रविश कुमार
कांग्रेस ने यही कहा है कि वह जम्मू कश्मीर में अफस्पा कानून की समीक्षा करेगी. सुरक्षा की ज़रूरतों और मानवाधिकार के संरक्षण में संतुलन के लिए कानून में बदलाव करेगी. कांग्रेस ने हटाने की बात नहीं की है फिर बीजेपी को क्यों लगता है कि कांग्रेस ने देश तोड़ने की बात कही है? सितंबर 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक का नेतृत्व करने वाले रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल डीएस हुड्डा ने हाल ही में कांग्रेस के लिए सुरक्षा पर एक दस्तावेज़ तैयार कर दिया है. जी एस हुड्डा के ही सुझाव कांग्रेस के घोषणा पत्र का हिस्सा बने हैं. क्या सर्जिकल स्ट्राइक करने वाले लेफ्टिनेंट जनरल साहब ऐसा सुझाव दे सकते हैं, जिससे देश के टुकड़े हो जाए? रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण और अरुण जेटली को क्यों लगता है कि कांग्रेस के समीक्षा करने से आतंकवादियों का मनोबल बढ़ेगा.
निर्मला सीतारमण ने जैसे ही अपने ही बात को आज ट्वीट किया, पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती ने उसी ट्वीट पर रि-ट्वीट कर दिया कि पीडीपी ने जो गठबंधन के लिए एजेंडा बनाया था, जिस पर बीजेपी के साथ गठबंधन हुआ, उसमें जम्मू कश्मीर से अफस्पा हटाने की बात कही गई थी. अगर इसका हटाना एंटी नेशनल है और सेना का मनोबल गिराता है तो बीजेपी ने अरुणाचल के तीन जगहों से क्यों हटाया? जब बीजेपी को सत्ता चाहिए था तब अफस्पा हटाने की बात ठीक थी, लेकिन जब कांग्रेस ने कहा तो देशद्रोह हो गया?
उमर अब्दुल्ला ने भी 2014 में अफस्पा हटाने के बीजेपी की रज़ामंदी को लेकर छपी खबर को ट्वीट किया था. 1 दिसंबर 2014 के लाइव मिंट में जम्मू कश्मीर बीजेपी के नेता रमेश अरोड़ा का बयान छपा है कि वादी में ऐसा माहौल बनाएंगे कि बिना किसी डर के और शांतिपूर्वक तरीके से सब काम होंगे और ऐसे सख्त नियम की ज़रूरत ही नहीं होगी, लेकिन 18 मार्च 2017 को राम माधव का बयान था कि यह कोई मज़ाक में लगाया गया कानून नहीं है कि इसे हटा दिया जाए. महबूबा मुफ्ती उस वक्त हटाने की बात कर रही थीं. वो देखना चाहती थीं कि देखा जाए कि हटाने से क्या असर पड़ता है.
मोदी सरकार के समय पूर्वोत्तर से अफस्पा हटाया गया है. 2015 में त्रिपुरा से हटाया गया. 2018 में मेघालय से भी हटा. अरुणाचल प्रदेश में भी इसे सीमित किया गया है. मगर जम्मू कश्मीर में इसे कभी नहीं हटाया गया. यहां बात जम्मू कश्मीर को लेकर हो रही है. 1958 में पूर्वोत्तर के राज्यों के लिए पारित किया गया. 1990 में जम्मू कश्मीर में लागू हुआ. इससे सेना और सशस्त्र बलों को अशांत इलाके में विशेष अधिकार मिल जाता है. इस प्रावधान से लैस सेना बिना वारंट के सर्च कर सकती है, गिरफ्तार कर सकती है, फायरिंग कर सकती है. आपको याद होगा कि इरोम शर्मिला ने इस कानून को मणिपुर से हटवाने के लिए सोलह साल अनशन किया था. कांग्रेस ने निर्मला सीतारमण के आरोपों का जवाब दिया है. सुशील महापात्रा ने इस सवाल पर वायुसेना के पूर्व एयर वाइस मार्शल कपिल काक से बात की है. कपिल काक कश्मीर के हैं और वार्ताकार भी हैं.
कपिल काक ने जीवन रेड्डी कमीशन का ज़िक्र किया है. 2004 में मणिपुर की थंगाजम मनोरमा का शव मिला था. उसे रात को उठाकर ले जाया गया और अगले दिन उसका शव मिलता है. गोलियों से छलनी. असम राइफल्स पर आरोप लगा था. इसी के खिलाफ 15 जुलाई 2004 को इंफाल में 14 माओं ने कांगला फोर्ट के बाहर ने निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन किया था. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस बीपी जीवन रेड्डी कमेटी बनी थी. इस कमेटी ने सुझाव दिया था कि अफस्पा को समाप्त कर देना चाहिए. यह कानून नफरत और भेदभाव का प्रतीक बन चुका है, लेकिन बीपी जीवन रेड्डी की कमेटी नॉर्थ ईस्ट के संदर्भ में बनी थी, तो एक पूर्व जज, सेना के पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल अगर अफस्पा को हटाने या समीक्षा की बात करते हैं तो यह देशविरोधी कैसे हो गया? देश को तोड़ने वाला कैसे हो गया? 14 नवंबर 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला दिया था.
मामला यह था कि सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई कि मणिपुर में 1980 से 2011 के बीच सेना, अर्धसैनिक बलों, मणिपुर पुलिस ने 1528 लोगों की एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल हत्या की है. इसकी जांच कराई जाए. सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश कर दिए. इस फैसले के खिलाफ जब 700 सेना के पूर्व अधिकारी मिलकर कोर्ट गए कि ऐसा नहीं होना चाहिए. सीबीआई जांच नहीं कर सकती और न ही एफआईआर हो सकती तो है सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका को रिजेक्ट कर दिया था. इस याचिका को केंद्र सरकार ने भी समर्थन दिया था. सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मदन बी लोकुर और जस्टिस यूयू ललित ने जो कहा था कि उन्हें सेना के मनोबल को लेकर राजनीति करने वालों को याद रखना चाहिए. दोनों माननीय जजों ने कहा था कि सेना, अर्धसैनिक बलों और राज्य पुलिस के मनोबल गिरने के भूत को खड़ा करना सही नहीं है.
क्या सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से देश टूट गया. सुप्रीम कोर्ट ने यही तो कहा कि बार बार मनोबल गिरने के प्रेत को लाना सही नहीं है. ज़ाहिर है मनोबल इतनी आसानी से नहीं गिरता है. जम्मू कश्मीर का मामला पेचीदा है. ऐसे कई लोग जो इस मामले को लेकर किसी भी बयान को लेकर दौड़ पड़ते हैं वो इंटरनेट पर एक खबर तक सर्च नहीं करते हैं. मगर कश्मीर पर राय ज़रूर रखते हैं. बताइये क्या ये देशद्रोह नहीं है. व्हाट्सऐप मैसेज आता है. व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी में कश्मीर का कोर्स कर रहे खलिहर लोगों यानी फालतू लोगों को मेरी एक राय है. ज़रूर कश्मीर विवाद पर राय रखें मगर थोड़ा पढ़ें. पढ़ने से ही पता चलेगा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मनोबल का भूत मत नचाओ. सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश दिए हैं. आपको याद होगा जम्मू कश्मीर में पत्थर बाज़ों का मामला चैनलों पर खूब चला.समस्या तो थी ही वो, लेकिन बाद में क्या हुआ. आपको याद दिलाते हैं. आप इंटरनेट पर इंडिया टुडे, आउटलुक, टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दू, स्क्रॉल, वायर में सर्च कीजिए. तारीख है 3 फरवरी 2018.
इस खबर में यही है कि ग़ृह मंत्रालय ने कुल 9,730 लोगों के खिलाफ मामले वापस लिए गए हैं. 1,745 के खिलाफ कुछ शर्तों के साथ केस वापस लिए गए हैं. यह जानकारी महबूबा मुफ्ती ने विधानसभा में लिखित जवाब में दिया था. उसी को अखबारों ने छापा है. जब सारे केस वापस लिए गए तब उन्हीं चैनलों पर आपने दिन-रात हंगामा देखा था. सरकार को ललकार देखी थी. तब तो महबूबा के साथ बीजेपी की ही सरकार जम्मू कश्मीर में थी. हिन्दुस्तान टाइम्स में 7 जून 2018 को गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि सरकार ने इसलिए मुकदमे वापस लिए हैं, क्योंकि युवाओं को बरगलाया जा सकता है. उनसे गलती हो जाती है. ख़बर में लिखा है कि राजनाथ सिंह ने शेरे कश्मीर इंडोर स्टेडियम में छह हज़ार युवाओं के सामने यह बात कही थी.
गृहमंत्री की यह बात एक ग़ृहमंत्री जैसा है. उत्तर भारत के व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी और न्यूज़ चैनल देखने वालों से पूछिए तो कहेंगे कि पत्थरबाज़ आतंकवादी है. न्यूज़ चैनलों ने पत्थरबाज़ों को लेकर खूब भड़काऊ कार्यक्रम किए, जिनमें आर-पार की बात होती थी. मगर जैसा कि राजनाथ सिंह को आपने सुना वो पत्तरबाज़ों के साथ आर-पार की बात नहीं कर रहे थे. उन्हें मौका दे रहे थे. बातचीत का रास्ता खोल रहे थे. अब कोई भी बिना पढ़े लिए ज्ञानी समझने वाले एंकर ऐलान कर सकता था कि गृहमंत्री ने सेना का मनोबल गिरा दिया, क्योंकि पत्थर तो सेना के खिलाफ चला था मगर 10,000 पत्थरबाज़ों से मुकदमा वापस ले लिया गया. किसी ने नहीं कहा कि मनोबल गिर गया. आज तक न्यूज़ चैनल के कार्यक्रम पंचायत में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि मैं यह विश्वास करने के लिए तैयार नहीं हूं कि पत्थरबाज़ आतंकवादी होते हैं. यूट्यूब पर आप यह इंटरव्यू सुन सकते हैं.
कश्मीर पर खूब पढ़िए. अच्छी बात है कि आप इसे लेकर राय रखना चाहते हैं मगर प्लीज़ न्यूज़ चैनल देखकर और हिन्दी अखबार पढ़कर कश्मीर पर कोई राय न बनाएं. उससे अच्छा है शाम को टहल आएं और गन्ना चबाएं इससे दांत साफ होंगे और मज़बूत भी. सेना के मनोबल को लेकर चिंता न करें. सेना का मनोबल इस बात से भी गिरता होगा, अगर गिरता है तो जब योगी आदित्यनाथ भारत की सेना को मोदी की सेना बता देते हैं. वैसे यकीन रखिए भारत की सेना का मनोबल कम से कम भारत के गिरते राजनीतिक स्तर से कभी नहीं गिरता है. नेताओं के खराब भाषण से तो बिल्कुल किसी सैनिक का मनोबल नहीं गिरता है. मनोबल वह बल नहीं है जो बोलने से गिर जाता है. यह मेरी थ्योरी है, लेकिन मुझे कोई नोबेल प्राइज़ नहीं देता है. कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र के पेज नंबर-35 पर लिखा है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए (जो कि देशद्रोह के अपराध को परिभाषित करती है) जिसका दुरुपयोग हुआ, बाद में नए कानून जाने से उसकी महत्ता भी समाप्त हो गई है, उसे खत्म किया जाएगा.
व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी के कई छात्रों ने आज यह सवाल पूछा कि क्या कांग्रेस देशद्रोह को बढ़ावा दे रही है, कानून को समाप्त कर दे रही है? इस कानून को समाप्त करने के लिए किताबें लिखी गईं हैं. गौतम भाटिया की अंग्रेज़ी में लिखी किताब है ऑफेंड, शॉक और डिस्टर्ब. 750 की है और आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से छपी है. इसमें सेडिशन यानी देशद्रोह के इस कानून को लेकर अच्छी जानकारी है. उसे पढ़ें. इस कानून का इस्तेमाल हमेशा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने के लिए किया जाता है. 1870 में अंग्रेज़ लाए थे ताकि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ असंतोष भड़काने या सरकार से प्रति काम करने वालों पर देशद्रोह का मुकदमा चलाकर कुचला जा सके. इसका इस्तेमाल उस समय के स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार, वकीलों के खिलाफ किया गया. आपको महान स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक का केस याद होगा. 1897 में ट्रायल चला था. गांधीजी पर भी देशद्रोह का मुकदमा चला. गौतम भाटिया ने अपनी किताब में इस कानून को लेकर संविधान सभा में हुई बहस, आज़ाद भारत में हाईकोर्ट के अलग-अलग फैसलों और सुप्रीम कोर्ट के अलग फैसलों का ज़िक्र किया है. 1995 में बलवंत सिंह बनाम पंजाब सरकार के केस का उदाहरण दिया है. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कुछ युवकों पर देशद्रोह का आरोप लगा कि वे खालिस्तान ज़िंदाबाद के नारे लगा रहे थे. कोर्ट ने इस बिनाह पर बरी कर दिया कि स्पीच से कोई फर्क नहीं पड़ता. नारे लगाने के नचीजे में कोई हिंसा नहीं हुई. कानून व्यवस्था नहीं बिगड़ी.
1860 में अंग्रेज़ों ने भारतीय दंड संहिता बनाई. इसमें देशद्रोह का मामला नहीं था. यह प्रावधान तब आया जब देवबंद के उलेमाओं ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ फतवा दे दिया कि आज़ादी की लड़ाई इस्लामिक फर्ज़ है तब उसे कुचलने के लिए देशद्रोह का कानून लाया गया. यह कानून आया ही देशभक्ति की भावना को कुचलने के लिए. इसके जाने से देशभक्ति की भावना को कैसे ठेस पहुंच सकती है. अगर आप व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी में टाइम बिताएंगे तो यह सब पता नहीं चलेगा.
देशद्रोह का यह प्रावधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और राजनीतिक विरोध के अधिकार को कुचलने में किया जाने लगा है. कार्टून बनाने पर असीम त्रिवेदी के खिलाफ देशद्रोह का आरोप लगा था. तब यूपीए की सरकार थी. यूपीए की सरकार में तमिलनाडु में न्यूक्लियर प्लांट के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे 27 लोगों के खिलाफ देशद्रोह का आरोप लगा. हाल ही में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों का रिपब्लिक टीवी के पत्रकार से विवाद हो गया तो पुलिस ने 14 छात्रों के खिलाफ देशद्रोह का आरोप लगा दिया. शिकायत भारतीय जनता युवा मोर्चा के ज़िला अध्यक्ष ने की थी कि कुछ छात्रप्रो पाकिस्तान नारे लगा रहे थे. मगर एसएसपी ने एक हफ्ते बाद यह बताया कि 19 फरवरी को सारे केस वापस ले लिए गए, क्योंकि छात्रों के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला. बेहतर है कि कांग्रेस अपनी पिछली गलतियों से सीख रही है.उसे ठीक कह रही है.
कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में एक और बात कही है जिसे लेकर न चर्चा है न विवाद है. कहा है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 499 में संशोधन करेंगे और मानहानि को दिवानी अपराध बनाएंगे. अब किसी को मानहानि के अपराध में जेल नहीं होगी. तो आपको जेल और बेल से छुटकारा मिल जाएगा. जीतेंगे तो मुआवज़ा मिलेगा. मेरी राय में इसमें मुआवज़े की भी राशि तय होनी चाहिए. संविधान के हिसाब से हम सब समान हैं तो हम सबका मान एक होना चाहिए. सवा रुपये की मानहानि से ज्यादा किसी की मानहानि नहीं होनी चाहिए. हम किसी कॉरपोरेट पर टिप्पणी कर दें तो मानहानि का केस कर देगा. कई हज़ार करोड़ का. यह ठीक नहीं होगा. कॉरपोरेट केस ज़रूर करे और जीत जाए तो सवा रुपये की मानहानि ले ले. हाथ का हाथ दे देंगे. चेक की जगह चवन्नी पकड़ा कर बाहर आ जाएंगे. आइडिया है कि नहीं ज़बरदस्त. वैसे 2011 से ही चरन्नी बंद हो गई है. चलिए दो रुपये की मानहानि कर लीजिए.
रविश कुमार के ब्लॉग से
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