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आखिर अरविन्द केजरीवाल ही क्यों?

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अक्सर मेरे मित्र सवाल करते हैं कि मैं आखिर अरविन्द केजरीवाल के समर्थन में क्यों लिखता हूं ? क्या और कोई नहीं है इसके अलावे ? कुछ मित्र तो दबे स्वर में यहां तक कह दिये हैं कि अरविन्द केजरीवाल से जरूर कोई आर्थिक मदद मिलती होगी. मित्र के सवाल उद्वेलित तो करते हैं पर उससे भी ज्यादा अहम् सवाल होता है राजनीतिक धाराओं को न समझ पाने की उनकी विवशता. वे मेरे मित्र हैं. शुभचिंतक हैं इसलिए उनके सवालों को हल्के में या झटके में उड़ा देना सही नहीं है बल्कि उनका यह सहज और बोधगम्य-सा सवाल एक विशेष संवेदनशीलता की मांग करती है.

मित्र के सवाल पर आऊं इससे पहले हमें भारतीय समाज और उसपर फल फूल रही राजनीति की बनावट को समझना होगा. हमारा समाज विभिन्न पृथक-पृथक टुकड़ों में बंटा हुआ है. यह विभिन्न टुकड़े परस्पर विरोधी स्वभाव को लिये लोगों का विशाल समूह है. आईये, थोड़ा प्रारंभ से बात को शुरू करते हैं.

आर्यों के आक्रमण और उनके यहां बस जाने के पहले यहां आदिवासी, प्राक्-आदिवासी और हब्शी लोगों की एक समृद्ध संस्कृति और सभ्यता थी, जो अपने तरीके से अपना जीवन-यापन कर रही थी. घुमन्तु और बेघर आर्य भटकते हुए इन समूहों पर हमला कर और उनको युद्ध में पराजित कर उनके जीवन में बेहिसाब बदलाव लाये. , प्राक्-आदिवासी और हब्शी लोगों ने इसके बाद दो तरीके अपनाये. पहला तरीका यह था कि वे सूदूर दक्षिण की ओर पलायन कर गये और दूसरा यह कि वे आर्यो से समझौता कर उनके अधीन खुद को टिका रहने दिया. पर जैसा कि विदित है आर्यों ने उन्हें अपने समूह में नहीं मिला कर दास-प्रथा को जारी रखा. आर्यों के द्वारा खुद को शुद्ध रखने के अथक प्रयास के वावजूद एक आर्य और अनार्य (जो आर्य नहीं है अर्थात् विजित मूल निवासी) ने एक मिश्रित संस्कृति और सभ्यता को जन्म दिया. इसके वावजूद इस मिश्रित संस्कृति ने दोनों के बीच के फर्क को समाप्त नहीं किया और ये दोनों ही समूह ने अपनी संस्कृति को बचाकर रखने का जद्दाजहद करते रहे. बाद में अनेक जातियों ने अलग-अलग हमले किया. जिसमें शक-हूणों का हमला भी एक था. शक-हूण ने यहां के संस्कृति को प्रभावित किया और एक अलग समूह का निर्माण किया. विश्व विजेता सिकन्दर महान के भारत पर आक्रमण ने यहां एक नई संस्कृति वाले समूह का निर्माण किया. फिर मुसलमान आये और वे यहां आकर बस गये और एक अलग संस्कृति वाली समूहों का निर्माण किया. मुसलमानों के बाद अंग्रेज आये और वे समाज में भारी उथल-पुथल मचा कर एक नई संस्कृति वाले समूहों का निर्माण किया. आजादी की लड़ाई के दौरान और तथाकथित आजादी के बाद सोवियत संघ और अब अमरीकी संस्कृति ने एक अलग समूहों का निर्माण किया. इन पृथक-पृथक समूहों में परस्पर मैत्री भाव का भारी आभाव है और वे परस्पर लड़ते रहते हैं और अपने-अपने समूहों को सर्वश्रेष्ठ समझने और समझाने का प्रयास करती रहती है.

संक्षेप में, आदिवासियों, आर्यों, शक-हूण, सिकंदर महान, मुसलमान, अंग्रेज, सोवियत-संघ और अमेरिकी सहित अनेक संस्कृतियों ने मिल कर भारतीय समाज और उसकी संस्कृति का निर्माण किया है. एक-दूसरे के साथ विजयी और विजित का भाव रखे ये सभी संस्कृति अपने-अपने पहचान को बचा कर रख रहे हैं, इसे कोई भी विजयी समूह खत्म नहीं कर पाया बल्कि गाहे-बगाहे विजित भी अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए लड़ते रहे, खून की नदियां बहाते रहे पर कोई भी समूह एक-दूसरे को खत्म नहीं कर सका. परिणामतः सभी विजयी और विजित संस्कृति अलग-अलग समूह का निर्माण कर एक विशाल समाज का निर्माण किया. अंग्रेजों सहित तमाम शासकों ने इन समूहों के बीच के फासले को अपने हितों के हिसाब से घटाया या बढ़ाया पर समाप्त कभी नहीं कर पाया या होने ही नहीं दिया.

1925 ई0 में स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इन विभिन्न फासलों वाली संस्कृति के बीच एक धर्म, एक जाति, एक भाषा, एक संस्कृति, एक ध्वज जैसा नारा बुलंद कर आर्य की विजयी और फिर विजित संस्कृति को जिसका सार मनुस्मृति और ब्राह्मणवाद में है, के तहत बहुसंख्यक जाति को गोलबंद करने का प्रयास कर रही है. परन्तु इसके बाद भी विजित अनार्य या दास जिसे आर्यों ने शुद्र नाम से प्रतिस्थापित किया था, पर आतंक जमाने का मौका नहीं चूकती. जैसा कि मैंने प्रारंभ में स्पष्ट कर दिया है कि कोई भी जाति या संस्कृति एक-दूसरे को पूरी तरह खत्म नहीं कर सकती और न ही उसे पूरी तरह मिटा ही सकती है. ऐसे में भारत एक राष्ट्र के तौर पर सेना के सहारे टिकी एक आवरण के सिवा और कुछ नहीं है, जो विभिन्न शासक वर्गों की जरूरत को सिद्ध करती है.

परन्तु इन सभी जातियां जिस एक सवाल पर आकर एकजुट होती है, वह है लोगों की बुनियादी जरूरत अर्थात्, रोटी, कपड़ा, मकान, दवा और शिक्षा. बस इसी एक सवाल पर सारी जातियां और संस्कृति एक मत है. केवल इसी एक सवाल पर आकर सारी जाति और संस्कृति गोलबंद हो जाती है. आज सभी शासक वर्गीय पार्टियां के लिए यह कोई मुद्दा ही नहीं है. तथाकथित लोकतंत्र के नाम पर लोगों का मजाक उड़ाना, गरीब लोगों की तुलना कुत्ते, जानवर से करने जैसी रणनीति अपनाये हुये है. ऐसे में एक मात्र अरविन्द केजरीवाल ही वह आदमी बचते हैं, जिसने इस सवाल को बुनियादी तौर पर उठाया है और इसे हल करने की दिशा में किसी हद तक सही रणनीति के साथ कदम भी बढ़ाया है. इसके साथ ही यही वह बुनियादी सवाल है जिसके सहारे हम भारतीय समाज और संस्कृति को एक-सूत्र में बांध सकते हैं. यही कारण है कि मैं अरविन्द केजरीवाल का समर्थन करता हूं और यही अरविन्द केजरीवाल होने का मायने भी है और अर्थ भी है अन्यथा हजारों साल से लाखों लोगों की खून बहाने के बाद भी जनता की बुनियादी समस्या वहीं की वहीं है. शासक बदल जाते हैं पर समस्या नहीं बदलती.

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

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2 Comments

  1. Krishna sarkar

    May 2, 2017 at 3:18 pm

    एक मात्र अरविन्द केजरीवाल ही भारतीय समाज और संस्कृति को एक-सूत्र में बांध सकते हैं.

    Reply

  2. cours de theatre

    September 30, 2017 at 4:42 am

    Really informative blog.Really looking forward to read more.

    Reply

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