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शहीद बनाम गद्दार

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शहीद बनाम गद्दार

भारत की आजादी के इतिहास को जिन अमर शहीदों के रक्त से लिखा गया है, जिन शूरवीरों के बलिदान ने भारतीय जन-मानस को सर्वाधिक उद्वेलित किया है, जिन्होंने अपनी रणनीति से साम्राज्यवादियों को लोहे के चने चबवाए हैं, जिन्होंने परतन्त्रता की बेड़ियों को छिन्न-भिन्न कर स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया है तथा जिन पर जन्मभूमि को गर्व है, उनमें से एक थे — काॅमरेड भगत सिंह.

शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के बलिदान को शायद ही कोई भुला सकता है. आज भी देश का बच्चा-बच्चा उनका नाम इज्जत और फख्र के साथ लेता है, यहां तक कि जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी आत्मकथा में यह वर्णन किया है– भगत सिंह एक प्रतीक बन गये हैं. जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि भगत सिंह के विचार अत्यंत प्रगतिशील थे. महात्मा गांधी ने भी स्वीकारा था कि भगत सिंह बेहद साहसी व्यक्ति थे.

भगत सिंह पर अंग्रेजों की अदालत में मुकद्दमा चला तो उनके खिलाफ गवाही देने को कोई तैयार नहीं हो रहा था. बड़ी मुश्किल से अंग्रेजों ने दो लोगों को गवाह बनने पर राजी कर लिया. इनमें से एक था शादी लाल और दूसरा था शोभा सिंह. मुकद्दमे में काॅमरेड भगत सिंह को उनके दो साथियों समेत फांसी की सजा मिली. इधर दोनों को वतन से की गई इस गद्दारी का इनाम भी मिला. दोनों को न सिर्फ ‘सर’ की उपाधि दी गई बल्कि और भी कई दूसरे फायदे मिले. सोभा सिंह को दिल्ली में बेशुमार दौलत और करोड़ों के सरकारी निर्माण कार्यों के ठेके मिले जबकि शादी लाल को बागपत के नजदीक अपार संपत्ति मिली.

पर अंग्रेजों के यार आज सबसे बड़े देशभक्त बने बैठे हैं. आजादी की लड़ाई में नाखून तक नहीं कटाने वाले आज सबसे बड़े देशभक्त बन गए हैं. इस मुल्क के लिए इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है ?

बात खुद के तमगे तक होती तो कोई बात नहीं थी लेकिन इन लोगों ने अब बाकायदा देशभक्ति की सर्टिफिकेट भी बांटनी शुरू कर दी है. इसके लिए देशभक्ति का खजाना ना सही लेकिन कुछ सिक्के तो अपनी जेब में होने ही चाहिए. इसी लक्ष्य से इन्होंने काॅमरेड सुभाषबाबू और काॅमरेड भगतसिंह को चुना है. यह कुछ और नहीं बल्कि राष्ट्रभक्ति में अपनी साझेदारी दिखाने की उसी कोशिश का हिस्सा है.

वहीं ये लोग नेहरू जैसे राष्ट्रभक्त को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं, क्योंकि नेहरू पर अपना दावा ठोंकने में असमर्थ हैं, जो इनके साथ नहीं हो सकता, या जो इनके खिलाफ़ हो, उसे नष्ट और बर्बाद करने की इनकी नीति रही है.

बोस, नेहरू और भगतसिंह की चर्चा के बीच, इन मूसरचंदों से यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि जब नेताजी देश से बाहर रहकर अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला रहे थे, भगतसिंह बलिवेदी पर अपना शीश नवा रहे थे, और नेहरू कांग्रेस की अगुवाई में ‘न एक भाई, न एक पाई’ के नारे के साथ गोरों की सरकार के खिलाफ गोलबंदी कर रहे थे. तब ये और इनके महान पूर्वज कहां थे और क्या कर रहे थे ?

ये जवाब ना दे पायें तो आप स्वयं देख लीजिये कि ये लोग क्या कर रहे थे –

अंग्रेज़ों का वक़ील था संघी सूर्यनारायण (जिसे भगत सिंह की फांसी के बाद अंग्रेजों ने दीवान की उपाधि दी थी). यही सूर्यनारायण RSS संघ चालक हेडगेवार का घनिष्ट मित्र था. तब हेडगेवार ने कहा – ‘जेल जाना फांसी चढ़ना कोई देशभक्ति नहीं बल्कि छिछोरी देशभक्ति और प्रसिद्धि की लालसा है.’ फांसी के बाद संघी गुरु गोलवलकर ने कहा – ‘शहीद भगत सिंह राजगुरु सुखदेव इन की कुर्बानियों से देश का कोई हित नहीं होता.’

इनके सबसे बड़े नेता और नेहरू के नेतृत्व वाली अंतरिम कैबिनेट के सदस्य श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जिनकी भगीरथी चोटी से बीजेपी निकली है, उस समय अंग्रेजों की छत्रछाया में बंगाल में सरकार चला रहे थे.

अंग्रेजों से इनकी यारी यही तक महदूद नहीं थी. अंग्रेजी सेना में सैनिकों की भर्ती के लिए हिंदू महासभा और उसके मुखिया ने बाकायदा जगह-जगह भर्ती कैंप लगवाए थे. फिर इन्हीं जवानों को उत्तर-पूर्व के मोर्चे पर सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व वाले आईएनए के सैनिकों का सीना छलनी करने के लिए भेजा जाता था.

बहरहाल, 1931 आते आते शहीद काॅमरेड भगत सिंह असली मायनों में राष्ट्रीय प्रतीक बन चुके थे. भगत सिंह एक ऐसा व्यक्तित्व हैं जिसे महज 23 साल की उम्र में उस साल 23 मार्च को फांसी पर लटका दिया गया था. भगत सिंह और दूसरे क्रांतिकारियों ने जब एएसपी जॉन सॉडर्स की हत्या की तो रातों-रात वे पूरे देश के लिए हीरो बन गए. उस जमाने में देश की किसी भी भाषा का कोई भी अखबार ऐसा नहीं था, जिसने इनके मुकदमे की रिपोर्ट न छापी हो. 1929 से 1931 के बीच तमाम सुर्खियों का केंद्र शहीद भगत सिंह ही रहे.

हात्मा गांधी से लेकर जवाहर लाल नेहरू तक हर राष्ट्रीय नेता ने भगत सिंह के मुकदमे के बारे में बयान जारी किए और मुकदमे की सुनवाई के दौरान टिप्पणियां की. लेकिन उस दौर का एक भी आरएसएस नेता सामने नहीं आया, जिसने भगत सिंह की फांसी के खिलाफ एक भी शब्द बोला हो. आज ये लोग बेशर्मी से पूछते हैं कि महात्मा गांधी ने भगतसिंह की फांसी क्यों नहीं रोकी ? तो ये लोग पहले ये बताये कि इनके गोलवलकर और सावरकर दोनों की इस मामले में चुप्पी क्यों थी ? आज अपने आपको महान संघी देशभक्त कहने वाले बतायें कि इनके पूर्वजों ने भगत सिंह की फांसी का विरोध क्यों नहीं किया ?

यहां तक कि शोधकर्ताओँ को पेरियार का भी एक बयान मिलता है, जिसमें उन्होंने भगत सिंह को फांसी दिए जाने की निंदा की थी, लेकिन संघ से जुड़े किसी व्यक्ति का कोई भी बयान या टिप्पणी तलाशने पर भी नहीं मिलती.

ये विडंबना नहीं तो क्या है कि इन्हीं भगत सिंह को आरएसएस आज अपना आदर्श बनाने और उनकी विरासत को अपनाने बनाने की कोशिश कर रही है.

भगत सिंह दो साल तक जेल में रहे और इस दौरान उन्होंने समाचारपत्रों और अपने साथियों को लंबे-लंबे बेशुमार पत्र लिखे. जब भगत सिंह और उनके साथियों ने असेंबली में बम फेंके थे तो टाइम्स ऑफ इंडिया की हेडलाइन थी, ‘रेड्स स्टॉर्म दि असेंबली’ (वामपंथियों का संसद पर हमला). और ये भी तथ्य है कि भगत सिंह द्वारा दिया गया नारा, ‘इंकलाब जिंदाबाद’ बेहद लोकप्रिय हुआ था. इसलिए इस बात में कोई शक नहीं रह जाता कि भगत सिंह अपने विचारों से एक कम्यूनिस्ट थे और उनके लेखन में साम्यवादी विचार ही झलकते थे.

मॉडर्न रिव्यू, ट्रिब्यून, आनंदबाजार पत्रिका, हिंदुस्तान टाइम्स और उस दौर के सभी दूसरे प्रमुख अखबारों में भगत सिंह के लेख प्रमुखता से प्रकाशित भी होते थे. यहां तक कि असेंबली में उन्होंने जो पर्चे फेंके थे, वे भी लाल रंग के ही थे. ये भी ध्यान देने की बात है कि देश के अलग-अलग कोनों से प्रकाशित होने वाले सभी अखबार भगत सिंह के संदेशों को मान्यता देने और उन्हें प्रमुखता से छापने में एक थे. इनमें इलाहाबाद से प्रकाशित दि लीडर, कानपुर का प्रताप, मुंबई से प्रकाशित फ्री प्रेस जर्नल, चेन्नई से प्रकाशित दि हिंदू के अलावा लाहौर, दिल्ली और कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले अखबार भी शामिल हैं. अखबारों में उन्हें लेकर इतना अधिक छपता था कि भगत सिंह उस दौर के सबसे लोकप्रिय नेता बन गए थे.

भगत सिंह के राष्ट्र और राष्ट्रवाद के विचार को नए सिरे से स्थापित करने की तुरंत जरूरत है. उन्होंने सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ लिखा. उन्होंने दलितों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ लिखा. उनका राष्ट्रवाद संघ का संकीर्णता वाला फर्जी राष्ट्रवाद नहीं बल्कि अच्छी तरह सोचे-समझे विचारों और तर्कों पर आधारित था. काॅमरेड भगतसिंह का राष्ट्रवाद संघ परिवार के संकीर्ण और सीमित फर्जी राष्ट्रवाद का असली जवाब है.

70 के दशक के नक्सलबाड़ी आंदोलन के दौरान वामपंथियों ने पुनः भगत सिंह की विरासत पर अपना अधिकार जताया. यही वह समय था जब इतिहासकार बिपिन चंद्रा ने एक नई रूपरेखा के साथ भगतसिंह की रचना, ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ को पुस्तक के रूप में दोबारा प्रकाशित किया. इस पुस्तक के बाद से युवाओं में भगत सिंह के प्रति नए सिरे से रूचि पैदा हुई, तब बीजेपी और आरएसएस ने मौके का फायदा उठाने के लिये भगत सिंह पर अपना दावा करना शुरु कर दिया. लेकिन यह अकाट्य सत्य है कि फांसी पर झूलने से पहले भगत सिंह ने जो आखिरी नारा लगाया था और जो लोगों की जुबान पर था, वह है – इंकलाब जिंदाबाद और साम्राज्यवाद मुर्दाबाद.

आरएसएस के मुखपत्र पॉच्जन्य ने 2007 में भगत सिंह पर एक विशेषांक निकाला था. करीब 100 पन्नों के इस विशेषांक में ये साबित करने की कोशिश की गयी कि भगत सिंह कम्यूनिस्ट नहीं थे और उन्होंने, ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’, नाम की रचना नहीं लिखी थी.

बाद में जब वामदलों ने भगत सिंह के पत्रों को प्रकाशित किया और आखिरकार उनके लिखे दस्तावेज भी प्रकाशित हुये, तब नतीजा ये निकला कि आरएसएस और बीजेपी को यह मानने पर मजबूर होना पड़ा कि भगत सिंह दरअसल एक कम्यूनिस्ट थे.

लेकिन जनता की स्मृति कमजोर होती है, इसलिये अब फिर से मौका ताड़ कर संघ और बीजेपी भगतसिंह को नए सिरे से अपने तरीके का राष्ट्रवादी साबित करने पर तुले हुए हैं, लेकिन यह तथ्य है कि भगत सिंह के राष्ट्रवाद और संघ के संकीर्ण फर्जी राष्ट्रवाद में जमीन-आसमान का फर्क है.

दरअसल भगत सिंह उस आजादी के पक्ष में नहीं थे जिसमें गोरे साहबों की जगह भारतीय साहब, जिन्हें उस दौर में ब्राउन साहब कहा जाता था, वो बैठ जायें, और व्यवस्था जस की तस चलती रहे. उन्होंने एक ऐसे राष्ट्र की कल्पना की थी जिसमें कामगारों, किसानों और आम लोगों को आजादी मिले और वे सशक्त और सक्षम हों. उन्होंने वैश्विक और अंतर्राष्ट्रीय भाईचारे और महासंघ की बात की थी.

लेकिन संघ और बीजेपी का दोगलापन जगजाहिर है. ये लोग इस कदर झूठे हैं कि इनकी कोई भी बात विश्वास के काबिल नहीं है. आज भी ये लोग देश की सरकारी संपत्तियों, कंपनियों, संस्थानों का निजीकरण करके अंततः उन्हे विदेशियों को बेचने की साजिश में लगे हैं. जनता का ध्यान मूलभूत समस्याओं और निजीकरण की साजिश से भटकाने के लिये लगातार साम्प्रदायिकता और फर्जी राष्ट्रवाद के मामले उछालते रहते हैं.

हमें इनके झूठ, भ्रम और अफवाह की आंधी में बहने से पहले दो मिनट ठहरकर सोचने की जरूरत है.

(यह आलेख सोशल मीडिया के माध्यम से अग्नि प्रकाश के सौजन्य से प्राप्त हुई है, जो आज की तारीख में बेहद ही महत्वपूर्ण है. हमारे पास इसके मूल लेखक की जानकारी नहीं है.)

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