पं. किशन गोलछा जैन, ज्योतिष, वास्तु और तंत्र-मंत्र-यन्त्र विशेषज्ञ
देश की मौजूदा सरकार की प्रणाली देखने से यही लगता है कि राजनीति के नाम पर आने वाली पीढ़ियों के साथ सिर्फ़ और सिर्फ़ खिलवाड़ किया जा रहा है. पहले ही हमारे देश में अमीरी-गरीबी की इतनी ज्यादा समस्या है और मौजूदा सरकार की नीतियों से 70% जनता की मेहनत का पैसा 5% राजनेताओं और उनके कॉर्पोरेट्स दोस्तों (अदानी-अम्बानी जैसों) के पास जा रहा है. देश में आर्थिक सुधार करने के बजाय मोदीगैंग अपने राजनितिक फायदे के लिये देश की आने वाली पीढ़ियों के लिये ऐसी विसंगतियांं पैदा करने की कोशिश कर रही है, जिससे वो पैदायशी गुलाम बने.
ये इन संघियों की पुरानी चाल है. पहले ये सत्य के स्थान पर झूठ को प्रचारित करते हैं. फिर उस प्रचारित झूठ को लिखते हैं. फिर उस झूठ को सत्य कहकर थोपते हैं और अपना ही लिखा और प्रचारित किया झूठ सबूत के रूप में पेश कर देते हैं. मैं पिछले कई सालों से कह रहा हूंं कि संघियों द्वारा भारत की व्यवस्था और इतिहास को चुपचाप बदला जा रहा है. और अब तो कट्टरवादी भी हिंदुत्व के नाम पर गाहे ब गाहे सपोर्ट भी कर रहे हैं लेकिन वे नहीं जानते कि ऐसा करके वे अपनी ही आने वाली पीढ़ियों को गुलामी की तरफ धकेल रहे हैं !
मैं उन सभी मूर्खोंं से कहना चाहता हूंं जो भक्त बने घूम रहे हैं कि ये जो तथ्यों को बदल कर आप देश के लिये बर्बादी की कहानी लिख रहे हैं न, ये गर्व की नहीं बल्कि शर्मिंदगी की बात है.
एक कहानी तो सुनी ही होगी कि एक कुंभार के पास एक गधा और एक घोडा था. घोड़े पर कुंभार सवारी करता था और गधे पर बोझ लादता था. एक दिन बोझ के कारण गधा बहुत थक गया. उसने घोड़े से कहा कि तुम कुछ बोझ ले लो नहीं तो मैं मर जाऊंगा लेकिन घोड़े ने हंसी उड़ाते हुए कहा कि मैं गधा थोड़े ही हूंं. मैं घोडा हूंं और सिर्फ सवारी ढोता हूंं, बोझ नहीं. थोड़ी दूर चलते हुए गधा गिर पड़ा और मर गया. अब उस कुंभार ने वो सारा बोझ और मरे हुए गधे को भी घोड़े पर लादा और खुद भी बैठकर उसकी रानों पर चोट करने लगा ताकि घोडा तेज चले और वो घोडा बोझ के तले दबा अब सोच रहा था कि काश ! उसने गधे की बात मानकर पहले ही थोड़ा बोझ ले लिया होता तो अब सारा बोझ नहीं उठाना पड़ता. बस ! यही हालत तुम सब घोड़ों की होने वाली है जो देश की 70% गरीब जनता का दर्द समझे बिना अपने हिंदुत्व के कट्टरवाद के नशे में उन्हें हड़का रहे हैं. एक दिन ये सारा बोझ तुम्हारे आने वाले वंशज उठायेंगे और वे पैदायशी गुलामी करेंगे।
जैसा कि मैंने पहले भी लिखा था कि क्या आपको सच में लगता है कि हम अपने देश के बारे में पूरे तथ्य सही से जानते हैं ? मेरे ख्याल से ऐसा बहुत कुछ है जो हमें जानना बाकी है और ये बचा हुआ जानने के लिये हमें धैर्य के साथ सत्य अन्वेषकों के लेखों को पढ़ना चाहिये. आज बीबीसी हिंदी में कुमार प्रशांत द्वारा 25 सितंबर, 2019 को लिखित लेख पढ़ा जो उन्होंने बीबीसी हिंदी के लिये लिखा था, उसे ही कुछ एडिट के साथ पोस्ट कर रहा हूंं. उसमें ऐसे बहुत से तथ्य हैं, जो जानने लायक है यथा –
ये आज़ादी से ठीक पहले की बात है बल्कि ये कहूं कि आज़ादी की प्रक्रिया चल रही थी और पं. जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्ल्भ भाई पटेल रियासतों के एकीकरण की योजना बनाने में जुटे थे ताकि जब भारत आज़ाद हो तो वो छोटी रियासतों में बंटा सैकड़ों टुकड़ों वाली भूमि न रहे बल्कि एक ऐसा देश बनकर उभरे जो विश्व के नक़्शे में महान देश बने.
ये एक बहुत ही मुश्किल भरा और पेचिदा कार्य था क्योंकि उस समय उन रियासतों के राजा क़िस्म-क़िस्म की चालों और शर्तों के साथ भारत में विलय की चाहत में डूबे थे. अगर शायद पं. नेहरू और सरदार पटेल की जगह और कोई होता तो शायद भारत कभी भी एक देश बनकर नहीं उभरता क्योंकि एक तरफ तो जितनी रियासतें थी उतनी चालें भी थी. दूसरी तरफ़ साम्राज्यवादी ताक़तें भी अपनी चालें चल रही थी, जिसकी बागडोर इंग्लैंड के हाथ से निकलकर अमरीका की तरफ़ जा रही थी. इन ताक़तों का सारा ध्यान इस बात पर था कि भागते भूत की लंगोटी का वो कौन-सा सिरा अपने हाथ में पकडे जिससे एशिया की राजनीति में अपनी दख़लंदाज़ी बनाये रखने और आज़ाद होने जा रहे भारत पर नज़र रखने में सहूलियत हो.
हालांंकि 1881 के बाद से साम्राज्यवाद इसके लिये लगातार जाल बुन रहा था कि वो पूरे साऊथ एशिया पर नजर रखने के लिये भारत में अपनी पैठ कायम कर ले ताकि वो जब चाहे पूरे साऊथ एशिया में दखलंदाजी कर सके. आज़ाद होते भारत के साथ पाकिस्तान भी एक अलग देश बन रहा था और अमरीका को भारत के बजाय पाकिस्तान में पैठ बनाना ज्यादा सहूलियत वाला काम लग रहा था. भारत और पाकिस्तान के मध्य का कश्मीर भी इस रणनीति के लिये बहुत मुफ़ीद स्थान था लेकिन तब कश्मीर एक आज़ाद मुल्क था और वहां के नौजवान नेता शेख़ मोहम्मद अब्दुल्लाह कश्मीरी रियाया की ओर से राजशाही के ख़िलाफ़ लड़ रहे नेताओं में सबसे बड़े नेता थे और वे पं. नेहरू के अत्यधिक निकट थे इसीलिये कांग्रेस उन्हें पूरा सपोर्ट करती थी.
उस समय कश्मीर में शेख अब्दुल्लाह के राजतन्त्र के खिलाफ स्थानीय आंदोलन की वजह से महाराजा हरिसिंह ने उन्हें जेल में डाल दिया और जब ये बात पं. नेहरू को पता चली तो नाराज़ पं. नेहरू उसका प्रतिकार करने कश्मीर पहुंचे. महाराजा हरिसिंह ने उन्हें भी उनके ही गेस्टहाउस में नज़रबंद करने का आदेश दे दिया था (महाराजा के लिये पं. नेहरू भड़काऊ लाल झंडे की तरह थे).
ये वो समय था जब विभाजन और आज़ादी दोनों ही आने वाली थी. ऐसे में जब पं. नेहरू को कश्मीर में नजरबन्द कर दिया गया तो वहां ऐसा कौन जाये जिससे महाराजा हरिसिंह का विवेक जागृत हो जावे. तब लार्ड माउंटबेटन ने प्रस्ताव दिया कि क्या हम बापूजी (महात्मा गांंधी) से वहां जाने का अनुरोध कर सकते हैं ?
महात्मा गांधी इससे पहले कभी कश्मीर नहीं जा सके थे. जब-जब जाने की योजना बनी किसी-न-किसी कारण से उसमें बाधा आ जाती थी. अतः इस बार लार्ड माउंटबेटन चाहते थे कि महात्मा गांंधी कश्मीर जाये क्योंकि उन्हें ऐसी उम्मीद थी कि महाराजा बापूजी का प्रतिकार नहीं करेंगे और स्वेच्छा से राजतन्त्र का त्याग कर देंगे (जिन्ना ने मौके का फायदा उठाकर कश्मीर का विलय पाकिस्तान में करने की नीयत से कश्मीर का रुख किया, मगर उस समय कश्मीरी रियाया ने उनका स्वागत टमाटर और अंडों के साथ किया था और इसकी सबसे बड़ी वजह जिन्ना की इमेज थी, जो जिन्ना के ज़मींदारों व रियासत के पिट्ठू होने की वजह से बनी थी).
अब चूंंकि प्रस्ताव लार्ड माउंटबेटन ने दिया था और जवाब महात्मा गांधी को देना था क्योंकि उस समय उनकी उम्र 77 साल हो चुकी थी और कश्मीर का सफ़र बहुत मुश्किल था लेकिन देश का सवाल था. अतः महात्मा गांधी को हर मुश्किल मंजूर थी क्योंकि वो यह भी जानते थे कि अगर आज़ाद भारत का भौगोलिक नक्शा मज़बूत नहीं बना तो रियासतें आगे नासूर का काम करेंगी. अतः वे जाने को तुरंत तैयार हो गये.
उस समय किसी ने महात्मा गांंधी से कहा- ‘बापू ! इतनी मुश्किल यात्रा करनी ज़रूरी है क्या ? आप महाराजा को पत्र लिख सकते हैं.’ उस समय महात्मा गांंधी ने कहने वाले की आंखों में देखते हुए कहा – ‘हां, फिर तो मुझे नोआखली जाने की भी क्या ज़रूरत थी ? वहां भी पत्र भेज सकता था लेकिन भाई उससे काम नहीं बनता है.’
इस तरह आज़ादी से मात्र 14 दिन पहले रावलपिंडी के दुर्गम रास्ते से महात्मा गांधी पहली और आख़िरी बार कश्मीर पहुंचे. जाने से पहले 29 जुलाई, 1947 की प्रार्थनासभा में उन्होंने ख़ुद ही बताया कि वे कश्मीर जा रहे हैं.
उन्होंने कहा- ‘मैं यह समझाने नहीं जा रहा हूं कि कश्मीर को भारत में रहना चाहिये क्योंकि वह फ़ैसला तो मैं या महाराजा नहीं कर सकते बल्कि कश्मीर के लोग करेंगे. कश्मीर में अगर महाराजा हैं तो रियाया भी है. राजा कल मर जायेगा या शायद आगे वो राजा न भी रहे मगर प्रजा तो हमेशा रहेगी. अतः कश्मीर का फ़ैसला वहां की जनता करेगी.’
1 अगस्त, 1947 को महात्मा गांधी कश्मीर पहुंचे. तब के वर्षों में घाटी में लोगों का वैसा जमावड़ा कभी देखा नहीं गया था, जैसा उस रोज़ जमा हुआ था. झेलम नदी के पुल पर तिल धरने की जगह नहीं बची थी. अतः महात्मा गांधी की गाड़ी पुल से होकर श्रीनगर में प्रवेश कर ही नहीं सकती थी इसीलिये उन्हें गाड़ी से निकाल कर नाव में बिठाया गया और नदी के रास्ते शहर में लाया गया लेकिन तब भी दूर-दूर से आये कश्मीरी लोग यहां-वहां से उनकी झलक देख कर तृप्त हो रहे थे. सभी एक ही बात कह रहे थे कि ‘बस ! आज तो हमने जिन्दा पीर के दर्शन कर लिये.’ (ये थी महात्मा गांंधी की सख्सियत, जो भक्त आज महात्मा गांंधी पर उल्टा-पुल्टा बोलते/लिखते हैं, उन्हें ये बात समझनी चाहिये).
जब महात्मा गांंधी कश्मीर पहुंचे तब शेख़ अब्दुल्लाह जेल में बंद थे और पं. नेहरू नजरबंद. मगर बापू के स्वागत में दो आयोजन हुए जिसमें एक महाराजा ने अपने महल में आयोजित किया था, तो दूसरा नागरिक स्वागत का आयोजन बेगम अकबरजहां अब्दुल्लाह ने किया था. मगर उस समय भी महात्मा गांंधी को ऑनर देने के लिये महाराजा हरिसिंह, महारानी तारा देवी तथा राजकुमार कर्ण सिंह ने महल से बाहर आकर उनकी अगवानी की थी.
पहले स्वागत आयोजन में महाराजा के महल में महात्मा गांंधी और हरिसिंह के दरम्यान बातचीत का तो पता नहीं चला लेकिन बापू ने बेगम अकबरजहां के स्वागत समारोह में पूरी जनता से खुलकर कहा था कि – ‘इस रियासत की असली राजा यहां की प्रजा है. वह अगर पाकिस्तान जाने का फ़ैसला करे तो दुनिया की कोई ताक़त उसे रोक नहीं सकती है लेकिन अगर वे कहे कि भले हम मुसलमान हैं लेकिन हम भारत में रहना चाहते हैं तो भी कोई ताक़त उसे रोक नहीं सकती है. फैसला आपको दबाव में नहीं स्वेच्छा से करना है और उस फैसले को दोनों (भारत-पाकिस्तान) देशों को मानना पड़ेगा और फैसले के बाद दोनों में से कोई भी देश कश्मीर में घुसपैठ नहीं करेगा. और अगर ऐसा करेगा तो विलयवान देश की हुकूमत को उसे रोकने का पूरा अधिकार होगा. साथ ही दूसरा देश जो अपने देश की घुसपैठ नहीं रोकेगा उस पर इल्ज़ाम तो आयेगा ही. अतः आम जनता को बिना दबाव के स्वेच्छा से फैसला करने दिया जाये कि वो किसके साथ विलय चाहती है.’
साथ ही महात्मा गांंधी ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए दोनों देशों के साथ-साथ हरिसिंह को भी यह स्पष्ट रूप से कहा कि – ‘जनता की राय कैसे लेंगे आप ? उसकी राय लेने के लिये आपको वातावरण तो बनाना होगा न…? ताकि वो आराम से और आज़ादी से अपनी राय दे सके क्योंकि हमें ऐसा कश्मीर बनाना होगा जो सुरक्षित और स्वतंत्र हो. अतः ये बात आप स्पष्ट रूप से समझ ले कि उस (कश्मीर) पर हमला करके या उसके गांव-घर जला कर आप उसकी राय नहीं ले नहीं सकते हैं. अतः सारी प्रजा द्वारा स्वेच्छा से ही ये फैसला हो.’ (शायद बापू की इन्ही पंक्तियों की वजह से बाद में पं. नेहरू ने कश्मीर मामले में जनमत संग्रह की बात कही).
महात्मा गांंधी ने अपने संबोधन को आगे बढ़ाते हुए आगे कहा- ‘कांग्रेस हमेशा ही राजतंत्र के ख़िलाफ़ रही है. फिर चाहे वो इंग्लैंड का हो या यहां (महाराजा हरिसिंह) का. शेख़ अब्दुल्लाह लोकशाही की बात करते हैं और उसकी लड़ाई लड़ते हैं. अतः हम उनके साथ हैं. राजशाही को उन्हें जेल से छोड़ना चाहिये और उनसे बात कर आगे का रास्ता निकालना चाहिये क्योंकि कश्मीर के बारे में फ़ैसला तो यहां के लोग ही करेंगे और यहांं लोगों के लीडर शेख अब्दुल्लाह हैं. अतः यहांं के राजतन्त्र को उनका सम्मान करना चाहिये.’
फिर गांधीजी अपने संबोधन में यह भी साफ़ करते हैं कि ‘यहां के लोगों’ से उनका मतलब यहां के मुसलमान, यहां के हिंदू (कश्मीरी पंडित), डोगरा और यहां के सिखों और तमाम उन लोगों से है जो कश्मीर में रहते हैं, चाहे वे किसी भी कौम या मजहब के हो.’
कश्मीर के बारे में भारत की यह पहली घोषित आधिकारिक भूमिका थी. हालांंकि महात्मा गांधी सरकारी प्रवक्ता नहीं थे क्योंकि तब स्वतंत्र भारत की सरकार औपचारिक रूप से बनी नहीं थी लेकिन वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों के जनक और स्वतंत्र भारत की भूमिका के सबसे बड़े आधिकारिक प्रवक्ता थे. अतः उनकी बातों पर किसी के इंकार का तो सवाल ही नहीं था. गांधीजी के इस दौरे ने कश्मीर को विश्वास की ऐसी डोर से बांध दिया जिसका नतीजा शेख़ अब्दुल्लाह की रिहाई और कुछ मुश्किलों के बाद भारत के साथ रहने की घोषणा में स्पष्ट दिखायी देता है. ऐसा कहा जाता है कि विभाजन के बाद कश्मीर विलय के समय कश्मीरी मुसलमानों ने घूम-घूम कर ऐसा अभियान चलाया, जिसमें कश्मीरी लोगों को पाकिस्तान के बजाय भारत के साथ रहने की समझाईश भी थी.
महात्मा गांंधी के इस कश्मीर दौरे से पं. नेहरू-सरदार पटेल-शेख़ अब्दुल्लाह रुपी त्रिमूर्ति को ऐसा आधार मिला जिससे आगे वो कहानी लिखी गयी, जिसे आज की मौजूदा मोदी सरकार रगड़-पोंछकर मिटाने में लगी है. ये उत्पाती संघी जिन्होंने भारत को बनाने में कुछ नहीं किया लेकिन मिटाने के उत्तराधिकार की घोषणा ढोल पीट-पीट कर रहे हैं.
मोदी समेत मोदीगैंग का प्रत्येक आदमी ये भूल जाता है कि महात्मा गांंधी सिर्फ गैर-जरूरी हिंसा के खिलाफ थे मगर जहांं देश की सुरक्षा की बात होती थी, गांधीजी सदैव अपनी सहमति सहजता से देते थे. और इसीलिये तो जब फ़ौजी ताक़त के बल पर पाकिस्तान ने कश्मीर हड़पना चाहा था और भारत सरकार ने उसका फ़ौजी सामना किया था, तब महात्मा गांधी ने उस फ़ौजी अभियान का समर्थन किया था. लेकिन ज्यादातर लोग इतनी पुरानी और गहरी बातें जानते नहीं हैं और इसी का फायदा भक्त उठाते हैं -अधूरे तथ्यों को व्हाट्सप्प यूनिवर्सिटी में बताकर लोगों को गुमराह करते हैं.
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