वियना से तार द्वारा आने वाले समाचार बताते हैं कि तुर्की, सारडीनिया और स्विट्जरलैंड की समस्याओं का शांतिपूर्ण ढंग से हल हो जाना वहां पर निश्चित समझा जाता है. कल रात कॉमन्स सभा में भारत पर बहस सदा की तरह नीरस ढंग से जारी रही. मि. ब्लैकेट ने आरोप लगाया कि सर चार्ल्स वुड और सर जे. हौग के वक्तव्यों में झूठी आशावादिता की झलक दिखलाई देती है. मंत्रिमंडल और डायरेक्टरों के बहुत से हिमायतियों ने अपनी शक्ति भर इस आरोप का खंडन किया, और फिर अचूक मि. ह्यूम ने बहस का सार पेश करते हुए मंत्रियों से मांग की कि अपना बिल वे वापिस ले लें. बहस स्थगित हो गई.
हिंदुस्तान एशियाई आकार का इटली है : एल्प्स की जगह वहां हिमालय है, लोंबार्डी के मैदान की जगह वहां बंगाल का सम-प्रदेश है, ऐपिनाइन के स्थान पर दकन है, और सिसिली के द्वीप की जगह लंका का द्वीप है. भूमि से उपजने वाली वस्तुओं में वहां भी वैसी ही संपन्नतापूर्ण विविधता है और राजनीतिक व्यवस्था की दृष्टि से वहां भी वैसा ही विभाजन है. समय-समय पर विजेता की तलवार इटली को जिस प्रकार विभिन्न प्रकार के जातीय समूहों में बांटती रही है, उसी प्रकार हम पाते हैं कि, जब उस पर मुसलमानों, मुगलों, अथवा अंगरेजों का दबाव नहीं होता तो हिंदुस्तान भी उतने ही स्वतंत्र और विरोधी राज्यों में बंट जाता है जितने कि उसमें शहर, या यहां तक कि गांव होते हैं. फिर भी, सामाजिक दृष्टिकोण से, हिंदुस्तान पूर्व का इटली नहीं, बल्कि आयरलैंड है. इटली और आयरलैंड के, विलासिता के संसार और पीडा के संसार के, इस विचित्र सम्मिश्रण का आभास हिंदुस्तान के धर्म की प्राचीन परंपराओं में पहले से मौजूद है. वह धर्म एक ही साथ विपुल वासनाओं का और अपने को यातनाएं देने वाले वैराग्य का धर्म है. उसमें लिंगम भी है, जगन्नाथ का रथ भी. यह योगी और भोगी दोनों ही का धर्म है.
मैं उन लोगों की राय से सहमत नहीं हूं जो हिंदुस्तान के किसी स्वर्ण युग में विश्वास करते हैं; लेकिन, अपने मत की पुष्टि के लिए, सर चार्ल्स वुड की भांति, कुली खां की दुहाई मैं नहीं देता. लेकिन उदाहरण के लिए, औरंगजेब के काल को लीजिए; या उस युग को जिसमें उत्तर में मुगल और दक्षिण में पुर्तगाली प्रकट हुए थे; अथवा मुसलिम आक्रमण और दक्षिण भारत में सप्त राज्यों के काल को लीजिए; अथवा, यदि आप चाहें तो, और भी प्राचीन काल में जाइए स्वयं ब्राह्मण के उस पौराणिक इतिहास को लीजिए जो कहता है कि हिंदुस्तानियों की दु:ख-गाथा उस काल से भी पहले शुरू हो गई थी जिसमें कि, ईसाइयों के विश्वास के अनुसार, सृष्टि की उत्पत्ति हुई थी. लेकिन, इस बात में कोई संदेह नहीं हो सकता कि हिंदुस्तान पर जो मुसीबतें अंगरेजों ने ढाई हैं वे हिंदुस्तान ने इससे पहले जितनी मुसीबतें उठाई थीं, उनसे मूलत: भिन्न और अधिक तीव्र किस्म की हैं. मेरा संकेत उस यूरोपीय निरंकुशशाही की ओर नहीं है जिसे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने एशिया की अपनी निरंकुशशाही के ऊपर लाद दिया है और जिसके मेल से एक ऐसी भयानक वस्तु पैदा हो गई है कि उसके सामने सालसेट के मंदिर के दैवी दैत्य भी फीके पड़ जाते हैं. यह ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की कोई अपनी विशेषता नहीं है, बल्कि डचों की महज नकल है. यहां तक कि यदि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के तौर-तरीकों का हम वर्णन करना चाहें तो उस वक्तव्य को शब्दश: दोहरा देना ही काफी होगा जो जावा के अंगरेज गवर्नर सर स्टैमफोर्ड रैफल्स ने पुरानी डच ईस्ट इंडिया कंपनी के संबंध में दिया था : डच कंपनी का एक मात्र उद्देश्य लूटना था और अपनी प्रजा की परवाह या उसका खयाल वह उससे भी कम करती थी जितनी कि पश्चिमी भारत के बागानों का गोरा मालिक अपनी जागीर में काम करने वाले गुलामों के दल का किया करता था, क्योंकि बागानों के मालिक ने अपनी मानव संपत्ति को पैसे खर्च करके खरीदा था, लेकिन कंपनी ने उसके लिए एक फूटी कौडी तक खर्च नहीं की थी. इसलिए, जनता से उसकी आखिरी कौड़ी तक छीन लेने के लिए, उसकी श्रमशक्ति की अंतिम बूंद तक चूस लेने के लिए कंपनी ने निरंकुशशाही के तमाम मौजूदा यंत्रों का इस्तेमाल किया था; और, इस तरह, राजनीतिज्ञों की पूरी अभ्यस्त चालबाजी और व्यापारियों की सर्व-भक्षी स्वार्थलिप्सा के साथ उसे चला कर स्वेच्छाचारी और अर्ध्द-बर्बर सरकार के दुर्गुणों को उसने पराकाष्ठा तक पहुंचा दिया था. हिंदुस्तान में जितने भी गृहयुध्द छिड़े हैं, आक्रमण हुए हैं, क्रातियां हुई हैं, देश को विदेशियों द्वारा जीता गया है, अकाल पड़े हैं. वे सब चीजें ऊपर से देखने में चाहे जितनी विचित्र रूप से जटिल, जल्दी-जल्दी होने वाली और सत्यानाशी मालूम होती हों, लेकिन वे उसकी सतह से नीचे नहीं गई हैं. पर इंगलैंड ने भारतीय समाज के पूरे ढांचे को ही तोड ड़ाला है और उसके पुनर्निर्माण के कोई लक्षण अभी तक दिखलाई नहीं दे रहे हैं. उसके पुराने संसार के इस तरह उससे छिन जाने और किसी नए संसार के प्राप्त न होने से हिंदुस्तानियों के वर्तमान दु:खों में एक विशेष प्रकार की उदासी जुड़ जाती है, और, ब्रिटेन के शासन के नीचे, हिंदुस्तान अपनी समस्त प्राचीन परंपराओं और अपने संपूर्ण पिछले इतिहास से कट जाता है.
एशिया में अनादि काल से आम तौर पर सरकार के केवल तीन विभाग होते आए हैं : वित्त का, अथवा देश के अंदर लूट का विभाग; युध्द का अथवा बाहर की लूट का विभाग; और अंत में सार्वजनिक निर्माण का विभाग. जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों के कारण विशेषकर इस कारण कि सहारा से लेकर अरब, ईरान, भारत और तार्तारी होते हुए एशिया के सबसे ऊंचे पठारों तक विशाल रेगिस्तानी इलाके फैले हुए हैं. पूर्व में खेती का आधार मानव द्वारा निर्मित नहरें और जल संग्रह की व्यवस्था के द्वारा सिंचाई हो रही है. मिस्र और भारत की ही तरह मेसोपोटामिया, ईरान, आदि में भी बाग बनाकर पानी को रोकने और फिर उससे जमीन को उपजाऊ बनाने की प्रथा है; नहरों में पानी पहुंचाते रहने के लिए ऊंचे स्तर से लाभ उठाया जाता है. पानी के मिलजुल कर और किफायत के साथ खर्च करने की इस बुनियादी आवश्यकता ने पश्चिम में निजी उद्योग को स्वेच्छा से सहयोग का रास्ता अपनाने के लिए बाध्य कर दिया था, जैसा कि फ्लैंडर्स और इटली में देखने में आया था. पूर्व में, जहां सभ्यता का स्तर बहुत नीचा और भूमि का विस्तार बहुत विशाल था और इसलिए जहां सहयोगी संगठन का स्वेच्छा से बनना कठिन था, इस काम को पूरा करने के लिए सरकार की केंद्रीय शक्ति के हस्तक्षेप की आवश्यकता पड़ी. इसलिए सभी एशियाई सरकारों पर एक आर्थिक जिम्मेदारी आ पड़ी. सार्वजनिक निर्माण कार्य की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी. भूमि को उपजाऊ बनाने की यह कृत्रिम व्यवस्था, जो एक केंद्रीय सरकार पर निर्भर करती थी, और सिंचाई और आबपाशी के काम की उपेक्षा होते ही तुरंत चौपट हो जाती थी, इस विचित्र लगने वाले तथ्य का भी स्पष्टीकरण कर देती है कि पाल्मीरा, पेत्रा, यमन के भग्नावशेषों और मिस्र, ईरान और हिंदुस्तान के बड़े-बड़े सूबे जैसे वे विशाल क्षेत्र, जो कभी खेती से गुलजार रहते थे, आज हमें उजाड़ और रेगिस्तान बन गए क्यों दिखाई देते हैं. इससे यह बात भी साफ हो जाती है कि यदि एक भी विनाशकारी युध्द आ जाता है तो सदियों के लिए देश को वह किस प्रकार जनविहीन बना देता है और उसकी पूरी सभ्यता का अंत कर देता है.
अंग्रेजों ने पूर्वी भारत में अपने पूर्वाधिकारियों से वित्त और युध्द के विभागों को तो ले लिया है, लेकिन सार्वजनिक निर्माण विभाग की ओर उन्होंने पूर्ण उपेक्षा दिखलाई है. फलस्वरूप, एक ऐसी खेती, जिसे स्वतंत्र व्यवसाय और निर्बाध व्यापार के मुक्त व्यापार वाले ब्रिटिश सिध्दांत के आधार पर नहीं चलाया जा सकता था, पतन के गढ़े में पहुंच गई है. लेकिन एशियाई साम्राज्यों में हम इस बात को देखने के काफी आदी हैं कि एक सरकार के मातहत खेती की हालत बिगडती है और किसी दूसरी सरकार के मातहत वह फिर सुधर जाती है. वहां पर फसलें अच्छी या बुरी सरकारों के अनुसार होती हैं जैसे कि यूरोप में वे अच्छे या बुरे मौसम पर निर्भर करती हैं. इस तरह, उत्पीड़न और खेती की उपेक्षा बुरी बातें होते हुए भी ऐसी नहीं थीं कि उन्हें भारतीय समाज को ब्रिटिश हस्तक्षेपकारियों द्वारा पहुंचाई गई अंतिम चोट मान लिया जाता यदि, उनके साथ-साथ, एक और भी बिलकुल ही भिन्न महत्व की बात न जुड़ी होती, एक ऐसी बात जो पूरी एशियाई दुनिया के इतिहास में एक बिलकुल नई चीज थी. लेकिन, भारत के अतीत का राजनीतिक स्वरूप चाहे कितना ही अधिक बदलता हुआ दिखलाई देता हो, प्राचीन से प्राचीन काल से लेकर 19वीं शताब्दी के पहले दशक तक उसकी सामाजिक स्थिति अपरिवर्तित ही बनी रही हैं. नियमित रूप से असंख्य कातने वालों और बुनकरों को पैदा करने वाला करघा और चर्खा ही उस समाज के ढांचे की धुरी थे. अनादि काल से यूरोप भारतीय कारीगरों के हाथ के बनाए हुए बढ़िया कपड़ों को मंगाता था और उनके बदले में अपनी मूल्यवान धातुओं को भेजता था; और, इस प्रकार, वहां के सुनार के लिए वह कच्चा माल जुटा देता था. सुनार भारतीय समाज का एक आवश्यक अंग होता है. बनाव-शृंगार के प्रति भारत का मोह इतना प्रबल है कि उसके निम्नतम वर्ग तक के लोग, वे लोग जो लगभग नंगे बदन घूमते हैं, आम तौर पर कानों में सोने की एक जोडी बालियां और गले में किसी न किसी का सोने का एक जेवर अवश्य पहने रहते हैं. हाथों और पैरों की उंगलियों में छल्ले पहनने का भी आम रिवाज है. औरतें और बच्चे भी अकसर सोने या चांदी के भारी-भारी कड़े हाथों और पैरों में पहनते हैं और घरों में सोने या चांदी की देवमूर्तियां पाई जाती हैं. ब्रिटिश आक्रमणकारी ने आकर भारतीय करघे को तोड़ दिया और चर्खे को नष्ट कर डाला. इंगलैंड ने भारतीय कपड़े को यूरोप के बाजार से खदेड़ना शुरू किया; फिर उसने हिंदुस्तान में सूत भेजना शुरू किया; और अंत में उसने कपड़े की मातृभूमि को ही अपने कपड़ों से पाट दिया. 1818 और 1836 के बीच ग्रेट ब्रिटेन से भारत आने वाले सूत का परिमाण 5,200 गुना बढ़ गया. 1824 में मुश्किल से 10 लाख गज अंगरेजी मलमल भारत आती थी, लेकिन 1837 में उसकी मात्रा 6 करोड़ 40 लाख गज से भी अधिक पहुंच गई. लेकिन, इसी के साथ-साथ, ढाका की आबादी 1,50,000 से घटकर 20,000 ही रह गई. भारत के जो शहर अपने कपड़ों के लिए प्रसिध्द थे, उनका इस तरह अवनत हो जाना ही इसका सबसे भयानक परिणाम नहीं था. अंगरेजी भाप और विज्ञान ने सारे हिंदुस्तान में खेती और उद्योग की एकता को नष्ट कर दिया.
पूर्व की सभी कौमों की तरह, हिंदुस्तानी एक ओर तो अपने महान सार्वजनिक निर्माण कार्यों को, जो उनकी खेती और व्यापार के मुख्य आधार थे, केंद्रीय सरकार के हाथों में छोड़े रहते थे; दूसरी तरफ, सारे देश में वे उन छोटे-छोटे केंद्रों में बिखरे रहते थे, जिन्हें खेती और उद्योग-धंधों की घरेलू एकता ने कायम कर रखा था. इन दो परिस्थितियों ने एक विशेष प्रकार की सामाजिक व्यवस्था को, उस तथाकथित ग्रामीण व्यवस्था को जन्म दिया था, जो अनादि काल से चली आ रही है. इस व्यवस्था ने इनमें से प्रत्येक छोटे संघ (केंद्र) को एक स्वतंत्र संगठन और खास तरह का जीवन प्रदान कर रखा था. इस व्यवस्था का अनोखा रूप कैसा था इसे नीचे दिए गए वर्णन से जाना जा सकता है. यह वर्णन भारत के मामलों पर ब्रिटेन की कॉमन्स सभा की एक पुरानी सरकारी रिपोर्ट से लिया गया है : भौगोलिक दृष्टि से, गांव देहात का एक ऐसा हिस्सा होता है जिसमें कुछ सौ या हजार एकड़ उपजाऊ और ऊसर जमीन होती है; राजनीतिक दृष्टि से, वह एक शहर या कसबे के समान होता है. ठीक से व्यवस्थित होने पर उसमें निम्न प्रकार के अफसर और कर्मचारी होते हैं : पटेल, अर्थात मुखिया, जो आम तौर पर गांव के मामलों की देखभाल करता है, उसके निवासियों के आपसी झगड़ों का निपटारा करता है, पुलिस की देख-रेख करता है, और अपने गांव के अंदर मालगुजारी वसूल करने का काम करता है. यह काम ऐसा है जिसके लिए उसका व्यक्तिगत प्रभाव और परिस्थितियों और लोगों की समस्याओं के संबंध में उसकी सूक्ष्म जानकारी उसे खास तौर से सबसे अधिक उपयुक्त व्यक्ति बना देती है. कातिब (पटवारी) खेती का हिसाब-किताब रखता है और उससे संबंधित हर चीज को अपने कागजों में दर्ज करता है. तालियर (चौकीदार) और तोती (दूसरी तरफ का चौकीदार) इनमें से तालियर का काम अपराधों और जुर्मों का पता लगाना और एक गांव से दूसरे गांव जाने वाले यात्रियों को वहां तक पहुंचाना और उनकी रक्षा करना होता है; तोती का काम गांव के अंदरूनी मामलों से अधिक जुड़ा हुआ मालूम होता है, अन्य कामों के साथ-साथ वह फसलों की चौकीदारी करता है और उन्हें मापने में मदद देता है. सीमा-कर्मचारी, जो गांव की सीमाओं की रक्षा करता है, अथवा कोई विवाद उठने पर उसके संबंध में गवाही देता है. तालाबों और सोतों का सुपरिंटेंडेंट खेती के लिए पानी बांटता है. ब्राह्मण गांव की ओर से पूजा करता है. स्कूल मास्टर रेत के ऊपर गांव के बच्चों को पढ़ना और लिखना सिखाता हुआ दिखलाई देता है. पत्र वाला ब्राह्मण, अथवा ज्योतिषी आदि भी होता है. ये अधिकारी और कर्मचारी ही आम तौर से गांव का प्रबंध करते हैं. लेकिन देश के कुछ भागों में इस प्रबंधव्यवस्था का विस्तार इतना नहीं होता; ऊपर बताए गए कर्तव्यों और कार्यों में से कुछ एक ही व्यक्ति को करने पड़ते हैं. दूसरे भागों में इन अधिकारियों और कर्मचारियों की तादाद ऊपर गिनाए गए व्यक्तियों से भी अधिक होती है. इसी सरल म्युनिसिपल शासन के अंतर्गत इस देश के निवासी न जाने कब से रहते आए हैं. गांवों की सीमाएं शायद ही कभी बदली गई हों; और यद्यपि गांव स्वयं कभी-कभी युध्द, अकाल अथवा महामारी से तबाह और बर्बाद तक हो गए हैं, लेकिन उनके वही नाम, वही सीमाएं, वही हित, और यहां तक कि वही परिवार युगों- युगों तक कायम रहे हैं. राज्यों के टूटने और छिन्न-विच्छिन्न हो जाने के संबंध में निवासियों ने कभी कोई चिंता नहीं की. जब तक गांव पूरा का पूरा बना रहता है, वे इस बात की परवाह नहीं करते कि वह किस सत्ता के हाथ में चला जाता है, या उस पर किस बादशाह की हुकूमत कायम होती है. गांव की अंदरूनी आर्थिक व्यवस्था अपरिवर्तित ही बनी रहती है. पटेल अब भी गांव का मुखिया बना रहता है, और अब भी वही छोटे न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट की तरह गांव से मालगुजारी वसूल करने अथवा जमीन को उठाने का काम करता रहता है.
सामाजिक संगठन के ये छोटे-छोटे एक ही तरह के रूप अब अधिकतर मिट गए हैं, और मिटते जा रहे हैं. टैक्स इकट्ठा करने वाले अंगरेज अफसरों और अंगरेज सिपाहियों के पाशविक हस्तक्षेप के कारण वे इतने नहीं मिटे हैं, जितने कि अंगरेजी भाप और अंगरेजी मुक्त व्यापार की कारगुजारियों के कारण. गांवों में रहने-सहने वाले उन परिवारों का आधार घरेलू उद्योग थे. हाथ से सूत बुनने, हाथ से सूत कातने और हाथ से ही खेती करने के उस अनोखे संयोग से उन्हें आत्मनिर्भरता की शक्ति प्राप्त होती थी. अंगरेजों के हस्तक्षेप ने सूत कातने वाले को लंकाशायर में और बुनकर को बंगाल में रख कर, या हिंदुस्तानी सूत कातने वाले और बुनकर दोनों का सफाया करके उनके आर्थिक आधार को नष्ट करके इन छोटी-छोटी अर्ध्द बर्बर, अर्ध्द सभ्य बस्तियों को छिन्न-विछिन्न कर दिया है और इस तरह उसने एशिया की महानतम और सच कहा जाए तो एकमात्र सामाजिक क्रांति कर डाली है.
यह ठीक है कि उन असंख्य उद्योगशील पितृसत्तात्मक और निरीह सामाजिक संगठनों का इस तरह टूटना और टुकडाें-टुकड़ों में बिखर जाना विपत्तियों के सागर में पड़ जाना, और साथ ही साथ उनके व्यक्तिगत सदस्यों द्वारा अपनी प्राचीन सभ्यता और जीविका कमाने के पुश्तैनी साधनों को खो बैठना निस्संदेह ऐसी चीजें हैं, जिनसे मानव-भावना अवसाद में डूब जाती है; लेकिन, हमें यह न भूलना चाहिए कि, ये काव्यमय ग्रामीण बस्तियां ही, ऊपर से वे चाहे कितनी ही निर्दोष दिखलाई देती हों, पूर्व की निरंकुशशाही का सदा ठोस आधार रही हैं, कि मनुष्य के मस्तिष्क को उन्होंने संकुचित से संकुचित सीमाओं में बांधे रखा है, जिससे वह अंधविश्वासों का असहाय साधन बन गया है, परंपररागत रूढियों का गुलाम बन गया है और उसकी समस्त गरिमा और ऐतिहासिक ओज उससे छिन गया है. उस बर्बर अहमन्यता को हमें नहीं भूलना चाहिए जो, अपना सारा ध्यान जमीन के किसी छोटे से टुकड़े पर लगाए हुए, साम्राज्यों को टूटते-मिटते, अवर्णनीय अत्याचारों को होते, बड़े-बड़े शहरों की जनसंख्या का कत्लेआम होते चुपचाप देखती रही. इन चीजों की तरफ देखकर उसने ऐसे मुंह फिरा लिया है जैसे कि वे कोई प्राकृतिक घटनाएं हों. वह स्वयं भी हर उस आक्रमणकारी का असहाय शिकार बनती रही है, जिसने उसकी तरफ किंचित भी दृष्टिपात करने की परवाह की है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दूसरी तरफ, इसी प्रतिष्ठाहीन, गतिहीन और सर्वथा जड़ जीवन ने, उस तरह के निष्क्रिय अस्तित्व ने, अपने से बिलकुल भिन्न, विनाश की अनियंत्रित, उद्देश्यहीन, असीमित शक्तियों को भी जगा दिया था, और मनुष्य-हत्या तक को हिंदुस्तान की एक धार्मिक प्रथा बना दिया था. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन छोटी-छोटी बस्तियों को जात-पांत के भेदभावों और दासता की प्रथा ने दूषित कर रखा है, कि मनुष्य को परिस्थितियों का सर्वसत्ताशाली स्वामी बनाने के बजाए उन्होंने उसे बाह्य परिस्थितियों का दास बना दिया है, कि अपने आप विकसित होने वाली एक सामाजिक सत्ता को उसने एक कभी न बदलने वाला स्वाभाविक प्रारब्ध का रूप दे दिया है और, इस प्रकार उसने एक ऐसी प्रकृति-पूजा को प्रतिष्ठित कर दिया है जिसमें मनुष्य अपनी मनुष्यता खोता जा रहा है. इस मनुष्य का अध:पतन इस बात से भी स्पष्ट हो रहा था कि प्रकृति का सर्वसत्ताशाली स्वामी मनुष्य घुटने टेककर बानर हनुमान और गऊ शबला की पूजा करने लगा था.
यह सच है कि हिंदुस्तान में इंग्लैंड ने निकृष्टतम उद्देश्यों से प्रेरित होकर सामाजिक क्रांति की थी और उपने उद्देश्यों को साधने का उसका तरीका भी बहुत मूर्खतापूर्ण था लेकिन सवाल यह नहीं है. सवाल यह है कि क्या एशिया की सामाजिक अवस्था में एक बुनियादी क्रांति के बिना मानव-जाति अपने लक्ष्य तक पहुंच सकती है ? यदि नहीं, तो मानना पड़ेगा कि इंगलैंड के चाहे जो गुनाह रहे हों, उस क्रांति को लाने में वह इतिहास का एक अचेतन साधन था.
[25 जून 1853 के न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून, संख्या 3804, में प्रकाशित हुआ.]
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