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पुलवामा : घात-प्रतिघात में जा रही इंसानी जानें

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पुलवामा : घात-प्रतिघात में जा रही इंसानी जानें

पुलवामा में 44 जवानों की हत्या और इतने ही घायल हुए सीआरपीएफ के जवानों पर अपने पोस्ट में मनोज भूषण सिंह टिप्पणी करते हुए लिखते हैं :

“वे लड़ क्यों रहे हैं – पता नहीं !
“वे हमें क्यों मार रहे हैं – पता नहीं !!
“हम क्यों मार रहे हैं – क्योंकि वे हमें मारते हैं !!!
“तुम्हारे और उनके बीच द्वंद क्यों है !!!!
“सबसे पहले इसका समाधान तालाश करो,
“समस्या जो दीखती है, हल हो जाएगा.”





पुलवामा में घात-प्रतिघात में जा रही इंसानी जानों की कीमतें मिट्टी में मिल जा रही है, चाहे वह तथाकथित आतंकवादियों के हाथों मारे जा रहे सुरक्षाकर्मियों के जवान हों अथवा सुरक्षाकर्मियों के हाथों मारे जा रहे कश्मीर के तथाकथित आतंकवादी या कश्मीरी जनता हो. ऐसा नहीं है कि सुरक्षाकर्मियों के हाथों या तथाकथित आतंकवादियों के हाथों केवल कश्मीर में ही जानें जा रही है, यह पूरे देश में हो रहा है. चाहे वह छत्तीसगढ़ का आदिवासी इलाका हो, या बिहार, झारखण्ड, असम, महाराष्ट्र, आंध्र आदि हो. इंसानी जान की कीमत बेशकीमती होती है, यह बात सत्ता को नहीं पता है, इसीलिए वह गरीबों के जान से आये दिन खेल रही है. इस देश में इंसानी जान की कीमत केवल उसके औकात से लगाई जाती है. अदानी-अंबानी के जान की कीमत बहुत होती है, वहीं देश के गरीब-पिछड़ों-आदिवासियों के जान की कीमत तुच्छ होती है. यह जानें चाहे सुरक्षाकर्मियों की होती हो या सुरक्षाकर्मियों के हाथों मारे जा रहे निरीह आम जनता की. इस देश में आम आदमी के जान की कीमत सत्ता अपनी मर्जी से तय करती है, और मुर्गें लड़ाती है, पर जानें हमेशा गरीब तबकों की ही जाती है, यह जानें चाहे गालियों से हो या खानों में डूब कर मरने वाले मजदूरों की.

पुलवामा में 44 सुरक्षाकर्मियों के मारे जाने हमले के तुरंत बाद राजनेताओं, अधिकारियों और लोगों ने इसकी निंदा की जिसमें प्रतिशोध की मांग के स्वर भी सुनाई दे रहे थे. केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली और जनरल वी.के. सिंह ने इस हमले का बदला लेने की हिमायत की और कहा कि “आतंकवादियों को ऐसा सबक सिखाया जाए जिसे वे कभी न भूलें.” सत्ता में बैठे लोगों की ओर से ऐसी टिप्पणियां कश्मीर को लेकर ग़लत समझ और दोषपूर्ण उपाय सुझाने की प्रवृति को दिखाती हैं. इन टिप्पणियों से सरकार की ‘सैनिकों की वीरता’ का महिमामंडन करके अपनी ज़िम्मेदारी से भागने की प्रवृति भी पता चलती है.




अगर सीमा पर लड़ने और उपद्रवियों से संघर्ष करने की ज़िम्मेदारी सैनिकों की है तो राजनीतिक शक्ति की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वह ऐसा माहौल बनाने की कोशिश करे, जहां इस तरह की हिंसक परिस्थिति पैदा होने से टाली जा सके. साफ़ है, ज़मीन पर उठाए जा रहे क़दमों से न तो ज़िम्मेदारी भरी भूमिका का प्रदर्शन हो रहा है और न ही व्यावहारिकता का. तुरंत दी गई प्रतिक्रिया शांति स्थापित होने की गारंटी नहीं देती. इस तरह की प्रतिक्रियाएं सिर्फ़ और ख़ून-ख़राबे को प्रोत्साहित ही कर सकती हैं जो घाटी और भारत दोनों के लिए नुक़सानदेह होगा. इसके बजाय भारत सरकार को महत्वपूर्ण सवाल पूछने चाहिए कि हिंसा की सनक क्यों सैनिकों, सशस्त्र प्रभावशाली समूहों के सदस्यों और नागरिकों की जान ले रही है ? क्यों यह सिलसिला घाटी में चल रहा है ? साथ ही यह विचार भी करना चाहिए कि इन हालात से कैसे निपटा जा सकता है. [1]



अंग्रेजी की एक पत्रिका ‘स्पार्क’ के अपने एक आलेख में लिखता है : 15 दिसम्बर, 2018 को भारतीय फौज ने कश्मीर के पुलवामा जिले में 3 आतंकवादियों की तलाश में एक अभियान चलाया. उस दिन रात के अंधेरे में अपने घर के बिल्कुल पास फौजी वाहनों के गुजरने की आवाज पुलवामा के सिरनु गांव के बढ़ई मिस्त्री मोहम्मद युसुफ ने सुनी भी थी. तब बगल में ही 12वीं क्लास का छात्र उनका लड़का शहनवाज अहमद सोया पड़ा था. दूसरे दिन की सुबह पिता-पुत्र के एक साथ बैठ कर चाय-नाश्ता करने के 20 मिनट बाद जब लड़का रास्ते के किनारे के झरने से एक बाल्टी पानी लेकर घर आ रहा था, तभी वह भारतीय फौज की गोली से मारा गया. उस समय सेना तीन आतंकियों और अपने एक अफसर की मौत के बाद युद्धक्षेत्र से जब लौट रही थी, तभी उसने अपनी गाड़ी में बैठे-बैठे ही गोली चलायी, जिससे शहनवाज मारा गया. पिता मोहम्मद युसुफ अपनी खुली आंखों से ताजे खून के फब्बारे फेंकते अपने बच्चे के शरीर को असहाय होकर मरते देखते रहे.

उसी दिन सुबह और भी 7 आम ग्रामीण मारे गये, जिसमें दो नाबालिग थे. मरे हुए ग्रामीणों में से हरेक पर भारतीय सैनिकों ने कमर के ऊपर गोली चलायी थी और वह भी युद्धक्षेत्र से काफी दूर. गोलियों से क्षत-विक्षत अनगिनत ग्रामीणों को पुलवामा जिला अस्पताल में ले जाया गया. परिस्थिति इतनी बुरी थी कि अस्पताल के अधिकारी जनता से रक्तदान की अपील करने को बाध्य हुए. [2]



1947 ई. से लेकर आज तक भी कश्मीर समस्या हल नहीं हुई है. आज के इस जन-आंदोलन का अधिकांश पहले जनमत संग्रह की मांग पर आधारित शांतिपूर्ण आंदोलन था. सिर्फ 1980 ई. के दशक के अंत में जनता ने अपनी आवाज को पहुंचाने के लिए हिंसात्मक तौर-तरीकों का सहारा लिया. [3] एक-पर-एक सरकारें आई, पर वे एक राजनीतिक हल खोजने के बजाय आंदोलन की प्रतिक्रिया में कश्मीर की आम जनता पर नृशंस उत्पीड़न लादती रही. गायब कर दिया जाना, घायल हो जाना, फर्जी मुठभेड़ों में मारा जाना, पुलिस लॉक-अप में हत्या, बलात्कार आदि आम कश्मीरी जनता के रोजमर्रा के जीवन के अंग बन गये.

कश्मीर दुनिया के सर्वाधिक सैन्यीकृत क्षेत्रों में से एक है. आंकड़े बताते हैं यहां हर 18 नागरिक पर एक सैनिक तैनात है. [4,5] यहां हजारों-हजार कश्मीरी नागरिक भारतीय सुरक्षा बलों के हाथों पुलिस हाजत में बिना सोचे-विचारे मार डाले गये हैं या उन्हें लापता कर दिया गया है. [6] इनमें ढ़ेर सारी महिलाएं और बच्चे भी हैं. 1991 में कुनान के पोशपोरा गांव में भारतीय फौज ने खर्च ऑपरेशन चलाया. एक रात में ही सैनिकों ने गांव की तकरीबन सभी उम्र की महिलाओं के साथ नृशंसतापूर्वक बलात्कार किया. ह्यूमन राईट्स वॉच के अनुसार बलात्कार की शिकार बनी महिलाओं की संख्या 100 से भी ज्यादा हो सकती थी. एमनेस्टी इंटरनेशनल के एक आंकड़े के मुताबिक 1993 में बिजनेहड़ा में बीएसएफ ने अंधाधुंध गोलियों चलाकर 51 लोगों को मार डाला और 200 के करीब घायल हुए. कुपवाड़ा, हन्दवाड़ा, सोपोरर, गावाकड़ाल की ही कुछ घटनाएं ऐसी थीं, जिन्हें संवाद-माध्यमों ने उजागर किया है, पर कश्मीरी आवाम पर नृशंस-उत्पीड़न के ऐसे अनगिनत उदाहरण अब भी मौजूद हैं. नागरिकों के साथ इतने बड़े पैमाने पर अपराधों को अंजाम देने के वाबजूद किसी को भी कोई सजा नहीं हुई है, पर यह कोई ताज्जुब की बात नहीं है.




जिन सुरक्षा बलों ने ये अपराध किये हैं, उनके हाथों में सबसे कारगर हथियार है-आर्म्ड फोर्सेंज स्पेशल पावर्स एक्ट (आफ्सपा) सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून- इस कानून के तहत वैसे सारे इंतजामात किये गये हैं, जिससे कि अपराधियों को किसी भी प्रकार का दंड नहीं भोगना पड़े. इस कानून की जड़ें औपनिवेशिक काल के आर्म्ड फोर्सेज (स्पेशल पावर्स) ऑर्डिनेंस-1942, सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम-1942 में मिल जायेंगी. इस कानून में भी आम नागरिक इलाकों में फौजों की उपस्थिति और उनके क्रियाकलापों को वैधता प्रदान की गयी है. छूट यहां तक है कि सुरक्षा बल नागरिकों पर गोलियां तक चला सकते हैं, अत्यधिक मात्रा में ताकत का इस्तेमाल कर सकते हैं, बिना किसी वारंट के किसी को गिरफ्तार कर सकते हैं, बिना कहीं से अनुमति के किसी भी घर में घुस सकते हैं या तलाशी ले सकते हैं, आदि-आदि. नागरिकगण यदि इस मामले में न्याय की मांग करते हैं तो इस पूरी प्रक्रिया में फौज को कभी भी और कहीं भी जवाबदेही नहीं करनी पड़ेगी.

रास्ते में कहीं पांच अथवा पांच से ज्यादा लोग जमा नहीं होने चाहिए, जैसे निर्देंशों का उल्लंघन कर कहीं लोग जमा होते हैं तो इस कानून के तहत सुरक्षा बलों को वैसे नागरिकों पर जानलेवा हमला करने की अनुमति भी दी हुई है. यदि किसी सुरक्षा सैनिक ने हत्या व बलात्कार जैसे घिनौने अपराध भी किये हों, तब भी इस कानून के मुताबिक भारत सरकार की अनुमति बगैर उसे सजा नहीं दी जा सकेगी. कश्मीर में यह कानून 28 वर्षों से लागू है. इस पूरे दौर में सुरक्षा बलों को सजा देने की मांग करते हुए उनके अपराध से सम्बन्धित ले-देकर मात्र 50 आवेदन किसी तरह अभी तक भारत सरकार के पहुंचे हैं. पर इनमें से एक के लिए भी सरकार की ओर से सजा दिलाने की अनुमति नहीं दी गई है (यह तथ्य 2018 की 1 जनवरी को राज्य सभा में केन्द्रीय रक्षा मंत्रालय की ओर से प्रस्तुत किया गया था).




कश्मीर की हाल की घटनाओं पर 2018 की जून में संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है. इस रिपोर्ट में यह बताते हुए कि भारतीय सुरक्षा बल कश्मीर की जनता के खिलाफ भारी मात्रा में बल प्रयोग कर रहे हैं, उनकी कड़ी आलोचना की गई है. इस रिपोर्ट के मुताबिक इसके पहले के दो वर्षों के दौरान करीब 130 से 145 आम नागरिक सुरक्षा बलों के हाथों मारे गये हैं. इसी अवधि में आतंकवादियों के हाथों मारे गये नागरिकों की संख्या 16 से 20 के बीच है.

राज्य की विधान सभा में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री ने आंकड़े दिये कि 2016 की 6 जुलाई से 2017 की 27 फरवरी के बीच सुरक्षा बलों द्वारा पैलेट (रबर की गोलियां जैसी घातु की गोलियां) फायरिंग में 6,221 लोग जख्मी हुए हैं, जिनमें 728 लोगों की आंखें घायल हुई है. इसके अलावा रिपोर्ट में जबरदस्ती उठाकर गायब कर देने, पुलिस हाजत में उत्पीड़न, यौन-उत्पीड़न, फर्जी मुठभेड़ों, जनता को नियमित रूप से न्याय-प्रक्रिया व न्याय से वंचित कर देने, मानवाधिकार कार्यकर्त्ताओं और संवाददाताओं की जुबान पर ताला लगाने की कोशिशों आदि का जिक्र है.

दमन-उत्पीड़न के उन वर्षों में जनता पत्थर मारने के जरिए प्रतिवाद करती थी. बुरहान वानी की हत्या के बाद जनता का गुस्सा चरम-बिन्दु तक जा पहुंचा. इन्हें काबू में करने के लिए भारी पैमाने पर घातु के बने पैलेटों का इस्तेमाल किया गया. वाबजूद इसके छात्र-छात्राएं समेत भारी संख्या में विद्यार्थी सुरक्षा के हमलों को चुनौती देने को सड़कों पर उतर पड़े. [7] भारतीय राज्य द्वारा सैन्य दखलंदाजी के प्रतिरोध को युवाओं द्वारा दिया गया समर्थन हाल के कई महीनों में एक महत्वपूर्ण हद तक बढ़ गया है.




बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक सुरक्षा बलों और चरमपंथियों के बीच हो रही मुठभेड़ में आम लोगों का पहुंचना और फिर सुरक्षा बलों की कार्रवाई में व्यवधान डालना – पिछले एक साल में भारत-प्रशासित कश्मीर में इस तरह की कई घटनाएं हो चुकी हैं. सुरक्षा बलों के मुताबिक़ आम लोग उन पर पत्थर फेंकते हैं और आज़ादी के नारे लगाते हैं. ये नज़ारा 90 के दशक से बिल्कुल जुदा है जब कश्मीर में हथियारबंद आंदोलन शुरू हुआ था. उस दौर में लोग मुठभेड़ वाली जगह से दूर ही रहते थे लेकिन अब जब एनकाउंटर वाली जगह पर आम लोग पहुंच जाते हैं तो सुरक्षा बलों को पेलेट गन, गोली या आंसू गैस छोड़नी पड़ती है. [9]

दक्षिणी कश्मीर के एक फ़ोटो पत्रकार यूनिस ख़ालिक़ के मुताबिक़, “जब भी कहीं चरमपंथियों और सुरक्षा बलों के बीच मुठभेड़ शुरू होती है तो सबसे पहले वहां के स्थानीय लोग सुरक्षा बलों पर पत्थर मारते हैं, झड़पें होती हैं. कश्मीर में चरमपंथियों के साथ हर किसी की हमदर्दी है, यही वजह है कि लोग घरों से निकल कर मुठभेड़ स्थल पर पहुंच जाते हैं और उनकी ये कोशिश होती है कि वह सुरक्षा बलों के घेरे में फंसे चरमपंथियों को वहां से निकालें.”

कश्मीर के आम नागरिक ख़ुर्शीद अहमद कहते हैं, “हर आंदोलन में कई मुक़ाम आते हैं. कश्मीर का आंदोलन जिस मुक़ाम पर है वो दिखाता है कि कश्मीर के आम लोग चरमपंथियों के साथ हमदर्दी रखते हैं. यही वजह है कि लोग मुठभेड़ स्थल पर पहुंच जाते हैं. लोगों ने राजनीतिक तौर से अपनी लड़ाई लड़नी चाही, लेकिन उससे भी उनका मक़सद पूरा नहीं हुआ. अब लोग गोली खाते हैं और अपनी जान भी देते हैं.“




मुनीर अहमद ख़ान कहते हैं, “हिज्बुल मुजाहिदीन कमांडर बुरहान वानी की मौत के बाद दक्षिणी कश्मीर के कई इलाकों में युवाओं का झुकाव चरमपंथ की ओर हुआ जिनमें से कई अलग-अलग मुठभेड़ों में मारे जा चुके हैं.“ पहले पहल दक्षिणी कश्मीर में मुठभेड़ स्थल के आसपास लोग आकर जमा हो जाते थे, लेकिन अब पूरे कश्मीर में ही ऐसा होने लगा है. दक्षिणी कश्मीर चरमपंथ का गढ़ समझा जाता है.

वहीं अलगावादी नेता ज़फ़र अकबर बट इस चलन में अपनी किसी भी भूमिका से इनकार करते हैं. उन्होंने कहा, “ये लोगों की अपनी मर्ज़ी है, हम उनको रोक नहीं सकते हैं. लोग चरमपंथियों को हीरो समझते हैं.“ बट कहते हैं, “बीते एक-दो साल से कश्मीर समस्या के हल के लिए राजनैतिक कोशिश नहीं हो रही है. ऐसे में लोगों की हमदर्दी हथियारबंद आंदोलन की तरफ़ हो रही है.“

वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हारून रेशी के मुताबिक़ सुरक्षा एजेंसियों के खि़लाफ़ लोगों के मन में ग़ुस्सा है. इतना ग़ुस्सा कि अब उन्हें अपनी जान की परवाह भी नहीं है और वो सुरक्षा बलों की गाड़ियों पर पत्थर फेंकने से भी नहीं चूकते.” सेना ने ये ऐलान तक कर दिया है कि जो भी मुठभेड़ वाली जगह पर जाकर सुरक्षाबलों की कार्रवाई रोकने की कोशिश करेगा उसे भी चरमपंथियों का साथी समझा जाएगा और उसके साथ भी वैसा ही बर्ताव होगा लेकिन उसके बाद भी लोगों पर कोई असर होता नहीं दिख रहा है. बीते 18 महीनों में एनकाउंटर स्थल पर 20 आम नागरिक मारे जा चुके हैं जिनमें दो महिलाएं भी शामिल हैं.




1947 ई. के सत्ता हस्तांतरण के बाद से ही देखा गया है कि भारतीय राज्य अपनी ही जनता के खिलाफ बारम्बार युद्ध में उतरता आया है. जहां कहीं भी जनता ने अपने अधिकार के लिए आवाज उठायी है, वहीं एकदम अचानक से उन पर नृशंस दमन-उत्पीड़न लाद दिया गया. भारतीय राज्य यह कभी भी स्वीकार नहीं करता कि भारत के सुरक्षा बल कश्मीरी जनता का दमन-उत्पीड़न करते आ रहे हैं.

अतः आज यह सवाल उठाने का समय आ गया है कि कश्मीर क्या तब महज एक ऐसा भूमि का टुकड़ा है, जहां मुट्ठीभर ताकतों के हितों की हिफाजत में हमेशा टकराव का एक माहौल बनाये रखना होगा ? या कश्मीर का मतलब होता है वहां की जनता जिन्हें इज्जत के साथ अपनी जिन्दगी जीने का पूरा अधिकार है ?




सन्दर्भ :

[1] https://www.bbc.com/hindi/india-47247105
[2]https://thewire.in/security/pulwama‐civilian‐deaths‐encounter
[3] https://www.epw.in/engage/article/why‐kashmirs‐armedinsurgency‐
not‐variant‐terrorism
[4] https://jkccs.files.wordpress.com/2017/05/structures‐of‐violencee28093‐
main‐report.pdf
[5] https://jkccs.files.wordpress.com/2017/05/structures‐of‐violencee28093‐
main‐report.pdf
[6]https://www ohchr org/Documents/Countries/IN/DevelopmentsInKashmirJune2016ToApril2018.pdf
[7] https://www.firstpost.com/long‐reads/new‐face‐of‐kashmirsprotests‐
the‐valleys‐girls‐3411428.html
[8] https://thewire.in/security/if‐the‐past‐year‐in‐kashmir‐is‐anindication‐
delhi‐must‐brace‐itself‐for‐worse‐in‐2019
[9] https://www.bbc.com/hindi/india-40484086




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