गांधी

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गांधी

पं. किशन गोलछा जैन, ज्योतिष, वास्तु और तंत्र-मंत्र-यन्त्र विशेषज्ञ

मोहन दास करमचंद गांंधी नाम है उस महात्मा का, जिसे दो ध्रुवों के बीच समन्वय स्थापित करने की कला में महारत हासिल थी. वह अपने व्यवहार में संत और विचारों में क्रांतिकारी था. वह ईश्वर में अनन्य आस्था रखने वाला आस्तिक था, तो मंदिरों के रीति-रिवाज के विरुद्ध खड़ा होने वाला नास्तिक भी था.

वह अहिंसा को अपने राजनीतिक-सामाजिक जीवन का मूल मंत्र मानकर चलता था, तो ‘करो या मरो’ का नारा भी दे सकता था. वह इतना व्यस्त था कि उसके पास अपने लिये भी समय नहीं था और उसके पास इतना समय था की हर किसी से मिल लेता था. वह इतना खुला था कि उसके घर और आश्रम के दरवाजे सबके लिये खुले रहते थे और इतना अधिक रहस्यमयी था कि उसके व्यक्तित्व की गुत्थियांं आज भी उलझी हैं.

क्या-क्या लिखूं ? कितना लिखूं ? क्या गांधी सिर्फ़ एक नाम है ? नहीं ! गांधी अपने आप में संपूर्ण क्रान्ति है. गांंधी एक विचार है और विचार कभी मरते नहीं. गांधीजी की नैतिक सत्ता कितनी बड़ी थी, इसका अच्छा विश्लेषण अलेक्स वॉन तुंजलमान की किताब ‘इंडियन समर’ में किया गया है.

नोआखाली दंगे के वक्त गांधीजी कलकत्ता में थे. पूरा बंगाल और खासकर कलकत्ता नफरत की आग में झुलस रहा था. गांधीजी ने शांति की अपील की थी लेकिन हालात काबू में नहीं आ रहे थे. गांधीजी ने बड़ा फैसला लिया. उन्होंने आमरण अनशन की घोषणा की. इसका चमत्कारिक असर हुआ. उनकी इस घोषणा के कुछ ही देर बाद बंगाल शनैः-शनैः शांत होने लगा और चार घंटे के भीतर ही मानो पूरा बंगाल पाश्चाताप कर रहा था. सभी धर्मों के नेता और प्रतिनिधि गांधीजी के पास अपील करने आए कि बापू आप अपना अनशन खत्म कर दें. बापू ने अनशन खत्म कर दिया. अब उनका अगला पड़ाव पंजाब होने वाला था, जो मानव इतिहास की सबसे बड़ी विभाजन की त्रासदी से गुजर रहा था.

लार्ड मांउन्टबेटेन ने गांधीजी की महत्ता के बारे में लिखा है कि जो काम ब्रिटिश साम्राज्य की 55,000 प्रशिक्षित फौज पंजाब में नहीं कर पायी, वो काम अकेले गांधी ने कलकत्ता में कर दिया.

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गांधीजी की नैतिक सत्ता के बारे में एक और कहानी है – द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के वक्त किसी ने गांधीजी की मुलाकात हॉलीवुड के सुपरस्टार चार्ली चैपलिन से तय करवाई थी (शायद उस आदमी को कोई मजाक सूझा था या उसके मन में क्या भावना थी, ये एक अलग शोध का विषय है). दोनों ही लोग अपने-अपने क्षेत्र में दुनिया की विख्यात हस्ती थे. और लंदन की वह शाम दोनों की ऐतिहासिक और दिलचस्प मुलाकात का गवाह बनने वाली थी. देखना ये था कि कौन किसको प्रभावित करता है.

चैपलिन ने अपनी डायरी में लिखा है कि ‘वो तय वक्त पर मीटिंग स्थल पर पहुंचा. गांधीजी थोड़े लेट आये. चैपलिन सोच में पड़ गया कि राजनीति के इस निष्णात बाजीगर से किस मुद्दे पर बात की जाये ?’ आखिरकार चैपलिन ने भारत की आजादी के प्रति गांधी से सहानुभूति दर्ज की लेकिन साथ ही उसने पूछा कि ‘आधुनिक युग में गांधीजी का मशीनों के प्रति विरोध भाव कहां तक जायज है ?’
गांधीजी का जवाब था कि ‘वे मशीनों के विरोधी नहीं हैं. वे इस बात के विरोधी हैं कि मशीनों की सहायता से मानव मानव का शोषण करे.’

पता नहीं चैपलिन को ये बात उस वक्त समझ में आयी या नहीं, लेकिन कुछ ही सालों बाद चार्ली चैपलिन ने मशीन टाईम्स नाम की एक फिल्म का निर्माण किया, जिसमें वो खुद ही अभिनेता थे. इस फिल्म में एक ऐसे इंसान की कहानी है, जो मशीनों से चलित फैक्ट्री में मानवीय श्रम की बेबसी के खिलाफ जंग करता है. इस फिल्म ने मशीन, पूंजी और व्यापारिक होड़ में फंसे एक आम इंसान की त्रासदी को बड़ी गंभीरता से दिखाया है. शायद यह गांधी का ही असर था कि चार्ली चैपलिन इस बात को अपनी फिल्म में दिखाने को मजबूर हो गया था.

गांधी की हत्या का मंचन करते हिन्दू कट्टरपंथी

कट्टरपंथी हिंदू गांधीजी की इस बात के लिये आलोचना करते रहते हैं कि उन्होंने ‘महामानव’ बनने के लिए मुसलमानों को बड़ी रियायतें दी, लेकिन वे भूल जाते हैं कि गांधीजी ने मैक्डनाल्ड के कम्यूनल अवार्ड के खिलाफ अनशन करके हिंदू समाज को विखंडित होने से बचाने में कितना बड़ा योगदान दिया था. इस सिलसिले में गांधीजी का डॉ. अम्बेडकर के साथ लंबा पत्राचार भी हुआ और कई वार्तायें भी हुई. अंत में अम्बेडकर को झुकना पड़ा और गांधीजी के साथ पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर करना पड़ा. गांधीजी ने अम्बेडकर की दलितों की चिंताओं से संबंधित सारी मांगें मान ली और आजादी मिलने के बाद इस पर अमल का भरोसा दिया.

दूसरी बात ये कि गांधीजी को जब गोली मारी गई तो उनकी जुबान से निकलने वाले कौन से शब्द थे ? ‘हे राम !’ ये बातें बताती हैं कि गांधीजी की आस्था कितनी गहरी थी लेकिन उनका मन किसी भी तरह के धार्मिक-नस्लीय अहंकार से मुक्त था. वे मानवमात्र से प्रेम करते थे. गांधीजी ने अपने अफ्रीका प्रवास के दौरान और बाद में भारत में भी सादगी का अद्भुत परिचय दिया.

गांधीजी के सहयोगी और कई दफा उनकी पत्नी भी उन पर कंजूसी का आरोप लगाती रही लेकिन उनका मानना था कि प्रकृति से हमें उतनी ही चीजें लेनी चाहिये, जितनी जिंदगी के लिये जरुरी है. प्राकृतिक संसाधनों की अपनी सीमायें हैं और वे एक दिन खत्म हो जायेगी.

आज के संदर्भ में विचार करें तो गांधीजी की बात कितनी प्रसांगिक लगती है जब पीने के पानी से लेकर अनाज तक की कमी का सामना मानवता को करना पड़ रहा है. जहां तक ग्राम स्वराज्य की बात है तो गांधीजी इस बात को सौ साल पहले ही भांप गये थे कि भारत की आत्मा गांवों में है और यूरोपियन मॉडल पर इसका विकास नहीं किया जा सकता. यूरोप विकास के जिन चरणों से गुजरा था और उसकी भौगोलिक-समाजिक संरचना जिस तरह की थी, उसे भारत में हूबहू उतारना असंभव था, इसीलिये गांधीजी ने गांवों के विकास पर जोर दिया था.

गांधी के खिलाफ अनर्गल प्रलाप करते हिन्दू कट्टरपंथी

संभवतः वे बड़े शहरों की समस्यायें, विस्थापन, पलायन और धन के केंन्द्रीकरण से उपजने वाली समस्याओं को पहले भी भांप गये थे. उन्होने छोटे-छोटे कुटीर और लघु उद्योगों की वकालत की थी और शासन के विकेंद्रीकरण की बात की थी.

शायद हमारा पड़ोसी देश चीन गांधीजी की बातों पर सही तरीके से समझकर अमल कर गया और उसने अपने गांवों को खिलौनों और पार्ट-पुर्जों की फैक्ट्री का केंद्र बना दिया लेकिन हमारा देश वैसा नहीं कर पाया. हम भारी उद्योगों और बड़े शहरों के विकास में उलझे रहे. आज अपने देश में ग्रामीण विकास मंत्रालय देखते ही देखते दोयम दर्जे के मंत्रालय से ‘क्रीम मंत्रालय’ बन गया है – गांधीजी इस स्थिति की बहुत पहले कल्पना कर गये थे.

देश में क्षेत्रीय विषमता, साम्प्रदायिक तनाव और जातीय-भाषायी झगड़े बढ़ रहे हैं, शायद गांधीजी की बतायी राह पर इस देश में शासन चलाया गया होता, तो ये हालत नहीं होती. शायद किसी ने ठीक ही कहा है कि आजादी के बाद भारत का एकीकरण सरदार पटेल ने नहीं किया था बल्कि यह तो गांधीजी का चट्टानी और हिमालयी व्यक्तित्व था, जिसे पूरे देश ने बहुत पहले ही अपने अंतर्मन में जगह दे दी थी.

गांधी जैसे विराट व्यक्तित्व की व्याख्या करना बहुत मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है क्योंकि गांधी के बारे में जितना लिखा जाये वो कम है क्योंकि गांधी सिर्फ नेता नहीं बल्कि पूरा युग थे, जो इतिहास के पन्नों तक सीमित नहीं बल्कि हमारे दिलों में आज भी जीवित है.

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ROHIT SHARMA

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