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जूते का राष्ट्रवाद!

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यह कैसा सवाल है ? भला जूते का भी कोई राष्ट्रवाद होता है ? वह जूता जो हमेशा पैरों के नीचे पहना जाता है, उसका राष्ट्रवाद से भला क्या सम्बन्ध ? नहीं, कतई नहीं. जूते का राष्ट्रवाद से कोई सम्बन्ध नहीं होता. यह परम सत्य है. इसकी कोई काट नहीं है. क्यों नहीं है ? क्योंकि जूते में कोई जीवन नहीं होता. जिसमें जीवन नहीं होता तो स्वभाविक है, उसमें कोई भावना भी नहीं होती है. सुख-दुःख का अहसास भी नहीं होता है और इसीलिए जूते का कोई राष्ट्रवाद नहीं होता. पर यहां तो सवाल जूते के राष्ट्रवाद को लेकर है इसलिए अब दूसरे तरीके से सोचते हैं.
हम कल्पना कर लेते हैं कि अगर जूतों में जीवन होता, वह भी सोच सकता, वह भी हमारी ही तरह सुख-दुःख का अहसास कर पाता तब भी क्या हम ऐसा बोलते ? कतई नहीं. तब हम यही कहते कि जूतों का भी राष्ट्रवाद होता है. पर जैसा कि सिद्ध हो चुका है कि जूता एक निर्जीव वस्तु है जो हमारे पैरों के नीचे पहनी जाती है, इसलिए जूतों का कोई राष्ट्रवाद नहीं होता. पर हमारे देश में बहुसंख्यक आबादी जो इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था से पीड़ित हंै, दलित, पिछड़ा और आदिवासी जो वास्तव में पैरों के नीचे ही हैं और जूते की शक्ल में हैं, उसमें जीवन भी है, भावना भी है, सुख-दुःख का अहसास भी है, इसलिए उसकी राष्ट्रीयता भी है. पर वास्तव में वह जूता नहीं होता. इस व्यवस्था ने भले ही उसे जूता बना दिया है, पर वह जूता कतई नहीं है, इसलिए यह भी जूता के राष्ट्रवाद से सम्बन्ध नहीं रखता.
पर जूता का राष्ट्रवाद है. जूते ने, जो निर्जीव है, यह साबित कर दिया है कि उसका भी ‘राष्ट्रवाद’ है. पहली बार एक पत्रकार के हाथों से उछलकर एक कद्दावर नेता के माथे पर जा टिका था. तभी से जूता ने यह साबित कर दिया कि उसका भी एक ‘सम्मान’ है. उसका भी एक ‘राष्ट्रवाद’ है. एकाएक जूतों की पूछ बढ़ गई. लोग जूते हाथ में उठाकर चलने लगे. और अब जब एक युवती ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सीने पर जूता दे मारा तब जूते ने एकबारगी फर्जी राष्ट्रवाद के खिलाफ अपने ‘राष्ट्रवाद’ की घोषणा कर दी.
जूते अपने साथ सवाल भी उछालते हैं. जूते उछलते हैं और सवाल छा जाते हैं. जूते उछालने वाले के सवाल और जूते उछलकर जिस पर गिरते हैं उसके सवाल. जूते उछलते नहीं सवाल उछलते हैं. अमूमन जूते जिस सवाल को अपने साथ उछालते हैं, वह इस देश में सदियों से जूता बना दिये लोगों के होते हैं, जो एकबारगी इस देश के नीति-नियंता के मूंह पर जा गिरती है.
चूंकि जूते हमेशा ही अपने साथ ‘सवाल’ उछालते हैं इसलिए ‘सवाल’ ही जूते की ‘राष्ट्रीयता’ होती है और वही उसका ‘राष्ट्रवाद’ होता है. चूंकि जूता बन चुके आम लोगों का सवाल ही जूता बनकर राष्ट्र के नीति-नियंता के मूंह पर लगती है, इसलिए जूता, जूता बन चुके लोगों का प्रतिनिधित्व करता है. जो बात हम नहीं कह पाते वह पलक झपकते जूता कह डालती है. यह वही सवाल होता है जिसे इस देश की आम जनता कहना चाहती है, नीति-नियंता सुनाना नहीं चाहता और सत्ता के जरखरीद गुलाम यह मीडिया न तो सुनना चाहती है और न ही सुनाना चाहती है. पर चूंकि जूता उछलकर इन सवालों को सामने ले आती है, इसलिए ‘सवाल’ ही जूता का ‘राष्ट्रवाद’ होता है.

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One Comment

  1. cours de theatre

    September 30, 2017 at 3:30 am

    Very neat blog.Thanks Again.

    Reply

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