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सुकमा के बहाने: आखिर पुलिस वाले की हत्या क्यों?

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सुकमा में सी.आर.पी.एफ. के 26 जवानों की हत्या पर राज्य और केन्द्र सरकारें बगले झांक रही है और उसके जरखरीद चमचे मीडिया और सोशल मीडिया में सी.आर.पी.एफ. के जवानों को ‘‘निरीह’’, ‘‘गरीब’’ और केवल ‘‘ड्यूटी पूरा करने वाला’’ बता कर माओवादियों से न मारने की अपील कर रही है. आश्चर्य तो तब होता है जब यही ‘‘निरीह’’, ‘‘गरीब’’ और केवल ‘‘ड्यूटी पूरा करने वाला’’ जवान, आदिवासी औरतों के साथ बलात्कार करते हैं, उनके जननांगों में पत्थर ठूंसते हैं, उसकी स्तन काट लेते हैं, जवान औरतों की स्तन को दबा कर उसका दूध निकालने की कोशिश करते हैं और दूध न निकलने पर उसे माओवादी घोषित कर बलात्कार और फर्जी मुठभेड़ में हत्या कर डालते हंै, उसके युवाओं को गोली मार दी जाती है, उसके बूढ़ों को गाड़ी में बांध कर घसीटा जाता है, आदिवासी के गांव के गांव को जला दिया जाता है, जवान लड़कों को माओवादी कहकर मार दिया जाता है. ये सब यही सी.आर.पी.एफ. के निरीह जवान और उसके आले अफसरों करते हैं. या यों कहा जाये यह सब सीधे तौर पर राज्य और केन्द्र सरकार के देखरेख में होता है. तभी तो जांच की मांग होने पर भी जांच की केवल खानापूर्ति की जाती है. कहीं किसी को सजा नहीं मिलती. निचली अदालतों से लेकर सुर्पीम कोर्ट तक में केवल दिखावा होता है. ऐसे में अगर आदिवासी संगठित होकर इस अनाचार का विरोध करते हैं और आत्मरक्षार्थ इस अपराधियों को सजा देते हंै तो सारा महकमा और तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिवादी इस ‘‘निरीह’’, ‘‘गरीब’’ और केवल ‘‘ड्यूटी पूरा करने वाला’’ रायफलधारी के पक्ष में यों उतर जाता है मानो इन ‘‘निरीह’’, ‘‘गरीब’’ और केवल ‘‘ड्यूटी पूरा करने वाला’’ रायफलधारियों को आदिवासियों की इज्जत और आबरू से खेलना और उसकी हत्या कर देना जन्मसिद्ध अधिकार हो और उस ‘‘निरीह’’, ‘‘गरीब’’ और केवल ‘‘ड्यूटी पूरा करने वाला’’ की हत्या कर देना एक जघन्य अपराध. यही जरखरीद चमचे मीडिया और सोशल मीडिया में उड़ीसा में इन्हीं ‘‘निरीह’’, ‘‘गरीब’’ और केवल ‘‘ड्यूटी पूरा करने वाले’’ अर्द्ध सेना के जवानों के हाथों के मारे गये निहत्थे 25 माओवादियों की हत्या को पर्व मनाकर कर घी के दिये जलाये थे और अब मगरमच्छी आंसू बहा रहे हैं.

वर्षों पहले हिन्दी अखबार ‘‘दैनिक जागरण’’ के द्वारा जारी बहस में इस सवाल के जबाव में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने अपना पक्ष रखते हुए कहा था कि ’’दरअसल, शोषण-शासन चलाने वाले वर्ग और उसके हित में विभिन्न सरकारी नीतियों को बनानेवाले नौकरशाह अफसर तंत्र – ये सारे लोग जो भी जन-विरोधी नीतियां बनाते हैं उसको जोर-जबरन जनता पर थोप दिया जाता है तथा जबरन लागू करने के लिए पुलिस-मिलिट्री को इस्तेमाल किया जाता है. वास्तव में, इतिहास गवाह है कि पुलिस-मिलिट्री के बल पर यानी और स्पष्ट कर कहा जाए तो बंदूक और केवल बंदूक के बल पर ही वे शोषक-शासक वर्ग उन तमाम जन-विरोधी नीतियों को लागू करते हैं और जब सत्ता का दमन करने वाला अंग ही प्रधान अंग होता है और जब बंदूक हाथ में लेकर पुलिस जोर-जबरन उन नीतियों को लागू करने में उतर आती है तब जनता द्वारा प्रतिरोध का प्रथम व प्रधान टार्गेट वही बंदूक हाथ में लिए हुए पुलिस दल ही होता है. साफ है कि उस समय पुलिस की भूमिका शोषण-शासन चलाने वाले वर्ग की हित रक्षा करना ही एकमात्र काम बन जाता है. इसके लिए उक्त वर्ग के स्वार्थ में कितने ही मार-पीट, लूटपाट, गिरफ्तारी, इज्जत लूट, गोली मार कर हत्या, फसल बर्बादी – इत्यादि चरम अपराधमूलक कुकर्म क्यों न करना पड़े- पुलिस से वही काम करवाया जाता है और पुलिस तथा उसके अफसर खुद भी ऐसा करते हैं. अब हम सभी को मालूम है कि आत्मरक्षा का अधिकार, आत्मरक्षा खातिर हथियार उठाने का अधिकार जनता का जन्मगत अधिकार है और साथ-साथ जनवादी अधिकार भी है. अतः बंदूक हाथ में लिये हुए दुश्मन से बचने हेतु जवाबी बंदूक पकड़ना किसी भी प्रगतिशील व जनवादी व्यक्ति के विचार से सही ही होगा.

‘‘इसलिए ‘लाचार पुलिस को ही आसान निशाना बनाया जा रहा है’ ऐसी बात सत्य नहीं है. बल्कि सत्य तो यह है कि आज शोषक-शासक वर्ग अपनी पूरी दमनात्मक ताकतों के साथ शोषित-उत्पीड़ित वर्ग पर अत्याचार की बाढ़ बहा दिया है और शोषित-उत्पीड़ित वर्ग अपनी सीमित क्षमता के अनुसार उसका प्रतिरोध कर रहे हैं.

‘‘हम जानते हैं कि ज्यादा से ज्यादा पुलिस गरीब घर से आए हुए हैं. वर्ग के रूप में वे हमारा दुश्मन भी नहीं हंै. पर, बंदूक हाथ में लिए हुए पुलिस जब तक शोषकों के पक्ष होकर गरीब जनता को निशाना बनाएगी तब तक गरीब जनता और उसकी सेना पीएलजीए भी आत्मरक्षार्थ जवाबी बंदूक सहित हर संभव उपाय का इस्तेमाल करेगी. अगर वे बंदूक का निशाना विपरीत दिशा में घुमा देते हैं तो जिस क्षण से वे ऐसा करेंगे उस क्षण से ही वे जनता का दोस्त बन जायेंगे और जनता व पीएलजीए का जवाबी निशाना भी नहीं बनेंगे.’’ अपने पक्ष को स्पष्ट तौर पर रख देने के बाद प्रगतिशील कहे जाने वाले बुद्धिवादियों को सी.आर.पी.एफ. के हमले से खुद की आत्मरक्षार्थ को समझ नहीं पाते हैं तो यही कहा जा सकता है कि वे या तो सच्चाई से अवगत नहीं हैं अथवा खुद को शोषक वर्ग के हाथों गिरवी रख दिये हैं. ये दोनों ही कारण आम आदमी के हित में नहीं है, जो बेहद ही दुखदायी है.

चंद रूपयों के बदले अपने जमीर को बेच चुके मीडिया और सोशल मीडिया के तथाकथित बुद्धिवादी बार-बार यह भी सवाल पूछते हैं कि आखिर माओवादियों के पास इतने आधुनिक हथियार आते कहां से हैं ? इसके जवाब में तो यही कहा जा सकता है कि भारत सरकार के ही ‘‘निरीह’’, ‘‘गरीब’’ और केवल ‘‘ड्यूटी पूरा करने वाला’’ जवानों को मारकर या छीनकर. अभी केवल इसी हमले की बात करें तो भारत सरकार जो अंबानी-अदानी की सेवा में रत है, के सिपाहियों को मारकर जिन हथियारों को अपने साथ ले गये हैं उसकी सूची इस प्रकार है: 12 एके 47 रायफलें (इनमें से पांच पर अंडर बैरल ग्रेनेड लाॅन्चर थे), एकेएम-4, इंसास लाइट मशीनगन-2, इंसास रायफलें-3, वायरलेस सेट-5, बाईनाॅकुलर-2, बुलेट प्रुफ जैकेट-22, डीएसएमडी- 1 (डीप सर्च मेटल डिटेक्टर), एके 47-59 मैगजीन, एकेएम-16 मैगजीन, इंसास एलएमजी-16 मैगजीन, इंसास रायफल-15 मैगजीन, गोली-बारूद, एके/एकेएम-2820 राउंड, इंसास-600 राउंड, यूपीजीएल-62 राउंड. ये एक छोटी-सी सूची है, जिसे सरकार ने माओवादियों को मुहैय्या किया है. इसका एक और अर्थ निश्चित रूप से यह है कि भारत सरकार जितना ज्यादा हिंसक और आधुनिक होगी, माओवादी भी उसी हिसाब से हिंसक और आधुनिक होगा. यह संभव नहीं है कि एक पक्ष हिंसा करे और दूसरा पक्ष हिंसा न करें. दोनों को ही हिंसा बन्द करने की मांग करनी चाहिए और यह पहल भारत सरकार को पहले करना होगा.

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

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