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साध्वी प्रज्ञा : देश की राजनीति में एक अपशगुन की शुरुआत

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भोपाल में प्रज्ञा ठाकुर को मैदान में उतार कर भाजपा ने अपनी भावी नीति में दो कौमों के बीच घृणा की खाई को और चौड़ा करने की नीति को अपनाया है, जब आतंकवाद के आरोपों में गिरफ्तार और कैंसर जैसी गम्भीर बीमारी का इलाज कराने के बहाने जमानत पर बाहर आये लोगों को भाजपा चुनाव लड़ानेे की शुरुआत करने लगी हों, तो वह  लोकतांत्रिक राजनीति में किस तरह का बदलाव लाना चाहती है, की व्याख्या हम और कैसे कर सकते हैं ?

क्रिस्टोफर जैफ्रेलोट और मालविका महेश्वरी द्वारा लिखित ‘The Sadhvi portent‘ (साध्वी एक अपसगुन) शीर्षक से द इंडियन एक्सप्रेस, 11 मई, 2019 के अंक में प्रकाशित हुआ था, जिसका हिंदी अनुवाद किया है वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक विनय ओसवाल ने. इस आलेख के लेखक जैफ्रेलोट CERI-Sciences Po / CNRS, पेरिस, और किंग्स इंडिया इंस्टीट्यूट, लंदन में वरिष्ठ अनुसंधान साथी हैं. मालविका माहेश्वरी अशोक विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान की सहायक प्रोफेसर हैं. ]

साध्वी प्रज्ञा : देश की राजनीति में एक अपशगुन की शुरुआत

हालांकि लोकतांत्रिक व्यवस्था जिसका वास्तविक तंत्र भले ही अनिवार्य रूप से सिद्धांत-संचालित व्यवहार या शासन की परिपक्वता पर आधारित न हो, फिर भी एक मजबूत राजनैतिक तंत्र है. विश्व के कई लोकतांत्रिक देशों में उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार, राजनैतिक हिंसा, संसद में अपराधियों के प्रवेश की बढ़ती संख्या के उदाहरण मिल जाते हैं. भारत में गंभीर अपराधों के अभियुक्तों, माफिया नेताओं ने चुनाव लड़ने को अपनी अपराधी छवि को बदलने का माध्यम बना लिया है.

लोकतंत्र की इन सभी गंदगियों के दलदल के बावजूद भारत में चुनाव हिंसा की कुछ खास सार्वजनिक शक्लों और उनसे जुड़े अपराधियों तक ही सीमित रही है, और अन्य प्रकारों से काफी हद तक अलग ही रही है. आतंकवाद और आतंक से संबंधित अपराधिक हिंसा के ऐसे उदाहरण हैं जिन्हें अभी भी सत्ता तक पहुंचने के लिए सहायक नहीं बल्कि कमजोर माना जाता रहा है. आतंकवाद के रूप में हिंसा के कुछ रूपों को, जिसमें नागरिकों पर बमबारी शामिल है, केवल इस विचार के आधार पर नहीं देखा जाता है कि वे सरकार या कानून प्रवर्तन पर हमला कर रहे हैं, लेकिन इस बारे में एक धारणा यह भी है कि राज्य और इसके संस्थान निहित या स्पष्ट रूप से उप-राष्ट्रीय समूहों द्वारा गैर-लड़ाकू लक्ष्यों के अतिरिक्त की जाने वाली हिंसा से उनकी रक्षा नहीं कर सकते हैं.  यदि हां, तो हम आतंकवाद के आरोपों में गिरफ्तार हुए और जमानत पर बाहर आये लोगों के चुनाव लड़ने के प्रति लोकतांत्रिक राजनीति की मानसिकता में आये बदलाव की व्याख्या कैसे करेंगे ?  किस तरह के नैतिक बल व्यवस्था को अपने हित में बदलने में सक्षम हैं, कैसे जानेंगे ?




2019 के आम चुनाव में एक महत्वपूर्ण उदाहरण प्रज्ञा सिंह ठाकुर की उम्मीदवारी है. 2008 के मालेगांव मामले में हेमंत करकरे द्वारा तैयार की गई प्राथमिकी के अनुसार उन्होंने (प्रज्ञा ठाकुर) ने ‘अभिनव भारत’ की भोपाल बैठक में हिस्सा लिया था, जहां हिमानी सावरकर (गोपाल गोडसे की बेटी) संगठन की अध्यक्ष बनी और इस दौरान आरोपी ने उससे मिलकर मोटे तौर पर आबादी वाले क्षेत्र में बम विस्फोट करके मुसलमानों के खिलाफ बदला लेने के लिए साजिश रची. मालेगांव में आरोपी (लेफ्टिनेंट कर्नल) पुरोहित ने विस्फोटक उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी ली.  अभियुक्त प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने विस्फोट के लिए लोगों का इंतजाम करने की जिम्मेदारी ली. इस बैठक में सभी प्रतिभागियों ने सहमति व्यक्त की और मालेगांव में विस्फोट करने के लिए सहमति व्यक्त की. 11 जून, 2008 को ठाकुर ने कथित रूप से दो अन्य व्यक्तियों रामचंद्र कलसांगरा और संदीप डांगे को जिन्हें मालेगांव में बम रखने की जिम्मेदारी दी गई, को अमृतानंद देव तीर्थ से मिलवाया. जुलाई की शुरुआत में, उन्होंने कथित तौर पर पुरोहित को निर्देश दिए कि वह “विस्फोटक अमृतानंद देव तीर्थ को सौंप दें.

विस्फोट के बाद, अभिनव भारत के एक अन्य सदस्य, पूर्व रक्षा सेवा अधिकारी, मेजर रमेश उपाध्याय को गिरफ्तार किया गया था. उन्होंने स्वीकार किया कि मालेगांव विस्फोट की योजना बनाने के लिए उन्होंने नासिक के भोंसला मिलिट्री स्कूल में ठाकुर और अन्य साथियों के साथ तीन बैठकों में हिस्सा लिया था. अजय मिसार, सरकारी वकील, ने घोषणा की : ‘उपाध्याय, जो भारतीय सेना के साथ काम करते समय तोपखाने विभाग में तैनात थे, पर संदेह है कि उन्होंने गिरफ्तार अभियुक्तों को बम बनाने के लिए आरडीएक्स प्राप्त करने और बम बनाने की ट्रेनिंग दी.’ आज उपाध्याय बलिया से हिंदू महासभा के उम्मीदवार हैं और करकरे की प्राथमिकी में एक अन्य आरोपी सुधाकर चतुर्वेदी मिर्जापुर में निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं.




मेडिकल कारणों से जमानत पर चल रही ठाकुर के खिलाफ इस समय गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम अधिनियम) के तहत आतंकवाद से जुड़े कई आरोपों की सुनवाई चल रही है.

भाजपा के तत्वावधान में चुनावी राजनीति में उनका प्रवेश भारत के लोकतंत्र में बदलावों को रेखांकित करता है. जिन पर गम्भीर आपराधिक मुकदमें चल रहे हैं, उनकी पहले से नायक के रूप में गढ़ी तस्वीर को और चमकाया-सजाया जा रहा है. पहली नजर में यह इशारा करता है कि जिन लोगों पर गम्भीर आपराधिक आरोप हैं, उनको चुनावों में उम्मीदवार बनाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है. छोटे-मोटे अपराध अब समाज में कोई कम्पन पैदा नहीं करते, यह सही है, (लोगों ने मान लिया है, इन्हें रोका नहीं जा सकता). इसका मतलब यह भी नहीं है कि समाज में कानूनी संस्थाओं की गिरती साख का फायदा उठा कर और निर्वाचित प्रतिनिधियों में विश्वास व्यक्त कर इस कानूनी व्यवस्था को दरकिनारे किया जा सकता है और जातीय और धार्मिक उत्पीड़न को वैध बनाया जा सकता है.

दूसरा, यह हिंदू राष्ट्रवादियों पर भी एक टिप्पणी है. हिंसा के विभिन्न रूपों – दंगों, बाबरी मस्जिद विध्वंस, सड़कों पर पीट-पीट कर मार देने आदि के उपयोग और उनके सामान्यीकरण ने न सिर्फ भाजपा के चुनावी और वैचारिक धरातल को मजबूती प्रदान की है बल्कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ पाशविक दुश्मनी को रोजमर्रा घटने वाली सामान्य घटना बना दिया गया है. हालांकि पुराने राष्ट्रवादी हिंदुओं से जिस सीमा तक जाकर इन हिंसक वारदातों का समर्थन किये जाने की उम्मीद थी, वह उतना नही मिल रहा है. परन्तु जिस तरह से भाजपा ने ‘ठाकुर’ की पीठ थपथपाई है और एटीएस के मुखिया हेमंत करकरे को ‘मृत्यु का श्राप’ देने के उसके बयान को औचित्यपूर्ण ठहराया है, उसने लोकतंत्र के प्रति भाजपा की प्रतिबद्धता के मुकाबले एक बुनियादी समाज के बुनियादी सामाजिक मूल्यों और राजनीतिक मानदंडों के पतन में ही अपनी भारी भरकम भूमिका को मजबूत किया है. इस सब के बावजूद भाजपा ने अपने चुनाव अभियान की देश की सीमाओं की सुरक्षा के सवाल तक सीमित रखा है.




तीसरा, उनकी यह रणनीति एक ऐसी राजनीति की खोज है, जो खुद को पीड़ित बताने का दावा कर सके. ठाकुर ने अपने अभियान में दावा किया है कि उसकी लड़ाई ‘हिंदू धर्म का अपमान करने की साजिश’ करने वालों के खिलाफ है. उन लोगों के खिलाफ है जो ‘पूरे देश को बदनाम कर रहे हैं’, उनके खिलाफ है जो एक महिला, साध्वी और एक देशभक्त का अपमान कर रहे हैं, उनके खिलाफ है जिन्होंने उसे ‘अवैध रूप’ से जेल में डाल दिया और शारीरिक, मानसिक और हर तरह की यातनाएं दीं. परन्तु, जब मानवाधिकार आयोग ने अगस्त, 2014 में यातना के आरोपों की जांच की थी, तो उसे यह मामला इसलिए बन्द करना पड़ा क्योंकि उसे कोई सबूत नहीं मिला.

बहुसंख्यकों के पीड़ित होने का राग उनकी तरफदारी को वैध ठहराने के पूर्वाग्रह से प्रेरित प्रयास है तथा कानून और उदारवाद को आचारभ्रष्ट बनाने का संकेत है. यह केवल इस अर्थ में आचारभ्रष्ट नहीं है कि तथ्यों की जांंच से समझौता किया जा सकता है या, उन लोगों को शर्मिंदा करने के लिए जिनके नाम पर वे लड़ते दिखते हैं. यह इस अर्थ में विकृत है कि चुनावी सफलता के लिए नियमित रूप से राजनीतिक और वैचारिक एजेंडों को अपने हित में सुविधापूर्ण और चटपटा बनाने के लिए आकार देना शुरू कर दिया गया है. लेकिन यह जानना महत्वपूर्ण है कि यह इस अर्थ में आचार भ्रष्ट है कि शिकार करने के राजनीतिक और वैचारिक एजेंडों को यह लचीला और सुविधापूर्ण बनाता है, इसे नियमित रूप से आकार देना शुरू कर दिया है.

अंत में, ठाकुर के राजनीति में प्रवेश का जो निर्णय लिया गया है, वह चुनावी गुणा भाग और बढ़ी हुई संस्थागत गहरी बेचैनी पर आधारित है. बम धमाकों के एक हफ्ते बाद तक लोग आतताइयों के बारे में थोड़ा बहुत ही जानते थे. राज्य, साक्ष्यों, प्राथमिकियों, मुख्य आरोपियों की लिस्ट का क्या कर रहा है ? राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी, न्यायपालिका, पुलिस और सरकार मिलकर राज्य की सत्ता का प्रतिनिधित्व करते हैं. यदि राज्य नागरिकों और आंतरिक सुरक्षा देने की प्रतिबद्धता में असफल हो जाय तो वह अपनी सत्ता को कैसे औचित्यपूर्ण ठहरायेगा ?

इसका निहितार्थ यह है कि लोग जितने बड़े वीभत्स अपराध से जुड़ेगें राजनीति में उनका भविष्य उतना ही उज्ज्वल बनेगा; चुनाव का कारोबार जितना अधिक अपराध पर निर्भर करेगा, लोकतंत्र की सार्थकता के दावों में उतनी ही गिरावट आएगी; मतदाता जितना ज्यादा इन तर्को और बुराई की बानगियों को गले लगाएगा न्याय पाने के साधन उससे उतना ही अधिक दूर होते जाएंगे.




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One Comment

  1. Krishana

    May 14, 2019 at 7:09 am

    देश की सत्ता आतंकवादियों के कब्जे में आने वाली है, देश की जनता को सावधान हो जाना चाहिए. अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब देश के संविधान को हटाकर मुनस्मृति को देश की जनता के उपर लाद दिया जायेगा और दलितों और पिछड़ों पर एक बार फिर हमला शुरू हो जायेगा. जो हो भी चुका है.

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