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कांवड़ यात्रा या दंगाजल वाली गुंडागर्दी

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कांवड़ यात्रा या दंगाजल वाली गुंडागर्दी

पं. किशन गोलछा जैन, ज्योतिष, वास्तु और तंत्र-मंत्र-यन्त्र विशेषज्ञ

हमारे देश में इस समय धर्म का सागर उमड़ रहा है और उसमें श्रद्धा की ऊंची-ऊंची सुनामी उठ रही हैं. पूरा देश इस सुनामी की चपेट में आकर अस्तव्यस्त हो गया है, खासकर दिल्ली. दिल्ली के सारे हाइवे जाम हैं और ट्रैफिक व्यवस्था चरमराई हुई है. राजधानी होने के बावजूद सब तरफ एक अराजकता सी फैली हुई है.

पहले कच्छा-बनियानधारी गिरोह सिर्फ लुटेरों के होते थे, लेकिन अब धर्म पर भी उन्होंने कब्जा कर लिया है. डंडे-लाठी लिये ये अराजक समूह फ़ोकट में खाने-पीने और जबरन लूटने-पीटने निकल पड़े हैं. धर्म के आवरण में हर तरह की दुष्टता की छूट पाने के लिये व्याकुल ये कांवड़िये हिन्दू धर्म को एक नई पहचान दिलाने को छटपटा रहे हैं. प्रायः इनके धार्मिक अभियान की शुरूआत ही असमाजिक तरीकों से होती है. जब भी कांवड़िये निकलते हैं तो जानबूझकर रास्ता जाम करना और धर्म के नाम पर तोड़-फोड़ करना इनका जन्म सिद्ध अधिकार होता है, और इस बार तो शुरुआत ही लड़कियों से छेड़खानी करके हुई और एक विदेशी नागरिक इस कांवडियों की भक्ति का शिकार होते-होते बची.




किसी को चाहे कितना ही जरूरी काम क्यों न हो, घंटों जाम में फंसे रहना पड़ता है और जल्दबाज़ी में निकलने की कोशिश में अगर भूल से भी किसी कांवडिये को खरोंच भी आ गयी तो वे ऐसा कहर बरपाते हैं कि फिर वहां से घंटो तक निकलने वाले किसी पैदल या वाहनधारी की खैर नहीं होती. मार्ग में दिखने वाली महिलाओं से लेकर छोटी बच्चियों तक पर अश्लील फब्तियां कसते, और मना करने वाले राहगीरों को धमका कर कानून को धत्ता बताते ये धार्मिक-अराजक कांवड़िये जहां से भी निकलते हैं, उनके लिये विशेष इंतजाम रखना पड़ता है वरना ये लूटपाट शुरू कर देते हैं.

इनकी यात्रा दुसरों के साथ दुर्व्यवहार, तेज आवाज़ वाली डी.जे. और तोड़-फोड़ से चालू होती है तथा बड़े से बड़े हाइवे को जाम करते हुए आगे बढ़ती है. दुसरों को घंटों इन्तजार करना पड़ता है, फिर चाहे वो एम्बुलेंस में मृत्यु-शय्या पर पड़ा कोई मरीज हो या डिलीवरी होने वाली महिला. ये किसी को रास्ता नहीं देते. और जहां पड़ाव होता है, वहां तेज़ आवाज़ में बजता डी.जे. होना जरूरी है, जिसकी तेज़ आवाज़ पर ये अपनी भोंडी नृत्य कला का प्रदर्शन करते हैं.

कितना दुःख का विषय है, अच्छे कामों के समर्थन और बुरे कामों के विरोध के समय दुबक कर बैठ जाने वाली हमारी ये युवा शक्ति, जो ज्यादातर बेरोजगार, गैर-जिम्मेदार और दबी हुई अपराधिक प्रवृत्तियों का शिकार हैं, जो कांवड जैसी बेमतलब और अराजक धार्मिक यात्रा के समय इतनी ज्यादा सक्रिय हो जाती है कि ऐसा लगता है कि भारत में धर्म ही एक मात्र ऐसा साधन है, जिसकी आड़ में सभी कुंठाओं और दमित इच्छाओं की पूर्ति हो सकती है.




वैदिक ज्ञानियों से सुना और सोशल मीडिया में पढ़ा कि सबसे पहले रावण ने कांवड से शिव पर गंगाजल चढ़ाने की इस परंपरा की शुरुआत की थी. अब रावण के ये चेले और दंगा-पसन्द ये कांवड़िये, उलजुलूल तरीकों से नाचते-कूदते, हाहाकार मचाते हुए जब शिव पर गंगाजल चढ़ाते होंगे तो शिव भी उस बुरी घडी को याद करके सिहर जाते होंगे जब रावण ने इस परम्परा की शुरुआत की थी. मैं तो इसे पागलपन ही मानता हूं क्योंकि धार्मिक पाखंडों को पोषित करने के लिये ऐसे कपोल-कल्पित तरीके हमेशा ही गढ़े जाते हैं जबकि हकीकत में देखे तो सबसे शुद्ध, ताजा गंगाजल तो स्वयं शिव की जटाओं से ही निकल रहा है और उनके शरीर पर गिर रहा है तो अनेकों लोगों के मूत्र-मिश्रित प्रदूषित गंगाजल जगह-जगह से लेकर शिव के ऊपर चढ़ाने का औचित्य ही क्या है ?

ये कोई धार्मिक क्रिया नहीं सिर्फ धार्मिक उन्माद पैदा करने वाला पागलपन है. सही बात तो यह है कि रावण ने कभी इस परम्परा की शुरुआत नहीं की बल्कि इस कांवड़िया संस्कृति का जन्म भारत में आर्थिक उदारीकरण का दौर आने के बाद हुआ था इसीलिये इसके आर्थिक-सामाजिक कारणों की पड़ताल जरा मुश्किल है, मगर सच बात ये है कि कहीं-न-कहीं भारत में संगठित धार्मिक उन्माद का अवैध सम्बन्ध इस उदारीकरण से अवश्य है.




जब मैंने इस पर विचार किया तो दिमाग में आया कि –

  • सावन शुरू होते ही जो अपने नये जांघिये और बनियान पहन कर धार्मिक गिरोह के रूप में धर्म की ही मिट्टी-पलीद करने निकल पड़ने वाली ये युवा शक्ति क्या कभी धार्मिक पाखंडां और कुप्रथाओं के खिलाफ खड़ी हो कर समाज से लड़ पायेगी ?

 

  • धर्म के नाम पर लूटपाट, छेड़छाड़ और नशे का सेवन करके अपनी कुंठाओ की पूर्ति करने वाली ये युवा शक्ति क्या कभी समाज के हित में भी ऐसी सक्रियता और ताकत दिखा पायेगी ?

 

  • गांजे और शराब जैसे नशीले द्रव्यों का सेवन करते हुए और सारे रास्ते सिगरेटों का धुंआं उड़ाते अपने बेदम शरीर को शक्ति प्रदान करते हुए ये जवान रूढ़िवाद और सामंतवाद के खिलाफ बोल पायेंगे ?




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