोस्टर लगा रखा है – ‘शहतूत’, उसे सुना दीजिए ज़रा.’ मैंने पूछा ‘वो साबिर हका वाली ?’ उसने कहा ‘हां, बहुत अच्छी कविता है. मुझे कविता पूरी याद नहीं थी. मैंने मौका देख कर उससे अनुरोध किया कि मुझे मनीष से मिलवा दीजिए.’ सुबह का वक्त था, सारे बड़े अफ़सर जा चुके थे. थोड़ा हिचकिचाने के बाद तैयार हो गया और मुझे लेकर बाहर वाले कमरे में आया. मेरे पीछे-पीछे प्रियंका भी आई.

मनीष कमरे के एक कोने में एक गद्दे पर लेटा हुआ था. आहट सुनकर वह उठ गया. हमने मुट्ठी बांध कर एक दूसरे का अभिवादन किया और आगे बढ़ कर हाथ मिलाया. हममें एक दूसरे की ऊर्जा का संचार हो गया. मैंने जल्दी से पूछा -‘तुम ठीक हो न ? ज़्यादा परेशान तो नहीं किया ?’ उसने कहा ‘नहीं.’ उसने मेरा हाल पूछा. ‘मैंने कहा -‘मैं ठीक हूं तुम चिन्ता मत करना.’ तभी प्रियंका चिल्लाने लगी ‘चलिए वापस चलिए हमें मिलाने की परमिशन नहीं है.’ तभी राय ने भी कहा ‘चलिए आप मिल लिए न.’ मनीष को देख कर मुझमें फिर से ताकत सी आ गयी.

धीरे-धीरे फिर से सारे अफ़सर आने लगे. प्रियंका और क्षिप्रा के फोन पर मैसेज आने लगे – ‘आपरेशन सक्सेसफुल.’ उन्हीं से पता चला कि सुबह के अखबारों में हमारी गिरफ्तारी की खबरें हेडलाइन थीं. मैंने उनसे खबर दिखाने को कहा पर उन्होंने नहीं दिखाया.

बीच-बीच में वे आकर फिर पूछताछ करते. बात करते-करते मैंने उनका पैटर्न पकड़ लिया था. मैं जिस बात को इंकार करती तो वे कहते ‘मनीष तो ऐसा ही कह रहा है.’ मैं कहती कि ‘फिर आप उसी से पूछ लीजिए.’

लगभग 10-11 बजे एक आईजी (अनुराधा शंकर) आई. आते ही उसने मुझसे कहा कि मैं आपसे पूछताछ करने नहीं आई, मैं यह जानना चाहती हूं कि किस मनःस्थिति में आप लोग इस काम में लगते हैं. उसने भी वही बात दोहराई. – ‘देखिये हालात तो बहुत खराब हैं और मैं भी आपकी सोच से इत्तेफाक रखती हूं, पर तरीका गलत है.’ फिर वह मेरे स्कूल के बारे में बात करने लगी. मज़ेदार बात यह थी कि अधिकांश लोग इस बात को स्वीकार कर रहे थे कि समाज में कुछ ग़लत हो रहा है, और उसे बदलना चाहिए. इस पर जब मैं कहती कि हमने तो अपना स्टैण्ड ले लिया है, आप भी तय करिये. तो सब पेट का हवाला देने लगते. जैसे हमारे परिवार नहीं थे, हमारे पेट नहीं थे. पर अन्तर इतना था कि हमारे दिमाग भी थे और वह भी खुले हुए, सोचने समझने वाले.

भोपाल का एक डीएसपी जो उस यातनागृह का पूरा बन्दोबस्त देख रहा था, उसने स्कूल के बारे में मुझसे बात की. जब उसे पता चला कि मैं जिस स्कूल की प्रिंसपल थी वह स्कूल अनूठा था. वहां इम्तेहान नहीं होते. किसी तरह की रटने वाली कोई पढ़ाई नहीं होती. वहां के निर्णयों में बच्चे शामिल होते. तब वह शिक्षा पर बहस करने लगा. लेकिन जब वह नहीं टिका तो झल्ला कर कहने लगा – ‘अच्छा तो एक्ज़ाम नहीं लेकर आप वहां बच्चों को नक्सलाइट बना रहे हैं.’ उसके इस मूर्खतापूर्ण कथन के बाद मेरा उससे और बात करने का मन ही नहीं हुआ.

दोपहर में तकरीबन डेढ़ दो बजे वे हमे कोर्ट लेकर गए. कोर्ट में दोस्तों के किये हुए दो वकील हमें मिले. अन्दर जाने पर कविता और कमल हमें मिले. उन सभी से मिल कर हमें लगा कि हममें जैसे जान आ गई. कविता बहुत रो रही थी. उसने बताया कि सुबह से लोगों के फोन आ रहे हैं, पेपर में बहुत खराब-खराब छपा है. सीमा आज़ाद के बारे में भी छपा है.’ कविता रोते हुए बोली ‘दीदी अब अब्बू और झिनुक को कौन बड़ा करेगा ?’ इस बात पर मैं और मनीष भी रोने लगे. मनीष ने कविता से कहा कि ‘अबीर को सब बता देना. उससे कहना कि हमारा इन्तज़ार करेगा. हम बाहर आकर उससे मिलेंगे.’ कविता से मिल कर अब्बू के प्रति हमारी भावनाएं और भी सघन हो गईं.

हम जैसे ही कोर्ट से बाहर आए – मीडिया का भारी जमावड़ा हमारा इन्तज़ार कर रहा था. उन्हें देखते ही मनीष ने नारा लगाया – ‘इन्क़लाब ज़िन्दाबाद !’ मैंने भी मुट्ठी लहाराई ‘इन्क़लाब ज़िन्दाबाद !’ इसके बाद मीडिया वाले मेेरे ऊपर मधुमक्खी की तरह टूट पड़े. मैं निकलने के लिए रास्ता तलाशने लगी. तभी पीछे से प्रियंका दूबे सिपाही मेरा दाहिना हाथ पकड़ कर खींचने लगी. मेरे कंधे में फ्रोजेन शोल्डर था. मैं दर्द से छटपटा गई. मैंने उसे डांटते हुए कहा ‘छोड़ो मेरा हाथ. मेरे हाथ में दर्द है.’ समूची मीडिया के सामने डांट खाना उसे अपमानजनक लगा शायद.

किसी तरह हम कार तक पहुंचे. मेरा हलक सूख रहा था. मैंने जैसे ही अपने हाथ में ली हुई बोतल मुंह से लगाई, उसने मेरे हाथ से बोतल छीन ली और गाली देने लगी -‘कुतिया, हरामज़ादी … नहीं पीना है पानी. तूने सबके सामने मुझसे ऐसे बात क्यों की.’ उसे जितनी गाली आती थी वह मुझे देने लगी. साथ के एक इंस्पेक्टर और क्षिप्रा उसे समझाने लगे. जब हम वापस उस ‘यातनागृह’ पर पहुंचे तो प्रियंका ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी. अपने सीओ मनीष सोनकर को उसने बताया कि मैंने उसके साथ बदतमीज़ी की.

तब मुझे भी गुस्सा आ गया. मैंने उसे कहा कि मेरे कन्धे में दर्द है और ये हाथ पकड़ कर खींच रही थी, तब मैंने उसे मना किया. ये सारे रास्ते मुझे गन्दी-गन्दी गाली दे रही थी.’ इस पर मनीष सोनकर ने कहा -‘अच्छा होता तुम्हारा कन्धा टूट जाता. ये साले नक्सलाइट इनकी औकात यही है. साले पाकिस्तान से पैसा लेते हैं, (उसकी मूर्खता का एक और नमूना) बहुत से प्रूफ़ मिले हैं इन सालों को तो मैं बताउंगा.’ मनीष (मेरा) भी मनीष सोनकर से लड़ पड़ा ‘इसने मेरी वाइफ़ के साथ बदतमीज़ी की है.’ तब वहां मौजूद अफ़सरों ने शांत कराने की कोशिश की कि जाने दीजिये, उसे डिप्रेशन है, ब्लडप्रेशर भी है. वह शार्ट टेम्पर्ड है, वगैरह, वगैरह…

आन्ध्र पुलिस के अफ़सर चुपचाप सब देख रहे थे. जब सब चले गए तो एक ने मुझसे कहा- ‘You both are highly educated people. you have done PhD, after all this is over, you both go to your home and live a peaceful life. leave all these things.’ मैंने उससे कहा – ‘same i will advise to you’ तब उसने अपने साथी से कहा- ‘they are very sincere and committed people.’

शाम ढल रही थी. अब हमारी भोपाल छोड़ने की बारी थी. मैं और मनीष अलग-अलग गाड़ियों में थे. गाड़ी स्टार्ट हुई. एक-एक करके भोपाल के चैराहे पार होने लगे. सड़कें खामोश हमें बिदाई दे रहीं थीं. भोपाल की सारी हरियाली-खूबसूरती मैं अपने दिल में पहले ही बसा चुकी थी. इससे भी बढ़कर पिछले आठ-नौ साल में यहां के ढेर सारे प्रियतम दोस्त ! और हमारा प्यारा अबीर, झिनुक सब छूटे जा रहे थे. पर अभी उस झगड़े के बाद मैं तनाव में थी और शायद इसी कारण से सब छूटने का दु:ख उतना हावी नहीं था. गाड़ी में पीछे की सीट पर मेरे एक तरफ़ प्रियंका बैठी थी, दूसरी तरफ़ क्षिप्रा. दिन भर कुछ भी नहीं खाया था. मेरा शुगर लेवल शायद डाउन हो रहा था. उनकी सारी बातचीत पर मैं कुछ भी रिएक्ट नहीं कर रही थी. आगे सीट पर बैठा इंस्पेक्टर थोड़ा इन्फार्मल होने की कोशिश कर रहा था. पर मैं सख़्त और शांत बैठी थी.

इसी बीच उनके फोन पर उनके आपरेशन की कामयाबी के वाट्सऐप संदेश आने लगे थे. तभी प्रियंका अपने फोन पर आई एक क्लिप क्षिप्रा को दिखाने लगी. चूंकि मैं बीच में थी तो मुझे भी दिखाई दिया. कोर्ट से बाहर आते समय मनीष ‘इन्क़लाब ज़िन्दाबाद !’ का नारा लगा रहा था. फिर उससे किसी ने पूछा ‘आप पर क्या धारा लगी है ?’ मनीष ने कहा -‘देशद्रोह की, लेकिन मैं देशद्रोही नहीं हूं.’ दो दिन बाद बाहर की दुनिया में क्या चल रहा है, उसकी एक झलक दिखाई दी. मीडिया को सनसनीखेज मसाला मिल चुका था.

तभी क्षिप्रा ने पूछा ‘ये इन्कलाब ज़िन्दाबाद क्या होता है ?’ आगे की सीट पर एक पुलिस वाला बैठा था. उसके मुंह में जितना गुटका भरा था उतनी ही महिला विरोधी सामन्ती गालियां. बहुत समय बाद मुझे यूपी के सामन्ती व्यवहार के दर्शन हो रहे थे. लगभग 10 साल तक मैं ऐसे माहौल से बिल्कुल दूर थी. भोपाल के जिस परिवेश में मैं थी वहां ऐसा सामन्ती व्यवहार लगभग न के बराबर था. एनजीओ में की उस दुनिया में चाहे जितना दोहरापन हो लेकिन अपने परिवार और आपसी व्यवहार में वह दुनिया काफी हद तक जनवादी थी. उस इंस्पेक्टर ने मुझसे ‘इंकलाब ज़िन्दाबाद’ का मतलब बताने को कहा. मेरा बोलने का मन नहीं था. आगे चलकर क्षिप्रा ने फिर पूछा कि ‘लाल सलाम’ क्या होता है. मैंने बताने से मना कर दिया. और चुपचाप बैठी रही.

हमारी कार सरपट दौड़ी चली जा रही थी. भोपाल, विदिशा, सांची सब पीछे छूटा जा रहा था. रात में लगभग दो ढाई बजे हम झांसी पहुंचे. झांसी में मुझे महिला थाने और मनीष को पुरुष थाने के लाॅकअप में रखा गया. अगले दिन (10 जुलाई, 2019) सुबह निकल कर हम लखनऊ एटीएस के आलीशान दफ्तर पर पहुंचे. सेन्ट्रली एयरकन्डीशन्ड एटीएस कार्यालय के दो कमरों में मुझे और मनीष को बिठाया गया. मज़े की बात वहां पहुंचने के बाद भौकाल बनाने के लिए उन लोगों ने हमारी रखवाली करने के लिए ब्लैक कैट कमांडोज़ को लगा दिया. हम इतने ख़तरनाक जो थे.

काले कपड़ों में ए के-47 लिए दो कमांडोज़ हमारी निगरानी करने लगीं. मैं कमरे के किनारे पड़े गद्दे पर बैठ कर चुपचाप उन लोगों की हरकतों को देखने लगी. उनके लिए वहां निगरानी करने को कुछ खास था ही नहीं. थोड़ी देर में वे आपस में बतियाने लगीं. वे वहां की वर्किंग कन्डीशन से बेहद क्षुब्ध थीं. वे अपने किसी सीनियर अफसर की बुराई कर रहीं थीं जो महिलाओं से बहुत अभद्रता से पेश आता था. एक ने कहा कि मैं तो कमांडो में आना ही नहीं चाहती थी लेकिन इन लोगों ने धोखे से फार्म भर दिया. एक की शादी के पांच साल बाद भी बच्चे नहीं हुए थे, वह अपनी चिन्ता अपनी साथी से शेयर कर रही थी. मैं इस काले कपड़े के पीछे की हकीकत को समझ पा रही थीं.

बीच-बीच में कुछ पुलिस वाले भी कमरे में आ जाते और वहां पड़ी कुर्सियों पर बैठ कर गप करते. कुछ अपनी वीरगाथा भी सुनाते जिसके केन्द्र में वे खुद होते. एक ने फर्जी एनकाउण्टरों की कहानियां शुरू कर दीं और सच्चाइयां उगलने लगा. उसके अनुसार ज़्यादातर एनकाउन्टर फर्जी होते हैं. ये पुलिस वाले कोई बहादुर नहीं होते इनको अपनी जान बचाने की ज़्यादा लगी होती है, इसलिए पहले शूट कर देते हैं. मैं चुपचाप उनकी बातों को सुनते हुए सोच रही थी कि ये तऩ्त्र भीतर से कितना खोखला है. बस बाहरी आवरण की चमक-दमक है. रात में फिर पूछताछ का क्रम चलता रहा. हर बार नए लोग आते और लगभग एक ही सवाल दोहराते. मैं भी एक ही जवाब देते-देते बोर हो गई थी. बाथरूम में आते जाते समय मैं कोशिश करके मनीष के कमरे में झांक लेती.

तभी रात हो गयी थी. वे खाना लेकर आए और मुझे मनीष के कमरे में चलने को कहा. हमने मनीष ने आस-पास बैठ कर आखिरी बार खाना खाया. जेल में तो हम अलग-अलग ही रहने वाले थे. बाहर तेज बारिश हो रही थी. रात में दो बजे वे मुझे लेकर आशाज्योति (महिला संरक्षण गृह) लेकर आए. शायद एटीएस आफिस में महिलाओं को रखने का कानून नहीं होगा. बरसते पानी में हम एक घण्टे तक आशा ज्योति का दरवाज़ा खटखटाते रहे. बड़ी मुश्किल से वहां के कर्मचारियों ने दरवाज़ा खोला. वहां दाखिले की कार्यवाई करते हुए लगभग चार बज गए. मैं सरकारी कामकाज के तौरतरीकों की व्यर्थता देख रही थी. ब्लैक कैट कमांडोज़ भी मेरे साथ महिला संरक्षण केन्द्र में रुकीं.

सुबह 11 जुलाई को वे फिर मुझे लेकर एटीएस आफिस आ गए. दोपहर में हमें लेकर मेडिकल के लिए गए. मेडिकल भी एक औपचारिकता थी. मनीष ने ज़ोर देकर मेरी शुगर जांच करने को कहा. उसके कहने पर वे अनिच्छा से मुझे पैथोलाॅजी में ले गए. वहां ग्लूकोमीटर पर शुगर की जांच हुई. स्वाभाविक तौर पर शुगर काफी बढ़ी हुई थी. 300 के पार. लेकिन उन लोगों ने उसे रिपोर्ट में दर्ज नहीं किया. लगभग दो बजे के बाद वे हमें लेकर कोर्ट की ओर चले. इस बार अन्तर यह था कि हमें ले जाने के लिए मुलज़िमों की गाड़ी बुलाई थी. हमारे लिए यह अच्छा ही था क्योंकि इसमें मैं और मनीष एक साथ पास-पास बैठे और आपस में पूरे रास्ते बतियाते हुए गए.

कोर्ट में जाने से पहले हमने और मनीष ने अपने मुंह को ढकने से इन्कार कर दिया कि हम कोई अपराधी नहीं हैं. रास्ते में क्षिप्रा ने फिर से अम्बेदकर पर हमसे बात करनी शुरू कर दी और कहा कि उनकी किसी किताब को बताइये पढ़ने के लिए. हमने उसे अम्बेदकर की ‘जातिभेद का उच्छेद’ पढ़ने की सलाह दी. उसने पेन निकाल कर डायरी में किताब का नाम लिख लिया. मैं सोच रही थी कि यही तो हमारा काम है, पढ़ना लिखना और लोगों को समझाना कि इस दुनिया को कैसे बदलें. अतीत में इस काम को करने में किसका-किसका योगदान है. इसीलिए तो इन्होंने हमें पकड़ा है लेकिन हमारा काम तो यहां भी जारी है.

कोर्ट रूम में हमारी आंखें सीमा-विश्व को ढूंढ रही थीं. वे हमें कोर्ट रूम के बाहर ही मिले. हमने आंखों ही आंखों में एक दूसरे से अभिवादन किया. एक बार फिर से ऊर्जा हमारी नसों में दौड़ने लगी. हमने उन्हें आंखों से ही आश्वस्त किया कि हम ठीक हैं.

कोर्ट की कार्यवाई के बाद हम फिर से मुलज़िमों को ले जाने वाली गाड़ी में सवार हो गए. सीमा-विश्व हमें गाड़ी तक छोड़ने आए. सीमा जेल के लिए ज़रूरत का सामान लेकर आई थी. जिसे एटीएस वालों ने जेल पहुंचने पर हमें सौंप दिया. लगभग पौन-एक घण्टे के सफ़र के बाद हम ज़िला जेल के बड़े से काले गेट पर पहुंचे.

11 जुलाई, 2019 की शाम लगभग 6 बजे हम जेल के अन्दर दाखिल हुए. हमने और मनीष ने गाड़ी से उतरने से पहले एक दूसरे से हाथ मिलाया और एक दूसरे को साहस प्रदान किया और अपना ख्याल रखने को कहा. अब जेल की एक नई दुनिया हमारी प्रतीक्षा कर रही थी.

  • अमिता शीरीं

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