‘अब तक जो भी दोस्त मिले बेवफा मिले’ पार्टियों और सरकारों के प्रति किसानों का यही नजरिया है. देश के 15 करोड़ किसान परिवार संपूर्ण कर्जा मुक्ति और लाभकारी मूल्य की गारंटी के किसान संगठनों द्वारा बनाए गए और 22 पार्टियों द्वारा समर्थित कानून को आगामी संसद में पारित कराने के लिए वोट देना चाहते हैं. चाहते हैं कि पार्टियां यह भी बताएं कि कृषि संकट के उबारने का उनके पास क्या रोड मैप है ? देश को अन्न सुरक्षा देने वाले किसानों और देश की सीमाओं को सुरक्षित रखने वाले किसानों के बच्चों-जवानों को सुरक्षित रखने का क्या इंतजाम है ?
किसान सभी फसलों, सब्जियों और फलों की समान मूल्य पर सरकारी खरीद की गारंटी के साथ-साथ न्यूनतम आय की गारंटी भी चाहते हैं क्योंकि 10 करोड़ किसान परिवारों का जीवन पूरी तरह असुरक्षित है. औसतन जमीन 1 एकड़ है. उसमें से 60% सिचिंत नहीं है. वैसे तो 2017 में किसानों की औसत आमदनी 8,931 रूपये कागजों में दिखलाई जाती है अर्थात औसतन 61 रूपये प्रति दिन. असल में यह उससे भी बहुत कम है.
मध्य प्रदेश में यह 7919 रूपये प्रति माह है. उत्तर प्रदेश में औसत आय 37 रूपये प्रति दिन झारखंड में 43 रूपये प्रति दिन है. 2012-13 में 12 प्रति‛ात आय 763 पशुपालन से होती थी, वह 2016-17 में घटकर 8% यानी 711 रूपये प्रति माह रह गई है. पांच करोड़ किसानों पर औसतन सवा तीन लाख का कर्ज है. परिणामस्वरूप 45 किसान देश में रोज आत्महत्या करने को मजबूर हैं अर्थात 15,000 किसान प्रति वर्ष जिनमें 15% महिला किसान है.
यह ऐतिहासिक चुनाव है किसानों के लिए
किसानों के लिए यह चुनाव ऐतिहासिक इसलिए भी हो गया है क्योंकि आजादी के 72 वर्षों के बाद पहली बार किसानों और किसानी का मुद्दा राजनीतिक एजेंडा में जगह बना पाया है. दरअसल, 2014 के चुनाव में स्वयं भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने लगभग ग्रामीण क्षेत्र की सभी चुनाव में किसानों को डेढ़ गुना दाम देने का वायदा किया था. वे तो वायदा करके भूल गए और उनकी केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एफिडेविट भी दे दिया कि डेढ़ गुना दाम देना संभव नहीं है.
किसानों के लिए उन्होंने पहले प्रधानमंत्री फसल बीमा की घोषणा कर उसे इतिहास की किसानों के लिए सबसे क्रांतिकारी योजना बताया. परंतु संसद में दिए गए जवाब से खुलासा हो गया कि 22,000 करोड़ का प्रीमियम वसूलने के बाद 8000 करोड़ रूपये ही किसानों को मिले, तब यह चर्चा चल निकली की योजना बीमा कंपनियों को लाभ देने के लिए बनाई गई है. तब सरकार आगे बढ़ गई. किसानों की आय दुगुना करने का लक्ष्य सरकार ने घोषित किया परंतु जल्दी ही खुलासा हो गया कि महंगाई के चलते किसानों की वास्तविक आय घट रही है, जबकि किसानों की आत्महत्या 52% बढ़ गई है. तब सरकार ने डेढ़ गुना दाम के मुद्दे को फिर उछाला.
बढ़ाए दाम पर्याप्त नहीं
गत वर्ष के बजट में बताया गया कि किसानों को स्वामीनाथन कमीशन की सिफारिशों के मुताबिक सी 2 से 50% अधिक दाम दिया जाएगा. कुछ दाम भी बढ़ाए गये परंतु किसान संगठनों ने मंडियों में खरीदी के दाम और समर्थन मूल्य के अंतर के आंकड़ों को मीडिया के सामने लाकर साबित कर दिया कि सरकार ने 46,000 करोड़ का जो कृषि बजट का प्रावधान किया है, उससे अधिक लगभग 50,000 करोड़ की लूट केवल 12 फसलों में ही की जा रही है. वास्तव में जो दाम घोषित किया जा रहा है, वह ए 2 से 50% अधिक है. केंद्र सरकार ने समर्थन मूल्य जरूर बढ़ाया परंतु वह सी से 50% के स्तर तक नहीं पहुंच सका.
गत पांच वर्षों में विधानसभा के लिए हुए चुनावों में लगभग सभी पार्टियों को कर्जा मुक्ति को अपने घोषणा पत्रों में शामिल करना पड़ा. उत्तर प्रदेश में भाजपा ने इसका इस्तेमाल कर और पंजाब में कांग्रेस ने कर्जा माफी का इस्तेमाल कर चुनाव जीत लिया. महाराष्ट्र में भी किसानों के आंदोलन के बाद 40,000 करोड़ की कर्जा माफी की घोषणा की गई. विधानसभा चुनाव नतीजों को देखते हुए कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में बड़ा दांव खेलते हुए 10 दिन में 2 लाख के कर्जा माफी की घोषणा कर तथा छत्तीसगढ़ में धान की खरीद का दाम केरल सरकार के बराबर 2400 रूपये प्रति क्विंटल देने अर्थात दुगुना करने की घोषणा कर चुनाव जीत लिया.
तेलंगाना में किसानों को रायतु बंधु योजना के तहत रबी और खरीफ फसलों पर 4000 रूपये एकड़ देने की केवल घोषणा ही नहीं कि गई, चुनाव भी जीत लिया गया पैसा दे भी दिया गया. ओड़िशा सरकार ने आगे बढ़कर कालियास योजना के अंतर्गत प्रति किसान परिवार को 25 हजार रूपये और खेतिहर मजदूर को साढ़े 12 हजार एकमुश्त देने की घोषणा कर किसानों का वोट बटोरने की येजना बनाई है, जो कारगर होती दिखलाई पड़ रही है. सच यह है कि पार्टियों की किसानों की कर्जा माफी की घोषणाओं का पार्टियों की चुनावी लाभ हुआ है परंतु किसानों को कुछ खास हासिल नहीं, कर्जा मुक्ति योजना अब तक शगूफेबाजी साबित होती रही है.
असल मुद्दा सुनिश्चित आय
असल मुद्दा किसानों की सुनिश्चित आय का है, कांग्रेस पार्टी ने इसको लेकर घोषणा की है पर कोई ठोस योजना पेश नहीं की. हो सकता है कि चुनाव घोषणा पत्र में करे. केंद्र सरकार ने 12 करोड़ किसानों को 6000 रूपये साल की सम्मान निधि देने की घोषणा की है. किसानों ने जब हिसाब निकाला तो पता चला कि किसान परिवार को प्रत्येक सदस्य को डेढ़ रूपये दिन से भी लाभ होने वाला नही है. किसानों ने पूरी योजना की खिल्ली उड़ा दी, चुनाव घोषणा के पहले केवल डेढ़ करोड़ किसानों को 2 हजार रूपये दिए गए. भारत की कुल कार्यशील आबादी में 55% खेतिहर मजदूर के तौर पर काम करता है, मनरेगा योजना के बजट में कटौती किए जाने और समय से मजदूरी नहीं मिलने के चलते उसकी स्थिति बद से बदतर हो गई है.
कांग्रेस ने मध्य प्रदेश सरकार बनाने के 10 दिन के भीतर 55 लाख किसानों को 2 लाख का कर्जा माफ करने की घोषणा पर अमल नहीं कर सकी. पहले 22 फरवरी फिर 3 मार्च की तारीखों की घोषण की गई. बाद में लोकसभा चुनाव की घोषणा होते साथ ही मुख्यमंत्री कमलनाथ द्वारा किसानों को संदेश भेज दिया गया कि आचार संहिता लगने के कारण उनका कर्ज माफ नहीं किया जा सका परंतु लोकसभा चुनाव के बाद कर दिया जाएगा.
मंदसौर में भाजपा सरकार के दौरान पुलिस गोलीचालन में 6 किसानों के शहीद होने के बाद राज्य सरकार ने किसानों को खुश करने के लिए भावांतर योजना लागू की. केंद्र सरकार ने भी इस योजना का अनुसरण करते हुए देश भर में किसानों के लिए इसकी घोषणा कर दी परंतु मध्य प्रदेश में भावांतर योजना फ्लॉप हो जाने और मध्य प्रदेश में हार जाने के बाद कांग्रेस की नई सरकार ने भावांतर योजना को न तो बंद करने की घोषणा की और न ही किसानों को भावांतर का भुगतान ही किया. कांग्रेस सरकार ने तो हद ही कर दी. मंदसौर में पुलिस गोलीचालन को जायज ठहरा दिया. राज्य के गृहमंत्री ने विधानसभा में कहा कि पुलिस ने आत्मरक्षा में गोली चलाई. पाला पीड़ित किसानों को भी समय पर मुआवजा नहीं मिल सका. इन परिस्थितियों के चलते स्थिति भ्रामक बन गई है.
सरकारें करती हैं वादा-खिलाफी
किसानों को सरकारें वादा-खिलाफी करती दिख रही है, किसानों में आक्रोश है, नाराजगी है. सरकारों को इसका नुकसान उठाना ही पड़ेगा. किस पर भरोसा करें और किस पर न करें यह भ्रम की स्थिति बनी हुई है. इस कारण अलग प्रदेश के किसान अपने अपने अनुभवों के आधार पर वोट करेंगे. किसानों के लिए सबसे बड़ा संकट जमीनों के अधिग्रहण का है.
किसानों के बीच केंद्र सरकार के खिलाफ इस बात का गुस्सा है कि उसने 2014 में सरकार बनने के साथ ही भू-अधिग्रहण कानून को 3 बार अध्यादेश लाकर बदलने की असफल कोशिश की. केंद्र स्तर पर राज्य सभा में बहुमत न होने के कारण नहीं बदल पाये तो अपनी राज्य सरकारों से कानून को बदलवा दिया गया, जिसके चलते भू-अधिग्रहण के खिलाफ संघर्ष तेज हो गया है. इसका परिणाम भी सरकारी पार्टियों को भुगतना पड़ेगा.
इस स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय के 1 करोड़ आदिवासियों को वन अधिकार कानून के तहत पट्टे के आवेदन निरस्त होने के कारण जंगल से खदेड़ने के आदेश के कारण आदिवासी किसानों में जबरदस्त आक्रोश पैदा हुआ है.
हालांकि, नाजुक स्थिति को समझते हुए डैमेज कन्ट्रोल करने की मंशा से सरकार ने अध्यादेश लाकर स्थिति को संभालने की कोशिश की है. परंतु संदेश चला गया है कि जिस तरह सरकार ने आते ही किसानों की जमीनें कॉरपोरेट को सौंपने का षड्यंत्र किया था, उसी तरह सरकार जंगल कॉरपोरेट को सौंपने के षड्यंत्र में लगी है.
सरकार द्वारा किसानों के कृषि यंत्रों पर 18% जीएसटी लगाने और नोटबंदी कर किसानों की कमर तोड़ने के प्रयास के चलते भी आक्रोश व्याप्त है. उम्मीद की जानी चाहिए कि पार्टियों की घोषणाएं केवल सब्जबाग साबित नहीं होगीं. जैसा अबतक होती रही है. होगी तो किसान संघर्ष करेंगे, लड़ेंगे, जीतेंगे.
- डॉ. सुनीलम, किसान नेता
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