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बैंकों का निजीकरण यानि भ्रष्टाचार की खूली छूट

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बैंकों का निजीकरण यानि भ्रष्टाचार की खूली छूट

गिरीश मालवीय : पिछले साल सरकारी बैंकों का निजीकरण की वकालत बड़े जोर-शोर से की जा रही थी. खासकर जब पीएनबी घोटाला सामने आया तो फिक्की, एसोचैम जैसे बड़े व्यापारिक संगठन इस मांग को जोरदार ढंग से उठा रहे थे. इसमें उनका साथ अरविंद पनगढ़िया जैसे अर्थशास्त्री खुलकर दे रहे थे.

रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर उर्जित पटेल सरकारी बैंकों की तुलना निजी बैंकों से करते हुए बता रहे थे कि ‘निजी और विदेशी बैंकों के संदर्भ में बैंकों की सेहत, उनके व्यवहार और आंतरिक गवर्नेंस के बारे में उपयुक्त नियम मौजूद हैं.

2017 में 30 सितंबर तक सरकारी स्वामित्व वाले बैंकों का एनपीए जहां 7.34 लाख करोड़ रुपए हो गया था, वहीं सारे निजी बैंकों में कुल मिलाकर डूबते कर्ज की राशि महज 1.02 लाख करोड़ रुपए थी. तब निजीकरण की मांग हर ओर से उठने लगी थी. इसे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की बदहाली और निजी क्षेत्र के चाक-चौबंद प्रबंधन का नमूना माना जा रहा था. निजी बैंक के कॉर्पोरेट गवर्नेंस के मॉडल को बैंकिंग की एनपीए समस्या का हल बताया जा रहा था.

लेकिन आज चन्दा कोचर को दोषी बताए जाने के बाद निजीकरण के समर्थक आज कौन से कोने में मुंह छिपा रहे हैं ? बात सिर्फ चन्दा कोचर और प्ब्प्ब्प् बैंक की नहीं है. नोटबंदी के ऐलान के तुरंत बाद एक्सिस बैंक की कुछ शाखाएं अपने ग्राहकों के लिए मुद्रा बदलने में लिप्त पायी गयीं.



मार्च, 2017 में खत्म हुए साल को लेकर आरबीआई के एक ऑडिट में यह सामने आया कि एक्सिस बैंक ने तकरीबन 5,600 करोड़ रुपए मूल्य के डूबे कर्जों का खुलासा नहीं किया था. ऐसा ही कुछ एचडीएफसी बैंक के भी साथ था, वहीं आइसीआइसीआइ बैंक ने तो यहां तक कह दिया कि उसे किसी तरह का डिसक्लोजर करने की जरूरत ही नहीं है.

2009 में जहां एक्सिस बैंक का एनपीए महज 1,173 करोड़ रुपये था, जो 2015 तक 4110 करोड़ रुपए पर पहुंच पाया, लेकिन दो ही साल में यह एनपीए बढ़कर मार्च 2017 में 21,280 करोड़ रुपए हो गया.

एक और महत्वपूर्ण बात है जिस पर ध्यान नहीं दिया गया कि आरबीआई ने एक्सिस बैंक को उन बैंकों की सूची से हटा दिया, जिन्हें मौजूदा वित्त वर्ष के लिए सोने व चांदी के आयात की अनुमति है जबकि निजी क्षेत्र का एक्सिस बैंक पिछले साल सर्राफा के सबसे बड़े आयातक बैंकों में से एक रहा था, क्या यहा भी कोई घोटाला हो रहा था ?

2009 में शिखा शर्मा एक्सिस बैंक की सीईओ बनी थीं. 31 मई, 2018 को उनका तीन साल का तीसरा कार्यकाल समाप्त होने वाला था. तब भी बैंक ने उन्हें चौथे कार्यकाल के लिए तीन साल पद पर बने रहने के लिए कहा, लेकिन आरबीआई ने एक्सिस बैंक की प्रबंध निदेशक पद पर उनके कार्यकाल विस्तार को मंजूरी देने से मना कर दिया, फिर भी यह कार्यकाल 7 महीने के लिए बढ़ाया गया.



कुछ ऐसी ही कहानी यस बैंक के साथ भी हुई. आरबीआई ने बैंक के मुख्य कार्यकारी अधिकारी राणा कपूर का कार्यकाल भी घटाकर 31 जनवरी, 2019 कर दिया. उन पर भी कई कर्जों को छुपाने के आरोप थे.

कुल मिलाकर देखा जाए तो निजी बैंकों में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार है, जिसकी परते धीरे-धीरे खुल रही हैं और यह स्थिति पीएसयू बैंकों के निजीकरण के समर्थकों की पोल खोल दे रही है.



फरीदी अल हसन तनवीर : कैंसर के इलाज की आपरेशन टेबल पर पड़े-पड़े बेचारे जेबलूटली जी ने अपनी कार्पोरेट के प्रति ईमानदार डयूटी बजाते हुए सीबीआई के लिए Investigative adventurism जैसा मुहावरा गढ़ अपनी ही सरकार की जांच एजेंसियों की कार्यशैली पर प्रश्न खड़ा करने पर इतनी मेहनत की थी. अब उनकी क्लाइंट चंदा कोचर को बैंक ने ही दोषी पाते हुए उनको पूर्व में दिए भत्ते व सुविधाएं वसूलने की घोषणा की है.

अब अमरेकी अस्पताल से कल अगर कोई जेटली छाप ब्लॉग रिलीज़ हो और Banking Survivalism जैसी कोई शब्दावली रच दी जाए तो आश्चर्य मत कीजियेगा. दरअसल वित्त मंत्री जी और सरकार के खास दोस्तों ने भारत के बैंकों के आगे Survival का प्रश्न खड़ा कर दिया है.



अब बैंक इतने चीमढ़ और खस्ताहाल हो गए हैं कि एटीएम के सामने आप के गुजरने भर से बैंक पैसे काट लेता है तो चंदा कोचर से चाय के पैसे वसूल करना तो बनता है भाई ! बैंकों के सर्वाइवल का सवाल है आखिर !!

आप तो ये याद रखिये कि जब मिनिमम बैलेंस के नाम पर स्टेट बैंक ने देश की गरीब जनता को लूटा तो हट्टा-कट्टा वित्तमंत्री गूंगा-बहरा बना रहा. अब ज़रा-सा मैडम कोचर की जांच की बात आयी तो ऑपरेशन टेबल से ही ब्लॉग लिख मारा.

यही रामराज्य का प्रजातंत्र है, जिसमें वोटर की वाट लगाकर अमीरों और बड़ों की चोरियों, डकैती और गलतियों पर चाटुकारितापूर्ण तरीक़े से पर्दा डाला जाता है.



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