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एक आत्म संलाप – लैंगिकता बनाम यौनिकता

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एक आत्म संलाप – लैंगिकता बनाम यौनिकता
एक आत्म संलाप – लैंगिकता बनाम यौनिकता
अनुपम सिंह

क्या ‘शिश्न’ केवल मर्दों के होते हैं ?

पेनिस सिर्फ नर के होते हैं, जैसे योनि सिर्फ मादा को होती है. लेकिन शिश्न केवल मर्दों के नहीं होते, औरतों के भी होते हैं. औरतों के शिश्न ‘शिश्निय सत्ता’ की भाषा, संरचना, विचार और संस्कृति द्वारा निर्मित किये जाते हैं. फिर वे भी उसी शिश्निक संरचना को उत्पादित-पुनरुत्पादित, संरक्षित और संवर्धित करते हैं. उन्हीं की भाषा बोलने लगते हैं.

अब प्रश्न यह है कि शिश्न यह सब कैसे करता है ?

मसलन जब औरतें पुरुष की दी हुई भाषा में बात करती हैं, बहस करती हैं, निर्देश देती हैं, सिद्धान्त बनाती हैं, ज्ञान देती हैं, कविता लिखती हैं, यानी, कि जब किसी और की भाषा में बात करती हैं, तब वे उसी के विचारों को, उसी की अवधारणाओं को मजबूत बना रही होती हैं, आगे बढ़ा रही होती हैं.

क्या औरत की भाषा और मर्द की भाषा अलग होती है ?

हां, अलग होती है औरत और मर्द की भाषा. जैसे गरीब-अमीर की आर्थिक स्थिति अलग होती है. जैसे औरत और पुरुष की आर्थिक स्थिति अलग होती है. सामाजिक हैसियत अलग होती है. जैसे गोरे और काले अलग होते हैं. जैसे दलित, सवर्ण, आदिवासी की स्थितियां अलग होती हैं. वैसे ही स्त्री और पुरुष की भाषा अलग होती है.

भाषा तो विचार अभिव्यक्ति का माध्यम है. फिर स्त्री पुरुष की भाषा कैसे अलग होती है ?

भाषा सिर्फ विचार अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं, बल्कि भाषा नए विचारों और नए यथार्थ को गढ़ती भी है.

यह कैसे ??

जैसे- किसी पुरुष ने लिखा कि -आजकल की औरतें ऐसे प्रेमी, ऐसे पति खोजती हैं जो बहुत पैसे वाला हो, बहुत अमीर हो, जिसके पैसे से वे अपने सपने पूरे कर सकें. आलसी होती हैं औरतें. परजीवी होती हैं.

तो किसी औरत या औरत जैसे पुरुष ने लिखा- आजकल के पुरुष ऐसी प्रेमिका या पत्नी चाहते हैं जो कि खूब पढ़ी-लिखी हो, नौकरी पेशा हो, खूब पैसे कमाती हो, सुंदर हो, संस्कारी हो, घर का काम भी करती हो, बच्चे भी अकेले पाल लेती हो. उनको बिस्तर पर तुष्ट भी करती हो. मतलब वे औरतें नहीं अपने लिए एक ‘सुपर वोमेन’ चाहते हैं.

क्या यह दोनों सिर्फ़ अभिव्यक्तियां हैं ? नहीं ! ये दोनों सिर्फ यथार्थ की अभिव्यक्तियां नहीं हैं बल्कि नए यथार्थ की निर्मित भी हैं. पुरुष ने सदियों से स्त्री के विषय में राय बनाया कि स्त्री ऐसी है, वैसी, स्त्री ये है, स्त्री ये नहीं है आदि आदि. बाद में स्त्री ने उन सभी रायों को या तो खारिज कर दिया या फिर उसे उलट दिया. इसे लैंगिक पूर्वाग्रह कहते हैं.

अब आप ऊपर की उस बात से जोड़ सकते हैं कि यह भाषा, समाज, विचार, अवधारणा, इतिहास, विज्ञान, समाज-विज्ञान, मनो-विज्ञान कैसे ये सब अनुशासन शिश्निक निर्मितियां हैं. यानी कि पुरुष सत्ता की निर्मितियां हैं.

जब इतिहास को स्त्रीवादी इतिहासकार ख़ारिज कर रही हैं, तो वे क्या कर रही हैं ? दरअसल वे इतिहास के अब तक के पुरुष दृष्टिकोण की पड़ताल कर रही हैं, उसके तथ्यों की पड़ताल कर रही हैं, नए तथ्य जोड़ रही हैं और उसकी नयी व्याख्या कर रही हैं.

जब यह भाषा ‘लैंगिक आग्रहों’ से युक्त है तो स्त्री इस भाषा में कैसे बोल सकती है, कैसे कुछ लिख सकती है, मतलब नया सृजन कैसे कर सकती है ?

हां, अब हम अपने मुख्य प्रश्न तक पहुंच गए हैं. यह एकदम सही है कि स्त्री के लिए नया कहना, नया लिखना, नए का सृजन करना इस पूर्व उपस्थित संरचना, भाषा, विचार में तो मुश्किल है. फिर तो कभी कुछ बदल ही नहीं सकता. स्त्री कुछ भी कहे वह उस लैंगिक आग्रह को ही कहेगी. उस शिश्निक सत्ता को ही मजबूत करेगी. यह तो एक जबरदस्त चुनौती है स्त्री लेखन के सामने.

लेकिन क्या कोई ऐसी जगह है, जहां से स्त्री कुछ कह सकती है, बोल सकती है, लिख सकती है, महसूस कर सकती ह

तब यहां एक राह जो दिखती है, वह यह कि यदि स्त्री को कुछ नया कहना है तो उसे अपने प्राथमिक स्रोतों तक जाना होगा. मतलब अपने जैविक संरचना को देखना होगा. अपनी प्राथमिक अनुभूतियों को जांचना होगा. उसे फिर से टटोलना होगा.

यानी कि अपनी यौनिकता की पहचान और उसकी अभिव्यक्ति स्त्री के लिए जरूरी है. शायद वहां से एक नयी भाषा, नया स्त्री-यथार्थ पैदा हो, जिससे इस लैंगिक संरचना में बदलाव सम्भव होगा, जिससे की शिश्निक संरचना को, पुरुष सत्ता को चुनौती दी जा सकती है.

लेकिन यह जो स्त्री देह है, उसका अनुभव है वह भी एक लंबी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया द्वारा ही निर्मित और हासिल किया गया है. इसलिए वह भी कोई अनंत: प्रामाणिक रास्ता नहीं है. लेकिन अभी तो वह एक रास्ता दिखाई दे रहा है जहां से स्त्री कुछ नया लिख सकती है.

अब वहां पहुंचते हैं जहां हिंदी की वरिष्ठ कवि कात्यायनी अपनी एक जबरदस्त कविता द्वारा वर्तमान की ‘स्त्री-कविता’ को प्रश्नांकित करती हैं. वे लिखती हैं- ‘हत्याओं के समय में प्रणय विकल कविताएं.’

मैं उन प्रणय विकल कविताओं को खोजने के लिए आज अनेक स्त्री कवियों की कविताएं व उनका संग्रह लेकर बैठी हूं. जैसे-लीना मल्होत्रा का नया संग्रह- ‘धुरी से छूटी आह’, रश्मि भारद्वाज का नया संग्रह- ‘घो घो रानी कितना पानी’, विपिन चौधरी का नया संग्रह – ‘संसार तुम्हारी परछाईं’, ज्योति चावला का नया संग्रह- ‘यह उनींदी रातों का समय है’, प्रज्ञा सिंह का नया संग्रह- ‘इसे कविता की तरह न पढ़िए.’

और अपनी पीढ़ी में, सुनीता अबाबील का पहला संग्रह- ‘पांच मर्दों वाली औरत’, ज्योति रीता का पहला संग्रह- ‘मैं थिगली में लिपटी थेर हूं.’ कविता कादम्बरी का पहला संग्रह- ‘हम गुनहगार और बेशर्म औरतें’, पूनम सोंनछात्रा का पहला संग्रह- ‘एक फूल का शोकगीत’ और रूपम मिश्र का पहला संग्रह- ‘एक जीवन अलग से.’ ये सभी कविता संग्रह इसी पुस्तक मेले में प्रकाशित हुए हैं. इसमें से किसी स्त्री कवि की कविता में प्रणय विकलता नहीं दिखाई देती है, जिसे कात्यायनी जी ‘आधुनिकतावादी विचारों से ढंका रीतिकालीन वैभव ढोती हुई’ कह रही हैं. कात्यायनी जी निःसंदेह इन कविता पुस्तकों से नहीं गुजरी होंगी.

हां, इन सब संग्रहों के बीच मैंने अपने संग्रह- ‘मैंने गढ़ा है अपना पुरुष’ का ज़िक्र नहीं किया. उस पर मैं अभी कुछ नहीं बोलना चाहती हूं. आप कविताएं पढ़िए, उसका औसत निकालिए, खूब बहस कीजिये लेकिन खुले दिल से. बस एक बात यह जरूर कहूंगी कि उसके पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों ही तर्कों को मैं भलीभांति जानती समझती हूं.

अभी भी बहुत से प्रश्न बचते हैं जिस पर बहस करने की जरूरत है, जैसे-

  • स्त्रियों के लिए कौन सा समय ‘हत्यारा समय’ नहीं था ?
  • क्या ‘लव जेहाद’ खत्म हो गया ?
  • क्या ऑनर किलिंग खत्म हो गई ?
  • क्या स्त्री के अपने लिए अपने ‘चुनाव’ का मसला हल हो गया ?
  • क्या परिवार संस्था और विवाह संस्था को पूरी तरह स्थापित कर दिया जाय ? उसी को लिखा जाय, उसी को सराहा जाय ?
  • क्या प्रेम अब प्रतिरोध नहीं रहा ?
  • क्या प्रेम के भीतर जो पितृसत्तात्मक संरचना थी, वह खत्म हो गई ?
  • क्या प्रेम के भीतर जो हिंसा है, उसे नकारा न जाय ?
  • क्या स्त्री के योनि होने के चलते उसे दूसरे दर्जे का नागरिक मान लिया जाय ? उसकी यौनिकता को दर्ज़ नहीं किया जाय ?
  • क्या है यौनिकता ? क्या सिर्फ़ यौनिक इच्छा की पूर्ति ? या उससे विस्तृत ?
  • क्या स्त्री को सहवास संबंधों में एक निष्क्रिय कोटि में डाल दिया जाय ?
  • क्या हिंसा के समय में प्रेम को स्थगित किया जाय ?

आदि-आदि अनंत प्रश्न हैं. इन प्रश्नों पर बहस होनी ही चाहिए. रश्मि भरद्वाज ने कल कुछ लिखा तो मुझे भी लगा कि अपनी समझ यहां रखनी चाहिए.

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