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भारतीय अर्थव्यवस्था पर दो बातें मेरी भी

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भारतीय अर्थव्यवस्था पर दो बातें मेरी भी

Ravindra Patwalरविन्द्र पटवाल, राजनीतिक विश्लेषक

मेरे लिए तो भारतीय अर्थव्यवस्था 2012 से ही मंदी के दौर में प्रवेश कर चुकी थी. मेरा काम रियल एस्टेट से है और रियल एस्टेट सहित तमाम उद्योग कॉमनवेल्थ गेम के बाद से ही धीरे-धीरे सुस्त पड़ने लगे. रियल एस्टेट में तभी से unitech, जेपी जैसी दिग्गज कंपनियों की हालत पतली होने लगी थी. कुकुरमुत्तों की फ़ौज के रूप में पूरे देश में जिन-जिन ने हाई-वे के अगल-बगल प्लॉट खरीद कर काट रखे थे, वे तब से बिके ही नहीं.

हम देशवासी भी मनमोहन सरकार की विदाई और 2G और कोयला की फाइल देख-देखकर अन्ना आन्दोलन में कूद पड़े, या कूदा दिए गए. मीडिया 24 x 7 अन्ना और महिला रेप के विरुद्ध क्रांति का बिगुल बजा चुका था.
हमने और देश ने सोचा 2014 में आखिर कोई रणबांकुरा आएगा, जो भ्रष्टाचार से इस देश को हमेशा-हमेशा के लिए मुक्त करेगा और वर्तमान रफ्तार खुद-व-खुद डबल हो जाएगी. जो 25 करोड़ लोग मध्य वर्ग में आये हैं, उतने ही अगले 10 साल में और जुडेंगे और हम चीन को टक्कर देने लगेंगे.

2014 में सरकार भी हुबहू वही नारे लेकर आई. अच्छे दिन, गुजरात मॉडल, स्मार्ट सिटी, किसानों को डबल आय, फलाना-ढिमकाना याने कि 15 लाख भी हर खाते में. हमने राजनैतिक विरोध के बावजूद मन ही मन सोचा, कुछ भी हो, आदमी इतना विकास का ढोल पीट रहा है, चलो हमारे जैसों का तो भला हो ही जायेगा. पूंजीपतियों के हित की पार्टी है, विकास का जूस नीचे भी तो टपकेगा अवश्य.

लेकिन यह क्या?

2014 में कहा गया भाइयों और बहनों पहले पहले कडवी दवा पियो. अगले साल नोटबंदी झेलो.

मेरी नजर में नोटबंदी वह परिघटना थी, जिसका प्रत्यक्ष असर ही मीडिया और फेसबुक विद्वानों ने नोट किया. इतने सौ लोग लाइन में खड़े-खड़े मर गये और देश को कितना झेलना पड़ा, यही गप्पें होती रही और आज भी चल रही है.

नोटबंदी ने सही मायनों में इस देश के करोड़ों उद्यमियों की कमर तोड़ दी. जो रहा-सहा अरमान था, उद्यमी बनने का, जिसे स्टार्ट अप का नाम दिया गया, वो तो उदारीकरण के 90 के दौर से ही बिना कहे शुरू था. अब सिर्फ लेवल बताने और चिपकाने वाली सरकार आई थी.

ऐसे अनगिनत छोटे-छोटे कारोबार, कताई, हथकरघा, निर्माण उद्योग, इलेक्ट्रिक और इलेक्ट्रॉनिक, खिलौने, रबर आदि के उद्योग डूबे, जो दो-तीन पीढ़ी के बाद कहीं एक आदमी करता है, और डूब जाने के बाद अगली पीढ़ी भी तौबा कर लेती है.

आज जो लोग बड़े-बड़े बिस्किट, खाद्य निर्माण, ऑटो और टेक्सटाइल, लोहा और सीमेंट उद्योग में नौकरी जाने को देख भयभीत हैं, उसकी नींव तो नोटबंदी में अपने ही देश के उपर सर्जिकल स्ट्राइक करके रखी गई थी, जिसे GST के द्वारा मजबूत कंक्रीट से पुख्ता कर दिया गया.

लेकिन इस दौर में भी कुछ लोग पनपे. कुछ साल तक ऑटो और आईटी इंडस्ट्री ने भी साथ दिया. आईटी आज भी दे रही है. लेकिन ऑटो इंडस्ट्री क्यों बैठ रही है ? इसके लिए बिना नोटबंदी और GST के प्रभाव को समझे, जो धीरे-धीरे पड़ा, नहीं समझा जा सकता.

हांं, तो पूंजीपति हलकों में भी कुछ चुनिन्दा लोगों का विकास हुआ. हुआ नहीं बल्कि कहूंं कि किया गया, ठेल ठेल के तो अतिशियोक्ति नहीं होगी. टेलीकॉम, पेट्रोलियम, गैस और चीन से इम्पोर्ट करने वालों का ख़ास विकास हुआ. उन ठेकेदारों का हुआ जो सरकार के टेंडर पर ही काम करते हैं.

कुल मिलाकर विकास अब उन्हीं चंद लोगों का होता है, जो चुनाव में अच्छा चन्दा देते हैं, बांड उठाते हैं, टीवी और मीडिया को खरीदते हैं, और उसमें सरकार के मनमाफिक प्रचार-प्रसार में दिन रात लगे हैं. रक्षा सौदों में जिनकी विशेष रूचि है, उनका खैर मकदम है.

इस विकास को क्रोनी कैपिटल कहा जाता है. इसके कारण न तो स्वस्थ्य पूंजी का विकास होता है और न ही विश्वास का माहौल ही बनता है. उल्टा झूठ, भ्रम और आंकड़ों की हेराफेरी से पिछले 5 सालों से देश की आर्थिक हालात से नावाकिफ रहकर देश का पलीता लगातार लगाया जाता रहा.

यह अक्षम्य अपराध चंद्रशेखर की सरकार तक में नहीं हुआ. कोई भी सामान्य समझ वाला राजनीतिक पार्टी भी इस काम को अंजाम देने का साहस नहीं कर सकती. क्योंकि आज नहीं तो कल जब इस खोखले हो चुके अर्थव्यवस्था को सबके सामने आना ही पड़ेगा, तब उस दल या पार्टी का अस्तित्व पूरी तरह से खत्म हो जायेगा. यह रिस्क कोई भी दूरंदेशी पार्टी नहीं ले सकती. लेकिन ले रही है, क्योंकि जिनके पास चुनावी जीत का करिश्मा है, उसके आगे सभी मजबूर हैं.

भारतीय मजदूर संघ (BMS) जो आरएसएस का मजदूर संगठन है, बीच-बीच में विरोध के सुर लगाता है, आरोप लगाता है, लेकिन खुल कर विरोध करने की उसकी ताकत नहीं. वह सिर्फ अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा होता है. आरएसएस ने भी इस खतरे को भांपा था, और अपना आदमी खड़ा किया था, चुनाव से पहले लेकिन अंतिम बाजी उसके हाथ नहीं आई. अभी भी क्रोनी कैपिटल का राज्यसत्ता में इतना अधिक दखल है कि करें तो क्या करें, सोचें तो क्या सोचें.

इस विपदा से बचने का रास्ता देश को मिलकर ही सोचना पड़ेगा. वैसे अगले 10 साल तक के लिए फिर से 2010 वाली वापसी की उम्मीद ही सबसे बड़ी उम्मीद होगी.

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