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भारत में क्यों असंभव है फ्रांस जैसी क्रांति ?

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दुनिया के अनेक देशों की तरह भारत में सशस्त्र विद्रोह का कोई लम्बा इतिहास नहीं है. राजाओं-महाराजाओं के निजी सनक के कारण हजारों-लाखों लोग मारे गये हैं, या दुर्दिन देखे हैं परन्तु, देश में शोषण-दमन के विरूद्ध शोषित-दमितों के द्वारा विद्रोह का कोई इतिहास नहीं है, और विद्रोह के जो भी प्रयास हुए हैं, वह क्षणिक ही रहा है या असफलता में खत्म हुआ है. संभवतः शोषित-दमितों के द्वारा विद्रोह का जो प्रयास किया गया है, वह अमर शहीद भगत सिंह के विचारों से शुरू हुआ है और कम्युनिस्ट आन्दोलन से लेकर नक्सलवादी-माओवादी के वक्त तक आया है. भारत में शोषितों-दमितों का विद्रोह क्यों नहीं हो सका, इसकी जांच-पड़ताल कंवल भारती अपने इस आलेख में कर रहे हैं. ]

भारत में क्यों असंभव है फ्रांस जैसी क्रांति ?

फ्रांस में बीते दिनों पेट्रोल-डीजल के दामों में वृद्धि के विरोध में जनविद्रोह हो गया. बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर आ गए. इस जनविद्रोह को फ्रांस के 70 प्रतिशत लोगों का समर्थन प्राप्त है. सरकार को जनशक्ति के आगे झुकना पड़ा और दामों में की गई वृद्धि वापिस ले ली गई. यह वहां की जनता की सचमुच बड़ी जीत है. फ्रांस में यह जीत इसलिए संभव हुई कि वहां हिन्दू-मुस्लिम का मुद्दा नहीं था. किन्तु भारत में ऐसी जीत संभव नहीं है. वह इसलिए कि यहां जो जनता है, वह हिन्दू-मुस्लिम में बंटी हुई है. उसे हम साम्प्रदायिक या जातीय जनता कह सकते हैं. शायद इसीलिए डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि भारत में राजनीतिक नहीं, साम्प्रदायिक बहुमत होता है. यह साम्प्रदायिक बहुमत हिन्दू-मुस्लिम या सवर्ण-दलित के रूप में हमेशा रहता है.

इसी वर्ष 2 अप्रैल, 2018 को एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ देश भर के दलित संगठनों का प्रतिरोध सड़कों पर था. सरकार झुकी, क्योंकि मामला राजनीति का था, नीयत का नहीं. सरकार ने दलितों के पक्ष में संशोधन विधेयक लाने की घोषणा करके दलित-प्रतिरोध को समाप्त किया, क्योंकि महज सवर्ण वोटों पर हिन्दू दल सत्ता में नहीं आ सकता था लेकिन उसके विरुद्ध सवर्ण संगठनों का आक्रोश भी उग्र हुआ और उनके नेताओं के द्वारा दलितों के खिलाफ इतना जहर उगला गया कि डॉ. आंबेडकर का कथन सही साबित हुआ कि ‘दलित और हिन्दू दो अलग-अलग राष्ट्र हैं, जो मिलते भी हैं, तो अजनबियों की तरह’ और जिनके बीच आज भी स्वाभाविक दोस्ती नहीं है.




भारत में क्रांति हुई, तो ब्राह्मणों का पतन तय

फ्रांस में वर्ण व्यवस्था नहीं है, इसीलिए वहां जनविद्रोह हुआ, और आगे भी हो सकता है. पर भारत में वर्ण व्यवस्था है, जो क्रांति की दुश्मन है. यह वर्ण व्यवस्था इतनी महान है कि स्वामी विवेकानंद तक ने इसे विश्व की सबसे श्रेष्ठ व्यवस्था कहा है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) भी इसे आदर्श व्यवस्था मानता है. इसलिए वर्ण व्यवस्था के मानने वाले लोग क्रांति के नाम से ऐसे डरते हैं, जैसे आंखों का रोगी प्रकाश से डरता है. इसलिए, वे अपने सारे संसाधनों से वर्ण व्यवस्था को, जो हर तरह से मर चुकी व्यवस्था है, कायम रखने के लिए दिन-रात एक किए रहते हैं. वह इसलिए, क्योंकि अगर भारत में क्रांति हो गई, तो सबसे ज्यादा पतन ब्राह्मणों का ही होगा. क्रांति का अर्थ है – समतावादी समाज का निर्माण; और यही सिद्धांत ब्राह्मणों के लिए जहर बुझा इंजेक्शन है. इसलिए वे कभी नहीं चाहेंगे कि ठाकुर, बनिया, शूद्र और अछूत सब उनके बराबर हो जाएं.




बाबा साहब ने जाति व्यवस्था को बताया था भारत का सबसे बड़ा दुर्भाग्य

डॉ. आंबेडकर कहते हैं कि यह भारत का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि यहां ब्राह्मण को बुद्धिजीवी घोषित कर दिया गया. ब्राह्मण और बुद्धिजीवी दोनों एक-दूसरे के पर्याय हो गए. ब्राह्मण को गुरु मान लिया गया और सारा देश उसके पीछे चलने लगा. जो राष्ट्र ब्राह्मण को गुरु मानकर उसके पीछे चल रहा है, वह गुरु के खिलाफ क्यों विद्रोह करेगा ? ब्रह्म-हत्या हो या ब्रह्म-विद्रोह, है तो पाप ! सरकारें भी ब्राह्मण को संतुष्ट रखती हैं, क्योंकि वही बुद्धिजीवी है, जो असंतुष्ट होने पर बागी हो सकता है. पुराणों में हम ब्राह्मणों के शाप के आतंक से राजा-महाराजाओं को पीपल के पत्ते की तरह कांपते हुए देखते हैं. सो वह आज भी सच है. इसलिए सारे विश्वविद्यालयों, सारी विधिक संस्थाओं, सारे वामपंथी-दक्षिणपंथी दलों और सारी योजनाओं को ब्राह्मण चला रहे हैं. उन्हें इतनी सुविधाएं, इतने विशेषाधिकार और इतने एशो-आराम प्राप्त हैं कि बगावत के बारे में सोच ही नहीं सकते. फिर क्रांति कैसे हो सकती है ?

अगर क्रांति हो गई, तो सबसे ज्यादा ब्राह्मण को ही खोना पड़ेगा, उसे अपने सारे विशेषाधिकारों और सारे एशो-आराम से हाथ धोना पड़ेगा. और यह वह किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहता. इसलिए वर्ण व्यवस्था उसका सबसे बड़ा सुरक्षा तन्त्र है. वह वर्ण व्यवस्था को किस तरह कायम रखे हुए हैं, यह भी बहुत दिलचस्प है. ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य स्वयं वर्ण-धर्म की सारी सीमाएं तोड़ चुके हैं, (अर्थात, सभी वे एक-दूसरे के वर्ण-कर्म को अपनाए हुए हैं). पर, तीनों मिलकर शूद्रों और दलितों को वर्ण-धर्म में जकड़कर रखने के लिए अपना सारा तन्त्र लगाए हुए हैं. वे इस बात से भयभीत हैं कि शूद्र-अछूत कहीं वर्ण-बंधन तोड़कर बराबरी का जीवन न जीने लगे. इसलिए यह मजेदार है कि द्विजों से ज्यादा दलित-पिछड़ी जातियां हिन्दूवाद से ग्रस्त हैं और बड़े गर्व से वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मणवाद को ढो रही हैं. मगर दिलचस्प यह है कि ये जितनी हिंदुत्ववादी हैं, उतनी ही जातिवादी भी हैं और इतनी उग्र हैं कि जब भी जाति-संघर्ष होता है, तो ये ही जातियां एक-दूसरे का खून बहाती हैं. यह देखकर धर्मगुरु और बुद्धिजीवी के आसन पर बैठा हुआ ब्राह्मण बहुत खुश होता है, क्योंकि इसी से उसकी वर्ण व्यवस्था सुरक्षित रहती है.




ब्राह्मण नहीं चाहता वर्ग संघर्ष

गौरतलब है कि भारत में ब्राह्मण जाति-संघर्ष चाहता है, वर्ग-संघर्ष नहीं, इसलिए यहां वर्ग-संघर्ष नहीं होता. ब्राह्मणवाद अगर डरता है, तो सिर्फ वर्ग-संघर्ष से डरता है; क्योंकि वर्ग-संघर्ष उसकी मौत का वारंट है. चूंकि, ब्राह्मणवाद की मौत अकेले नहीं होती है, उसके साथ पूंजीवाद भी मरता है, इसलिए ब्राह्मण और पूंजीपति दोनों मिलकर वर्ग-संघर्ष को रोकते हैं. यही कारण है कि भारत में कोई आन्दोलन सफल नहीं होता. यहां जाति के विरुद्ध जितने भी आन्दोलन हुए, कोई सफल नहीं हुआ. बुद्ध से लेकर कबीर और फुले से लेकर आंबेडकर तक कोई जाति को खत्म नहीं कर सका.

ऐसा नहीं है कि यहां वर्ग-संघर्ष नहीं होते; होते हैं, पर कामयाब नहीं होते. और इसलिए कामयाब नहीं होते, क्योंकि भारत की जनता में वर्ग बनते ही नहीं. भारत में बहुत-से किसान आन्दोलन हुए हैं. वे अपनी फसलें जलाकर, सड़कों पर दूध बहाकर और आत्महत्याएं करके भी कामयाब नहीं हो सके. इसका कारण यह है कि एक वर्ग नहीं बन सके. अभी कुछ ही दिन पहले किसानों का विशाल आन्दोलन हुआ था. क्या हासिल हुआ ? हर बार की तरह इस बार भी वे आश्वासन लेकर घर लौटे. घर जाकर वे फिर से हिन्दू-मुसलमान, सिख, दलित में बंट जाएंगे. राजनीतिक रूप से कांग्रेसी, भाजपाई और अपने-अपने क्षेत्रों की राजनीति में सिमट जाएंगे. वे थोड़े समय के लिए वर्ग बनते हैं, पर स्थाई रूप से जाति में ही रहते हैं.




सबसे बड़ा भाग्यवादी है गरीब और दलित-पिछड़ा वर्ग

जो लोग गाय और मन्दिर के नाम पर सड़कों पर आतंक मचाए घूम रहे हैं. उनमें अधिकाश गरीब घरों और दलित-पिछड़ी जातियों से आते हैं. भारत में समाजवादी क्रांति की सबसे ज्यादा जरूरत इसी वर्ग को है. पर यह धर्म के नशे में अपनी सारी सुध-बुध खो बैठा है. इसे न भूख लगती है, न इसे रोजी-रोटी के सवाल परेशान करते हैं. सबसे बड़ा भाग्यवादी यही वर्ग है. यही स्थिति मुसलमानों की है. उन्हें कभी भी अपने आर्थिक सवालों को लेकर धरना-प्रदर्शन करते हुए नहीं देखा गया. उन्हें जुल्म के खिलाफ भी सड़कों पर उतरते हुए नहीं देखा गया. पर वे अपने धर्मगुरुओं के आह्वान पर हजारों की संख्या में जरूर एकत्र हो जाते हैं. इसका कारण है कि इस्लाम में भी वर्ग-संघर्ष जायज नहीं है. उनके धर्मगुरु उन्हें यही शिक्षा देते हैं कि यह अल्लाह की मर्जी है कि वह किसे अमीर बनाता है, और किसे नहीं. वह यह भी कहता है कि असली जीवन परलोक में है. जैसे ब्राह्मणों का मायावाद है, वैसा ही मायावाद इस्लाम का है.

अतः कहना न होगा कि जिस देश में लोगों को गरीबी, भुखमरी, रोजी, स्वास्थ्य और शिक्षा के सवाल धर्म और जाति के सामने कोई महत्व न रखते हों, वहां किसी भी सामाजिक और आर्थिक क्रांति का होना मुश्किल ही नहीं, असंभव भी है.




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