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अस्थाई गौशालाओं की स्थाई समस्या, कैसे हो समाधान ?

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अस्थाई गौशालाओं की स्थाई समस्या, कैसे हो समाधान ?

 Vinay Oswal विनय ओसवाल, वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक
 
अस्थाई गौशालाओं की यह स्थाई समस्या है. यानी अनुपयोगी गौ-वंश का संरक्षण घोर आर्थिक संकट के भंवर में फंस गया है. विश्व हिंदू परिषद से जुड़े संगठनों के पदाधिकारी आये दिन गौवंश के प्रति अपनी आस्था के ढोल पीटते हुए सड़कों पर सक्रिय  जरुर दिखते हैं. ढोंग से राजनैतिक लाभ तो उठाये जा सकते हैं, पर वास्तविक उद्देश्यों को हासिल नहीं किया जा सकता.

लावारिश गौ-वंश किसानों के लिए ही नहीं, उनलोगों के लिए भी बहुत बड़ा सिर दर्द बन चुका है, जो शहरों में रहते हैं, खास कर उन प्रदेशों में जिनमें गौ-वध पर प्रतिबंध है.

राजस्थान देश का एकमात्र राज्य था जहां गौ-कल्याण मंत्रालय है. और उसी राज्य में 2 वर्ष पूर्व गायों की दुर्दशा को लेकर इस कदर कोहराम मचा था कि हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से इस संबंध में रिपोर्ट तलब की थी. देश ही नहीं विदेशी मीडिया ने भी इस मुद्दे को जमकर उछाला था. हिंगोनिया गौ-पुनर्वास केंद्र जयपुर में भूख से तपड़कर गायों की मौत का मामला सामने आया था. चारा नहीं मिलने की वजह से 10 दिनों के भीतर हजारों गायों की मौत हो गई थी. जो स्टॉक में चारा था, वह पांच दिनों के भीतर खत्म हो गया. यहां करीब 23 छोटे बड़े बाड़े हैं, जिसमें रोजाना 100 गायों की मौत हो रही है. आम दिनों में 20 से 22 गायों की औसत मौत होती रही है.

यह तो मात्र एक गौशाला की स्थिति है जो राजस्थान की राजधानी में स्थित है, जिसे करोड़ों रुपये की आर्थिक मदद सरकार से मिलती है. ऐसी छोटी-बड़ी हजारों गौ-शालाओं के संचालक बताते हैं कि यह गौ-संरक्षण संस्थाएं युवाओं को रोजगार भी मोहैय्‍या कराती है. गौ-संरक्षण एक अनुत्पादक उद्योग बन चुका है, जो युवाओं की बेरोजगारी से सम्बन्धित आंकड़ों को राहत प्रदान करता है.




काश, उत्तर प्रदेश की गौ-भक्त सरकार भी गौ-वध पर प्रतिबंध लगाने से पूर्व ऐसे स्वयंसेवी संस्थाओं का जाल बिछाने और बजट में मोटी रकम देने के बाद गौ-वध पर प्रतिबंध लगाती, तो कम से कम गौ-सम्‍बर्धन में लगी संस्थाओं जिनमें विश्व हिंदू परिषद प्रमुख है, के गौ-संरक्षण और सम्‍बर्धन कार्यक्रमों से जुड़े बेरोजगार युवकों को रोजगार तो मिलता. वे खुलेआम गौ-शालाओं में गौवंश की मौतों की पुष्टि करते हुए सारी तोहमत अपनी ही सरकार के जिला प्रशासन के सर तो नहीं मढ़ते !  ऐसा ही एक मामला हाथरस जिले में स्थित एक अस्थायी गौशाला का सामने आया है. देखे नीचे रिपोर्ट –

पांच माह पूर्व कड़कड़ाती ठण्ड में जब सब अपने घरों में सुरक्षित चैन से सो रहे होते हैं, उन्होंने टाॅर्च हाथ में थाम और रजाई में दुबक कर जाने कितनी रातें घरों से बाहर खेतों में बिताई है. खून जमा देने वाली ठण्डी हवाओं के थपेडों से उपजी शारीरिक और जंगली जानवरों का शिकार बन जाने के खतरों के भय की मानसिक पीड़ा जिसने भोगी है, वही जानता है.

गौ-सेवा और संरक्षण की नीति और नियत का प्रतिनिधि मंच विश्व हिंदू परिषद है. वह इस हेतु विभिन्न नामों से पूरे देश में तरह-तरह के प्रकल्प और हर प्रकल्प तरह-तरह के कार्यक्रम समय-समय पर चलाता है. हाथरस जिले में भी इस मंच से जुड़े कई पदाधिकारी और गौ-भक्तों की बहुत बड़ी संख्या है.

किसानों का कहना है कि वर्तमान योगी जी की सरकार के आने से पूर्व वे अनुपयोगी गौ-वंश को बेच दिया करते थे, अब कोई खरीदता नहीं है. इसलिए अब अनुपयोगी गौ-वंश को लोग लावारिश छोड़ देते हैं. यही गौ-वंश अपने भोजन की तलाश में खेतों में खड़ी फसल को खाते और पेट भरते हैं. पर किसानों की समस्या है कि वे अपने और परिजनों के पेट कैसे भरें ?




योगी सरकार के आने के बाद गौ-भक्तों के सर पर किसान परिवारों और अनुपयोगी गौ-वंश दोनों के पेट भरने के साथ-साथ गौ-संरक्षण की समस्या से निपटने की समस्या सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ी है. योगी सरकार ने इस समस्या के समाधान हेतु गांव-गांव में अस्थाई गौशालाएं बनाने की योजना बनाकर उसको हर जिले में जमीन पर उतारने की जिम्मेदारी जिला प्रशासन के कंधों पर डाल दी. यही नहीं प्रति पशु प्रतिदिन अनुमानित खुराक पर होने वाले खर्च का आंकलन किया, जो 30 रुपया बताया गया है. व्यवस्था है कि इस धन का 70 प्रतिशत सरकार उठाएगी और 30 प्रतिशत स्थानीय ग्रामसभा स्तर पर गौ-भक्तों की सम्मितियां/सङ्गठन उठाएं.

इस 30 प्रतिशत धन को इकठ्ठा करना और इन गौ-शालाओं का प्रबंधन जिला पशुधन अधिकारी के साथ मिलकर करना गौ-भक्तों और उनके मातृ सङ्गठन विश्व हिंदू परिषद के लिए ऐसी चुनौती बन गया, जिसे वे न तो निभा पा रही हैं और न निभाने से पीछे ही हटती दिखना चाह रही है.

मैंने भूसे के व्यापारियों से भाव पता किया तो मालूम पड़ा कि भूसा 6 से 10 रुपये किलो है. यानी सरकार से मिलने वाले 21 रुपये से सिर्फ दो किलो भूसा ही खरीदा जा सकता है. एक पशु को जिंदा रहने के लिए, उसके वजन का 2.5 प्रतिशत यानी औसतन कम से कम पांच किलो भूसे (रफेज) के अतिरिक्त दाना जैसे दलिया, नमक, गुड़ आदि कंसन्ट्रेट भी चाहिए. चारा-दाना-पानी के अलावा देख रेख के लिए प्रति सौ गाय एक मजदूर भी चाहिए.  यानी इन सब व्यवस्थाओं की लागत के सामने सरकार से मिलने वाली राशि ऊंट के मुंह में जीरा के समान ही बैठती है.

कैसे हो इस धन का इंतजाम ? वो भी एक दो दिनों के लिए नहीं, अस्थाई गौशालाओं की यह स्थाई समस्या है. यानी अनुपयोगी गौ-वंश का संरक्षण घोर आर्थिक संकट के भंवर में फंस गया है.

इसी अप्रैल माह की 23 तारीख को जिलाधिकारी ने अपने कार्यालय में इन गौशालाओं की दुर्व्यवस्था की ओर ध्यान दिलाये जाने से सम्बंधित प्राप्त पत्रों पर संज्ञान लेते हुए सासनी स्थित वर्षों से बंद पडी पराग डेयरी के विशाल परिसर में बनी गौशाला का निरीक्षण जिम्मेदार अधिकारियों के साथ किया. कई अव्यवस्थाएं उनके सामने आई, जिन्हें उन्होंने तुरन्त दुरुस्त करने अथवा गम्भीर परिणाम भुगतने के कड़े निर्देश दिए. इसके बाद भी मुझे नहीं लगता कि गौ-भक्त समाज के बड़े सहयोग के बिना व्यवस्थाएं पटरी पर आ पाएंगी.




हाथरस में विश्व हिंदू परिषद से जुड़े गौ भक्त समाज के तमाम लोगों को फोन कर मैंने जिलाधिकारी द्वारा किये गए उक्त निरीक्षण के हवाला दे यह जानने का प्रयास किया कि अकेले पराग डेयरी में लगभग पांच माह पूर्व 2500 लावारिश पशुओं संख्या थी, जो घट कर मात्र 725 रह गयी है, के कारणों पर वे कुछ प्रकाश डालेंगे. लेकिन मुझे निराशा ही हाथ लगी. अलबत्ता कैलाश कूलवाल जी ने अपनी त्वरित प्रतिक्रिया दी, जो इस प्रकार है –

“हाथरस सासनी क्षेत्र में स्थित पराग डेरी पर अस्थाई गौशाला के अंदर वर्तमान में लगभग 725 गोवंश हैं परंतु पूर्व में लगभग 3000 गोवंश था. अन्य गोवंश को प्रशासन ने क्या बेच दिया, या तस्करी कर दी ? क्या मर गई या मार दी गई ? इसका क्या कारण रहा ? गोवंश की ऐसी दुर्दशा किसी भी शासन में नहीं देखी गई. प्रशासन मौन और उदासीन बन गया है. इसके पीछे बहुत बड़ा षड्यंत्र प्रतीत हो रहा है. हिंदुओं में गाय को गो-माता माना गया है, जिसे वे पूजा करते हैं. स्थानीय प्रशासन द्वारा ऐसा प्रतीत होता है कि प्रशासनिक अधिकारी गौवंश की सुरक्षा के लिए गंभीर नहीं हैं और गोवंश की रक्षा को लेकर लीपापोती की जा रही है. गतिविधि संदिग्ध लग रही हैं. उच्च स्तरीय जांच की जाए.”

उपरोक्त टिप्पणी जनसत्ता समाचार पत्र के लिए मैंने ली थी यानी सारांश यह है कि पांच माह पूर्व जिन हजारों लावारिश गौ-वंश को जिले के विभिन्न स्थानों पर सरकारी स्कूलों और दफ्तरों की इमारतों में गुस्साए किसानों ने बन्द किया था, वो गौ वंश आज किस हाल में है ? न किसी को इसका अता पता है और न ही विश्व हिंदू परिषद से जुड़े संगठनों के पदाधिकारी अपनी कोई जिम्मेदारी समझते हैं. वैसे आये दिन गौवंश के प्रति अपनी आस्था के ढोल पीटते हुए सड़कों पर सक्रिय  जरुर दिखते हैं. ढोंग से राजनैतिक लाभ तो उठाये जा सकते हैं, पर वास्तविक उद्देश्यों को हासिल नहीं किया जा सकता.

कैसे हो लावारिश गौ वंश का संरक्षण ? क्यों इन बे-जुबान पशुओं को भूख-प्यास  से तड़प-तड़प, तिल-तिल कर मरने के लिए उन्हें उनकी नियति पर छोड़ दिया गया है ? वगैरह-वगैरह कई प्रश्न जिनके जवाब आज विश्व हिंदू परिषद और बड़ी संख्या में मौजूद गौ-भक्तों से मिलने चाहिए, अगर नहीं मिलते तो कौन देगा ?




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