आज 130 वर्षों बाद भी हम अपने इस इतिहास के पक्षपातपूर्ण प्रस्तुतिकरण की कीमत अदा कर रहे हैं. मेहनती वर्गों को धर्म के आधार पर विभाजित करने की मंशा से मौजूदा भाजपा शासित सरकार ने साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से इतिहास की व्याख्या करने से लेकर ऐतिहासिक घटनाओं को पूरी तरह छद्म रूप देने तक के हर तरह के तौर-तरीके अपनाकर भारत के इतिहास को नये सिरे से लिखने का एक भारी-भरकम प्रोजेक्ट हाथ में लिया है. अतः हमारे राष्ट्रीय इतिहास के कम चर्चित विषयों को सामने लाने के जरिये इस तरह के किसी भी बुरे मंसूबों को चुनौती देने की सख्त जरूरत है.
भारत के बहुचर्चित इतिहास-लेखन में हमेशा ही मुसलमानों को बाहर से आये हमलावर और राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के गद्दार के रूप में देखने की एक प्रवृत्ति हमारे देश में पायी जाती है. इसके कारण बुनियादी रूप से दो हैं- इनमें पहला है, भारत के इतिहास-लेखन पर औपनिवेशिक प्रभाव. इसका शिकार होने की वजह से ही यहां तक कि डॉ. यदुनाथ सरकार से लेकर डॉ. आर. सी. मजुमदार जैसे इतिहासज्ञों ने भी मुसलमानों को सांस्कृतिक रूप से अलग ही माना है और अंततः धर्म के आधार पर इंसानों को बांटने की ब्रिटिश साम्राज्यवादी साजिश को ही अमली जामा पहनाया है. दूसरा कारण यह है कि स्वाधीनता के बाद के भारत के शासक वर्ग ने साफ-साफ यह समझ लिया था कि राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम में मुसलमानों की भूमिका का यदि सही-सही विश्लेषण करना हो तो एक-पर-एक होनेवाले ब्रिटिश-विरोधी सशस्त्र संघर्ष को स्वीकृति देनी होगी, जिससे कि एक तरह से उनका खुद का वर्ग-चरित्र सबों के सामने उजागर हो जाएगा. यही कारण है कि यहां तक कि कांग्रेस भी भारत के स्वाधीनता संघर्ष में मुसलमानों की भूमिका सिर्फ उसी हद तक चर्चा करती है जिस हद तक कि वे खुद को पर्याप्त रूप से भारत की धर्मनिरपेक्षता के रक्षक के रूप में पेश कर सकें. इस तरह का नजरिया ब्रिटिश-विरोधी सशस्त्र किसान संघर्षों और जन संघर्षों में मुसलमानों की भूमिका को घटाकर दिखाता है, जबकि इन संघर्षों की उम्र कांग्रेस के जन्म से एक सौ साल पहले से भी ज्यादा (यानी 18वीं सदी के करीब उत्तरार्द्ध तक) है. वस्तुतः इस लेख का उद्देश्य हमारे बहुचर्चित इतिहास-लेखन को चुनौती देते हुए अब तक के दबे-कुचले इतिहास को सामने लाना है.
दरअसल 1757 के पलासी के युद्ध में षड्यंत्र के बल पर जीत हासिल करने के बाद से ही ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बंगाल की छाती पर बेहिसाब शोषण-उत्पीड़न लादना शुरू कर दिया था. 1764 में बक्सर युद्ध में जीत हासिल करने के बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा में राजस्व उगाहने का अधिकार (दवानी) हासिल कर लिया. उन्होंने इन सारे क्षेत्रें में भारी लूट-पाट शुरू कर दी. मुगल शासन की कमजोर होती स्थिति का लाभ उठाकर कम्पनी धीरे-धीरे भारत के पुराने गांव केन्द्रित अर्थव्यवस्था को तहस-नहस करती रही इसके पहले मालगुजारी ग्राम-समाजों से वसूली जाती थी. पर 1764 से कम्पनी ने किसानों से व्यक्तिगत रूप से मालगुजारी वसूलने की व्यवस्था शुरू की और वह भी अन्न के बदले मुद्रा के रूप में मालगुजारी वसूलनेवाली इस व्यवस्था को स्वच्छन्द रूप से लागू किया जा सके. इसके लिए कम्पनी और किसानों के बीच यानी, इस स्तर-दर-स्तर सार आधारित शोषण-व्यवस्था के पिरामिड के सबसे ऊपरी और सबसे नीचे के स्तरों के बीच विभिन्न स्तरों पर विभिन्न तरह के शोषक विराजमान थे जैसे, नाजिम, जमींदार, तालुकेदार और सबसे भयानक खून-चूसनेवाले महाजन आदि.
जमीनदारों को जमीन का मालिक घोषित कर दिया गया जिससे कि वे गरीब जनता (मुख्यतः किसानों और कारीगरों) की बेराक-टोक लूट-खसोटकर सकें. उन्हें ऐसे अधिकार भी दिये गये जिससे कि वे उस लूट का एक निर्धारित अंश मालगुजारी के रूप में अंग्रेजों को दे दें. नतीजे के तौर पर भूमि पर व्यक्तिगत मिल्कियत का प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ने लगा. 1765-66 में यानी मालगुजारी वसूलने के पहले वर्षों में ही कम्पनी ने कुल 220 लाख रूपयों की उगाही की, जो उसके पहले के वर्ष की उगाही से दुगुनी थी.[1] इससे गरीब जनता का जीवन असह्य हो गया. 1769-73 का बंगाल-बिहार का अकाल जो बंगाल और बिहार के तकरीबन एक करोड़ लोगों ने अपनी जान गंवाई जो उस समय की कुल आबादी का करीब एक-तिहाई हिस्सा था. 19वीं सदी के स्कॉटिश इतिहासकार डब्लू. डब्लू. हंटर ने इस अकाल का वर्णन इन शब्दों में किया है, ‘किसान अपनी सारी गाय-भैंसे व अन्य पशु, खेती के औजार, यहां तक कि अपनी संतानों को तब तक बेचते रहे जब तक कि उन्हें खरीददार मिलते रहे. बाद में बीजों के लिए रखे अनाज, पेड़ों के पत्ते और घास-फूस खाकर वे अपनी भूख मिटाते रहे. 1770 की जून में दरबार के एक बासिन्दे ने बताया था कि जीवित लोग खुद को बचाये रखने के लिए मुर्दों का मांस तक खाने लगे थे’[2] इसी समय वारेन हेस्टिंग्स ने (जो 1773 से लेकर 1785 के बीच भारतवर्ष के गवर्नर जेनरल रहे थे) कम्पनी का डायरेक्टर के नाम लिखे एक पत्र में लिखा था, ‘प्रदेश की सूची आबादी के एक तिहाई की मौत हो जाने और इसके चलते खेती के पूरे खराब हो जाने के वाबजूद 1771 की नेट मालगुजारी की वसूली यहां तक कि 1768 से भी ज्यादा हुई है. जिस किसी के लिए भी यह मानना स्वाभाविक था कि ऐसी परिस्थिति में मालगुजारी की उगाही कम होनी चाहिए थी. पर यह कम नहीं होने का कारण यह है कि मालगुजारी वसूलने पर सारी शक्ति लगा दी गयी है.
ऐसे में बिहार और बंगाल के किसानों के सामने दो ही रास्ते खुले थे. एक-चुपचाप मौत को गले लगा लेना. दूसरा, इस उत्पीड़क राजसत्ता के खिलाफ विद्रोह करते हुए गरज उठना. किसानों ने दूसरा रास्ता चुन लिया था. नतीजतन 1763 से लेकर 1800 के बीच ब्रिटिशों के खिलाफ कई सशस्त्र विद्रोह हुए थे. चूंकि सन्यासियों और फकीरों के विभिन्न सम्प्रदायों ने इन विद्रोहों में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी, इसीलिए ये विद्रोह सन्यासी-फकीर विद्रोह के नाम से ही ज्यादा लोकप्रिय हुए. हालांकि वास्तव में तीन अलग-अलग ताकतों ने इन विद्रोहों में एक साथ भाग लिया था, वे थी – (1) बंगाल और बिहार की दुर्दशाग्रस्त किसान और कारीगर जनता, (2) ढहते, कमजोर होते मुगल साम्राज्य में जीविका से वंचित और इधर-उधर भटकते रहने वाले सैनिकों के जत्थे, और (3) सन्यासियों और फकीरों के विभिन्न सम्प्रदाय जिन्होंने किसानों और कारीगरों के रूप में बंगाल और बिहार में बस्तियां बसा ली थीं और जो धार्मिक मामलों में अंग्रेजी शासकों के हस्तक्षेप (मसलन, तरह-तरह के धार्मिक क्रियाकलापों पर कर लगाना) की वजह से उनके प्रति भारी गुस्से से उबल रहे थे.[1] इस विद्रोह के अधिकांश नेता और संगठक धर्म के लिहाज से मुसलमान थे, जिनमें से ढेरों ने अंग्रेजी फौज के साथ युद्ध में अपनी जानें न्यौछावर की थी, इनमें थे – मजनू शाह, मूसा शाह, फरागुल शाह, चिराग अली, नुरूल मोहम्मद, रमजानी शाह, जौहरी शाह, सुभान अली, आमदी शाह, नियागु शाह, बुधु शाह, ईमान शाह आदि- उनके साथ कंधों-से-कंधा मिलाकर जो गैर-मुस्लिम नेता भी लड़े थे, उनका भी नाम लेना जरूरी है, जैसे- भवानी पाठक, देवी चौधरानी, रामानन्द गोसाईं, हजारी सिंह, फटिक बरूआ आदि.[1, 3] इन समूचे चार दशकों के दौरान विद्रोही फौजें बंगाल (दिनाजपुर, बोगुड़ा, जलपाईगुड़ी, रंगपुर) और बिहार (सारंगी, पूर्णिया) के विभिन्न स्थानों में अंग्रेजों की कोठियों और स्थानीय जमीदारों पर हमले करती रही. उन्होंने उनकी सम्पत्तियां लूटी, जो दरअसल इन किसानों और कारीगरों के ही श्रम की उपज थीं और यहां तक कि सशस्त्र ब्रितानी फौज से वीरतापूर्वक लड़ते रहे- सही-सही कहें तो उस विद्रोह में धर्म कोई मसला ही नहीं था, बल्कि अपने-अपने धर्मों और सम्प्रदायों आदि से ऊपर उठकर किसान एवं कारीगर जनता इकट्ठी हुई थी और सामंतों, जमींदारों एवं साम्राज्यवादी अंग्रेजों के भयानक शोषण के खिलाफ संघर्ष में गरज उठी थी.
एक पर एक होनेवाले इन सशस्त्र संघर्षों में मजनू शाह की भूमिका खास तौर पर महत्वपूर्ण थी. एक तरफ तो वे कुशल संगठक थे, तो दूसरी तरफ वे एक दुर्दम्य सैन्य-क्षमता से लैस योद्धा भी थे. उनके नेतृत्व में विद्रोही किसानों की सेना ने 1769 के दिसम्बर में कैप्टेन मैकेंजी और कमांडर कीथ के नेतृत्वाधीन संयुक्त फौज को नेपाल की सीमा के पास मोरंग के युद्ध में हरा दिया था. इस युद्ध में कमांडर कीथ मारा गया.[4] 1771 की फरवरी में मजनू शाह लेफ्टिनेंट टेलर की फौज को चकमा देकर निकल गये और महास्थानगढ़ के अपने किले में अड्डा जमाया. वहां से वे बाद में बिहार निकल गये और वहां के किसानों और कारीगरों को संगठित करना शुरू किया.[1, 3] 1776 की 14 नवम्बर के एक और बहादुराना संघर्ष में वे और उनकी विद्रोही फौजें विजयी हुई. इस युद्ध में सौ से ज्यादा ब्रितानी सैनिक मारे गये और कमांडर लेफ्रिटनेंट रॉबर्टसन गंभीर रूप से घायल हुआ.[5] हलांकि यह बात भी सही है कि इस लम्बी अवधि के दौरान कभी-कभार सन्यासियों व फकीरों के विभिन्न गुटों के बीच एकता की कमी भी परिलक्षित हुई थी, पर मजनू शाह ने हमेशा यह कोशिश जारी रखी थी कि अंग्रेजों के खिलाफ एक एकताबद्ध संघर्ष निर्मित किया जाए. उस दौरान जब भी कोई विद्रोही गुट पराजित होकर बिखर जाता, तभी वे पुनः उसे संगठित करने का प्रयास करते. अन्ततः 1786 में बेगुड़ा जिले के मूंगड़ा गांव में लेफ्टिनेंट ब्रेनॉन की फौजों के साथ युद्ध में गंभीर रूप से घायल होकर इस विद्रोह के सबसे महत्वपूर्ण नायक मजनू शाह ने अपने प्राण त्यागे.[6] उनकी मृत्यु के बाद उनके भाई और शिष्य मूसा शाह ने विद्रोह के संचालन की जिम्मेदारी ली. पर विद्रोह का सामग्रिक प्रभाव काफी घट गया. 1787 में भवानी पाठक और देवी चौधरानी के नेतृत्व में चले बहादुराना संघर्षों में मजनू शाह के अन्य दो शिष्यों- फरागुल शाह और चिराग अली ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. रमजानी शाह और जौहरी शाह के नेतृत्व में एक दूसरी फौजी टुकड़ी असम की ओर गयी थी और वहां अंग्रेजी फौजों के खिलाफ सशस्त्र युद्ध में उनकी हार हुई. विद्रोह के अंतिम काल (1793-1800) में सुभान अली और उनके सहयोद्धाओं ने उत्तर बंगाल में कई-कई बार विद्रोह की काशिशें कीं, पर ब्रितानी फौजों के निर्मम दमन-उत्पीड़न के समक्ष ये विद्रोह वैसी कोई सफलता हासिल नहीं कर सके.
वारेन हेस्टिंग्स ने, जो 1773 से लेकर 1785 तक भारत के गवर्नर जेनेरल थे, इस विद्रोह को विशुद्ध रूप से ‘हिन्दुस्तानी खानाबदोशों’ की डकैतियों के रूप में पेश किया था. अपने आकाओं के रास्तों का अनुकरण करते हुए भारत के शासक वर्ग ने भी इस विद्रोह को किसानों के सशस्त्र विद्रोह के रूप में स्वीकृति नहीं दी है. नतीजतन इस तरह के सच्चे स्वाधीनता संघर्ष में मुसलमानों की महत्वपूर्ण भूमिका भी अस्वीकृत ही रह गयी है. इस विद्रोह की पृष्ठभूमि में रचित उपन्यासों ‘आनन्द मठ’ (1882) और देवी चौधरानी (1884) के रचयिता बंकिमचन्द्र ने इन उपन्यासों में इस विद्रोह के साथ हिन्दु धर्म की एवं राष्ट्रीयतावादी अनुभूतियों का काल्पनिक सम्मिश्रण किया था, ताकि इस सम्मिश्रण की आड़ में दो वर्गों के बीच के वर्ग-संघर्षों का इतिहास दब जाए.
तथाकथित ‘वहाबी प्रभाव’ (1820-1870)
18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में बंगाल की भूमि-व्यवस्था और मालगुजारी वसूली-व्यवस्था को लेकर अंग्रेजों ने कई प्रयोग किये. 1773 में ये प्रयोग अपने निष्कर्ष तक पहुंचे और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी और बंगाल के जमींदारों के बीच ‘स्थायी बन्दोबस्त’ नामक एक समझौता हुआ. इस समझौते के तहत जमींदारों को जमीन पर स्थायी एवं वंशागुनत मालिक घोषित किया गया और उन्हें जमीनों को खरीदने और बेचने का अधिकार दिया गया. पर इस सुविधा के एवज में जमीन्दारों को वार्षिक मालगुजारी का 89 प्रतिशत अंग्रेजों की हाथों में सौंप में देना पड़ता था और वे बाकी 11 प्रतिशत का ही उपभोग कर पाते. यदि कोई भी जमीन्दार राजस्व नहीं दे पाता तो उसकी जमीन को उस क्रेता के हाथों, जो उसकी सबसे ज्यादा कीमत देता, बेच देने के अधिकार कम्पनी के पास था. इसके लावा कम्पनी द्वारा मालगुजारी की रकम बिल्कुल निर्धारित रहती थी और किसी भी विपदा मसलन, सूखे व बाढ़ या अन्य प्राकृतिक विपदाओं की स्थिति में कम्पनी के अधिकारीगण राजस्व में कमी का कोई भी आवेदन मंजूर नहीं करते थे. नतीजे के तौर पर अनेक जमीन्दारों ने जमीन खोनी शुरू कर दी. उस वक्त तक जमीन जमीन्दारों की निजी सम्पत्ति बन चुकी थी और उस जमीन को केन्द्र कर बन उठी सामंतवादी शोषण-व्यवस्था जमीन्दारों के भोग-विलासवाली जीवनशैली के एक मूल आधार के रूप में सामने आ चुकी थी इसीलिए अपनी जमीनों को बचाने के लिए जरूरी मालगुजारी वसूलने के लिए जमीन्दारों ने गरीब किसानों या ‘रैयतों’ पर चरम उत्पीड़न करना शुरू किया. इसके अलावा और भी ज्यादा मालगुजारी वसूलने के लिए वे धान, गेहूं आदि जैसे खाद्यानों की जगह कम्पनी के अधिकारियों के कहने पर धीरे-धीरे अफीम (जिसका उत्पादन सीधे अंग्रेजों के नियंत्रण में था), कपास व नील आदि की खेती की तरफ झुके क्योंकि इनके दाम भी अच्छे मिलते थे.
19वीं सदी के अधिकांश अकालों का कारण खाद्यानों की यह कमी ही थी- जिन जमीन्दारों की हालत तुलनात्मक रूप से कुछ बेहतर थी, वे धीरे-धीरे कलकत्ते शहर में आते रहे और वहां जाकर उन्होंने अंग्रेजों के साथ पार्टनरशिप में नये-नये व्यवसायों की शुरूआत की- उन्होंने गांवों में किसानों से मालगुजारी वसूलने की जिम्मेदारी अत्याचारी बिचौलियों के हाथों में सौंप दी, जिसका एकमात्र उद्देश्य मालगुजारी की ज्यादा से ज्यादा वसूली के जरिए अपने हिस्से के लाभ को बढ़ाना था. इसे हासिल करने के लिए उन्होंने गरीब किसान जनता पर अकथनीय जुल्म ढाये.
स्थायी बन्दोबस्त की इस पृष्ठभूमि में सामने आयी परिवर्तित परिस्थिति और अंग्रेज नीले साहबों के अकथ्य अत्याचारों के चलते गरीब किसानों के सामने अपने अस्तित्व को टिकाये रखने का सवाल सामने आ गया. नतीजतन इन दो दशकों के दरम्यान वे जमीन्दारों, महाजनों, अंग्रेज नीलहे साहबों और इन सबों के सैनिक आधार अंग्रेजों की सशस्त्र फौज (संक्षेप में शोषक वर्ग) के खिलाफ कई सशस्त्र संघर्षों का सूत्रपात किया. कुल मिलाकर ये संघर्ष 1820 से 1870 तक के लम्बे 50 वर्षों तक चलते रहे.
इन संघर्षों में सैयद अहमद बरेलवी (1786-1831), मीर निसार अली (1782-1831), हाजी शरीतुल्लाह (1781-1840) और उनके पुत्र दूदू मियां (1819-1862) जैसे प्रमुख मुस्लिम नेताओं ने अविस्मरणीय भूमिका निभायी थी. ये नेतागण अपनी हज-यात्रओं के दौरान मका में ‘वहाबी’ विचारधारा के प्रभाव में आये थे. वहाबीवाद एक इस्लामी सिद्धान्त है, जिसके उपदेशक मोहम्मद इब्न अब्द अल वहाब थे, जो मध्य अरब के नज्द नामक जगह के रहने वाले धार्मिक सुधारक थे. इस इस्लामी सिद्धान्त ने उस समय अरब समाज में काफी लोेकपिय्रता हासिल कर ली थी इसीलिए कई विशेषज्ञों ने मुस्लिम नेताओं के नेतृत्व में संगठित इन सशस्त्र संघर्षों को ‘भारत में वहाबी आन्दोलन’ कहा है. पर यह विश्लेषण कितना सही है, इसे लेकर काफी बहस है. चूंकि ‘वहाबी’ विचारधारा बुनियादी रूप से साम्राज्यवाद विरोधी रही है, अतः इसे लेकर साम्राज्यवादी शक्तियों ने जोर-शोर से नकारात्मक प्रचार किये हैं. इन प्रचारों से प्रभावित होकर कई इतिहासकारों ने इन मुस्लिम नेताओं के नेतृत्व में गठित इन संघर्षों को महज धर्मयुद्ध के रूप में पेश करने की कोशिशें की हैं. इन संघर्षों में अन्तर्निहित साम्राज्यवाद-विरोधी व सामंतवाद विरोधी भावना को उन्होंने स्वीकृति नहीं दी है.
यह सत्य है कि वहाबी आन्दोलन धार्मिक सुधार के साथ शुरू हुए थे जो कि शोषक वर्गों के हितों के खिलाफ थे और इस तरह ये आन्दोलन जल्दी ही स्थानीय जमींदारों की कोप के जद में आ गए परन्तु, बहुत जल्द ही शोषित किसानों ने अपने धार्मिक मताग्रहों को दूर रखकर इन जन आन्दोलनों में बड़े पैमाने पर भागीदारी की और इन आन्दोलनों को जल्दी ही शोषक वर्गों के विरूद्ध संयुक्त सशस्त्र संघर्षों में तब्दील कर दिया.
रायबरेली के क्रांतिकारी नेता सैय्यद अहमद बरेलवी पहले शख्स थे, जिन्होंने ‘एक ऐसे आन्दोलन की जरूरत को समझा जो एक ही साथ धार्मिक, सैन्य और राजनीतिक हो-’ इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने जल्दी ही कुशल नेताओं को तैयार किया, एक व्यवस्थित संगठन खड़ा किया और उत्तरी पश्चिमी सीमा प्रांत में एक सुरक्षित क्षेत्र की स्थापना की, जहां से उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ ‘जेहाद’ की शुरूआत की. उनका यह एक देशव्यापी संगठन था, जिसके उत्तर-पश्चिमी आदिवासी क्षेत्रें में सिथाना तथा बिहार में पटना मजबूत आधार-क्षेत्र थे. उन्होंने स्थानीय सरदारों को संगठन में शामिल किया जिन्हें खलीफाओं के रूप में भी जाना जाता था. खलीफाओं की सहायता वह सुझाव के लिए काउन्सिलरों की एक समिति होती थी तथा युद्ध मंत्री, वित्त मंत्री आदि की भी नियुक्ति की जाती थी. सैय्यदअहमद को जल्दी ही यह अहसास हो गया था कि सिख महाराजा रणजीत सिंह को हराए बिना तथा सिंध के शोषित मुस्लिम किसानों को बिना साथ लाए आन्दोलन को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता. इसके लिए 1826 में वह अपने एक हजार समर्थकों के साथ पेशावर घाटी में आ गए तथा स्थानीय पख्तून आदिवासियों को संगठित करने का प्रयास करने लगे. दिसम्बर, 1826 में अपने समर्थकों के साथ अकोरा में उन्होंने सिख सेना के खिलाफ युद्ध लड़ा पर परिणाम निर्णायक नहीं रहा. ‘जिहाद’ के अपने नियमित प्रयास में सैय्यद अहमद बरेलवी तथा उनकी सेना ने आखिर में (1830) में पेशावर पर कब्जा कर लिया परन्तु, 1831 में बालाकोट में सिक्खों के विरूद्ध लड़ाई में उन्हें मार दिया गया. इस युद्ध में उनके कई समर्थकों ने भी अपना जीवन खोया.
सैय्यद अहमद की मृत्यु के बाद इस आन्दोलन को अस्थायी तौर धक्का लगा जब तक कि इसे अली बंधुओं (इनायत अली और विलायत अली, शादीपुर परिवार, पटना) के रूप में नया नेतृत्व नहीं मिल गया. अली बंधु सैय्यद अहमद बरेलवी के अनुयाई बन गये. उन्होंने उन्हें पटना की उनकी गतिविधियों की देखरेख के लिए अधिकृत किया. सैय्यद अहमद के इस अधूरे आन्दोलन को इनायत अली, विलायत अली, केरामत अली, जियाउद्दीन और अन्य आन्दोलनकारियों की अंग्रेजों के खिलाफ की जाने वाली गुप्त तथा विनाशक गतिविधियों से नई गति मिली. सुदूरपूर्व के सिलहट, त्रिपुरा तथा बंगाल के अन्य कई जिलों के साथ इनके द्वारा पटना, वाराणसी, कानपुर, दिल्ली, थानेश्वर, अंबाला, अमृतसर, झेलम, रावलपिंडी तथा पेशावर जैसी शहरों में भी सक्रिय केन्द्रों की स्थापना की गई-3 हैदराबाद में मुबारीजुदुल्लाह, जोकि नवाब के भाई थे, ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने का षड्यंत्र किया. 1839-40 में उन्हें गिरफ्तार करके मुकदमा चलाया गया तथा उम्र कैद की सजा सुनाई गई. वह गोलीकुंडा किले में एक शहीद की तरह मरे (1845-1846, 1848-1849) के सिख एंग्लो युद्धों के बाद विलायत अली ने उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत में इस आन्दोलन के निर्विवाद नेता के रूप में कार्य किया जबकि पूरा पंजाब अंग्रेजों के सीधे नियंत्रण में जा चुका था.
विलायत अली की मृत्यु के बाद इनायत अली ने 1852 में उनकी जगह ली और केरामत अली के साथ मिलकर 1857 के महान विद्रोह की पूर्व संध्या पर उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत के ब्रिटिश क्षेत्रें पर कब्जे की कोशिश की. यहां तक कि इस महान क्रांति के दौरान कई स्थानों पर स्थानीय नेतृत्व के रूप में हमेशा वहाबी नेता आगे रहे. उन्होंने दिल्ली, आगरा, हैदराबाद और पटना जैसे बहुत से जगहों में स्थानीय नेतृत्व दिया. 1850 से 1857 के बीच अंग्रेजों ने सिथाना पर कब्जे के लिए 16 बार प्रयास किए तथा 35000 सैनिकों की फौज उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत पर अधिकार करने के लिए भेजी पर हर बार अंग्रेज असफल हुए. 1863 के बाद वहाबी आन्दोलन का प्रभाव कम हो गया जिसका मुख्य कारण अंग्रेजी सेना का दमन था. 1863-1865 की समयावधि में मुकदमों की श्रृंखला चली, जिसमें वहाबी आन्दोलन के सभी मुख्य नेता गिरफ्तार कर लिये गये. इन एक के बाद एक मुकदमों में जैसे, अंबाला केस 1864, पटना केस 1865, मालदा सुनवाई 1870, राजमहल सुनवाई 1870 और वहाबी सुनवाई 1870-71 में विद्रोहियों के खिलाफ मुख्य आरोप ब्रिटिश रानी की सत्ता के खिलाफ षड्यंत्र रचने और युद्ध छेड़ने का था.[3] इशरी प्रसाद, जो कि विद्रोहियों से निपटने वाले एक विशेष खुफिया अधिकारी थे, ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि सुनवाईयों के बाद भी क्रांतिकारी विद्रोह को पटना, भोपाल, रंगून और शहाबाद जैसे शहरों में पुनर्संगठित करने की कोशिश कर रहे थे. बिपिन चन्द्र पाल तथा त्रिलोक्य चक्रवर्ती जैसे मशहूर क्रांतिकारियों ने भी 20वीं शताब्दी के शुरूआती वर्षों में अंग्रेजों की सत्ता के खिलाफ हो रही अपनी कार्यवाहियों पर वहाबी आन्दोलन के प्रभाव को स्वीकार किया है. त्रिलोक्य चक्रवर्ती जोकि अंडमान के सेल्यूलर जेल में वहाबी विद्रोहियों के सम्पर्क में रहे थे, ने कहा कि ‘वहाबी भाईयों ने हमें ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ अडिग, निडर और कभी न झुकने वाले चरित्र और वहाबियों की गलतियों से सीख लेने का व्यवहारिक ज्ञान दिया.[3] इस तरह वहाबी आन्दोलन का साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र स्पष्ट है.
तथापि यह खेदजनक है कि ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ चलने वाले इस दीर्घकालीन संघर्ष को वो सम्मान कभी नहीं मिला जिसका ये हकदार था. उल्टे यह झूठे संकीर्णतावादी दुश्प्रचार का शिकार हो गया था. वे लोग जो सैÕयद अहमद वरेलबी और उनके अनुयाईयों के नेतृत्व में चले इस वहाबी आन्दोलन को सिर्फ धार्मिक आधार के साथ जोड़कर देखते हैं, उन्हें यह जरूर ध्यान रखना चाहिए कि इस तरीके का विस्तृत आन्दोलन गैर-वहाबी जनता की व्यापक भागीदारी के बिना लम्बे समय तक नहीं चलाया जा सकता था.[8] यहां तक कि मशहूर इतिहासकार डब्ल्यू. डब्ल्यू. हंटर ने भी इतने विशाल इलाके तक फैले इन संघर्षों में दिखी प्रशंसाजनक तीक्ष्ण बुद्धिमत्ता को स्वीकार किया है. उनका कहना है, ‘इस संघर्ष की समूची योजना और उसे वास्तव में लागू करने के मामले में अद्भूत सृजनात्मक दक्षता दिखती है. सच्ची व हार्दिक भावना से सीधे-सच्चे कार्यों का तालमेल इस तरह की चालाकी के साथ सरकार विरोधी कार्यकलापों के साथ बिठाया जाता कि प्रशासन के लिए दोनों को अलग करना अत्यन्त मुश्किल था.’[8] यह दुर्भाग्यजनक है कि भारत के परम्परागत इतिहास-लेखन से जुड़े विशेषज्ञों ने इस संघर्ष को कभी भी इस तरह से समझना नहीं चाहा है. यहां तक कि मीर निसार अली, हाजी शरियातुल्लाह और उनके लड़के दूदू मियां के नेतृत्व में संगठित समसामयिक आन्दोलनों के प्रति भी उनकी प्रतिक्रिया इसी प्रकार की थी. यहां का शासक वर्ग अभी भी शोषित किसान-जनता और शोषक वर्ग (जमीन्दार, महाजन, नीलहे साहबों और अंग्रेजी फौजों के बीच के इस गौरतलब वगै-संघर्ष को खारिज करने की भरपूर कोशिश जारी रखे हुए हैं.
सैÕयद अहमद वरेलबी और उनके अनुयायी जब बरतानवी हुकूमत के खिलाफ ‘जेहाद’ के पहले के कदम के बतौर पेशावर में सिख फौजों के विरूद्ध लड़ रहे थे, तभी मीर निसार अली नामक एक और महत्वपूर्ण शख्सियत बंगाल के शोषक वर्ग के खिलाफ एक दुःसाहसिक संघर्ष का नेतृत्व दे रही थी. बंगाल की जनता के बीच वे तीतूतीर के नाम से लोकप्रिय थे. तीतूमीर 1827 में मक्का से लौटे और लौटते ही बंगाल में उन्होंने एक धर्म-सुधार आन्दोलन शुरू कर दिया. जल्दी ही यह धर्म-सुधार आन्दोलन हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों की गरीब जनता के हित में चलने वाले एक सामाजिक-आर्थिक आन्दोलन में तब्दील हो गया. फलतः कुछेक दिनों के अन्दर ही स्थानीय जमीन्दार कृष्ण देव राय ने तीतूमीर और उनके अनुयायियों को तरह-तरह से तंग व तबाह करना शुरू कर दिया. उन दिनों वहाबी मत को मानने वाले मुसलमान अपने धार्मिक अनुशासन के एक अंश के बतौर दाढ़ी रखा करते थे. पर हिन्दु जमीन्दार कृष्णदेव राय इतने निर्लज्ज थे कि उन्होंने वहाबी मुसलमानों के प्रभाव को कम करने के लिए कुख्यात ‘दाढ़ी टैक्स’ लेना शुरू कर दिया था. स्वभाविक रूप से ही इससे स्थानीय मुस्लिम किसान काफी क्रोधित हो उठे. शुरूआती दौर में तो तीतूमीर ने इस तरह के अन्याय के खात्मे के लिए प्रशासन से हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया. पर उससे कुछ काम तो हुआ नहीं, उल्टे उनके अनुयायी किसानों पर जमीन्दारों के अत्याचार और बढ़ गये. फलतः उन्होंने अन्ततः स्थानीय जमीन्दारों और महाजनों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का रास्ता चुन लिया. नीलहे साहबों के अकक्य अत्याचारों से किसानों की रक्षा करने के लिए उन्होंने नील की कई कोठियों पर हमले किये और उन्हें लूट लिया. जिन तमाम धनी मुसलमानों ने अपने वर्गीय हितों की हिफाजत में इन विद्रोहों के रास्ते में अड़चनें डालनी शुरू की थी, वे भी तीतूमीर के आक्रमणों से बच नहीं सके. इस विद्रोह ने चूंकि जल्दी ही एक वर्ग-संघर्ष का रूप धारण कर लिया. अतः इसका दमन करने के लिए प्रतिक्रियावादी शोषक वर्गों ने खुद में एका कायम कर लिया था.
उधर, निर्भीक व बहादुर तीतूमीर ने नारकेलबेड़िया गांव में बांस का एक दुर्ग तैयार कर लिया था, जो बंगाल में ‘बांस के किलें’ के नाम से इतिहास में मशहूर है. इसके अलावा आनेवाले हमलों का सामना करने के लिए उन्होंने हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों के ही किसान युवाओं को लेकर एक फौज भी बनायी. कलकत्ते के फौज की बड़ी टुकड़ी को तीतूमीर की इन फौजों ने दो-दो बार हराया. इस किसान विद्रोह की लगातार बढ़ती हुई ताकत ने अंग्रेजी राज की चिन्ता बढ़ा दी इसीलिए अंग्रेजी सरकार ने इसके बाद सेना की दस रेजिमेंटें, कुछ बन्दूकें और दो तोपों को उनके खिलाफ लड़ने के लिए भेजा. 1831 के 19 नवम्बर को नारकेलबेड़िया गांव में इस अंग्रेजी फौज के साथ वीरतापूर्वक लड़ते हुए अन्ततः वीर तीतूमीर शहीद हुए. उनका ऐतिहासिक बांस का किला अंग्रेजी तोपों के गोलों की मार से धारासायी हो गया. तीतूमीर के सेनापति गुलाम मसूद और उनके 300 अनुयायियों को बंदी बनाया गया. गुलाम मसूद तो आगे चलकर जेल में ही शहीद हुए और दूसरों को उम्र कैद की सजा दी गयी. तीतूमीर और भारत के स्वाधीनता संग्राम में उनके बहादुराना अवदानों को आज भी बंगाल के लोकगाथाओं और लोकगीतों में याद किया जाता है.[1,3]
इतिहास में अजाने रह गये इस समय के एक और महत्वपूर्ण शख्सियत तत्कालीन बंगाल प्रांत के फरीदपुर जिले (जो अभी बंग्लादेश में पड़ता है) के बहादुरपुर गांव के हाजी शरियतुल्लाह थे. उन्होंने 1820 के दशक में ‘फराजिया’ आन्दोलन शुरू किया था. उन्होंने लम्बे समय तक पूर्व बंगाल के गांवों में घूम-घूमकर इस्लामी न्याय और समानता के उपदेशां का प्रचार किया था. उनके इस प्रचार से भारी संख्या में उत्पीड़ित किसान जनता आकृष्ट हुई थी. अपनी सीधी-सादी जीवनशैली और उत्पीड़ित जनता के हितों की हिफाजत में खुद को न्यौछावर कर देने के चलते वे गरीब जनता के बीच में काफी लोकप्रिय थे. वे सबों के लिए श्रद्धा के पात्र थे और लोग उन्हें अपने पिता की तरह मानते थे.[3] उनकी निरंतर बढ़ती जा रही लोकप्रियता के चलते हिन्दु और मुस्लिम दोनों सम्प्रदायों के जमीन्दारों ने उनके खिलाफ प्रतिक्रियाएं की और उन्होंने अंग्रेज अधिकारियों से मिलकर उनके खिलाफ कुप्रचार शुरू कर दिया.
हाजी शरियतुल्लाह की मौत के बाद उनके पुत्र मोहम्मद मोहसीन दूदू मियां ने भी अपने पिता के रास्ते पर चलना शुरू किया. उन्होंने तो एक कदम और आगे बढ़कर सामंती शोषण-व्यवस्था की बिल्कुल जड़ों पर ही चोट की. उन्होंने ऐलानिया तौर पर कहा, ‘यह जमीन हमें अल्लाह ने दी है- ऐसे में इस जमीन को निजी तौर पर इस्तेमाल करने और उसपर लगान वसूलने हेतु पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसे कब्जे में रखने का अधिकार किसी को भी नहीं है.’[1] उन्होंने देशी हरबे-हथियारों से लैस एक फौज का गठन कर शोषक-वर्ग के विरूद्ध कई सशस्त्र संघर्षों का नेतृत्व किया. 1846 में उनके नेतृत्व में किसानों की एक फौज ने पांचन्दर की नील कोठी को ध्वस्त कर दिया. उनके नेतृत्व में चल रहे आन्दोलन को कमजोर करने के लिए अंग्रेज बार-बार उन्हें झूठे आरोपों में गिरफ्रतार करते रहे. 1838 में चोरी, 1841 में खून, 1844 में बिना अनुमति लिए खुलेआम जनता को लेकर सभा करने, 1846 में अपहरण और हत्या के आरोप में उनकी गिरफ्तारियां की गयी. पर हर बार वे निर्दोष साबित हुए और पुलिस को उन्हें बाध्य होकर छोड़ना पड़ा. उनकी भारी लोकप्रियता की वजह से यहां तक कि 1857 के महाविद्रोह के समय भी इन्हें गिरफ्रतार किया गया था. पर वही उनकी अंतिम गिरफ्तारी थी. 1859 में वे रिहा हुए. इसी बीच उनकी सेहत काफी बिगड़ चुकी थी. इसी वजह से 1860 की 24 सितम्बर को उन्होंने मौत को गले लगाया. कम ही समय के अन्तराल से उनकी बार-बार की गिरफ्तारियों के मौके से लाभ उठाकर शोषक वर्ग ने इसी बीच उनके नेतृत्व में चला रहे आन्दोलन को पूरी तरह कुचल दिया गया.
1793 के स्थायी बन्दोबस्त ने एक ओर जिस तरह ग्रामीण किसान जनता के जीवन को असहनीय बना डाला था, वहीं दूसरी ओर, ठीक उसी प्रकार उसने निर्मम शोषण के खिलाफ सशस्त्र किसान संघर्षों का मार्ग भी प्रशस्त कर दिया था. इन संघर्षों को भी अतीत के किसान विद्रोहों की धारावाहिकता के रूप में ही देखा जाना चाहिए क्योंकि समाज में जब तक ऐसे दो वर्ग रहेंगे जिनके हित एक-दूसरे से टकराते हों, तब तक ऐसे दोनों वर्गों के बीच वर्ग-संघर्ष अनिवार्य रूप से होता रहेगा. उस समय की परिस्थिति ऐसी थी कि उस स्थायी बन्दोबस्त ने असंख्य किसानों के जीवन की कीमत पर शहर केन्द्रित एक नये अभिजात जमीन्दार वर्ग को जन्म दिया था. बंगाल के तथाकथित नवजागरण के पुरोधागण, जैसे, राजा राम मोहन राय (1772-1833), द्वारकानाथ ठाकुर (1794-1846) और उसके वंशज इसी नये अभिजात वर्ग की पहली पंक्ति के प्रतिनिधि थे. यह एक कटु सत्य है कि तीतूमीर और उसकी फौजें जब बहादुरी के साथ अंग्रेजी तोपों से लोहा ले रही थी, तब यह नया उभरा अभिजात वर्ग अपने अंग्रेज पार्टनरों के साथ नये-नये व्यापार-वाणिज्य शुरू करने में लगा था. इधर जबकि एक ओर गांवों की गरीब किसान जनता पेट में भूख की ज्वाला लिये मौत के मूंह में चली जा रही थी, वहीं उधर दूसरी ओर अपने वर्ग-हितों को चरितार्थ करते हुए यह शहरी अभिजात वर्ग ब्रिटिश साम्राज्य को आमंत्रित कर रहा था, जिससे कि इस देश को पक्के तौर पर एक ब्रिटिश उपनिवेश बना दिया जा सके. और बहाने के तौर पर ‘नवजागरण’ के इन पथिकों ने यह बताया था कि भारत की समृद्धि उसके साथ अंग्रेजों के सम्बन्धों पर निर्भर करती है. पर विडम्बना यह है कि हमारे देश की परम्परागत धारा के बुद्धिजीवी, हमेशा ही देखा गया है, इस ‘बंगाल के नवजागरण’ को महिमामंडित करते और उसके समसामयिक सशस्त्र वर्ग-संघर्ष के तात्पर्य को नामंजूर करते आये हैं. यह सिर्फ दुर्भाग्यजनक ही नहीं है बल्कि निर्लज्ज दृष्टिकोण भी है, जो हमारे परम्परागत इतिहास-लेखन पर अभी भी अपना प्रभाव बनाये हुए हैं.
दारूल-उलूम देवबंद की भूमिका (1857-1920)
1857 के महाविद्रोह में विभिन्न सम्प्रदायों की जनता एकताबद्ध होकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ी थी. ऐसा कोई नहीं है जो उस संग्राम में खासकर मुस्लिम सम्प्रदाय की उल्लेखनीय भूमिका के बारे में नहीं जानता हो. हालांकि तब तक हिन्दु व मुस्लिम दोनों सम्प्रदायों के बीच से जिस नये अभिजात वर्ग का उद्भव हुआ था, उसने इस महाविद्रोह का विरोध किया था. शुरू-शुरू में तो मैकाले द्वारा प्रवर्तित शिक्षा-व्यवस्था में शिक्षित हिन्दू अभिजात समुदाय किसी भी तरह के राजद्रोह मूलक क्रियाकलापों के नजदीक फटकते तक नहीं थे. इसी समय अपवाद के रूप में इनके बीच से ही 19वीं सदी के अंतिम दशक में एक ऐसे हिस्से का उद्भव हुआ, जो गंभीर क्रांतिकारी क्रियाकलापों में संलिप्त हुआ. दूसरी ओर, शिक्षित मुस्लिम समुदायों के बीच भी एक ऐसा हिस्सा था, जिसने शुरू से ही मजबूती से साम्राज्यवाद-विरोध की अवस्थिति अख्तियार की थी. बाद के काल में सर सैÕयद अहमद खान और उनके जैसे कुछ दूसरे मुस्लिम अभिजातों ने जिस प्रकार अंग्रेजी साम्राज्यवाद के प्रति वफादारी दिखायी थी, उनसे उपरोक्त मुस्लिम हिस्से के विचार बिल्कुल अलग थे. उन्होंने ब्रिटिश राज के प्रति वफादारी की जगह उसके खिलाफ सशस्त्र संघर्ष का रास्ता चुन लिया था. चूंकि उनके विचारों में धर्म का प्रभाव था, इस बहाने उनकी भूमिका को कभी भी यथोचित स्वीकृति नहीं दी गयी है जबकि परम्परागत धारा के इतिहासकारों को 20वीं सदी के शुरू में ही अरविन्द घोष और उनके अनुगामियों के नेतृत्व में संचालित अंग्रेज-विरोधी कार्यकलापों में आध्यामिक प्रभाव का गुणगान करने में कभी कोई हिचक या दुविधा महसूस नहीं हुई है. यह महज उस दौ का एक पक्षपातपूर्ण मूल्यांकन ही नहीं है, बल्कि इसके साथ-साथ यह हमारे स्वाधीनता संग्राम में मुस्लिमों की भूमिका को जानबूझकर कमतर दिखाने की एक गंदी कोशिश भी है. इसी प्रसंग में अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष में देवबंद के उलेमाओं की भूमिका की भी यदि चर्चा नहीं की जाए तो यह एक काफी अन्यायपूर्ण बात होगी.
बात 1857 के बाद की है. अंग्रेजी फौज ने 1857 के महाविद्रोह का नृशंसता के साथ दमन किया था. पर उसके बाद फिर एक बार अंग्रेज विरोधी संघर्षों में एक नये अध्याय की शुरूआत हुई थी. इनमें मौलाना कासिम नानावतावी (1833-1880), महमूद अल हसन (1851-1920), मौलाना ओबेइदुल्ला सिंधी (1872-1944) और अन्य कई मुस्लिम नेताओं की बहादुराना भूमिका से अस्वीकार नहीं किया जा सकता. 1857 के महाविद्रोह के समय जिन ढेर सारे मौलनाओं ने शामली के युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी, उनमें प्रमुख थे मौलाना कासिम नानावबावी.[10] शामली के युद्ध में क्रांतिकारियों की पराजय के बाद अंग्रेजी फौजों ने मुस्लिमों पर क्रूर अत्याचार ढाये. यहां तक कि उस वक्त तक मुस्लिम शिक्षा-संस्थानों की जो वृत्ति प्रदान की जाती थी, उसे भी बंद कर दिया गया.[11] ऐसी ही एक पृष्ठभूमि में कासिम नानावतावी ने 1866 की 30 मई को देवबंद में दारूल उलूम (शिक्षा हासिल करने की जगह) की स्थापना की. इस शिक्षा संस्थान ने अपने पहले शिक्षार्थी महमूद अल हसन को लेकर अपनी यात्र शुरू की. ये वही महमूद अल हसन थे जो बाद में चलकर ‘सिल्क लेटर कन्सपिरेसी’ के एक महान नायक के रूप में मशहूर हुए थे.[12] 1874 में अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने ‘सभारत अल तरबियत’ (प्रशिक्षण के नतीजे) नाक एक क्रांतिकारी दल का गठन किया था. इस क्रांतिकारी दल का प्राथमिक उद्देश्य अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह की तैयारी करना था. वस्तुतः कई दशकों के लम्बे अथक परिश्रम के बाद अन्ततः 1909 में ‘जमीयत-उल-अंसार’ की स्थापना के जरिए महमूद हसन उस दल को एक वास्तविक सांगठनिक स्वरूप दे पाये थे. देवबंद में जमीयत के सचिवालय के इन्चार्ज की जिम्मेदारी लेने के लिए उन्होंने अपने सबसे वफादार अनुगामी मौलाना ओबेइदुल्लाह सिंधी को बुला लिया. 1912 और 1913 में जमीयत ने कई आम सभाएं और विक्षोभमूलक जन-प्रदर्शन आयोजित किये थे, जिनमें मेरठ और शिमला से हजारों-हजार लोगों ने भाग लिया था. कार्यनीतिक कदम के रूप में उन्होंने दिल्ली ‘नजरत-उल-मारिफ’ नामक एक दूसरे संगठन का निर्माण किया, जिसका उद्देश्य जनता के बीच राष्ट्रवादी विचारों व भावनाओं को जगाना था.[10,12]
1914 में पहला विश्वयुद्ध शुरू हुआ. भारत में अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन को उखाड़ फेंकने के लिए उस समय अंग्रेजों के शत्रु, जो धुरी राष्ट्र थे, उनसे सहायता पाने की उम्मीद की गयी थी. इसके लिए उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत के एक छोटे से इलाके को अपने क्रियाकलापों के केन्द्र के रूप में चुन लिया गया था. वहां उस समय तक भी सैÕयद अहमद बरेबवी के अनुयायीगण ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरूद्ध अपने ‘जेहाद’ की परम्परा को जारी रखे हुए थे. वहीं से फिर ब्रिटिश राजसत्ता के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह की योजना बनायी गयी. ऐसी एक उम्मीद के साथ कि अफगानिस्तान के ‘अमीर’ मदद करेंगे. महमूद अल हसन ने ओबेइदुल्लाह को काबूल भेजा- मुस्लिम देशों से सक्रिय सैन्य सहायता प्राप्त की जा सके, इसकी व्यवस्था करने के लिए वे खुद मक्का को रवाना हुए, जहां के ऑटोमन खिलाफत के गवर्नर ने अंग्रेजों के खिलाफ उनके संघर्ष में उन्हें मदद देने का आश्वासन दिया. भारत में इस समूची योजना के कर्यान्वयन के लिए प्रधान कार्यालय देवबंद में था और दिल्ली, दिनाजपुर, अमरोट आदि जगहों में भी कामकाज के केन्द्र स्थापित किये गये थे. 1915 में ओबेइदुल्लाह ने दिसम्बर में एक इन्डो-जर्मन-तुर्किश मिशन के साथ भेंट की. अफगानिस्तान धुरी राष्ट्रों की ओर से युद्ध में शामिल हो और फिर ब्रिटिश भारत पर आक्रमण करे, इसके लिए अफगानिस्तान के ‘अमीर’ को प्रभावित करने के लिए धुरी राष्ट्र की ओर से वहां एक कूटनीतिक मिशन भेजा गया था. यही मशहूर इन्डो-जर्मन षड्यंत्र का एक हिस्सा था.
हलांकि अफगानिस्तान के ‘अमीर’ की ओर से कोई मदद नहीं मिली, फिर भी ‘अमीर’ के एक सहयोगी नसरूल्लाह खान के सहयोग से 1916 में काबुल में भारत की प्रादेशिक सरकार की स्थापना की गयी. इस सरकार में राष्ट्रपति बने थे राजा महेन्द्र प्रताप और प्रधानमंत्री मौलाना बरकतुल्लाह, भारत मंत्री ओबेइदुल्लाह सिंधी, युद्धमंत्री मौलबी बशीर तथा विदेश मंत्री चम्पाकरण पिल्लई बने थे. औपनिवेशिक शासन के विरूद्ध अन्तराष्ट्रीय मदद प्राप्त करने के लिए ‘जुनुद-उर्रब्बानिया’ (भगवान की फौज) नामक एक अन्तराष्ट्रीय संगठन का गठन किया गया था. इन सभी खबरों से वाकिफ कराने के लिए ओबेइदुल्लाह सिंधी को महमूद अल हसन के नाम काबूल के अपने क्रियाकलापों और भविष्य की योजनाओं की जानकारी देते हुए एक पत्र लिखा. यह खत सिल्क के एक टुकड़े पर लिखा गया था. इसके अलावा इस निर्वासित सरकार के विभिन्न पदाधिकारियों के बारे में विस्तृत तथ्यों और जुनुद उर्ररब्बानिया की भविष्य की योजनाओं की जानकारी देते हुए मौलाना मुहम्मद मियां अंसारी ने एक और पत्र भी उस पत्र के साथ ही भेजा था. दुर्भाग्य से ये चिट्ठियां अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचने के पहले ही अंग्रेजों के खुफिया विभाग के हाथों में पड़ गया.[10,12,3] इस समूची योजना के बारे में 1918 की सेडिशन कमेटी की रिपोर्ट में बताया गया था, ‘इस फौज (जुनुद उर्ररब्बानिया) का उद्देश्य भारत से और भी सैनिकों को इकट्ठा करना और दूसरे इस्लामी शासकों को साथ में लेकर एक एकताबद्ध गठबंधन तैयार करना था. … इसका मुख्यालय मदीना में स्थापित करने और इसका कमांडर-इन-चीफ महमूद अल-हसन को बनाने की योजना बनायी गयी थी. स्थानीय कमांडरों के अधीन कन्स्टैन्टिनीपोल (आधुनिक इस्ताम्बुल), तेहरान और काबुल में इसके कुछ कार्यालय स्थापित करने की बात हुई थी. काबुल में इसका जेनेरल खुद ओबेइदुल्लाह को होना था.[13]
बरतानवी साम्राज्य ने इस समूचे घटनाक्रम की एक विस्तृत जांच का निर्देश दिया था, जो इतिहास में 1916 की ‘सिल्क लेटर कन्सपिरेसी’ के नाम से जाना गया. इस जांच के उपरान्त बताया गया कि इस षड्यंत्र में कुल 220 लोग शामिल थे, जिनमें से अधिकांश ही उलेमा थे. ये सभी गिरफ्तार हुए और इन्हें लम्बी सजाएं मिली. इनके नेतागण महमूद अल हसन, ओबेइदुल्लाह सिंधी, मौलाना अंसारी और इस विशालकाय आन्दोलन में शामिल ढेर सारे साथीगण भी गिरफ्तार किये गये. उधर, प्रथम विश्वयुद्ध में धुरी राष्ट्र पराजित हुए. बसरा में 200 से भी ज्यादा विद्रोही मुस्लिम फौजों की गोली मारकर हत्या कर दी गयी.[12,3] हालांकि वे अन्ततः सफल नहीं हो पाये, बावजूद इसके इन वीर क्रांतिकारियों का इतना बड़ा एक नेटवर्क और इनके एक-पर-एक क्रियाकलाप निःसंदेह यह साबित करते हैं कि भारतवर्ष को अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन के शिकंजे से मुक्त कराने के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर कर देने में इंच भर भी पीछे नहीं हटे थे.
एक नये दृष्टिकोण के साथ (1915-1934)
पलासी के युद्ध के बाद से सत्ता के हस्तांतरण के करीब दो शताब्दियों के दौरान अंग्रेजी शासन को एक-के-बाद स्थानीय किसानों के सशस्त्र संघर्षों का सामना करना पड़ा. इसी क्रम में 1857 के महाविद्रोह के जरिए औपनिवेशिक उत्पीड़न के विरूद्ध आम जनसमुदाय के असंतोष की चरम अभिव्यक्ति सामने आयी. उधर इसी समय इसके समानान्तर और इसके विपरीत एक दूसरी प्रवृत्ति भी उभरकर सामने आती दिखी.
सन्दर्भ :
[1] “Bharater Krishak‐Bidroha O Ganatantrik Sangram” by Suprakash Roy, 1966.[2] “The Annals of Rural Bengal” by W. W. Hunter, 1868.
[3] “Freedom Movement and Indian Muslims” by Santimay Ray, 1979.
[4] Rennel’s Journal, February 1766; cited in [1,2].
[5] Letter from Lt. Robertson to the collector of Bogra, 14th November 1776; cited in [1,2].
[6] “Sanyasi & Fakir Raiders of Bengal” by Jamini Mohan Ghose; cited in [1,2].
[7] “Islam and Resistance in Afghanistan” by Olivier Roy; 1985.
[8] “The Wahabi Movement in India” by Dr. Q. Ahmad; 1966.
[9] “Selections from Bengal Government records on Wahhabi trials 1863‐1870” (ed.) by Muinuddin Ahmed; 1961.
[10] “Deoband Ulema’s Movement for the Freedom of India” by Farhat Tabassum; 2006.
[11] “History of the Dar al‐Ulum, Deoband, Vol. 1” by Sayyid Mahbood Rizvi; 1980; cited in [3] [12] “Darul Uloom Deoband: a heroic struggle against the British tyranny” by M. Burhanuddin Qasmi; 2001.
[13] Sedition Committee Report; 1918.
[14] “Secret Documents on Singapore Mutiny 1915” by T. R. Sareen; 1995.
[15] “They Lived Dangerously” by Manmath Nath Gupta; 1969.
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