Home कविताएं स्वन्त्रता दिवस के उत्तर भोर में एक कविता : कुजात

स्वन्त्रता दिवस के उत्तर भोर में एक कविता : कुजात

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आप हमें झट पहचान लेते हैं
अपने ब्रह्म भोज में
पूड़ी-बूंदी के इंतज़ार में ज़मीन पर बिछे हम पत्तल हैं
परदेस में काम खोजते छूछे हाथ हैं

ईंटों की तकिया लगाये हुए
सदियों से चली आ रही आपकी हम दुत्कार हैं

हम प्रेम की शाश्वत भूख हैं
और आप
घृणा के आदि वंशज हैं

आपकी घृणा
हमारी रुलायी में नमक की तरह छिपी रहती है
और हमारे रक्त में घुलती रहती है धीरे-धीरे

आपके महादेश में
हमारी नागरिकता संविधान के बाहर है
मंदिर के बाहर पड़े जूतों की तरह

अपनी पीठ पर चावल की बोरी लादे
मैं भूखा चलता वह शख्स हूं
जिसका नाम विकृत करके हंसना
आपका नि:शुल्क मनोरंजन है

हमारा जन्म ही निर्वासन है
गांव के किसी संकरे-गंधाते कोने में
और मृत्यु एक अदृश्य हत्या
जिसकी कभी कोई रपट थाने में नहीं लिखी जाती

हमारी टूटी छत से
होती रहती है दिन-रात घिन की बारिश
उठती रहती हैं उजड़े घर से
दुःख की कीचड़ में गुंथी हुई सिसकियां

कौन लिखता है
हमारी नृशंस इबारत

एक जर्जर संस्कृत की किताब या वह पाखंडी सूत की डोरी
फ़ारिग़ होने के समय
जिसे कान पर चढ़ाने से हो जाता है आदमी पवित्र

आपकी आखेटक आंखें
हमारे बास मारते घरों में खिले फूलों की ताक में रहती हैं
और आपका बेगार न करने पर
खेतों में पड़ी उनकी लाशों के नाखूनों में
आपकी देह से नोची त्वचा मिलती है

ओह ! आपको मितली आती है
जब घूरे पर हमारे नंग-धड़ंग बच्चे
सूअरों से लड़-झगड़ कर हगते हैं
और टूटी खाट की आड़ में घर के सामने
हमारी औरतें पेटीकोट उठाकर लघुशंका करती हैं

अच्छा ! आप नज़र फेर लेते हैं
जब गंदगी के ढेर से मक्खियां उड़ाकर
उठा लेते हैं हम खाने का कोई फेंका हुआ टुकड़ा
और आपको कोटिश: धन्यवाद देते हैं

आशा की मैली लालटेन की रोशनी में
कबीर-रैदास के साथ जब हम रोते-गाते हैं
सहसा गुर्राने लगते हैं महाकवि तुलसीदास
पूजहू विप्र साल गुण हीना शूद्र न पूजहु वेद प्रवीना
तब आती है हमारे लिए प्रेमचंद की कलम
उनके फटे जूतों के साथ

आप नाराज़ हो गये न !
हमारे सरकारी आरक्षण से आपका मुंह वैसे भी सूजा रहता है
गोया किसी जहरीले ततैया ने आपको काट लिया हो
हमारे लिए तमाम गालियाँ आपकी ज़बान से गू की तरह बरसती ही रहती हैं
जबकि नौकरी की हमारी अर्जियां अक्सर आपकी फाइल में दबी रहती हैं
फिर रद्द कर दी जाती हैं
योग्य पात्र न मिलने का बहाना बनाकर

इतिहास के नए व्याकरण में
हम हाशिया हैं
फिर भी हमारे गरीबखाने पर आते हैं जन प्रभु
अपने लाव-लश्कर के साथ
खुले जख्म पर भिनभिनाती मक्खियों की तरह

धोते हैं साबुन से धुले हमारे पांव
खाते हैं हमारी रसोई में बैठकर खाना
अनगिनत कैमरे खींचते हैं हमारी तस्वीर
एक क्रूर प्रहसन की तरह

सांस लेना ही जिंदगी नहीं है
यह बोलते समय भर्रा जाती है हमारी आवाज़
फटे तबले की तरह

गहरी नींद से जगी आंखें देख रही हैं
छल बल का साज़
हमारा वोट अमीरों का राज
हमारे दुखों की बढ़ती जा रही हैं झुर्रियां
हमारी नसों में भरता जा रहा है क्रोध का बारूद

सावधान ! यह कभी भी फट सकता है
मानव बम की तरह

  • विनोद दास

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