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आज रक्षित सिंह के साथ खड़े होने की जरूरत है

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आज रक्षित सिंह के साथ खड़े होने की जरूरत है

गिरीश मालवीय

आज रक्षित सिंह के साथ खड़े होने की जरूरत है. आसान नही होता 15 साल के कैरियर को लात मार देना वो भी अपनी अंतरात्मा की आवाज पर, हजारों लाखों लोग वो नही कर पाते जो कल रक्षित ने किया है. आप उनका वीडियो देखिए उस वीडियो में वर्तमान में वह अपने नियोक्ता न्यूज़ चैनल के व्यवहार के प्रति वह बेहद आक्रोशित दिखाई देते हैं.

वे इस वीडियो में कहते हैं ‘मेरे मां बाप ने अपने खून पसीने की कमाई से मुझे पढ़ाया और मैंने इस पेशे (पत्रकारिता) को चुना. मैंने ये पेशा क्यों चुना था ? क्योंकि मुझे सच दिखाना था लेकिन मुझे सच दिखाने नहीं दिया जा रहा.’ इतना कहने के बाद रक्षित बेहद गुस्से में कहते हैं, ‘आज ऐसी नौकरी को लात मारता हूँ.’ यह बड़ी बात है.

रीढ़ की हड्डी सबकी सलामत नही रहती. पत्रकारो को यदि सरकार झुकने का कहती है तो वे रेंगने लग जाते हैं. ऐसे माहौल में रक्षित का यह प्रयास स्तुत्य है. वैसे यह कोई पहली घटना नही है जब मोदी सरकार के दबाव में किसी शीर्षस्थ जर्नलिस्ट को इस्तीफा देना पड़ा हो, जब एबीपी न्यूज़ में अभिसार शर्मा और पुण्य प्रसून वाजपेयी जैसे जर्नलिस्ट थे, तब भी सरकारी दबाव अपने चरम पर था.

पुण्य प्रसून बाजपेयी ने अपने कार्यक्रम मास्ट्रस्ट्रोक में तो किसानों की आय दोगुनी करने के सरकारी प्रोपगेंडा की पोल खोल दी थी. जिससे मोदी सरकार की खूब फजीहत हुई. उसके बाद बाजपेयी को निशाना बनाया जाने लगा था. संसद भवन तक मे एबीपी न्यूज चैनल को मजा सिखाने की बात हुई थी चैनल का सेटेलाइट लिंक तक बाधित किये जाने लगा था.

जैसे आज रक्षित न्यूज़ मीडिया पर मोदी सरकार के शिकंजे से त्रस्त होकर जॉब छोड़ रहे हैं, वैसे ही 2018 में एबीपी के दो वरिष्ठ पत्रकारों, संपादक मिलिंद खांडेकर और दूसरा एंकर पुण्य प्रसून बाजपेयी ने इस्तीफा दिया.
उस वक़्त पुण्य प्रसून वाजपेयी ने इस मोडस ऑपरेंडी की पूरी पोल खोली थी.

उनका (पुण्य प्रसून वाजपेयी) कहना था कि ‘ढाई सौ लोगो की एक पूरी टीम न्यूज़ चैनलों की निगरानी के लिए बिठाई जाती है. अगर चैनल मोदी को ज्यादा दिखाए उसे भरोसेमंद मान लिया जाता है. जो कम दिखाए तो उसके संपादक को फोन किया जाता है.’ बाजपेयी के शब्दों में –

यानी न्यूज़ चैनल क्या दिखा रहे हैं ? क्या बता रहे हैं और किस दिन किस विषय पर चर्चा कराते हैं ? उस चर्चा में कौन शामिल होता है ? कौन क्या कहता है ? किसके बोल सत्तानुकूल होते हैं ? किसके सत्ता विरोध में ? इन सब पर नज़र है. पर कन्टेंट को लेकर सबसे पैनी नज़र प्राइम टाइम के बुलेटिन पर और ख़ासकर न्यूज़ चैनल का रुख़ क्या है ? कैसी रिपोर्ट दिखाई-बताई जा रही है ? रिपोर्ट अगर सरकारी नीतियों को लेकर है तो अलग से रिपोर्ट में ज़िक्र होगा और धीरे-धीरे रिपोर्ट दर रिपोर्ट तैयार होती जाती है. फाइल मोटी होती है.

और यह मॉनिटिरिंग टीवी चैनलों तक सीमित नहीं है. और न ही ये केवल सूचना भवन से होती है. पत्रकारों, अखबारों और टीवी चैनलों की निगरानी होती है. बीजेपी के पुराने मुख्यालय से इन सब पर नजर रखी जाती है. 250 लोगों की टीम बीजेपी के पुराने मुख्यालय में पत्रकारों के ट्वीट और लेखन पर नजरें गढ़ाए रखती है.

ये लोग अखबार पढ़ते हैं, टीवी देखते हैं, ट्विटर हैंडल्स पर नजर बनाए रखते हैं. कौन-सा पत्रकार, अखबार और टीवी चैनल बीजेपी के पक्ष में है, कौन बीजेपी के खिलाफ है, उसकी बाकायदा एक एक्सेल शीट बनती है. रिपोर्ट में पत्रकारों, अखबारों और चैनलों को प्रो-बीजेपी और एंटी-बीजेपी लिखा जाता है. इस काम में लगे एक व्यक्ति ने बताया कि ऐसा कर शाम को वे रिपोर्ट एक अज्ञात व्यक्ति को देते हैं.

यह सब तो मोदी जी के पिछले कार्यकाल के किस्से हैं. आज तो न जाने कितने गुना दबाव इन पत्रकारों पर बढ़ गया होगा और हम जानते हैं ही कि डर सबको लगता है, गला सबका सूखता है.

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ROHIT SHARMA

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