रवीश कुमार, पत्रकार
क्या उन चैनलों पर भी गिरीश कर्नाड को श्रद्धांजलि दी जा रही होगी जिनके अर्बन नक्सल के प्रोपेगैंडा के विरोध में गिरीश कर्नाड बीमारी के बाद भी अर्बन नक्सल की तख़्ती लेकर खड़े हो गए थे ? जिन लोगों को अर्बन नक्सल बताकर जेल भेजा गया था, वो आज भी जेल में हैं. सुधा भारद्वाज अब भी जेल में हैं. गौरी लंकेश की हत्या की जांच एक मुकाम पर पहुंची तो है मगर अंजाम से अब भी दूर है. कब सियासी सौदा हो जाए और जांच की फाइलें बदल जाए कुछ भी नहीं कहा जा सकता है.
गूगल में गिरीश कर्नाड टाइप करेंगे तो ‘मैं भी अर्बन नक्सल’ की तख़्ती लिए उनकी तस्वीर चारों तरफ से आ जाएगी. ऐसा लगेगा कि गिरीश कर्नाड के जीवन की यही एकमात्र विरासत है. सितंबर 2018 की घटना थी. गौरी लंकेश की हत्या की पहली बरसी के मौक़े पर गिरीश कर्नाड यह तख़्ती लेकर निकले थे. बताने के लिए असहमति के स्वरों को टीवी चैनलों और ट्विटर पर ट्रेंड कराकर नहीं दबाया जा सकता है. उन्हें एंटी नेशनल और अर्बन नक्सल बताकर नहीं डराया जा सकता है. गिरीश कर्नाड बीमार थे. नाक में ट्यूब लगी थी मगर विरोध करने आ गए.
एंटी नेशनल, अर्बन नक्सल, एंटी मोदी, टुकड़े टुकड़े गैंग, खान मार्केट गैंग. इन्हें रोज़ पब्लिक में ठेला गया और यकीन दिलाया गया कि सरकार से सवाल करने वाले लोगों का बचा-खुचा समूह अर्बन नक्सल है. देश और प्रधानमंत्री के लिए ख़तरा है. फिर यही शब्दावलियां व्हाट्सएप के ज़रिए उन साधारण घरों तक पहुंचा दी गईं जिन्हें पता भी नहीं था कि नक्सल क्या है और अर्बन नक्सल क्या है. गौरी लंकेश की हत्या हुई तो उन्हें भी अर्बन नक्सल कहा जाने लगा.
न्यूज़ चैनलों पर अर्बन नक्सल को लेकर दिन रात बहस हुई. चार-पांच चेहरे दिखाए गए, उनके आगे अर्बन नक्सल लिखा गया. राहुल गांधी के चौकीदार चोर है कहने पर प्रधानमंत्री का मैं भी चौकीदार अभियान मास्टर स्ट्रोक कहलाता है. गिरीश कर्नाड का मैं भी अर्बन नक्सल कहना, देशद्रोह हो जाता है. इसीलिए उनके खिलाफ थाने में केस दर्ज करा दिया जाता है.
”भयावह यह नहीं कि नक्सल या आतंकवादी क्या कर रहे हैं, जो पुलिस कह रही है वो भयावह है. तर्कवादियों के ख़िलाफ़ बेबुनियाद आरोप लगाए जा रहे हैं. यह तार्किक तरीका नहीं है. यह डरावना है क्योंकि उन्हें लगता है कि वे जो चाहे कर सकते हैं. पुणे में कोई केस की जांच कर रहा है और दिल्ली में बैठकर उन्हें कोई निर्देश दे रहा है. यह दुखद है. अगर बोलने का मतलब नक्सल होना है तो मैं अर्बन नक्सल हूं. मुझे गर्व है कि मेरा नाम इस लिस्ट में है.”
गिरीश कर्नाड ने मीडिया से यही कहा था. अर्बन नक्सल 2014 के बाद के राष्ट्रीय मीडिया के नेशनल सिलेबस का वही चैप्टर है जो सिर्फ पहले पन्ने पर शुरू होता है और उसी पर ख़त्म होता है. एक पन्ने के इस सिलेबस में जब अर्बन नक्सल कहने से मन भर जाता है तो किसी को एंटी नेशनल कहा जाने लगता है, जब एंटी नेशनल कहने से मन भर जाता है तो थोड़े समय के लिए हिन्दी में देशद्रोही कहा जाने लगता है, जब देशद्रोही से मन भर जाता है तो एंटी हिन्दू कहा जाने लगता है, जब एंटी हिन्दू से मन भर जाता है तो उसे एंटी मोदी कहा जाने लगता है. और जब अर्बन नक्सल राजनीतिक प्रोपेगैंडा की किताब से निकल कर लोगों के दिमाग़ में बैठ गया तो फिर यह शब्द आता है प्रधानमंत्री के ज़ुबान पर.
नवंबर 2018. छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव. जगदलपुर में भाषण देते हुए प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं कि ”जो अर्बन माओवादी हैं वो शहरो में एसी घरों में रहते हैं, साफ सुथरे दिखते हैं, अच्छे खासे लोगों में बैठने उठने का रुतबा बनाते हैं, उनके बच्चे विदेशों में पढ़ते हैं, अच्छी अच्छी गाड़ियों में घूमते हैं, लेकिन वहां बैठे बैठे रिमोट सिस्टम से आदिवासी बच्चों की जिंदगी तबाह करने का काम करते हैं.”
यह भी नोट करें कि प्रधानमंत्री मोदी ने एक अर्बन नक्सल के निधन पर श्रद्धांजलि दी है. उनके योगदानों को याद किया है. गिरीश कर्नाड विदेश में पढ़कर भारत आए और यहां रहकर रचा. एसी कमरे में भी बैठकर रचा और नॉन एसी कमरे में भी.
कितनी आसानी से सरकारों ने अपनी नाकामी एक नए अनजान से गढ़े जुमले के हवाले कर दी. आज बस्तर में पचास हज़ार आदिवासी अपनी ज़मीन बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. मीडिया में आ रही ख़बरों के अनुसार बैलाडीला की 13 खदान अडानी को बेचने के विरोध में पचास हज़ार आदिवासी अपने घरों से निकले हैं. क्या कोई एंकर इन आदिवासियों के लिए अपने चैनल पर चिल्ला रहा है? अडानी का मामला है इसलिए कोई कांग्रेस सरकार से भी नहीं पूछेगा. बीजेपी भी आदिवासियों के हक़ में आंदोलन नहीं करेगी. पांचवी अनुसूचि के क्षेत्र में पहले भी आदिवासियों के हक और ज़मीन लूटे गए. पहले भी उनकी आवाज़ का प्रतिनिधित्व नहीं था. अब तो और भी नहीं होगा.
गिरीश कर्नाड की विरासत पर हमारी लिखाई बहुत छोटी पड़ जाएगी. उनकी विरासत उस भारत की सांस्कृतिक विरासत है जिसे हमेशा अपनी विविधता पर गर्व रहा है. इस विविधता को सींचने वाले गिरीश कर्नाड को कोई मार देना चाहता था. किसी ने उनकी हत्या की बात सोची. उस समाज और मीडिया में उन्हें कैसे श्रद्धांजलि दी जा रही है, मुझे नहीं पता. मैं न्यूज़ चैनल नहीं देखता. मैं मानता हूं कि न्यूज़ चैनल भारत के लोकतंत्र की विविधता की हत्या कर रहे हैं.
आप चैनल देखते समय नोट कीजिए कि आज वो गिरीश कर्नाड के बारे में क्या क्या बातें कर रहे हैं, किस फिल्म के फुटेज दिखा रहे हैं. उनके पास इस महान शख्स के बारे में आपको बताने के लिए क्या क्या इंटरव्यू हैं, क्या क्या विजुअल हैं. इन सवालों से देखिए, आपको यकीन हो जाएगा कि चैनलों की न तो आपमें दिलचस्पी है और न ही गिरीश कर्नाड में थी.
इसके बावजूद अनेक लोग गिरीश कर्नाड को याद कर रहे हैं. उन्होंने किसी न्यूज़ चैनल और उसके लोफर एंकरों के ज़रिए गिरीश कर्नाड को नहीं जाना था. वो कई दशकों तक उनके लिखे नाटकों को पढ़ते रहे, नाटकों के मंचन को देखते रहे, मंचन करते रहे, उनकी फिल्मों को देखते रहे. तब जाकर उन्होंने जाना कि गिरीश कर्नाड के होने का क्या मतलब है. उन्हें याद करने वाले इस वक्त में भरोसे का सबसे बड़ा कारण हैं. अब भी चैनलों के कारण सबकुछ नहीं मिटा है. गिरीश कर्नाड की यादें अर्बन नक्सल प्रोपेगैंडा की साज़िशों के बाद भी अलग हैं. जहां उनकी मौलिकता, प्रतिभा और रचनात्मकता राज करती है. एक महान शख्स की विदाई से पहले याद कीजिए कि उनके आखिरी दिन किन विवादों में गुज़रे और उन विवादों की पृष्ठभूमि क्या थी.
वहीं फरीदी अल हसन तनवीर लिखते हैं : तालाब में नहाने के अपराध पर नग्न कर सारे गांव में घसीट घसीट कर पिटने से अच्छा है कि आप अर्बन नक्सली कहलाओ ! चमड़े की रजवाड़ी जूती पहनने के कारण लातों की मार और गालियां सहन करने से अच्छा है कि वे आपको माओवादी समझे ! खेत मे बेगार न करने पर गांव की चौपाल पर बांधकर पिटाई हो, मूंछे उखाड़ ली जाए, घोड़ी पर चढ़ने और चारपाई पर बैठने से लेकर अच्छे कपड़े और शिक्षा लेने के प्रयास पर आपको जूते में पेशाब पिलाया जाए उससे बेहतर है कि आप ऐसे अत्याचार करने वाले समुदायों के लिए देशद्रोही, राष्ट्रविरोधी आतंकी कहलाओ !
कैंपस और काम की जगह जातिवादी टिप्पणियों, तानों और शोषण से आहत होकर रोहित वेमुला या पायल तड़वी की तरह खुद फांसी पर लटकने की जगह युद्ध करो. प्रतिकार की संस्कृति विकसित करो. कश्मीरी बनो, पत्थर हाथ में ले लो. फिलिस्तीनी बनो. खुद की बनाई फांसी पर झूलने से बेहतर प्रतिकार करने के उपरांत विद्रोही के रूप में शोषक सत्तायों के बनाये फंदे पर झूलना बेहतर.
स्वाभिमान सबसे ऊपर ! जातिवादी श्रेष्ठता के आपराधिक कृत्य के विरोध में जातीय स्वाभिमान, बहुजन अस्मिता सबसे ऊपर ! कर पाओगे ऐसा ? वैसे प्रतिकार और विरोध के इस तरीको को ही असली जेहाद भी कहते हैं.
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