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महिलाओं के खिलाफ हिंसा में पुलिसकर्मियों की भूमिका और आम जनों का प्रतिशोध

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महिलाओं के खिलाफ हिंसा में पुलिसकर्मियों की भूमिका और आम जनों का प्रतिशोध

माओवादी ऑडियो का दावा किया कि सुकमा में सुरक्षा बलों पर जवाबी कार्रवाई आदिवासी महिलाओं के बलात्कार के खिलाफ

सत्ता अपनी सुरक्षा के लिए सरकारी खर्च पर, जिसे देश की मेहनतकश जनता से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष टैक्सों के माध्यम से जमा किया जाता है, एक विशाल तादाद में सैन्य एवं असैन्य कर्मियों की नियुक्ति करता है. सत्ता इन कर्मियों को यह कहकर जनता की आंखों में धूल झोंकता है कि वह देश की जनता और उसकी सीमाओं की रक्षा के लिए है. जबकि हकीकत में यह देश की जनता के धनों को लूटने, उनकी महिलाओं का आबरू लूटने और देश के चंद कॉरपोरेट घरानों की बेहिसाब धनों की पोटली की सुरक्षा के लिए तैनात किया जाता है. छत्तीसगढ़ की आदिवासियों के साथ इन पुलिसकर्मियों का व्यवहार मध्ययुगीन क्रूरता की याद दिलाता है, तो देश भर के गैर-आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों, कमजोरों के साथ आये दिन अमानवीय व्यवहार किया जाता है. पुलिस थाने गुंडों-हत्यारों का अड्डा बन चुका है, जहां निरीह नागरिकों की पीट-पीट कर हत्या की जाती है, उसे अपमानित किया जाता है. यही कारण है कि कोई भी आम नागरिक पुलिस थाना जाना नहीं चाहता. पुलिसों के साथ किसी भी तरह का सम्बन्ध नहीं रखना चाहता और समाज में यह मानी हुई हकीकत है कि पुलिस और अपराध में अन्योनाश्रय सम्बन्ध है, यानी पुलिस ही अपराध को जन्म देती है और उससे बचाने के नाम पर अपराध करती है.




छत्तीसगढ़ के रायपुर जेल की डिप्टी जेलर वर्षा डोंगरे ने अपने सोशल मीडिया पेज पर रौंगटे खड़ा कर देने वाली वारदात शेयर की थी, जिसकारण यह सत्ता उन्हें भी प्रताड़ित किया. डिप्टी जेलर वर्षा डोंगरे बताती हैं कि आदिवासियों को ‘उनकी जल, जंगल, जमीन से बेदखल करने के लिए गांव का गांव जलावा देना, आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार, आदिवासी महिलायें नक्सली हैं या नहीं, इसका प्रमाण-पत्र देने के लिए उनका स्तन निचोड़कर दूध निकालकर देखा जाता है. सुरक्षा बलों (जो असल में सरकारी खर्च पर पाले जाने वाले गुंडे होते हैं) के द्वारा आदिवासी महिलाओं के साथ किये जा रहे भयानक कृत्य को उजागर करते हुए वर्षा डोंगरे आगे लिखती हैं कि ‘मैंने स्वयं बस्तर में 14 से 16 वर्ष की मुड़िया माड़िया आदिवासी बच्चियों को देखा था, जिनको थाने में महिला पुलिस को बाहर कर पूरा नग्न कर प्रताड़ित किया गया था. उनके दोनों हाथों की कलाईयों और स्तनों पर करेंट लगाया गया था, जिसके निशान मैंने स्वयं देखे. मैं भीतर तक सिहर उठी थी – कि इन छोटी-छोटी आदिवासी बच्चियों पर थर्ड डिग्री टार्चर किसलिए ?’’ जैसा कि बताया जा चुका है, डिप्टी जेलर वर्षा डोंगरे को इस सच उजागर करने की भरपूर सजा मिली और उन्हें निलंबित कर दिया गया.




उत्तर प्रदेश में भाजपा के विधायक द्वारा युवती के साथ बलात्कार किये जाने और उसका विरोध करने पर पुलिसों के द्वारा ही उसके पिता को थाने में लाकर इतनी बुरी तरह पिटाई की कि उनकी मृत्यु हो गई. इसमें पुलिस का पूरा योगदान था. लाखों की तादाद में ऐसे उदाहरण मौजूद हैं, जब पुलिस देश की ही निरीह नागरिकों, उनकी महिलाओं के साथ बजाप्ता थाने के लॉक-अप में लाकर बलात्कार करती है, उसकी हत्या करती है और इसका विरोध करने वाले को सरेआम या तो गोली मारती है या उसे फर्जी मुकदमें में गिरफ्तार कर अधमरा कर छोड़ती है.

अभी हरियाणा का फरीदाबाद जिले का बल्लभगढ़ में पुरूष पुलिसकर्मियों द्वारा एक महिला को सरेआम बेल्ट से पीटने का विडियो वायरल हुआ है, जिसमें एक महिला को पूछताछ के नाम पर बेल्ट से पीटा जा रहा है. हलांकि विडियो वायरल होने के बाद आला अधिकारी ने कार्रवाई के नाम पर खानापूरी की कोशिशें की है, पर ऐसे कितने मामलों के विडियो बन पाते हैं, या प्रकाश में आ पाते हैं ? कई बार तो विडियो बनाने वाले की ही जान सांसत में होती है.

देश के तमाम हिस्सों से महिलाओं के खिलाफ होने वाले हिंसा में पुलिसकर्मियों की संलिप्तता की बात सामने आती है, पर दोषी कर्मियों पर कार्रवाई के बजाय पीड़ितों पर ही फर्जी मामले दर्ज कर पुलिसिया कहर बरपता है. यही कारण है कि सत्ता के सैन्य-असैन्य कर्मियों पर आम जनता का हमला भी बढ़ चला है. थोक के भाव में इन अपराधी पुलिसकर्मियों की हत्यायें आम जनता कर रही है. आखिर कोई कहां तक इसके जुल्मों को बर्दाश्त करेगा. प्रतिक्रया तो होनी ही है. कहा तो यहां तक जा रहा है कि पुलिसकर्मियों की हत्या करना पुण्य का काम होता है और पुलिसकर्मियों की हत्या होने पर अनेकों बार आम जनों के बीच कोई गुस्सा या आक्रोश होने के बजाय आम जन संतोष की सांस लेता है.




सत्ता की चाकरी में आम जनों का खून पी रहे इन पुलिसकर्मियों, जिसे सुरक्षाकर्मी भी कहा जाता है, को अपने रवैये में बदलाव लाना चाहिए. वरना गरीबों-निरीहों का खून खुद उसे ही डुबो डालेगा, जिसकी जवाबदेही भी कोई नहीं लेगा, खुद वह सत्ता भी नहीं, जिसके लिए वह आम जनता पर जुल्म ढाता है. उसे मालूम होना होगा कि पुलिसकर्मियों की मौत को यह सरकार कोई शहादत नहीं मानता, जिसका ढोल यह दलाल मीडिया बजाता है. अब तो उसे मिलने वाला पेंशन भी इस सरकार ने बंद कर दिया है. सत्ता के लिए जिसका सीधा-सा संदेश उन पुलिसकर्मियों के लिए है कि आने वाले वक्तों बहुत ज्यादा पुलिसकर्मियों की मौतों होगी और उन मरने वाले पुलिसकर्मियों के लिए सत्ता उसका पेंशन बंद कर अपने पैसों की बचत करेगी.



भगत सिंह के शब्दों में कहे तो, ‘जब तक शान्तिपूर्ण आन्दोलन में आज़ादी की मांग की छूट रही, कोई षड्यन्त्र नहीं हुआ, कोई गुप्त आन्दोलन नहीं चल सका, लेकिन ज्यों ही शान्तिपूर्ण आन्दोलन को कुचलने के आदेश जारी किये गये, उसी समय गुप्त आन्दोलन शुरू हो गये और षड्यन्त्रों की तैयारियां होने लगीं. सरकार की सख़्ती का दौर शुरू हुआ और काले क़ानूनों के अधीन सैकड़ों नौजवानों को, जो खुले रूप में काम कर रहे थे, जेलों में नज़रबन्द कर दिया गया तो जोशीले नौजवानों को इससे आग लग गयी और वे तड़प उठे. बस फिर क्या था ? किसी ओर काकोरी-षड्यन्त्र का तो कहीं किसी और षड्यन्त्र का धुआं निकलने लगा. जब तक दुनिया में वहशी ज़माने की ग़ुलामी और ग़रीबी जैसी स्मृतियां क़ायम रहेंगी तब तक कोई भी ताक़त दुनिया के तख़्त से षड्यन्त्रों और गुप्त आन्दोलनों को मिटा नहीं सकती. यदि ज़ोर-ज़बरदस्ती और ज़ुल्म षड्यन्त्रों के रोकने का सही इलाज होता तो षड्यन्त्रों का नामो-निशान कब का मिट गया होगा.’




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ROHIT SHARMA

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