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कार्ल मार्क्स (1857) : भारत में विद्रोह

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[भाजपा की केन्द्र सरकार एक ओर जहां इतिहास बदलने की लगातार प्रयास कर रही है, ऐसे में इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में दुनिया के महान दार्शनिक कार्ल-मार्क्स भारत के इतिहास पर एक गहरी निगाह डाले हैं, जिसे हम अपने पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसे उन्होंने अलग-अलग समय में लिखा है.]

कार्ल मार्क्स (1857) : भारत में विद्रोह

विद्रोही सिपाहियों के हाथ में दिल्ली के आने और मुगल सम्राट के राज्याभिषेक की उनके द्वारा घोषणा किए जाने के बाद, 8 जून को ठीक एक महीना बीता है. लेकिन, ऐसा कोई खयाल मन में रखना कि भारत की प्राचीन राजधानी पर, अंग्रेजी फौजों के विरुद्ध, विप्लवी हिंदुस्तानी अधिकार बनाए रह सकेंगे, निरर्थक होगा. दिल्ली की हिफाजत के लिए केवल एक दीवाल और एक मामूली सी खाई है, जबकि उसके चारों तरफ की, और उससे ऊंची-ऊंची जगहों पर जहां से उसकी गतिविधि को रोका जा सकता है अंग्रेजों ने कब्जा कर रखा है. इसलिए, उन दीवारों को तोड़े बिना भी, केवल उसके पानी की सप्लाई को काटकर ही, बहुत थोड़े समय के अंदर, वे बागियों को आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर कर दे सकते हैं.

इसके आलावा, विद्रोही सिपाहियों की एक ऐसी असंगठित भीड़ जिसने स्वयं अपने अफसरों को मार डाला है, अनुशासन के बंधनों को तोड़ कर टुकड़े-टुकड़े कर दिया है और जो अभी तक ऐसा कोई आदमी ढूंढ़ने में सफल नहीं हुई है जिसको वह अपना सर्वोच्च सेनापति बना सके. निश्चित रूप से ऐसी शक्ति नहीं है जो किसी गंभीर और दीर्घकालीन प्रतिरोध का संगठन कर सके. गड़बड़ हालत में मानो और भी गड़बड़ी पैदा करने के लिए, दिल्ली की रंग-बिरंगी फौजें नए-नए आदमियों के आने से रोजाना बढ़ती जा रही हैं. बंगाल प्रेसीडेंसी के कोने-कोने से बागियों के नए-नए गिरोह आकर उनमें शामिल होते जा रहे हैं.

मालूम होता है जैसे किसी पूर्वनिर्धारित योजना के अनुसार वे सब उस हतभागे शहर में अपने को झोंकते जा रहे हैं. 30 और 31 मई को किलेबंदी की दीवारों के बाहर विद्रोहियों ने जो दो हमले किए थे, उनके पीछे आत्मविश्वास या शक्ति की किसी अनुभूति की अपेक्षा निराशा की ही भावना अधिक काम करती मालूम होती थी. इन दोनों ही हमलों में उन्हें भारी नुकसान हुआ और वे पीछे ढकेल दिए गए. आश्चर्य की चीज तो केवल ब्रिटिश कार्रवाइयों की सुस्ती है. एक हद तक इसकी वजह मौसम की भयानकता और आवाजाही के साधनों की कमी हो सकती है.

फ्रांसीसियों के पत्र बताते हैं कि कमांडर-इन-चीफ जनरल एंसन के अलावा लगभग 4,000 यूरोपियन सैनिक घातक गर्मी के शिकार बन चुके हैं, और इस बात को तो अंगरेजी अखबार तक मंजूर करते हैं कि दिल्ली के पास की लड़ाइयों में सैनिकों को दुश्मन की गोलियों की अपेक्षा गर्मी से अधिक नुकसान पहुंचा है. उनके पास आने-जाने के साधनों के अभाव के फलस्वरूप, अंबाला में तैनात मुख्य ब्रिटिश सेनाओं को दिल्ली पर धावा बोलने के लिए वहां तक पहुंचने में लगभग सत्ताइस दिन लग गए, यानी औसतन हर दिन वे लगभग डेढ़ घंटा चल सके. और भी देरी अंबाला में भारी तोपों के न होने की वजह से हो गई. परिणामस्वरूप, अंबाला की फौजों को सबसे नजदीक के शस्त्रागार से, जो सतलज के उस पार फिल्लौर में था, हमला करने की एक गाड़ी लाने की आवश्यकता पड़ी.

इस सब के कारण, दिल्ली के पतन का समाचार किसी भी दिन आ सकता है; लेकिन उसके आगे क्या होगा ? भारतीय साम्राज्य के परंपरागत केंद्र पर विद्रोहियों के एक महीने के निर्विरोध अधिकार ने बंगाल की फौज को एकदम छिन्न-भिन्न कर देने में, कलकत्ते से लेकर उत्तर में पंजाब तक और पश्चिम में राजपूताना तक, विद्रोह और सेना-त्याग की आग को फैला देने में और भारत के एक किनारे से दूसरे किनारे तक ब्रिटिश सत्ता की जड़ों को हिला देने का काम करने में यदि जबरदस्त योग दिया था, जो इस बात को मान लेने से बड़ी दूसरी गलती नहीं होगी कि दिल्ली के पतन से चाहे उसके कारण सिपाहियों की पांतों में घबड़ाहट भले फैल जाए विद्रोह दब जाएगा, उसकी प्रगति रुक जाएगी या ब्रिटिश शासन की पुनर्स्थापना हो जाएगी. बंगाल की पूरी देशी फौज में लगभग 80 हजार सैनिक थे. इनमें लगभग 28 हजार राजपूत, 23 हजार ब्राह्मण, 13 हजार मुसलमान, 5 हजार दलित जातियों के हिंदू, और बाकी यूरोपियन थे. विद्रोह, सेना-त्याग, या बर्खास्तगी के कारण इनमें से 30 हजार गायब हो गए हैं. जहां तक उस सेना के बाकी हिस्से का सवाल है, तो उसकी कई रेजीमेंटों ने खुलेआम एलान कर दिया है कि वे ब्रिटिश सत्ता के प्रति वफादार रहेंगी और उसका समर्थन करेंगी, लेकिन जिस मामले को लेकर देशी सेनाएं इस वक्त लड़ाई कर रही हैं, उसके संबंध में ब्रिटिश सत्ता का साथ वे नहीं देंगी : देशी रेजीमेंटों के विद्रोहियों के विरुध्द कार्रवाइयों में अंगरेज अधिकारियों की वे सहायता नहीं करेंगी, बल्कि इसके विपरीत, वे अपने ‘भाइयों’ का साथ देंगी. कलकत्ता से लेकर आगे के लगभग प्रत्येक स्टेशन पर इस बात की सचाई प्रमाणित हो चुकी है. देशी रेजीमेंटें कुछ समय तक निष्क्रिय रहीं; लेकिन, ज्योंही उन्होंने यह समझ लिया कि वे काफी मजबूत हो गई हैं, त्योंही उन्होंने व्रिदोह कर दिया. जिन रेजीमेंटों ने अभी तक कोई घोषणा नहीं की है, और जिन देशी बाशिंदों ने विद्रोहियों का अभी तक साथ नहीं दिया है, उनके बारे में लंदन टाइम्स के एक भारतीय संवाददाता ने जो कुछ लिखा है, उससे उनकी ‘वफादरी’ के संबंध में कोई संदेह नहीं रह जाता : वह लिखता है, ‘अगर आप पढ़ें कि सब कुछ शांत है, तो इसका मतलब यह समझिए कि देशी फौजों ने अभी तक खुली बगावत नहीं की है; कि आबादी का असंतुष्ट भाग अभी तक खुले विद्रोह में नहीं आया है; कि या तो वे बहुत कमजोर हैं, या अपने को कमजोर समझते हैं, या फिर वे अधिक अनुकूल अवसर की राह देख रहे हैं. जहां आप बंगाल की किसी घुड़सवार या पैदल देशी रेजीमेंट के अंदर ‘वफादारी के प्रदर्शन’ की बात पढ़ें, तो समझ लीजिए कि इस तरह से जिन रेजीमेंटों की अनुकूल चर्चा की गई है उनमें से केवल आधी ही वास्तव में वफादार हैं; बाकी आधी सिर्फ दिखावा कर रही हैं, जिससे कि उचित अवसर आने पर वे यूरोपियनों को और भी कम चौकस पाएं; अथवा, जिससे कि संदेहों को दूर करके, अपने विद्रोही साथियों को वे और भी अधिक सहायता देने की शक्ति प्राप्त कर लें.’

पंजाब में, देशी फौजों को भंग कर ही खुले विद्रोह को रोका जा सका है. अवध में केवल लखनऊ की रेजीडेंसी पर अंग्रेजों का कब्जा कहा जा सकता है; बाकी सब जगहों पर देशी रेजीमेंटों ने विद्रोह कर दिया है, अपने गोले-बारूद के साथ वे भाग गई हैं; तमाम बंगलों को जलाकर उन्होंने खाक कर दिया है, और बाहर जाकर वे उस आबादी के साथ मिल गई हैं जिन्होंने स्वयं हथियार उठा लिए हैं. अंगरेजी फौज की वास्तविक स्थिति इस तथ्य से सबसे अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि पंजाब और राजपूताना दोनों में उसने अब उड़नदस्ते कायम करने की जरूरत समझी है. इसका मतलब हुआ कि अपनी बिखरी फौजों के बीच संचार व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अंगरेज न तो सिपाहियों की अपनी फौज पर भरोसा कर सकते हैं और न देशी लोगों पर. प्रायद्वीप युध्द के दिनों में फ्रांसीसियों की भांति ही अंगरेजों का भी जमीन के केवल उसी टुकड़े पर और उस टुकड़े के पड़ोस के केवल उसी भाग पर अधिकार है जहां स्वयं उनकी फौजें कब्जा किए हुए हैं. अपनी फौज के बाकी बिखरे हुए लोगों के बीच संचार संबंध के लिए उन्हें उड़नदस्तों पर ही निर्भर करना पड़ता है. इन उड़नदस्तों का काम, जो स्वयं बहुत जोखिम भरा है, जितने ही व्यापक क्षेत्र में फैलता जाता है, स्वाभाविक रूप से वह उतना ही कम कारगर होता जाता है. ब्रिटिश फौजों की वास्तविक अपर्याप्तता इस बात से और सिध्द हो जाती है कि विद्रोही स्थानों से खजानों को हटाने के लिए वे देशी सिपाहियों से मदद लेने के लिए मजबूर हो गए थे. और उन्होंने, बिना किसी अपवाद के, रास्ते में विद्रोह कर दिया था और उन खजानों को, जो उन्हें सौंपे गए थे, लेकर भाग खड़े हुए थे. इंग्लैंड से भेजे गए सिपाही, अच्छी से अच्छी हालत में भी, नवंबर से पहले वहां नहीं पहुंचेंगे, और मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसियों से यूरोपियन सैनिकों को हटाना और भी खतरनाक होगा. मद्रास के सिपाहियों की 10वीं रेजीमेंट में असंतोष के लक्षण पहले ही प्रकट हो चुके हैं. इसलिए, बंगाल की पूरी प्रेसीडेंसी में नियमित टैक्सों की वसूली के विचार को छोड़ देना होगा और टूट-फूट की प्रक्रिया को यों ही चलने देना होगा. अगर हम यह भी मान लें कि बर्मियों की हालत और नहीं सुधरेगी, ग्वालियर का महाराजा अंगरेजों का समर्थन करता रहेगा और नेपाल का शासक, जिसके पास सबसे अच्छी भारतीय फौज है, खामोश रहेगा; असंतुष्ट पेशावर अशांत पहाड़ी कबीलों के साथ नहीं मिल जाएगा और फारस (ईरान) का शाहइ हेरात को खाली कर देने की मूर्खता नहीं करेगा तब भी, बंगाल की पूरी प्रेसीडेंसी को फिर से जीतना होगा, और संपूर्ण एंग्लो-इंडियन सेना को फिर से संगठित करना होगा. इस विशाल कार्य का पूरा कर पूरा व्यय ब्रिटिश जनता के मत्थे पड़ेगा. जहां तक लाड्र्स सभा में लार्ड ग्रैनबिल द्वारा व्यक्त किए गए इस विचार का संबंध है कि इस कार्य के लिए, भारतीय कर्जों की मदद से, ईस्ट इंडिया कंपनी स्वयं आवश्यक साधन जुटा लेगी, जो यह कहां तक सही है, इसे बंबई के रुपए के बाजार पर उत्तर पश्चिमी प्रांतों की अशांत हालत का जो असर पड़ा है, उसी से समझा जा सकता है. देशी पूंजीपतियों के अंदर फौरन जबरदस्त घबड़ाहट फैल गई है, बैंकों से बहुत भारी-भारी रकमें निकाल ली गई हैं, सरकारी हुंडियों का बिकना लगभग असंभव हो गया है, और बड़े पैमाने पर न सिर्फ बंबई में, बल्कि उसके आसपास भी रुपयों को गाड़कर छिपाना आरंभ हो गया है.

[4 अगस्त, 1857 के न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून, अंक 5082 में प्रकाशित हुआ]

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ROHIT SHARMA

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