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शोषित-पीड़ित व उसी वर्ग के बुद्धिजीवी अपनी ही मुक्ति के विचारधारा समाजवाद से घृणा क्यों करते हैं  ?

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शोषित-पीड़ित व उसी वर्ग के बुद्धिजीवी अपनी ही मुक्ति के विचारधारा समाजवाद से घृणा क्यों करते हैं  ?

प्रश्न : अगर समाजवाद से ही मेहनतकश जनता को मुक्ति मिल सकती है, तो अधिकांश शोषित-पीड़ित व उसी वर्ग के बुद्धिजीवी अपनी ही मुक्ति के विचारधारा से घृणा क्यों करते हैं  ?

जवाब : क्या कभी आपने सोचा कि आपके दिमाग में किसका विचार शासन कर रहा है ? इस प्रश्न का उत्तर समझने के लिए एक दृष्टांत लेते हैं.

फल बेचने वाले एक गरीब आदमी की छोटी सी दुकान पर, एक सूट-बूट वाला आदमी महंगी कार से उतरकर फल खरीदने के लिए आता है, तब फल बेचने वाला गरीब आदमी उससे बड़े प्यार से बोलता है और अच्छे-अच्छे ताजे फल छांट कर उसे तौल देता है.

परंतु , थोड़ी ही देर बाद एक मजदूर का बेटा फटें-पुराने लिबास में सेब का फल खरीदने के लिए उसी ठेले के पास आता है, तो वही फल वाला उसी गरीब आदमी से अक्कड़ कर बोलता है और वही फल दो रुपये मंहगा भी देता है, और दागदार तथा खराब फल छांट कर उस गरीब को दे देता है.

इसी तरह की मिलती-जुलती घटनाएं आपने भी अवश्य देखा ही होगा. इसके पीछे क्या कारण है ? आखिर वह ठेलेवाला गरीब आदमी, अपने ही एक मजदूर किसान दस्तकार भाई से घृणा क्यों करता है ? और धनी लोगों से प्यार क्यों करता है ? ऐसा करने की ट्रेनिंग कहां से मिली ? किसने यह सब सिखा दिया ? आखिर फल वाले गरीब आदमी के दिमाग में किसका विचार भरा पड़ा है ?

लैटिन अमेरिका के क्रांतिकारी रेजिश डेब्रे ने लिखा है ‘व्यक्ति या मनुष्य जिस व्यवस्था में रहता है, उस व्यवस्था के शासक वर्गों की विचारधारा वह बिना किसी बहस के, बिना कुछ जाने ही, अर्थात अनजाने में ही आत्मसात कर लेता है. फल बेचने वाले गरीब आदमी ने अनजाने में ही शासक वर्ग की विचारधारा को बिना कोई बहस किए ही आत्मसात कर लिया है.

मैंने करोड़ों लोगों से पूछा कि क्या आदमी द्वारा आदमी का खून चूसा जाना उचित है ? तो 99% लोगों ने यही कहा कि यह उचित नहीं है. यही जनता का विचार है. परंतु जनता अपने इन विचारों से शासित नहीं होती, यदि जनता इन विचारों से शासित होती तो मानव द्वारा मानव का शोषण ना होता. जनता किन के विचारों से शासित होती है, इसका जवाब कार्ल मार्क्स ने दिया.

कार्ल मार्क्स ने लिखा है, ‘किसी भी समाज व्यवस्था के अंतर्गत शासित करने वाले विचार उस समाज व्यवस्था के शासक वर्गों के ही विचार होते हैं. इसका मतलब शोषित, पीड़ित लोग जिन धार्मिक अंधविश्वासों, जाति-पाती, छुआ-छूत, सूदखोरी, मुनाफाखोरी आदि सामंती पूंजीवादी विचारों को अपना विचार मानकर उसे छोड़ना नहीं चाहते, वह उनका विचार नहीं बल्कि शासक वर्ग का विचार है, जिसको उन्होंने बगैर कोई बहस किए ही आत्मसात कर लिया है. शोषित-पीड़ित वर्ग का बुद्धिजीवी तबका भी महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार से लड़ने के बजाय कभी चीन से लड़ कर उसे परास्त करने की बात करता है, कभी पाकिस्तान को नेस्तनाबूद करने की बात करता है.

आखिर इन युद्धों से दोनों देशों पर मेहनतकश गरीबों के ही बच्चे, जो कि सेना में सैनिक में हैं, मारे जाएंगे. तो फिर भी ऐसा क्यों सोच रहे हैं ? वे अपने बच्चों को युद्ध की आग में झोंक कर मारने की बात क्यों सोच रहे हैं ? एक ऐसे समाज, एक ऐसे देश, एक ऐसी दुनिया के बारे में वह क्यों नहीं सोचते, जिनमें युद्ध की संभावना ही ना हो तथा कोई अमीर और गरीब ही ना हो, कोई आदमी किसी आदमी का खून न चूस सके, ऐसे समाज के बारे में वह क्यों नहीं सोचता ? अर्थात, वह समाजवाद के बारे में क्यों नहीं सोचता ?

टाटा, बिरला, अडानी, अंबानी आदि समाजवाद नहीं चाहते, क्योंकि यदि समाजवाद आएगा तो उनके कल-कारखानों, बैंकों, जमीनों आदि पर उनका अधिकार खत्म हो जाएगा और उस पर पूरे समाज का अधिकार कायम हो जाएगा. परंतु दलितों, पिछड़ों, गरीबों के मसीहा कहे जाने वाले उन तथाकथित बुद्धिजीवियों का क्या नुकसान है, जो समाजवाद से इतनी घृणा करते हैं ? दरअसल वे बुद्धिजीवी होते हुए भी शासक वर्ग की विचारधारा से ग्रसित हैं.

सिर्फ समाजवाद ही ऐसा विचारधारा है जिसे अपनाकर शोषित पीड़ित वर्ग राजसत्ता का मालिक बन सकता है. समाजवाद से ही जातिवाद, संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद, नस्लवाद ,भाषावाद के झगड़े खत्म हो सकते हैं. समता, स्वतंत्रता, न्याय एवं बन्धुत्व वाला वातावरण सिर्फ से ही संभव है जबकि पूंजीवादी व्यवस्था शोषित-पीड़ित वर्गों को सबसे ज्यादा तबाह कर रही है. फिर भी शोषित-पीड़ितों में से निकले हुए अधिकांश बुद्धिजीवी समाजवाद से घृणा करते हैं और अपनी गुलामी की विचारधारा पूंजीवादी से प्यार करते हैं. वे पूंजीवादी व्यवस्था को बदलने की बजाय, उसी व्यवस्था में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कराने की बात करते हैं. उन्हें भागीदारी चाहिए, परंतु समाजवाद नहीं.

उन्हें डाइवर्सिटी चाहिए, परंतु समाजवाद नहीं, जिनकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी चाहिए, परंतु समाजवाद नहीं चाहिए. उन्हें आरक्षण चाहिए परंतु समाजवाद नहीं. उन्हें बेरोजगारी भत्ता चाहिए, परंतु समाजवाद नहीं. उन्हें समर सत्ता, रामराज, प्रमोशन में आरक्षण आदि चाहिए परंतु समाजवाद नहीं. इस प्रकार शोषक वर्ग समाजवाद नहीं चाहता, और शोषित वर्ग का बुद्धिजीवी भी समाजवाद नहीं चाहता. फिर तो दोनों की विचारधारा एक हो गई. जब शोषक और शोषित दोनों की विचारधारा एक हो गई तो संघर्ष होगा किससे ? और संघर्ष नहीं तो अधिकार मिलेगा कैसे ?

अत: अपने ही मुक्ति की विचारधारा से घृणा करना शासक वर्ग का ही विचार है. जातिवाद, धर्मवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, नक्सलवाद के नाम पर मजदूरों-किसानों में फूट डालना भी शासक वर्ग का ही विचार है. समाजवाद को ना चाहना, पूंजीवादी शोषण जैसे मुनाफाखोरी, निजी-संपत्ति, सूदखोरी, जमाखोरी, कालाबाजारी, महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, कर्ज, युद्ध आदि को जायज ठहराना, समर्थन देना तथा पूंजीवादी लूटपाट में ही अपना हिसाब मांगते रहना शासक वर्ग का ही विचार है.

मेहनतकशों की मुक्ति की विचारधारा से घृणा करना, उस से दूरी बनाना, उसे भारत की परिस्थितियों में लागू न हो पाने वाली विचारधारा करार देना, शासक वर्ग का ही विचार है. यह कहना कि समाजवाद में हिंसा है, अतः समाजवाद ठीक नहीं है, यह भी शासक वर्ग का ही विचार है.

जो लोग वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धांतों की आलोचना ही नहीं बल्कि अपने कुतर्कों द्वारा खंडन भी करते हैं, यदि उनसे पूछा जाए कि समाजवाद के मूल सिद्धांत क्या है ? तो उनकी बोलती बंद हो जाती है. वह वैज्ञानिक समाजवाद के नियमों एवं सिद्धांतों को जाने समझे बगैर उनकी आलोचना या बुराई करते हैं, ऐसा करना भी शासक वर्ग का ही विचार है. धनी लोगों से प्यार करना, मेहनतकशों से घृणा करना, पूंजीपतियों को सम्मान देना, तथा मजदूरों, किसानों, बुनकरों, दस्तकारों से झगड़ा करना शासक वर्ग का ही विचार है. मुलायम एंड संस की तरह नामधारी समाजवादी बनकर पूंजीपतियों की सेवा करना तथा जातिवाद तथा सांप्रदायिक दंगे फैलाना भी शासक वर्ग का ही विचार है.

कम्युनिस्ट नामधारी पार्टियां बनाकर कार्यकर्ताओं को मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, ऐतिहासिक भौतिकवाद, राजनीतिक अर्थशास्त्र तथा लेनिनवाद और माओ विचारधारा का ज्ञान न कराना, कार्यकर्ताओं को शिक्षित करने के लिए अध्ययन शिविर ना चलाना, और इस प्रकार सिर्फ चुनावबाजी करके पूंजीवादी व्यवस्था की सेवा करना भी, शासक वर्ग का ही विचार है- जाति,धर्म, रंग लिंग, भाषा, क्षेत्र के नाम पर पार्टियां बनाकर फूट डालना भी शासक वर्ग का ही विचार है.

वैज्ञानिक समाजवाद की खिलाफत करके रामराज, अध्यात्मिक समाजवाद, वैदिक समाजवाद, लोहिया समाजवाद, गांधियन समाजवाद, राजकीय समाजवाद की लफ़्ज़ाभी करना भी शासक वर्ग का ही विचार है. ढोंग-ढकोसला,अंधविश्वास, कर्मकांड, अंधश्रद्धा तर्क न करना भी शासक वर्ग का ही विचार है. अपने महापुरुषों द्वारा हुई भूलों वह गलतियों से सबक ना लेना तथा उनकी भूलों व गलतियों को सही ठहराना भी शासक वर्ग का ही विचार है.

जब तक क्रांतिकारी विचार नहीं आते तब तक शासक वर्ग के विचार जड़ जमाए रहते हैं. क्रांतिकारी विचारों के अभाव के कारण ही शोषित-पीड़ित वर्ग के लोग भी समाजवादी व्यवस्था के खिलाफ खड़े हो जाते हैं. वह पूंजीवाद से होने वाले नुकसान का मूल्यांकन किए बगैर पूंजीवाद का पक्ष लेते रहते हैं. समाजवादी एवं पूंजीवादी व्यवस्था के बिच फर्क नहीं समझते इसलिए जब पूंजीवादी नेता विकास की बात करते हैं तो वे उनके लुभावने वादों में फंस कर उन्हें वोट देकर उनके समर्थक बनकर उनकी सत्ता को मजबूत बनाते रहते हैं. अतः दो व्यवस्थाओं के बीच का अंतर समझना बहुत जरूरी है.

  • रजनीश भारती

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