प्रभात कुमार, सामाजिक कार्यकर्त्ता
मेरे इस आलेख का उदेश्य सिर्फ लोगों को उन्मादी होने के वजाय संयमित रहकर पड़ताल करने की सलाह देना भर है. वरना अपने शहीद जवानों के लिए सोशल मीडिया पर दहाड़ रहे बांकुरों से कम गम-ओ-गुस्सा मुझे नहीं है. बदला मैं भी चाहता हूं, पर इसके असली गुनाहगारों से !!
14 फ़रवरी को पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर हुए हमले के बाद पूरा देश हतप्रभ-गमजदा होने के साथ ही गुस्से से उबल रहा है. हर तरफ से पाकिस्तान पर हमले की मांग उठ रही है. अचानक से हम देशभक्त से राष्ट्रवादी हो गए हैं. ऐसा पहली बार नहीं है. जब भी ऐसे हमले हुए हैं, देश इसी मानसिक दशा से गुजरा है. यह लाजिमी भी है क्योंकि हम न सिर्फ अपने देश से प्यार करते हैं बल्कि इन घटनाओं में हताहत होने वाले अधिकांश लोग आम परिवेश के होते हैं, जो हमें अपने करीबी या सगे से लगते हैं. कुछ दिनों के बाद धीरे-धीरे सबकुछ सामान्य होने लगता है, जैसे हम अपने सगों को खोने के बाद भी हो जाते हैं लेकिन देशहित के इन मामलों में यही सामान्य हो जाना खतरनाक है क्योंकि इस बीच कई लोग हमारी आहत भावनाओं का सौदा कर अपना मतलब साध चुके होते हैं. गम और गुस्से के इसी माहौल में हमें इसके राजनीतिक परिपेक्ष्य की पड़ताल जरूर करनी चाहिए.
मेरा ये अनुभव है कि देश की संप्रभुता को चुनौती देने वाले इस तरह के बड़े आतंकी हमले जैसे कारगिल, संसद भवन, मुम्बई, उरी, पठानकोट और अब ये पुलवामा तभी हुए हैं जब देश की सरकार राजनीतिक संकट में घिरी रही है या चुनाव करीब रहे हैं. क्या यह महज संयोग है या ऐसे वक्त में दुश्मन सरकार को कमजोर समझ लेता है, या फिर इसमें कोई बड़ी साजिश होती है, इसकी पड़ताल इसलिए आवश्यक है क्योंकि जब हमारी देशभक्ति राष्ट्रवाद का रूप लेने लगे, तब हमें सचेत हो जाना चाहिए कि हमें उकसाया जा रहा है (देशभक्ति राष्ट्रप्रेम है जबकि राष्ट्रवाद दूसरी राष्ट्रीयताओं से घृणा). उकसावे से हम अपना धैर्य खोकर उन्मादी हो जाते हैं. ऐसे में हम सही फैसले लेने की क्षमता खो देते हैं.
आज भी देश की सरकार अपने नकारेपन और भ्रष्टाचार के कई मामलों में घिरी है, जिसमें राफेल मुद्दा गंभीर है. पूरे देश की निगाहें इस तरफ लगी हैं. प्रधानमंत्री भ्रष्ट्राचार पर गढ़े अपनी ही कसौटी में फंसे हैं, साथ ही आम चुनाव सर पे है. ऐसे वक्त पर हुये आतंकी हमले से लोगों का ध्यान सरकार से हटकर एकाएक देशभक्ति पर लग गई है और इस परिवर्तन में भाजयुमो, एबीवीपी, बजरंग दल जैसे भाजपाई संगठन इनकी जिस प्रकार से मदद कर रहे हैं, यह कई सवाल खड़े करता है.
पठानकोट हमले के वक्त भी यूपी समेत कई राज्यों में असेम्बली के चुनाव होने थे. इस तरह इसे संयोग नहीं कह सकते. यह कोई बहुत बड़ी मिलीभगत है. इस बार भी सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कोई झूठी कहानी गढ़ी जाएगी ताकि देश में उपजे जनूनी राष्ट्रवाद को ठंढक मिल सके और भाजपा को आने वाले चुनाव में वोट. अगर सच में ऐसा है तो यह गद्दारी है देश के साथ, देश के जवानों की शहादत के साथ.
मेरे इस आलेख का उदेश्य सिर्फ लोगों को उन्मादी होने के वजाय संयमित रहकर पड़ताल करने की सलाह देना भर है. वरना अपने शहीद जवानों के लिए सोशल मीडिया पर दहाड़ रहे बांकुरों से कम गम-ओ-गुस्सा मुझे नहीं है. बदला मैं भी चाहता हूं, पर इसके असली गुनाहगारों से !!
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