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असदुद्दीन ओवैसी को देख इन्हें याद आती है भारत माता… !

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लोकसभा में असदुद्दीन ओवैसी जब शपथ लेने के लिए आए, तो भाजपा सांसदों ने ‘वन्दे मातरम्’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाने शुरू कर दिए. असदुद्दीन ओवैसी हमेशा की तरह ज़्यादा समझदार निकले और उन्होंने हाथ से इशारा किया कि और ऊंची आवाज़ में यह नारे लगाए जाएं. लेकिन भाजपा सांसदों को भारत माता तभी क्यों याद आईं, जब ओवैसी शपथ लेने को खड़े हुए…? क्या वे उन्हें इस नारे से हूट करने की कोशिश कर रहे थे…? क्या वे यह संदेश दे रहे थे कि ओवैसी भारत माता से चिढ़ते हैं…? क्या वे प्रकारांतर से यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि ‘वन्दे मातरम्’ और ‘भारत माता की जय’ से इस देश के अल्पसंख्यकों को परहेज़ है…?




ओवैसी जब शपथ ले रहे थे, तो प्रधानमंत्री सदन में नहीं थे. लेकिन होते भी, तो क्या वह अपने सांसदों को ऐसी हरकत करने से रोकते…? क्या वह उन्हें याद दिलाते कि महज चंद ही दिन पहले उन्होंने लोकसभा चुनाव में जीत के बाद भाजपा के नारे, ‘सबका साथ, सबका विकास’ में ‘सबका विश्वास’ भी जोड़ा है…? क्या भाजपा ऐसे ही विश्वास जीतने में भरोसा करती है…? दूसरों को संदिग्ध साबित करके, दूसरों की देशभक्ति पर सवाल खड़े करके…?

असदुद्दीन ओवैसी ने भी शपथ लेने के बाद ‘अल्लाह-ओ-अकबर’ का नारा लगाया और साथ में ‘जय हिन्द’ जोड़ दिया. इस तरह उनकी ओर से हिसाब बराबर हो गया. ‘वन्दे मातरम्’ और ‘भारत माता की जय’ एक तरफ हो गए और ‘अल्लाह-ओ-अकबर’ और ‘जय हिन्द’ दूसरी तरफ. आख़िर असदुद्दीन ओवैसी को भी यह बंटी हुई राजनीति उतनी ही रास आती है, जितनी संघ परिवार और भाजपा को. दोनों की नेतागीरी इसी तरह चलती है. इसके कुछ देर बाद शपथ लेने आईं हेमा मालिनी ने ‘राधे-राधे कृष्णम् वन्दे जगतगुरु’ का नाम लिया. इन सबके एक दिन पहले प्रज्ञा ठाकुर ने संस्कृत में शपथ लेते हुए अपने गुरु का नाम भी जोड़ लिया था.




एक तरह से देखें, तो यह बहुत बड़ी बातें नहीं हैं. आप इन्हें अनदेखा कर सकते हैं. आख़िर इस देश ने अभिव्यक्ति की जो स्वतंत्रता दी है, उसी का यह भी हिस्सा है कि लोग अपनी शपथ में बाकी मर्यादाओं का पालन करते हुए अपनी आस्थाओं को भी अभिव्यक्त कर सकें. हमारी संसद की ख़ूबसूरती यह भी है कि उसमें देश की विविधता झांकती है. तरह-तरह के लोग तरह-तरह की पोशाकों और तरह-तरह के आग्रहों के साथ संसद आते हैं, अपनी-अपनी भाषाओं में शपथ लेते हैं – हालांकि इसमें भी धीरे-धीरे हिन्दी के अलावा अंग्रेज़ी में शपथ लेने का चलन बढ़ता गया है.

लेकिन ओवैसी के शपथ ग्रहण पर आप जब अनायास ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाने शुरू करते हैं, तो ओवैसी का नहीं, भारत माता का अपमान कर रहे होते हैं. ‘वन्दे मातरम्’ से भी भारत माता को जोड़ना भारत माता को छोटा करना है. बेशक, ‘वन्दे मातरम्’ आज़ादी की लड़ाई के दौर में अहम गीत रहा, लेकिन ‘वन्दे मातरम्’ को लेकर एक तबका अपना ऐतराज़ रखता रहा है. ‘भारत माता की जय’ के साथ ऐसा कोई ऐतराज़ नहीं जुड़ा है.




संकट यह है कि भाजपा नेताओं को यह एहसास भी नहीं है कि उनकी उद्धत राजनीति सबसे पहले उन प्रतीकों को छोटा बना रही है, जो इस देश में सर्वस्वीकार्य और समादृत रहे हैं. राम से किसी को बैर नहीं है, लेकिन ‘जय श्री राम’ का नारा जब एक आक्रामक राजनीति के साथ इस्तेमाल किया जाता है, तो राम अचानक दूसरों को डराने लगते हैं. भारत माता सबसे सम्मान का विषय है, लेकिन जब किसी सांसद के शपथ लेते समय एक हथियार की तरह उसका इस्तेमाल होता है, तो वह शायद असहाय देखती रह जाती होगी.

जाने-माने कवि अवतार सिंह पाश ने कभी लिखा था – ‘भारत / मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द / जहां कहीं भी प्रयोग किया जाए / बाक़ी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं…’ भारत माता भी ऐसा ही प्रतीक है. जब आप भारत माता का नाम लें, तो सम्मान से लें. कभी नेहरू ने यह नारा लगाते लोगों से पूछा था, क्या वे इसका अर्थ जानते हैं…? अब यह सवाल कोई नहीं पूछता. भारत माता एक विशाल भू-भाग में फैले तरह-तरह के समुदायों के बीच बनते-विकसते-बदलते साझा स्वप्न का नाम नहीं है, वह कुछ लोगों का राजनीतिक एजेंडा है – जिससे किसी अल्पसंख्यक को पीटा जाना है, उससे उसकी वफ़ादारी का सबूत मांगा जाना है, उससे अपने अपराधों को छिपाया जाना है, उससे एक नकली उन्माद पैदा करना है, जिसमें असली सवाल छिपे रहें. ऐसे ही लोगों की वजह से देश प्रेम, गो प्रेम, मानव प्रेम, धर्म प्रेम – सब खूंखार लगने लगते हैं. देश कुछ सिकुड़ जाता है,भारत माता कुछ सकुचा जाती है, गाय डराने लगती है, राम छोटे हो जाते हैं और कश्मीर पराया हो जाता है.

– प्रियदर्शन (एनडीटीवी के पत्रकार हैं)




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