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बजट 2019-20 – मोदी के चुनावी जुमले की खेती

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जुमलों के सहारे देश की सत्ता पर काबिज फासिस्ट सरकार चार सालों तक देश के औद्यौगिक घरानों की पूरजोर सेवा करने के बाद अब दिखावे के बतौर अपना अंतिम बजट देश के सामने प्रस्तुत किया है, जिसमें जमकर आमलोगों के सामने जुमलों फेंके हैं, जिसका कोई तार्किक आधार ही नहीं है. 27 लाख करोड़ से अधिक का बजट पेश करते हुए यह महज एक चुनावी स्टंट है, जिसमें न तो देश के बेरोजगारों के लिए कोई उपयोगिता है और न ही किसानों और छात्रों के लिए कोई राहत. औद्योगिक घरानों के टुकड़ों पर पलने वाले इस सरकार की इस बजट पर सटीक टिपण्णी करते हुए अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा (एआईकेएमएस) के महासचिव डा. आशीष मित्तल बताते हैं कि बजट में एक संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था की गहरी छाप है और सरकार इसे हल करने की कोई समझ प्रस्तुत नहीं करती. पर उसने 2030 की संभावनाएं घोषित की हैं, जो असल में जवाबदेही से बचने के लिए सभी लक्ष्यों को एक बहुत लम्बी अवधि तक टालने की भयावह योजना है. डा. आशीष मित्तल के विचार पाठकों के सामने प्रस्तुत है.

बजट 2019-20 - मोदी के चुनावी जुमले की खेती

पहली बार किसी सरकार ने देश का बजट पेश किया पर उससे पहले देश को यह नहीं बताया कि उसके मूल्यांकन में देश के आर्थिक हालात क्या हैं ? यह दिखाता है कि सरकार जनता से सच छिपाना चाहती है. बजट प्रस्ताव झूठ पर आधारित हैं और धोखा देने से प्रेरित है. बजट में लघु व सीमान्त किसानों के लिए, यानि जो 5 एकड़ से कम के मालिक हैं, 6000 रुपये प्रति साल का आय/लागत सहयोग देने की घोषणा की है. यह ओडीशा में 10 व तेलंगाना में 8 हजार प्रति एकड़ के सहयोग से बहुत कम है, लगभग उसका 1/8 व 1/6 है. एक 2 हेक्टेयर भूमि के मालिक के लिए यह 1200 रु0 प्रति एकड़ प्रति साल बैठेगा. इसमें से 2000 रु. चुनावी रिश्वत के रूप में हाल फिलहाल खाते में आएगा, जिसकी भविष्य में कोई गारंटी नहीं है. यही नहीं 55 फीसदी किसान भूमिहीन हैं, जो बटाईदार के रूप में या किराये पर जमीन लेकर काम करते हैं. इनको सरकार की योजना ने छुआ तक नहीं है.

किसानों का संकट लागत के दाम खासकर डीजल, खाद, बीज, कीटनाशकों में तीव्र वृद्धि, सिंचाई की अव्यवस्था, एमएसपी में कुछ वृद्धि व सरकारी खरीद की गारंटी न होने से फसलों की दुर्लभ बिक्री, कर्जों का बढ़ना और आत्महत्याओं का जारी रहने के रूप में दिखा है. इन सवालों पर बजट यह झूठा दावा करता है कि उसने 22 फसलों का समर्थन मूल्य लागत के 1.5 गुना दाम पर किया है. उसने कर्जमाफी, फसलों की खरीद और लागत के दाम घटाने पर कोई कदम घोषित नहीं किया है. सिंचाई पर भी उसने कारपोरेट घरानों के लिए लाभदायक टपक सिंचाई को बढ़ावा देने की बात कही, जो बहुत मंहगी है और प्रयोग में कठिन है.



जन कल्याण योजनाओं जैसे – स्वास्थ्य, मनरेगा, राशन, पेंशन, आदि नकद हस्तांतरण के रूप में जारी रहेंगी, हालांकि सरकार जानती है कि भ्रष्ट अफसर बार-बार लाभार्थियों के नाम हटा देते हैं और फिर रिश्वत प्राप्त करके उन्हें शुरु कर देते हैं. इसके बावजूद सरकार ने अच्छी गुणवत्ता की व उचित खर्च पर शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात व रोजगार के अवसर देने तथा पर्याप्त खाद्य सुरक्षा के लिए कोई योजना नहीं बनाई है. खाद्य सब्सिडी बिल पर सरकार ने बजट में दावा किया कि उसका 1,70,000 करोड़ रूपये का आवंटन 2014 के आवंटन से लगभग दोगुना है, जबकि यह पिछले साल के आवंटन, 1,69,000 करोड़ के लगभग बराबर है. सरकार के विजन 2030 में किसानों, मजदूरों व गरीबों के लिए कुछ भी नहीं है और इसमें देश को विदेशी कम्पनियों, कारपोरेटों, अमीरों व ताकतवर जमींदार व माफियाओं के लिए सजाया जा रहा है.

असंगठित क्षेत्र के 42 करोड़ मजदूरों के लिए घोषित नई पेंशन योजना में बजट का कोई प्रावधान नहीं है और यह मूलतः उनके मासिक निवेश पर निर्भर है. पर यह आंकड़ा दिखाता है कि देश की एक तिहाई जनता के पास न रोजगार के सुरक्षा है, न आमदनी की. ईपीएफओ के जो आंकड़े रोजगार में वृद्धि के लिए दर्शाए गए हैं, वे पूरी तरह बोगस हैं क्योंकि उसका डेटाबेस ढंग से अपडेट नहीं किया जाता.

कम आय के लोगों को दिया गया आयकर में राहत बहुत लम्बे समय से वांछित था और यह असल में बहुत छोटी सी राहत है, जैसा कि आमदनी पर इसके पड़ने वाले असर पर, 18,500 करोड़ रुपये से स्पष्ट है. यह कुल खर्च का 0.67 फीसदी है. सम्पत्तियों की बिक्री में जो टैक्स में राहत दी गयी है, उससे स्पष्ट है कि आवास व निर्माण उद्योग कितने गहरे संकट में है, जहां निर्माण ज्यादा है और खरीदार कम.



बजट में एक संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था की गहरी छाप है और सरकार इसे हल करने की कोई समझ प्रस्तुत नहीं करती. उसने खेती के संकट और अपने 4.5 साल के राज में बेरोजगारी के बढ़ते संकट को छुए बिना दावा कर दिया है कि वह “2022 तक किसानों की आमदनी दोगुना” करने जा रही है. उसका विजन 2030 की घोषणा बढ़ती बेरोजगारी, जो उसकी अपनी नेशनल स्टैस्टिकल कमीशन की रिपोर्ट से स्पष्ट है, पर पर्दा डालने के लिए है. परम्परा तो थी स्टेटमेन्ट ऑफ एकाउन्ट जारी करने की, पर उसने 2030 की संभावनाएं घोषित की हैं, जो असल में जवाबदेही से बचने के लिए सभी लक्ष्यों को एक बहुत लम्बी अवधि तक टालने की भयावह योजना है.

किसानों और युवाओं को समझना होगा कि यह सरकार कारपोरेटों के मुनाफे और जमींदारों के पक्ष में है. यह उनकी आमदनी और जीविका को नहीं सुधारेगी और खेती और रोजगार में राहत के लिए उन्हें संघर्ष करना होगा.



वहीं, लखनऊ हेडक्वाटर में साथियों से बातचीत करते हुए स्वराज अभियान की राष्ट्रीय कार्यसमिति सदस्य अखिलेन्द्र प्रताप सिंह मोदी की इस बजट पर बोलते हुए कहते हैं कि 1 फरवरी 2019 को एनडीए सरकार द्वारा लोकसभा में प्रस्तुत बजट दरअसल अंतरिम नहीं पूर्ण बजट ही है. अपने स्वभाव के अनुसार संसदीय परंपराओं और नियमों को रौदते हुए वोट ऑन अकाउंट को पूर्ण बजट के बतौर मोदी सरकार द्वारा प्रस्तुत किया गया है. गहरे संकट के दौर से गुजर रही देश की अर्थव्यवस्था से निपटने के लिए सरकार की तरफ से कोई प्रयास इस बजट में नहीं दिखता है. लोकसभा 2019 के चुनाव का दबाव सरकार के ऊपर दिखता है. जैसे-तैसे 5 एकड़ से कम के किसानों के लिए 6000 रुपए सालाना अनुदान राशि देने की बात बजट में है. अनुदान के लिए कुछ रुपये इसलिए खर्च किए गए हैं ताकि देश की जनता को भ्रमित किया जा सकें और उनका वोट हासिल किया जा सकें. इसीलिए किसानों को 31 मार्च 2019 तक 2000 रुपए पहली क़िस्त में देने की बात है.




दरअसल यह एक रक्षात्मक, प्रचारात्मक बजट है, जिसमें सिंचाई, फसल बीमा योजना, नमामि-गंगे जैसे मदों में कटौती करके बोल्ड बजट प्रस्तुत करने का भ्रम पैदा किया गया है. किसानों का सवाल बेहद गंभीर और ढांचागत है, दिन-प्रतिदिन उनकी मौतें हो रही हैं और मौजूदा राजकोषीय घाटे की अर्थव्यवस्था के अनुशासन में इसे हल भी नहीं किया जा सकता है. जैसे-तैसे किसानों के खाते में कुछ पैसा डाल देने की जगह सरकार उस संपूर्ण पूंजी को खेती किसानी के संसाधन जुटाने पर खर्च करती तो भी किसानों का कुछ भला होता.

मजदूरों के एक हिस्से के लिए घोषित की गयी पेंशन योजना मजदूरों के ही अंशदान पर निर्भर है. 5 लाख की आय को कर मुक्त करने की बात तो हुई है लेकिन समाज के अन्य तबकों की आर्थिक स्थिति के सुधार के लिए कॉरपोरेट घरानों पर सम्पति और उत्तराधिकार जैसे टैक्स लगाने की कहीं से कोई बात बजट में नहीं दिखी है. शिक्षा और रोजगार के प्रश्न पर पूरे बजट में ख़ामोशी दिखती है. रोजगार सृजन की अर्थव्यवस्था पर बात करने की जगह तेजी से बढ़ रही बेरोजगारी के आंकड़े भी देश के सामने ईमानदारी से सरकार ने नहीं रखे हैं. शिक्षा के विस्तार और उसके गुणवत्ता को विकसित करने के बारे में बजट में एक शब्द भी नहीं कहा गया है.




सब मिला जुला कर कहा जाए तो यह बजट चुनावी बजट है और इससे देश की जनता का कोई भला नहीं होने जा रहा है. मोदी सरकार की 2019 के चुनाव में विदाई होगी क्योंकि इसके समय में न केवल लोगों की माली हालत ख़राब हुई है और लोकतांत्रिक अधिकारों और संस्थाओं पर गहरे हमले हो रहे हैं बल्कि यह सरकार भारतीय संस्कृति और सभ्यता के लिए एक बड़ा खतरा है.




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