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राम मंदिर से शुरू होकर वाया पुलवामा पाकिस्तान के बालकोट तक

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राम मंदिर से शुरू होकर वाया पुलवामा पाकिस्तान के बालकोट तक

Vinay Oswalविनय ओसवाल, वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक
एक ऐसा जन समूह जिसका पूरी तरह ब्रेन वाश कर राजनैतिक उद्देश्यों को साधने के लिए बंधुआ मजदूर की तरह इस्तेमाल किया जा सके, के सुपुर्द बस दो ही कार्य है पहला, दिनभर टेलीविजनों के चैनलों पर चलने वाले पार्टी प्रायोजित बहसों में उपस्थित रहने से लेकर सोशल मीडिया तक सत्ताधारी पार्टी विरोधियों को राष्ट्रविरोधी बता टूट पड़ना या फिर जो यह काम नहीं कर सकते, उन्हें कमांडर के निर्देश पर ढोल-नगाड़ों के साथ सड़कों पर उमड़ने-घुमड़ने में लगा दिया जाता है.

इस देश में कुछ दिनों पहले ही अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण के लिए सरकार से संसद में संविधान संशोधन प्रस्ताव लाने को घेरने के उद्देश्य से राम मंदिर भक्तों को सड़कों पर सैलाब के रूप में उमड़ते देखा गया था. उसके बाद हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में क्लीनबोल्ड हो जाना महत्वपूर्ण सन्दर्भ हैं. इसके बाद प्रदेश के उच्च न्यायालय की भूमि से कुम्भ मेले में आयोजित विश्व हिंदू परिषद के सन्तों की धर्म संसद में कम से कम छः माह तक राम मंदिर मुद्दे की मांग को ठंडे बस्ते के हवाले कर राम नाम का संकीर्तन करते रहने को कहा गया.

मात्र कुछ दिनों के अंतराल में दो परस्पर विरोधी दिशाओं में चलने-एक दिशा में राम मंदिर निर्माण तो उसके विपरीत मन्दिर निर्माण की मांग को ठंडे बस्ते के हवाले करने का निर्णय, इस तरह अमल में आ गये मानों निर्देश देने वाला सेना का कमाण्डर हो और पालन करने वाले फौज के जवान. बिना किसी चूं-चपड़ के निर्देश का पालन हुआ.

क्या छः माह तक राम नाम का संकीर्तन करने का निर्देश देने वालों को इस बात की भनक लग चुकी थी कि जिस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हुक्म के साथ कदमताल करने की ट्रेनिंग उन्होंने अपने राजनैतिक जवानों को दी है, वो उद्देश्य “राम नाम जपने“ से नहीं “पाकिस्तान नाम जपने“ से ही पूरा होगा ? एक माह के भीतर ही पुलवामा हो गया. बालकोट हो गया.

देश की जिन सड़कों पर पर कभी राम मन्दिर निर्माण को लेकर जन सैलाब उमड़ा करता था, उन्हीं सड़कों पर अब पाकिस्तान का मुंह तोड़ने के मांग को लेकर जन सैलाब उमड़ने लगा. दोनों ही मांग करने वाले चेहरे और उनके लिवास एक ही राष्ट्रवादी रंग में रंगे हुए हैं.

अचंभित करता है बदलते लक्ष्य के साथ एक खास जन समूह का सड़कों पर उतर कर कदमताल करने लगना. इस खास समूह को देश का जनमानस कह कर सम्बोधित किया जाता है. एक लक्ष्यविहीन मुद्दों से विहीन इन राजनैतिक सैनिकों का मुखिया के निर्देश पर सेना के जवानों की तरह बताये गए दुश्मन जैसे कांग्रेसी, वामपंथी, नक्सलाइट, माओवादी, शहरी नक्सलाइट, शहरी माओवादी और कुछ नहीं तो मोदी विरोधी यानी देशद्रोही बता कर टूट पड़ना या निर्देशित मांग को लेकर सड़कों पर उमड़ने लगना, तरह-तरह के प्रश्न तो खड़े करता है.

एक ऐसा जन समूह जिसका पूरी तरह ब्रेन वाश कर राजनैतिक उद्देश्यों को साधने के लिए बंधुआ मजदूर की तरह इस्तेमाल किया जा सके, के सुपुर्द बस दो ही कार्य है पहला, दिनभर टेलीविजनों के चैनलों पर चलने वाले पार्टी प्रायोजित बहसों में उपस्थित रहने से लेकर सोशल मीडिया तक सत्ताधारी पार्टी विरोधियों को राष्ट्रविरोधी बता टूट पड़ना या फिर जो यह काम नहीं कर सकते, उन्हें कमांडर के निर्देश पर ढोल-नगाड़ों के साथ सड़कों पर उमड़ने-घुमड़ने में लगा दिया जाता है.




इस समूह को यह अपमानजनक नहीं लगता क्योंकि वह ऐसा करते हुए खुद को देशभक्त समझता है, राष्ट्रवादी कमांडरों का बंधुआ मजदूर नहीं. परन्तु देशभक्ति कैसे दिखानी है, कब क्या करना है, कब किन मोहल्लों से तिरंगा यात्रा निकालनी है, कब अखलाख़ को और कब सुबोध कुमार को ठिकाने लगाना है, यह निर्देश तो कमांडर ही देता है.

इन पांच वर्षों में देश के नागरिक समाज को तोड़ कर बड़ी चालाकी से खण्ड-खण्ड कर दिया गया है. परन्तु इसी दौरान एक खास वर्ग को संगठित भी किया गया है. जिसके ढोल पर पड़ने वाली हल्की-सी थाप भी खण्डहर परन्तु शमशान की तरह खामोश बना दिए गए समाज में गगनचुम्बी प्रतीत होती है.  खण्ड-खण्ड समाज में आज देश का ही कोई बिस्मिल, अशफाक को ही शक भारी नजरों से देखने लगा है. यही नहीं बिस्मिल अब अब्दुल, और बरकतुल्लाह आदि पर भी शक करने लगे हैं तो भगतसिंह, राजगुरु पर.

सत्ता की कुर्सियों पर जमे रहने के लिए किस हद तक गिर सकते हैं, ये राष्ट्रवादी कमांडर. यह इसकी महज एक अति संक्षिप्त दास्तान भर है. ऐसी दास्तान जो राम मंदिर से शुरू होकर वाया पुलवामा पाकिस्तान के बालकोट तक जाती है.

(धर्म संसद 28 जनवरी से 30 जनवरी, पुलवामा 14 फरवरी, बालकोट 26 फरवरी. सभी इसी वर्ष)

सम्पर्क नं. +91  7017339966




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