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महिषासुर का शहादत दिवस मनाते लोग

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आज देश में जब कट्टर हिन्दुत्ववादी ताकतें ब्राह्मणवाद (मनुस्मृति) को लागू करने के लिए एक से बढ़कर एक क्रूर कारनामें कर रही है, दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों, स्त्रियों पर हमले तेज कर दिये हैं, वहीं दूसरी ओर आज ब्राह्मणवाद के विरूद्ध लड़ने वाले और उस लड़ाई में अपनी शहादत देने वाले महिषासुर को उसके समर्थकों के द्वारा देश भर में महिषासुर शहादत दिवस मनाया जा रहा है. महिषासुर को अपना पूर्वज मानने वाले लोग महिषासुर को आर्य-अनार्य के बीच जारी घमासान युद्ध में अपने नायक के तौर पर मानते हैं, जिसे आज तक आर्य (ब्राह्मणवादी) ताकतें राक्षस, दानव, दैत्य और न जाने क्या-क्या कहकर अपमानित करते आ रहे हैं. आश्चर्यजनक तथ्य है समाज में लगातार अपमानित किये जाने वाले महिषासुर को देश भर में नायक के तौर पर स्थापित किया जा रहा है, इससे भी अधिक उन्हें आज के दौर में ब्राह्मणवादी ताकतों के खिलाफ जंग लड़ने वाले प्रतीक के तौर पर अपनाया जा रहा है.

महिषासुर को अपना पूर्वज मानने वाले विशाल आबादी का महिषासुर का संबंध अनायास नहीं है. इसे मोटे तौर पर ऐसे भी समझ सकते हैं कि महिषासुर का रंग काला था, जो आज भी विशाल बहुसंख्यक समुदाय का रंग उनसे ही मिलता-जुलता और काले रंग का है. अगर काले रंग वाले महिषासुर राक्षस, दानव, दैत्य आदि थे, तो आज के काले रंग या उससे मिलते-जुलते रंग वाले आदिवासी-बहुजन समुदाय क्या हैं ? क्या वे भी राक्षस, दानव, दैत्य हैं ? कतई नहीं. पुरात्वत्विक खोजों खासकर राखीगढ़ी में मिले शवों के अवशेष का डीएनए विश्लेषण यह साबित करते हैं कि ये काले रंग वाले तथाकथित राक्षस, दानव, दैत्य भारत के मूलनिवासी थे, जिनको अपमानित नहीं किया जा सकता और न ही किया जाना ही चाहिए.

इतिहासकार डीडी कौशांबी ऐतिहासिक प्रमाण का हवाला देते कहते हैं कि ‘महिषासुर यादवों के राजा थे’. इतिहासकार डी डी कौशांबी ने महिषासुर को म्होसबा कहा है जो पशुपालक है, गवली है. सामाजिक इतिहास में तो पशुपालक यादव ही रहे हैं. कौशांबी ने अपनी किताब ‘प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता’ में लिखा है कि ‘जिन पशुपालकों (गवलियों) ने वर्तमान दुर्गा देवी को स्थापित किया है, वे इन महापाषाणों के निर्माता नहीं थे. उन्होंने चट्टानों पर खांचे बना कर महापाषाणों के अवशेषों का अपने पूजा स्थलों के लिए, स्तूपनुमा शवाधानों के लिए, सिर्फ पुन: उपयोग ही किया है. उनका पुरुष देवता म्हसोबा या इसी कोटि का कोई देवता बन गया, जो आरंभ में पत्नी रहित था और कुछ समय के लिए खाद्य संकलनकर्ताओं की अधिक प्राचीन मातृदेवी से उसका संघर्ष भी चला. परंतु जल्दी ही इन दोनों मानव-समूहों का एकीकरण भी हुआ और देवी (दुर्गा) और देवता (म्हसोबा) का विवाह भी हो गया. कभी-कभी किसी ग्रामीण देव स्थल में महिषासुर-म्हसोबा को कुचलने वाली देवी का दृश्य दिखाई देता है तो 400 मीटर की दूरी पर वह देवी, थोड़ा भिन्न नाम धारण करके उसी म्हसोबा की पत्नी के रुप में दिखाई देती है.’ कौशांबी की यह स्थापना इस बात की तस्दीक करती है कि महिषासुर यानि म्हसोबा पशुपालकों का देवता था, जिसके साथ देवी दुर्गा ने विवाह किया. खाद्य संकलनकर्ता आर्य़ थे, जिन्होंने खल स्त्री के जरिए पशुपालकों का नरसंहार किया था और अपनी सत्ता कायम की थी.

महिषासुर दिवस मनाने वालों का कहना कि वह तो आर्यों-अनार्यों की लड़ाई थी और महिषासुर अनार्यों के पुरखा और नायक हैं. महिषासुर के शहादत दिवस को मनाने वाले महिषासुर के संबंध में और अधिक ऐतिहासिक तथ्यों की खोज-बीन कर रहे हैं. वे इसके समर्थन में और अपने लोगों को जागरूक करने के लिए लगातार पर्चे-लेख आदि प्रिंट कर लोगों के बीच वितरित कर रहे हैं. ऐसे ही एक पर्चा हमारे पास भी आया है, जो मध्य बिहार के कुछ गांवों के बीच विगत दिनों महिषासुर का शहादत दिवस मनाया था. पर्चे के मूल अंश हम यहां पाठकों के लिए रख रहे हैं.

महिषासुर का शहादत दिवस मनाते लोग

हम सभी भारत के मूलवासी (यादव, कुर्मी, कोयरी, कुम्हार, कहार, कानु, निषाद, मांझी, रजक, रविदास, पासवान, चौधरी वगैरह, पिछड़े मुसलमान व आदिवासी) अपने पूर्वज शहीद राजा महिषासुर को नहीं जानते हैं कि वे कौन थे, इन्हें जानने का प्रयास भी नहीं करते हैं. इनका राज्य कर्नाटक से लेकर भारत के उत्तरी-पश्चिमी भागों तक फैला हुआ था. ये महाप्रतापी महाविख्यात, महावली व न्यायप्रिय राजा और नेता थे. इनके राज्य में कृषि (खेती) काफी उन्नत और शिक्षा बहुत ही विकसित थी. जनता काफी खुशहाल और शिक्षित थी. लोग बहुत ही सरल, सीधे और निश्छल थे, परन्तु मनुवादी, ब्राह्मणवादी व ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पोषकों (आर्यों) ने महिषासुर को राक्षस घोषित कर प्रचारित और प्रसारित करते रहा है. इसी कारण से हम भारत के मूलवासी (ओबीसी, एससी, एसटी, जिसे ब्राह्मणों ने शुद्र कहा है) भी महिषासुर को राक्षस के रूप में और नजरिये से देखते आ रहे हैं, जो सही नहीं है.

सभी सवर्ण – ब्राह्मण, बाभन, राजपूत, मारवाड़ी बनियां भारत का रहनेवाला नहीं है. ये सारे विदेशी – बर्बर, लुटेरे, क्रूर, हिंसक, खूंख्वार, उत्पीड़क, घुमक्कड़, घुड़सवार व गायपालक था- इनका नेता ब्रह्मा, इन्द्र, नारद आदि और नेताईन दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, विभिन्न देवियां थी, जो नर्तकी व नगरवधु (वेश्या) थी, जिसे ब्राह्मणों ने देवता और देवियां भी कहा है. ये सभी आर्य (सवर्ण) यूरेशिया व मध्य एशिया के घास के मैदान (स्टेपी) से आये थे. आर्यों ने षड्यंत्र रचा और यही दुर्गा देवी ने छल से महिषासुर को अपने रूप जाल में फंसा कर, पत्नी की तरह रहकर और विश्वास में लेकर महिषासुर की हत्या घोखा से आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की नौवीं को कर दी थी.

सही माने में राक्षस तो ये बर्बर, क्रूर, हिंसक आर्य थे और हैं, जो विदेशों से आया है, विदेशी है. आर्यों यानी सवर्णों का पेशा – गाय चराना, शराब पीना, मांस खाना, जुआ खेलना व घुड़सवारी करना आदि था, जिसका वर्णन वेदों, पुराणों और स्मृतियों में है. आज भी देवघर, झारखण्ड; विष्णुपद, गया; कोलकाता के काली मंदिर आदि धर्म-स्थलों पर खस्सी और भेड़ ब्राह्मण काटता व कटवाता है और उसका मांस खाता है. जिन भाईयों-बहनों को विश्वास नहीं हो, वे खुद जाकर देंखे और पता करें.

ब्राह्मण हम मूलवासी को शुद्र कहता है. हम मूलवासी को ये कुटिल ब्राह्मण 6743 (छः हजार सात सौ तेतालिस) जातियों में ऊंच-नीच, छुआ-छूत के आधार पर बांट दिया है. सबसे पहले हम सभी को तीन भागों – पिछड़ा, दलित व आदिवासी – में बांटा और इसके बाद 6743 जातियों में बांट कर मूलवासियों की एकता को तोड़कर छिन्न-भिन्न कर दिया. हम सभी ही भारत के मूलनिवासी है और रहेंगे, परन्तु ये आर्य – ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत व मारवाड़ी बनियां जिसे सवर्ण भी कहा जाता है – विदेशी था और है- आर्य भारत में लगभग 1800 से 2000 वर्ष पहले आया और ब्राह्मणवाद को धीरे-धीरे स्थापित और मजबूत किया.

यही नहीं ब्राह्मणवादियों ने भारतीय समाज को चार वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र में बांट दिया- चारों वर्णों के लिए चार प्रकार के अधिकारों की घोषणा किया. अलग-अलग वर्णों के लिए अधिकारों का निर्धारण अलग-अलग किया. ये चारों अधिकार इस प्रकार थे: (1) पढ़ने का, (2) पढ़ाने का (3) शस्त्र रखने का और (4) सम्पत्ति रखने का. मनुवादियों व ब्राह्मणवादियों के अनुसार ब्राह्मणों को उपरोक्त चारों अधिकार पढ़ने को, पढ़ाने का, शस्त्र रखने का और सम्पत्ति रखने का प्राप्त था. क्षत्रिय को तीन अधिकार – पढ़ने का, शस्त्र रखने का और सम्पत्ति रखने का – प्राप्त था. पढ़ाने का अधिकार इन्हें नहीं दिया गया था. वैश्य को मात्र दो अधिकार – पढ़ने का और सम्पत्ति रखने का अधिकार – दिया गया था. इनको दो अधिकार – पढ़ाने और शस्त्र रखने का अधिकार – नहीं दिया गया था. शुद्रों यानि मूलभारतवासियों को उपरोक्त चारों अधिकार – पढ़ने का, पढ़ाने का, शस्त्र रखने का और सम्पत्ति रखने का – में से कोई भी अधिकार नही दिया गया था. वर्तमान आरएसएस की भाजपा सरकार ने भी यही पुराने युग की तरह मनुवादी परिस्थिति पैदा कर रही है ताकि मूल भारतवासियों को पुराने समय की तरह ही बना दिया जाय.

मनुवाद के अनुसार अगर किसी भी शुद्र – पिछड़ा, दलित, आदिवासियों के पास सम्पत्ति होता था तो उसे सवर्ण (आर्य) जबरदस्ती छीन लेता था. इतना ही नहीं अगर कोई शुद्र शास्त्रें की बातों को सुन लेता था तो उसके कान में रांगा या शीशा पिघलाकर डाल दिया जाता था. अगर कोई शुद्र शास्त्र पढ़ लेता था तो उसका जीभ काट लिया जाता था, यानी हर हाल में मुनवादी शुद्रों की हत्या कर देता था लेकिन कोई भी ब्राह्मण या सवर्ण कैसा भी कुकर्म करे, जघन्य अपराध करे या घिनौना अत्याचार करे, उसे किसी भी प्रकार का दण्ड या सजा नहीं दिया जाता था- ज्यादा से ज्यादा उसका दण्ड या सजा होता था कि उसे धन-सम्पत्ति के साथ देश या गांव से निकाल दिया जाये. यह कैसी घोर असमानता पर आधारित दण्ड विधान था ?कहां गया भगवान व देवी-देवता ? जहां न्याय नहीं सरासर अन्याय ही होता था और है ?

वास्तव में भगवान कोई दैवी शक्ति से भरा हुआ कोई दैव नहीं है. यह तो ब्राह्मणों द्वारा फैलाया गया भय, डर, भ्रमजाल और अंधविश्वास है. वास्तव में भगवान तो कोई और है- और वह है – प्रकृति. भगवान का सही अर्थ हम सभी जानें और समझें. भगवान शब्द चार अक्षरों के मेल से बना है- वह है – ‘भ + ग + वा + न’. अब इन चारों अक्षरों से बने शब्दों को और इसके अर्थ को जाने और समझे. ‘भ’ से शब्द बना ‘भूमि.’ भूमि का अर्थ होता है जमीन या पृथ्वी. ‘ग’ से शब्द बना ‘गर्मी’ अर्थात् ताप- यानी सूर्य का ताप या गर्मी. ‘वा’ अक्षर से शब्द बना ‘वायु’ यानि हवा और ‘न’ अक्षर से शब्द बना ‘नीर’ यानी पानी या जल. अगर भूमि, गर्मी, वायु व जल नहीं रहे तो मनुष्य क्या कोई भी जीव-जन्तु जीवित रह सकता है ? सही माने में यही चार – भूमि, गर्मी, वायु और जल भगवान है, जिसके बिना आदमी तो क्या कोई भी जीव-जन्तु जीने की कल्पना या सोच भी नहीं सकता है. यही ‘भगवान’ का सही स्वरूप है, जिसे हम भारतवासी के पूर्वज मानते थे और पूजते थे. हमारे पूर्वज ‘प्रकृति पूजक’ थे. हम सभी किसान और मेहनतकश इसे मानते और पूजते हैं.

ये ब्राह्मणवादी आर्य या सवर्ण, मूलवासी (यादव, कुर्मी, कोयरी, कुम्हार, कहार, कानू, निषाद, चौधरी, मांझी, रजक, रविदास, पासवान वगैरह सहित पिछड़े मुसलमान, आदिवासी) और स्त्रियों का घोर विरोधी था और है, जिसकी बानगी या प्रमाण है कि –

क) ब्राह्मणों द्वारा शुद्रों यानि हम भारत के मूलनिवासियों की बेटियों को ‘शुद्धीकरण’ के नाम पर शादी होने के बाद दुल्हन को अपने घर यानी दुल्हे के घर नहीं जाने दिया जाता था. ब्राह्मण उसको जबरदस्ती अपने घर डोला रखबा कर कम से कम तीन रात तक उससे शारीरिक सेवा लेता था. इस प्रथा को अंग्रेजी हुकूमत ने 1819 ई. में अधिनियम – 7 कानून के द्वारा खत्म किया.

ख) ब्राह्मणों ने शुद्रों का पहला बच्चा यानी बेटा को धर्म का डर दिखाकर गंगा में फेंकवा देता था क्योंकि पहला बेटा हृष्ट-पुष्ट और स्वस्थ्य पैदा होता है. यह बच्चा ब्राह्मणों के अत्याचार के खिलाफ लड़ न पाये इसलिए उसके जन्म लेते ही गंगा में फेकवा देता था. इस प्रथा को भी अंग्रेज सरकार ने 1835 ई. में कानून बनाकर ‘पुत्र’ को गंगा में फेंकवाने व गंगा दान पर रोक लगायी.

ग) 1804 ई. में अधिनियम-3 द्वारा अंग्रेजों ने कन्या हत्या पर रोक लगायी.

घ) 1829 ई. के अधिनियम-17 द्वारा विधावाओं को ‘सती’ के नाम पर जिन्दा जलाने की प्रथा पर रोक लगाया और सती प्रथा को समाप्त किया.

घ) 1829 ई- में ही देवसासी-प्रथा पर रोक लगायी गई क्योंकि ब्राह्मणों के कहने पर शुद्र अपनी लड़कियों को मंदिर की सेवा के लिए दान दे देते थे. मंदिर का पुजारी उसका शारिरीक शोषण करते थे. उसके द्वारा बच्चा पैदा होने पर उसे फेंक देता था या उस बच्चे का नाम ‘दलित’ (हरिजन) नाम देता था.

च) अंग्रेजों ने 1795 ई. में अधिनियम-11 द्वारा शुद्रों को सम्पत्ति रखने का अधिकार कानून बना कर दिया.

छ) 1813 ई. में कानून बनाकर शुद्रों (पिछड़ा, दलित, आदिवासी) को ‘पढ़ने’ का अधिकार दिया और ‘दास-प्रथा’ को खत्म किया.

ज) 1835 ई. में अंग्रेजों ने कानून बनाकर शुद्रों को कुर्सी पर बैठने का अधिकार दिया.

झ) 1930 में कानून बनाकर ‘नरबलि-प्रथा’ पर रोक लगाकर शुद्रों को बचाया. देवी -देवता को प्रसन्न करने के लिए ब्राह्मणों ने शुद्रों के स्त्री-पुरूष दोनों को मंदिर में सिर पटक-पटक कर बलि चढ़ा देता था.

ङ) 1863 ई. में अंग्रेजों ने कानून बनाकर ‘चरक-पूजा’ पर रोक लगा दिया. आलिशान भवन एवं पुल निर्माण पर शुद्रों को पकड़कर जिन्दा नींव (दावों) में गाड़ दिया जाता था.

ट) 1773 ई. में ‘रेगुलेटिंग-एक्ट’ बनाकर, 1817 में ‘समान नागरिक संहिता’ कानून बनाकर और 6 अक्टूबर, 1860 ई. में ‘इंडियन पेनल कोड’ बनाकर अंग्रेजों ने भारत में जाति, वर्ग, वर्ण और धर्म के बिना ‘एक समान क्रिमिनल लॉ’ लागू कर सजा व दण्ड का प्रावधान सभी जाति, वर्ण, वर्ग व धर्मों के लोगों के लिए एक समान कर दिया. ब्राह्मणों के अत्याचार और अनाचार से हम भारत के मूलवासियों और स्त्रियों को मुक्ति और अधिकार अंग्रेज सरकार ने कई दर्जन कानून बनाकर दिया. अन्यथा ये आदमखोर ब्राह्मण (आर्य), मूलवासियों और स्त्रियों को गुलामी की कड़ी जंजीर में अभी तक जकड़े रखता. फिर भी आज हम सभी ब्राह्मणों का धर्म और देवी-देवता के नाम पर धार्मिक गुलाम बने हुए हैं.

मूलनिवासियों की ओर से महिषासुर के शहादत दिवस को मनाने वाले सच्चिदा नन्द पंडित बताते हैं कि सवर्णों (ब्राह्मणवादियों) के अत्याचार, अनाचार, दरिंदगी, कुकर्मों और अपराधों उसके काले कारनामें, ढपोरशंखी झूठे शास्त्रें, देवी-देवताओं, भाग्य और भगवान का डर-भय और अन्धविश्वास का पर्दाफाश करने और ध्वस्त करने, जड़ जमाये सामंतवाद को ध्वस्त करने, इन सबों का पर्दाफाश और ध्वस्त करने के लिए महिषासुर से सम्बन्धित पुस्तकों व लेखों तथा देवी-देवताओं से सम्बन्धित किताबों, लेखों व शास्त्रों को पढ़ने, मनन करने की जरूरत है. अपने वास्तविक इतिहास को जानने के बाद ही तो आप संघर्ष कर सकते हैं. तभी हम सभी ब्राह्मणवाद और विदेशी आर्यों (सवर्णों) के अत्याचार से मुक्ति पा सकते हैं. मुक्ति का रास्ता हम सभी को खुद बनाना होगा और मजबूत करना होगा.

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