रविन्द्र पटवाल, राजनैतिक विश्लेषक
सिक्किम के मुख्यमंत्री ने अपनी ओर से सिक्किम की जनता को आश्वस्त किया है कि भारत सरकार धारा 371F में कोई छेड़खानी नहीं करेगी. मुझे भी इसका कोई आधार नजर नहीं आता. लेकिन डर तो सबको लगता ही है. और कश्मीर से धारा 370 को कुचलकर यह काम तो किया ही गया है, इसके वावजूद कि महज दो दिन पहले कश्मीर के राज्यपाल ने भी कश्मीर की जनता और उसके नेताओं को ऐसा ही आश्वासन दिया था.
अब लोगों को पता चल रहा है कि जो तीर हम दूसरों पर मारते थे, वह तीर उनके लिए भी देर सवेर इस्तेमाल तो हो ही सकता है. आपने रास्ता जो बनवा दिया है.
भारत को संघीय ढांंचे वाला देश माना जाता है. बिपिन चन्द्रा की आजादी के बाद का भारत किताब में जो एक बात मेरे दिमाग में गहरे से पैठ की, वह यह थी कि संघीय ढांंचे के बावजूद भारत को केन्द्रीय स्वरुप की जरुरत सबसे अधिक ठीक आजादी के समय थी, जब देश आर्थिक सामरिक दृष्टि से सबसे कमजोर था. अंग्रेज चले गए थे, प्रशासन पर कमजोर पकड थी और देश में सैकड़ों रियासतें थी, जिन्हें नवाब, राजा, महाराजा कहा जाता था. उस समय बगावत के स्वर उठाने वाले बहुत सारे थे और तीन रियासत तो सीधे-सीधे चुनौती दे रहे थे – कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद.
बिपिन चन्द्रा इस बात पर जोर देते हैं, और सही देते हैं कि जैसे-जैसे यह सवाल गौण होता गया और देश का मोटा-मोटा ढांचा अपने स्वरूप में आता गया, देश के विकास के लिए और सभी को मुख्यधारा में जोड़ने के लिए यह जरुरी है कि देश संघीय ढांंचे में चले.
यही कारण है कि पंजाब के तीन हिस्से हुए. महाराष्ट्र के भी दो और इस प्रकार बाद में कई राज्य विकसित हुए, जिसमें उत्तराखंड, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ सहित तेलंगाना शामिल हैं. दक्षिण में भी अलग राज्य बने. स्वशासन और क्षेत्रीय बोली, क्षेत्र विशेष की भौगौलिक, भाषाई पहचान के साथ नेशन स्टेट की स्थापना. अपनी मजबूती आप तभी बना सकते हैं, जब उन्हें उनकी पहचान मिले. वे आवाज सुनी जाए.
सिक्किम भारत का हिस्सा 1975 में शायद बना. सन ठीक से याद नहीं. वहांं यात्रा के दौरान ही मुझे यह सुनने और जानने को मिला. वहांं के लोगों से पता चला कि अंग्रेजों ने जब सिक्किम पर आक्रमण किया तो उनके बीच एक संधि हुई, जिसमें दार्जिलिंग का हिस्सा अंग्रेजों को कलकत्ता में ब्रिटिश राज के समय आरामगाह के रूप में चाहिए ही था, सो उन्हें दे दिया गया और बाकी हिस्से पर कभी भी अंग्रेज रुख नहीं किये. ब्रिटिश राज के दौरान उन्हें आराम या हारी-बीमारी की दशा में इंग्लैण्ड जैसा मौसम चाहिए था, और दार्जिलिंग कलकत्ता से नजदीक था. आजादी के बाद सिक्किम की जनता के कारण आखिर में भारत में उसका विलय हुआ. वे भी राजतन्त्र की जगह लोकतंत्र चाहते थे.
आज लोकतंत्र की जगह फिर से राजतन्त्र जैसी केन्द्रीय व्यवस्था लागू की जा रही है, जिसमें स्वर तो उत्तर भारत और पश्चिम भारत के हैं, लेकिन असल में उसके सिर्फ स्वर हैं, हल्ला है, उसकी अपनी कोई औकात नहीं. यह सब भारतीय संसाधनों और पूंजी के चंद पूंजीपति घरानों के बीच बंटवारे की लड़ाई का नतीजा है.
आर्थिक संकट के इस दौर में टाटा से लेकर बजाज तक गंभीर संकट झेल रहे हैं, लेकिन चंद घराने इससे प्रभावित होकर भी अछूते हैं. उनका भारतीय राजनीति के जरिये अर्थव्यवस्था पर जकड़ इतनी मजबूत हो चुकी है कि उनका बाल भी बांका नहीं हो सकता. परदे के पीछे वे शक्तियांं इतनी मजबूत है कि देश क्या देखेगा, सोचेगा, बोलेगा और आज सोशल मीडिया में क्या ट्रेंड करेगा, उसे तक वे नियंत्रित कर रहे हैं. हमारे फोन, इन्टरनेट, टीवी, अख़बार तक पर उनका कब्जा है.
सत्ता में जो आज साहबे मसनद हैं, वे मात्र उनकी छाया हैं. ताश के पत्ते जैसे हैं इसलिए सिक्किम को घबराने की जरुरत नहीं है. घबराने की जरुरत सिक्किम सहित उन सभी राज्यों, नागरिकों को है, जहांं कोई विशेष राज्य का दर्जा भी नहीं है.
लोकतंत्र एक भेड़चाल से अधिक कुछ नहीं. अगर हर व्यक्ति आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं. वह व्यक्ति के रूप में स्वतंत्र तब होगा, जब उसके हित राज्य के अंदर देखे जायेंगे. राज्य तब देख सकेगा, जब उसके पास खुद का अस्तित्व होगा और वह स्वराज/सोवियत/स्वशासन के आधार पर वाकई में काम करेगा.
हम अधिक से अधिक पराधीन होते जा रहे हैं. पूरे देश का टैक्स ढांचा अब केन्द्रीय हो चुका है. आप जितना राष्ट्रीय होते जायेंगे, उतना ही आपकी बोली, पहचान, विशिष्टता खोती जाएगी, आप उतना ही अकेले और असहाय होते जायेंगे.
संयुक्त राज्य अमेरिका तक में अमेरिका कुछ चीजों को छोडकर संघ का ही समूह माना जाता है. उन कुछ अधिकारों के कारण ही अमेरिका पूरे विश्व की तबाही का सबब बना है. सोचिये, अगर वह भी पूरी तरह केंदीय स्वरूप में होता तो क्या जलजला लाता ?
एक आदर्श कम्युनिस्ट शासन में ही केन्द्रित और पूरी तरह से स्वशासन की दुहरी व्यवस्था कायम रह सकती है, और ‘सबका साथ, सबका विकास’ वास्तव में हो सकता है. वर्तमान पूंजीवादी लोकतंत्र में सिर्फ वोट की स्वतन्त्रता हमेशा दिखेगी, लेकिन वास्तविक आजादी पूंजी की होती है. वास्तविक कम्युनिस्ट शासन (पश्चिम बंगाल नहीं) के अंतर्गत शुरू में तानाशाही 80% आबादी की होती है, ताकि सबको बराबर अधिकार मिलें (जो साधन सम्पन्न 20% होते हैं, वे मूलतः आजादी का जितना एक्सेस करना है, उन्हें अपने आप मिलता है), यह तानाशाही शब्द जानबूझकर मार्क्स एंगेल्स ने अपने 1848 के कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में डलवाया होगा, इसका अहसास इतनी उम्र बाद पता चला. अम्बेडकर के अन्निहिलेशन ऑफ़ कास्ट लिखने से वह खत्म नहीं होगा, वह सर्वहारा की तानाशाही के जरिये ही आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आजादी के जरिये सम्भव है.
जैसे-जैसे दुश्वारियां बढेंगी, वैसे-वैसे धुर दक्षिणपंथ और धुर वामपंथी धारा स्पष्ट होगी. बीच के बिच्छु बिला जायेंगे, एक दूसरे में. जो आज वाम लग रहा है, वो दक्षिणपंथी भी साबित हो सकता है. समाज से मूल शोषित दलित, आदिवासी, मजदूर, गरीब किसान, अल्पसंख्यक और तमाम राष्ट्रीयता के आन्दोलन, ग्रीन मूवमेंट आदि-आदि अपनी लीडरशिप अवश्य लेने के लिए आगे आयेंगे. उन्हें आना ही पड़ेगा. उनके अस्तित्व की गुंजाईश धीरे-धीरे खत्म हो रही है. नकली वाम नेतृत्व को नेपथ्य में जाने का समय आ गया है, क्योंकि पूंजी अपने संकट में अपने असली प्रतिक्रियावादी स्वरूप को जाहिर करना शुरू कर चुका है. हमारा काम एक सजग नागरिक का निर्माण करना है.
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