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भारतीय कृषि का अर्द्ध सामन्तवाद से संबंध : एक अध्ययन

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हमारे देश में पूंजीवादी समाज है या अर्द्ध सामंती-अर्द्ध उपनिवेशी समाज, इसे लेकर मार्क्सवादियों और विद्वान मण्डली में काफी विवाद चल रहा है. कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के लिए यह विवाद महज बुद्धिमत्ता दिखाने भर के लिए नहीं है, वरन् यह समाज के तमाम वर्गों को बांटने से जुड़ा हुआ है, जिससे जुड़ी है भारतीय क्रांति के लिए किस तरह की रणनीति व कार्यनीति अपनायी जाएगी ? किस-किस वर्ग के खिलाफ संघर्ष चलाया जाएगा ? कौन-कौन सा वर्ग क्रांति का हिस्सा बनेगा और कौन-सा वर्ग उसे नेतृत्व देगा ? किस वर्ग का उन्मूलन क्रांति के जरिये किया जाएगा ? कौन-सा वर्ग मित्र है और कौन शत्रु ? इत्यादि. इसी कड़ी में हम यहां अपने पाठकों के सामने इस चर्चा को आगे बढ़ा रहे हैं. यह आलेख विषयवस्तु की गंभीरता के कारण लम्बी हो गई है, जो बेहद ही गंभीरता और एकाग्रता की मांग करती है. यह आलेख अपने मूल स्वरूप बंगला में लिखी गई थी, जिसका हिन्दी अनुवाद यहां प्रस्तुत है.

भारतीय कृषि का अर्द्ध सामन्तवाद से संबंध : एक अध्ययन

एक तरफ जमीन के बड़े टुकड़े का स्वत्व (स्वामित्व) बरकरार रहना, दूसरी तरफ उत्पादन का सामाजिकरण न होना, दर्शाता है कि ये मालिक पूंजीपति नहीं हैं, भू-स्वामी ही है. फसल का एक भाग बाजार में आ रहा है, परन्तु उसकी कीमत पूंजीवादी बाजार के अनुसार लागू नहीं हो रही है.

फसल की कीमत खेत से उठने के बाद तय हो रही है. कृषि जमीन में कार्यरत लोग कृषि श्रमिक है, परन्तु कुछ बिचौलिया (दलालों) के सामाजिक प्रभाव के कारण कृषि श्रमिकों की श्रम-शक्ति स्वाधीन राज्य में रूपांतरित नहीं हो पायी. भू-स्वामियों का बचत शोषण है, परन्तु वह पूंजीवादी बाजारों के नियमानुसार मुनाफा व भाड़ा में भाग नहीं होता है. बचत का फिर से नियुक्त कर विस्तृत पुनः उत्पादन करना है, परन्तु बचत का प्रधान हिस्सा फिर से नियुक्त हो रहा है. अनुपजाऊ क्षेत्र में तथा महाजनी व्यापार व फसल व्यापार के क्षेत्र में, जो छोटे व मध्यम वर्ग के किसानों का पूरा बचत हड़प रहा है. साथ ही साथ खाद, बीज, कीटनाशी, बिजली रहित उत्पादन की आवश्यक चीजों के भाव के उत्तोतर बढ़ने से बचत का एक बड़ा हिस्सा विदेशी व देशी एकाधिकार पूंजीपतियों के जेब में जाता है और किसानों को हमेशा के लिए कर्जदार की स्थिति में रख देता है.

दूसरी तरफ खाद, बीज, कीटनाशी इत्यादि के डीलर भी ज्यादातर बड़े जोत के मालिक या महाजन ही होते है, जो बुरे समय में किसानों को कर्ज या कृषि उत्पादन के लिए आवश्यक सामानों को उधार पर देते है, और फसल कटने के बाद इन्हीं महाजनों को किसान उनके मनमाने दामों पर फसल बेचने को मजबूर होते है. इस तरह भारतीय कृषि व्यवस्था का अस्तित्व इस दोहरे चरित्र को लिए हुए है. उपरी तौर पर इनमें पूंजीवाद के लक्षण दिखते है, पर गौर करने पर समझ में आता है कि ये पूंजीवाद से उत्पन्न नहीं वरन् भारतीय कृषि व्यवस्था का यही जन्मजात चरित्र है, जिसे अर्द्ध सामन्तवादी उत्पादन-संबंध के रूप में चिन्हित किया जाता है.




हमारे देश में पूंजीवादी समाज है या अर्द्ध सामंती-अर्द्ध उपनिवेशी समाज, इसे लेकर मार्क्सवादियों और विद्वान मण्डली में काफी विवाद चल रहा है. कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के लिए यह विवाद महज बुद्धिमत्ता दिखाने भर के लिए नहीं है, वरन् यह समाज के तमाम वर्गों को बांटने से जुड़ा हुआ है, जिससे जुड़ी है भारतीय क्रांति के लिए किस तरह की रणनीति व कार्यनीति अपनायी जाएगी ? किस-किस वर्ग के खिलाफ संघर्ष चलाया जाएगा ? कौन-कौन सा वर्ग क्रांति का हिस्सा बनेगा और कौन-सा वर्ग उसे नेतृत्व देगा ? किस वर्ग का उन्मूलन क्रांति के जरिये किया जाएगा ? कौन-सा वर्ग मित्र है और कौन शत्रु ? इत्यादि.

1947 के बाद के समय से भारत ब्रिटिश के प्रत्यक्ष उपनिवेश के बदले एक अर्द्ध उपनिवेश में बदल गया और भारतीय समाज तो अर्द्ध सामंती था ही, इसको लेकर कम्युनिस्ट मंडली के ज्यादातर हिस्सों में कोई खास विरोध नहीं था. मगर अभिन्न कम्युनिस्ट पार्टी की बाद की रणनीति की ओर देखा जाय तो दिखता है कि पार्टी के नेतृत्व ने बातों की बाजीगरी करते हुए भारत को मूलरूप से एक स्वाधीन पूंजीवादी राष्ट्र के रूप में ही लेकर विचार करना शुरू कर दिया था, इस तरह उन्होंने भारतीय क्रांति की कोई भी स्पष्ट रणनीति व कार्यनीति जनता के समक्ष उपस्थित न करके चुनाव में भाग लेना ही अपने मुख्य एजेंडे के रूप में रखा और बड़े बुर्जुआ को प्रगतिशील की संज्ञा दी. पर पार्टी के अंदर मौजूद क्रांतिकारी पक्ष ने इस विचलन को कभी स्वीकार नहीं किया.

1960 के दशक में सीपीआई (एम) के अंदर मौजूद क्रांतिकारी पक्ष ने कृषि क्रांति के सवाल को उठाया और उसके परिणामस्वरूप उत्तरी बंगाल का नक्सलबाड़ी किसान संघर्ष हुआ व राज्य में सत्ताधारी सीपीएम के नेतृत्व में कृषि क्रांति को ऊपर उठाना पड़ा. उस दौरान सही सिद्धांत को लेकर चलने के बावजूद भी कार्यनीति के क्षेत्र में जनआंदोलन का बहिष्कार सहित विभिन्न किस्म के अनुचित दबाव के कारण आंदोलन को कुछ समय के लिये थोड़ा धक्का भी लगा और बाद में सीपीआई (एमएल) कई हिस्सों में बंट गया. पुनः 80 के दशक में कुछ विशेष इलाके में कई क्रांतिकारी समुदाय के नेतृत्व में कृषि क्रांतिकारी आंदोलन में तेजी आई, जिससे दीर्घकालीन जनयुद्ध की राजनीति को मजबूती मिली. तमाम रोड़ों और कठिनाइयों के बावजूद व कई साथियों के आत्मबलिदान के जरिये यह संघर्ष आगे बढ़ता जा रहा है. मगर पहले से परिमित रूप से कुछ संगठन व बुद्धिजीवी हरितक्रांति, नयी उदारवादी अर्थनीति के प्रभाव से कुछ बिगड़ा हुआ बुर्जुआ परिवर्धन और एनएसएस द्वारा संग्रह किया हुआ कथन द्वारा यह स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं, जैसे भारतीय कृषि व्यवस्था में पूंजीवादी परिवर्तन हो चुका है, इसीलिए एक ग्रामीण इलाके में कृषि क्रांति का कोई अर्थ नहीं रहा है. इनमें से कई बुद्धिजीवी व संशोधनवादी समूह कृषि क्रांति को कमजोर बनाने के लक्ष्य से जनता के अंदर भ्रम पैदा करने, घृणा उत्पन्न करने की कोशिश कर रहे हैं. यहां कुछेक भारतीय समाज के वर्ग विश्लेषण के गलत मूल्यांकन वाले या कुछ भ्रम में पड़कर ऐसा करते हैं.




यहां हम यह सामने रखते हैं कि भारतीय कृषि में ब्रिटिश शासन काल से ही बुर्जुआ तत्व घुसा जा रहा है और इसी वजह से ही वह एक अर्द्ध सामन्ती चरित्र लिए है. परन्तु उन तत्वों का ऐसा कोई क्रांतिकारी चरित्र नहीं है, जिस वजह से भारतीय कृषि पूंजीवादी चरित्र प्राप्त कर सकता है. इस कारण भारतीय समाज अर्द्ध सामन्ती अवस्था में ही रह गया है.

विभिन्न तरह के परिवर्तन होने पर भी वह विभिन्न रूपों को बदलते हुए मूलतः उसी चरित्र में रह रहा है. याद रखना होगा कि किसी भी वर्ग समाज के उत्पादन पद्धति की मूल विशिष्टता समूह इस प्रकार की है :

1. श्रम प्रक्रिया के जरिये अपनी जीविका के लक्ष्य से उत्पादन, जिसके बिना कोई भी समाज टिका हुआ नहीं रह सकता.

2. वर्ग समाज होने का अर्थ है, श्रम प्रक्रिया एक ऐसे संबंध के बीच से गुजर रहा है जहां मौलिक विशिष्टता के रूप से यह उजागर होगा कि श्रमजीवी जनता के द्वारा उत्पन्न बढ़ोत्तरी समाज के शोषक वर्ग के अधिकार में ही जा रहा है.

3. पूरी श्रम की प्रक्रिया ऐसी चल रही है, जहां सिर्फ बढ़ोत्तरी ही शोषक लोगों के अधिकार में जा नहीं रहा, साथ-साथ वर्ग संबंध भी पुनः उत्पन्न हो रहा है. यह नहीं होने से वह वर्ग संबंध तुलनात्मक रूप से स्थायी नहीं हो सकता.




किसी एक समाज के उत्पादन-संबंध को समझाने के लिए उस समाज के उत्पादन प्रणाली का साधारण विवरण काफी नहीं है, वह प्रगतिशील है या प्रतिक्रियाशील, यह समझने के लिए उस सामाजिक व्यवस्था की तुलना उससे पूर्व और बाद की सामाजिक व्यवस्था से करनी पड़ती है. अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चूंकि सामंतवाद को क्रांतिकारी तरीके से हराने के बाद पूंजीवादी व्यवस्था का उदय हुआ है, इसलिए सामंतवाद की मौलिक विशिष्टता को समझने के लिए प्रायः इसकी तुलना पूंजीवादी अर्थशास्त्र की मौलिक विशिष्टताओं के साथ करना पड़ता है. इसलिए पहले हम संक्षेप में पूंजीवादी व्यवस्था की मौलिक विशिष्टाओं को समझ लें.

पूंजीवादी व्यवस्था निश्चय ही एक माल उत्पादन व्यवस्था है, मगर माल उत्पादन व्यवस्था होने से ही वह पूंजीवाद नहीं होता है. प्राक् पूंजीवादी व्यवस्था में भी माल उत्पादन व्यवस्था का अस्तित्व रहा है. मगर वह एक ऐसा संबंध है, जहां स्वाधीन उत्पाद अपने-अपने औजार से माल बनाकर बिक्री के लिए बाजार में जाते हैं व उसके बदले में अपने परिवार के लिए जरूरी माल समूह इकट्ठा करता है. यह सरल माल उत्पादन कहलाता है और यहां बिक्री का प्रधान मकसद है,

एक माल के बदले दूसरा माल तथा व्यवहार के योग्य मूल्य प्राप्त करना. पूंजीवादी व्यवस्था एक ऐसा वर्ग व्यवस्था है, जहां पूंजीपति समाज पूरे उत्पादन के साधन का मालिक है. और समाज का अधिकांश श्रमिक वर्ग अपने वेतन के बदले अपनी श्रम क्षमता बेच गुजारा करता है- पूंजीवादी व्यवस्था में श्रम से उत्पन्न अधिलाभ को हड़पने के लिए प्रायः बल प्रयोग की आवश्यकता नहीं पड़ती है वह यूं ही प्राप्त हो जाता है, क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था में न केवल उपभोग की वस्तु बल्कि श्रम क्षमता भी माल में रूपान्तरित होती है, जो पूर्व समाज (सरल माल उत्पादन) की विशिष्टता नहीं है. तो कहा जा सकता है कि पूंजीवादी व्यवस्था में बदलने के अर्थशास्त्र के नियम के जरिये तथा बाजार के नियम के जरिये श्रम से उत्पन्न अधिशेष मालिक के जेब में चला जाता है. अब कृषि के संबंध में भी मालिक को मिलने वाला मालगुजारी भी अधिशेष मूल्य का एक अंश है जो यहां बाजार के नियम से मुनाफा व मालगुजारी में बंट जाता है. मार्क्सवाद में यह सिखाता है कि माल व मुद्रा खुद-ब-खुद पूंजी नहीं है, ठीक-ठीक जैसे उत्पादन के साधनों का भी कोई अंतर्वती पूंजी का चरित्र नहीं रहता है. विशिष्ट सामाजिक उत्पादन-संपर्क के आधार पर ही ये पूंजी होता है ताकि समाज का चरित्र समझने के लिए समाजिक उत्पादन क्षेत्र में मनुष्य का भिन्न जाति तथा वर्ग के बीच जो संबंध बनता है, वही चर्चा का मुख्य विषय बन जाता है.




पूंजीवाद के विपरीत सामन्तवाद के विभिन्न प्रकार के रूप हो सकते हैं किन्तु इनकी मूल विशिष्टता है अधिशेष का संचय, वह भी अर्थशास्त्र के नियम या बाजार के स्वतंत्र क्रय-विक्रय के जरिये नहीं. सामन्तवाद के आदि रूपों का निष्कर्ष है बगैर मजदूरी का श्रम, जहां किसान को किसी अदला-बदली के बगैर ही हफ्रते के अंदर कई रोज जमींदार की जमीन पर काम करना पड़ता है या उत्पन्न फसल का एक अंश मालगुजारी की हैसियत से जमींदार को दे देना पड़ता है. यहां शोषण ही मूल आधार है. जमीन के विषय में सामंतवादी स्वत्व व नियंत्रण के आधार पर सामाजिक प्रभुत्व व अधिकार, फिर इसका भी विभिन्न रूप रह सकता है.

खास कर प्राचीन काल में भारत के विभिन्न इलाके में जमीन के विषय में ग्राम समुदाय का स्वत्व होने पर भी जाति वर्णव्यवस्था के जरिये शूद्र या अतिशुद्र जाति के मनुष्य के द्वारा उत्पन्न किया गया अधिशेष उच्च वर्ण के शोषकों के अधिकार व नियंत्रण में रहता था. यह ही भारतीय समाज की अन्यन्य विशिष्टता थी.

जैसा कि एक कृषि व्यवस्था, पूंजीवादी या सामंती या अर्द्ध सामंती है, उसको समझने के लिए हमें यह देखना होगा कि वहां पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था में उत्पादन संबंध की मौलिक विशेषताएं लागू हुई है या नहीं ? या समाज की गति की दिशा उन विशेषताओं को प्राप्त करने की ओर है या नहीं ? मजदूरी के बदले श्रम का अस्तित्व है या नहीं ? सिर्फ अन्य तरह के सांख्यिकी देकर उत्पादन संबंध को समझना मुमकिन नहीं है. विशेष रूप से अर्द्ध-सामंती व्यवस्था का अर्थ समझा जाता है कि यह एक ऐसी व्यवस्था है जहां विभिन्न कारण से अलग ढंग से विभिन्न प्रकार की पूंजीवाद की विशेषताओं का प्रारंभ हुआ है, परन्तु वह किसी प्रकार से सामाजिक संबंध का मौलिक रूपान्तर नहीं ला पाया और सामन्तवादी नियंत्रण को पराजित करके जनतांत्रिक (बुर्जुआ) संबंध की स्थापना नहीं कर सका. भारत में विशेष रूप से ब्रिटिश काल में ही साम्राज्यवादी लूट की जरूरत से विभिन्न बुर्जुआ विशेषता, नकद दाम में बिकने वाली फसलों की खेती और कुछ पूंजी का निवेश आरंभ हुआ और जाति-वर्ण व्यवस्था के कारण से भारतीय समाज में भूमिहीन कृषि मजदूरों का अस्तित्व भी प्राचीन काल से रहा है. किन्तु ग्रामीण इलाकों में अर्द्ध सामन्ती प्रभाव अति प्रभावशाली है या नहीं इसके लिए निम्नांकित पर विचार करना होगा :




1. भूमि के ऊपर से सामन्ती प्रभुत्व का उन्मूलन हुआ है या नहीं ? यानी जो लोग जमीन के अधिकारी थे, वे मूलरूप से पूंजीवादी तरीके से खेती करते हैं या नहीं ?

2. ऐसा कोई एक तरीका चालू है या नहीं जहां क्रमशः बड़ी जमीन में पूंजीवादी प्रक्रिया से खेती संगठित हो रही है और छोटे व प्रांतीय किसानों का क्रमशः बाजार की प्रतियोगिता में अपनी स्थिति खोकर कृषि श्रमिक व कृषि कार्य में जनता का अनावश्यक भाग कारखाने में काम करने वाले मजदूर में रूपांतरित हो रहा है या नहीं ? जमीन के राजस्व का रूप पूंजीवादी है या सामन्तवादी ?

3. श्रमशक्ति का माल रूप तथा खुला श्रम का बाजार तैयार हुआ है या नहीं ? यानी बाजार के नियम से मजदूरी का दर तय होता है या नहीं ?

4. खेती-बाड़ी से उत्पन्न वस्तु का उद्देश्य बाजार में बेचना है या केवल अपने परिवार की जीविका चलाना ?

5. फसल की कीमत बाजार से तय होती है या नहीं ?

6. महाजनी ब्याज का कारोबार, वह खत्म हुआ है या नहीं ?

7. उत्पादन से उत्पन्न अधिशेष तथा मुनाफा का अधिकतम अंश फिर से उत्पादन क्षेत्र में नियुक्त हो रहा है या नहीं ?




भारत में जमींदार के अधीन खेती उत्पादन संबंध में कोई गुणवत्ता संबंधी परिवर्तन नहीं कर सका. कृषि भूमि के स्वामित्व में अभी भी जो विशाल विषमता प्रचलित है, अब तक संग्रहित सच्चाई से उसका प्रमाण मिलता है. समाज के 9.5% अमीर परिवार के पास कुल भूमि का 56.6% का स्वामित्व है, वहीं समाज के बाकी के 90.5% के पास है महज 43.4% कृषि भूमि. इससे साफ कहा जा सकता है कि आज भी जमींदारों के हाथ में ही ज्यादा जमीन है. 1955 में मध्यस्थ कमाई रद्द करने का कानून लागू होने के बाद जमीन की रक्षा करने के उद्देश्य से जमींदारों ने काश्तकारों को बेदखल कर अपने जमीन के कुछ हिस्सों में कृषि उपकरण इस्तेमाल करके खेती की. ऐतिहासिक रूप से इस प्रकार की खेती का चरित्र पूंजीवादी हो जाने की संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि जर्मनी और रूस में ऐसा हुआ है. परन्तु इस नजरिये से भारत की जमींदारी खेती को पूंजीवादी नहीं कह सकते हैं क्योंकि भारत में जमींदारों द्वारा अपनाए गये इस तरीके का उद्देश्य जमीन को बचाना था, उसे अपने कब्जे में रखना था और मूलरूप से भूमि के स्वामित्व के आधार पर ही बेदखल किये गये किसानों के ऊपर सामन्ती शोषण चलाया जा रहा है. चाहे वह स्थिर मजदूर के रूप में हो या फसल का हिस्सा देने वाले किसान के रूप में.

जमींदारी खेती का पूंजीवादी रूपांतरण होने के लिए दो सामाजिक शर्तें जरूरी है :-

1. जमीन से बेदखल हुए काश्तकारों का सर्वहारा कृषक (टेनेन्ट फार्मर) में रूपान्तरित हो जाना.

2. उपार्जित अधिलाभ का पुनर्निवेश तथा बढ़ा हुआ पुनः उत्पादन.

लेनिन ने दिखलाया था जिन-जिन देशों में प्राक् सम्राज्यवादी युग में क्रांतिकारी सुधार के जरिये पूंजीवादी विकास घटित हुआ, वहां मुख्यतः उद्योगों का विकास हुआ, उद्योगों के विकास में उत्पादक शक्ति का विकास हुआ. ठीक वैसे ही खेत में कार्यशील अतिरिक्त भाग आदमी के कार्य का स्थान देता है और साथ ही क्रय क्षमता का विकास भी होता है. इस तरह का विकास ही अन्त में कृषि में भी पूंजीवादी विकास घटित करता है. परन्तु भारत के संबंध में उद्योग के इस तरह के विकास की अनुपस्थिति से यह दोनों ही शर्त निष्क्रिय हो जाता है.




भारत में उद्योग के विकास का क्रम बंद हुआ था औपनिवेशिक शक्ति द्वारा रूकावट से. इसके बाद साम्राज्यवादी पूंजी का सीधे निवेश व उनकी अप्रत्यक्ष सहायता से जिस उद्योग का विकास हुआ, उसपर शुरूआत से ही एकाधिपत्य रहा. इसमें आयातित उत्पादन यंत्र के साथ राष्ट्र के उत्पादन के विकास का कोई संबंध नहीं था. साम्राज्यवादी पूंजी की सेवा के माध्यम से मुनाफा कमाना ही इस पूंजी का असली चरित्र था और यहां पुनः उत्पादन का जरूरी शर्त होता है उद्योगों का सीमाबद्ध विकास ताकि उसका संबंधित पिछड़ापन बरकरार रहे. इसके विपरीत यहां पूंजी निवेश के जरिये अगर अविकसित और विकसित देश के बीच का अंतर मिट जाने से साम्राज्यवादी देश की अति मुनाफा वाले लक्ष्य से निवेश की शर्त का उल्लंघन होता. अतः साम्राज्यवादी पूंजी के नियंत्रण से उद्योगों की बिगड़ी स्थिति (सीमाबद्ध विकास) और कृषि में अतिरिक्त भाग मनुष्य का कामकाज ठीक करना तो दूर की बात, छोटे घरेलू उद्योगों का विनाश कर कृषि के ऊपर जनसंख्या का प्रभाव और ज्यादा बढ़ा देता है. प्रसंगवश भारत में अभी भी बड़ा एकाधिपत्य संगठित उद्योग कुल काम काज का महज 2% ही पूरा करता है. जहां असंगठित छोटे उद्योगों पर विशाल जनसंख्या निर्भर है. बावजूद छोटे उद्योग बैंक ऋण सहित विभिन्न सरकारी वंचना का शिकार बनकर सरल माल उत्पादन में ही सीमाबद्ध रह जाता है. मूलधन की वृद्धि के द्वारा उसके बड़े हो जाने का विशेष कोई साधन नहीं रहता है.

इस कारण कृषि के अलावा विकल्प के तौर पर काम धंधा उत्पन्न करने की कोई प्रक्रिया प्रचलित नहीं है इसलिए जमीन से बेदखल हुआ किसान कृषि सर्वहारा बनने के बजाय गरीब किसान के रूप में रूपांतरित हो जाता है, जिसमें से अधिकतम किसान भोजन संबंधी जरूरतें पूरी करने के लिए जमींदारों से कर्ज लेते है और बाद में फंस कर स्थायी रूप से कर्जदार रह जाते हैं और फिर पूरे साल खेती-बाड़ी सहित विभिन्न घरेलू कार्यों को करने को बाध्य हो जाते हैं. वैसे यह प्रवृत्ति पंजाब-हरियाणा के गांव के हरित क्रांति वाले इलाकों में भी दिखाई देती है. जमींदार की छोटी जमीन में काम करने पर मजदूरी बढ़ने के आंदोलन के प्रति इनका उतना उत्साह नहीं रहता है जैसा कि अधिक उत्साह रहता है भूमि पर मालिकाना प्राप्त करने के प्रति. इसका कारण है पूंजीवादी ढंग से विशाल आकार के कृषि उत्पादन का विस्तार न होना, जिससे किसानों में (छोटे गरीब किसान) भूमि पुनः प्राप्त करने व उत्पादन करने की आस मौजूद रहती है. उसी प्रकार बड़ी संख्या में दरिद्र किसानों का अस्तित्व कैद है जो श्रमिक नियुक्ति का आधार उत्पन्न करता है तथा ऐतिहासिक रीति से ही भारतीय वर्ण व्यवस्था के वास्तविक आधार को और भी मजबूत बनाता है. पुनः जमींदार कैद किये हुए श्रमिकों द्वारा अर्जित जिस अधिलाभ को हड़प लेते हैं वह अधिकांशतः अनुपजाउ तथा महाजनी ही है क्योंकि इस प्रकार से उत्पादन के क्षेत्र में अधिलाभ का पुनः निवेश के जरिये वर्द्धित पुनः उत्पादन की प्रक्रिया में भी रूकावट आ जाती है. भारत में बेदखल किये गये किसान दूसरे किसी उद्योग में नौकरी नहीं मिल पाने के कारण कृषि पर ही आश्रित रह जाते है और इस तरह से जमींदारों का सामन्ती शोषण चलता रहता है. विशेष पूंजी निवेश न करके बंधुआ मजदूर और काश्तकारों का इस्तेमाल करके बढ़ोत्तरी मूल्य (अधिशेष) पाना सम्भव होता है.




मार्क्स ने बहुत पहले ही इस तरह की खेती की चर्चा की है और उन्होंने बताया है कि पूंजीवाद की साधारण गति व उत्पादन के क्षेत्र में पूंजीवादी भावभंगिमा न रहने से इस प्रकार की व्यवस्था में पूंजीवादी बाजार व्यवस्था की जो विशिष्टता है, (निष्पक्ष व विभेदीकरण) मालगुजारी व मुनाफा के बीच भेद उत्पन्न नहीं होता है. प्रसंगवश पूंजीवादी व्यवस्था में जमीन के एकाधिकार के कारण उत्पन्न मालगुजारी का परिणाम तय होता है बाजार के नियम के अनुसार, जमींदारों के सामाजिक प्रभुत्व की वहां कोई भूमिका नहीं है. परन्तु जमींदारी खेती बाहर से दिखने में पूंजीवादी होने पर भी पूरी बढ़ोत्तरी श्रम असल में मालगुजारी का रूप ग्रहण करता है. यह मालगुजारी की सीमा पूंजीवादी बाजार के नियम से सीमाबद्ध नहीं रहता है इसलिए यह मालगुजारी पूंजीवादी व्यवस्था का बढ़ोत्तरी मूल्य (अधिशेष) का अंश नहीं है, जमींदार व गुलाम कृषि श्रमिक की सामाजिक स्थिति के आधार पर निर्धारित सामन्तवादी मालगुजारी है. इस प्रकार के शोषण का आधार पूंजी नहीं बल्कि मालिक और गुलाम संबंध है.

इसके अलावा जमींदार प्रायः प्रजा बंटन प्रबंध को बरकरार रखकर आंशिक रूप में पूंजी निवेश करता है. लेकिन इस क्षेत्र में भी जिस अनुपात से काश्तकारों और जमींदारों के बीच फसल का बंटवारा होता है उसके अंदर निवेश कृत पूंजी के ऊपर मुनाफा के साथ युक्त रहता है मालगुजारी जो किसी भी प्रकार से बाजार के नियमों के अनुसार पूंजीवादी मालगुजारी नहीं है, जमींदार के सामाजिक प्रभाव, प्रतिष्ठा के आधार पर तय हुआ मालगुजारी है. अगर काश्तकारों की समूची पूंजी निवेश करने की क्षमता होती, तो इस प्रकार की खेती धीरे-धीरे पूंजीवादी खेती की ओर जा सकती थी. लेकिन काश्तकारों की आर्थिक व सामाजिक रूप से वह क्षमता नहीं है. मालगुजारी, महाजन व फसल के व्यापारियों का शोषण और साथ-साथ खाद, बीज, कीटनाशी सहित उत्पादन के साधनों का एकाधिकार के चलन में वृद्धि किसी भी स्थिति में इस तरह के काश्तकारों के हाथ में बढ़ोत्तरी (अधिशेष) इकट्ठा होने नहीं देता है. अतः सालों साल इस प्रकार का सामन्ती शोषण बरकरार रहता है और साथ ही साथ अर्द्ध सामन्तवादी संबंध का पुर्नजन्म घटित होने लगता है.




यह भी उल्लेखनीय है कि जो भारत में अधिकतम क्षेत्र में केवल बड़ा खेत ही समझा जाता है, उन्नत कृषि साधनों के जरिये अधिक उपजवर्धक तरीके से खेती नहीं समझा जाता है. छोटे आकार के खेत की तुलना में बड़े आकार के खेत की उत्पादकता प्रति एकड़ कम होती है. इसलिए इस प्रकार के खेत में पूंजीवाद का विस्तार हो रहा है, यह नहीं कहा जा सकता. दूसरी तरफ पूंजीवाद की विशेषता के बारे में लेनिन ने जो कहा हैं कि पूंजीवादी केंद्रीयकरण का (जहां प्रतियोगिता में असमर्थ होकर छोटी जमीन का मालिक जमीन बेचकर सर्वहारा में रूपान्तरित हो जाता है) माध्यम, ये बड़े खेत का उत्पन्न होना व उसके जरिये छितराया हुआ श्रम को सामाजिक बनाने की कोई प्रक्रिया भी प्रचलित नहीं है.

स्थायी रूप में छोटे खेत की प्रधानता पूंजीवाद के आगे बढ़ने का सूचक नहीं है. एन.एस.ओ. के तथ्य के मुताबिक 1960-61 में ग्रामीण जनता का 11.5% बिना भूमि का और 2002-03 में बिना भूमि का काम होता है 110%. यहां बिना भूमि के रूप में उन्हें शामिल किया गया है, जिनके पास 0.05 एकड़ से कम जमीन है. हम अगर एक एकड़ से कम जमीन के मालिक को भूमिहीन माने, तब इस तथ्य के अनुसार भूमिहीन होंगे 62%, जहां 1960-61 में इस प्रकार के भूमिहीन का प्रतिशत 44% था और जिन लोगों की जमीन 2.5 एकड़ से कम है, वैसे हाशिया किसान व भूमिहीन किसानों को जोड़ें, तो यह 1961 के साल में ग्रामीण जनसंख्या के 66% से बढ़कर 2003 के साल में 80% तक पहुंच चुका है.

दूसरी तरफ जिनके पास 10 एकड़ से ज्यादा जमीन है, उन जमींदारों व बड़े किसानों की संख्या 1961 में था 12% और साल 2002-03 में वह घटकर 3.6% पहुंचा है. जिनकी जमीन 2.5-10 एकड़ के अंदर है, उन छोटे व मध्यम वर्ग के किसानों का अनुपात 1961 में 18% हुआ है. जमीन का परिमाण के जरिये तुलना करने पर यह दिखाई देता है कि जमींदार व बड़े किसानों के पास रहे कुल जमीनों का परिमाण थोड़ा घटा है, मध्यम वर्ग के किसानों का थोड़ा बढ़ा है, छोटे किसानों का ज्यादा बढ़ा है, हाशिये किसानों का भी थोड़ा बढ़ा है.




बिना भूमि के हाशिये, छोटे व मध्यम वर्ग के किसान, सबको एक साथ जोड़ने से ये कुल ग्रामीण जनसंख्या का 90% से भी ज्यादा है. अगर छोटे व मध्यम वर्ग के किसान अपने जमीन में गहन खेती कर खुले बाजार में बेचकर उनके खुद के द्वारा उत्पन्न किया गया अधिशेष बढ़ोत्तरी को अपने अधिकार व नियंत्रण में रख पाता, तब इन लोगों के बीच में ध्रुवीकरण (पोलराइजेशन) के जरिये इन किसानों का एक तबका क्रमशः धन उपार्जन करके पूंजीवादी किसान के हैसियत से प्रकट हो सकता था व दूसरा स्वाधीन कृषि मजदूर के रूप में रूपान्तरित हो जाता. ऐसे भी छोटे कृषि अर्थव्यवस्था के अंदर कृषि में पूंजीवादी संबंध घटित हो सकता है और आजकल बहुत उन्नत देश में ऐसे ही कृषि की उन्नति घटित हुई है. इस तरह के विकास के लिये चाहिए खुला बाजार व सरकारी सहयोग का वातावरण लेकिन भारत में ऐसा हुआ है क्या ?

हाल के तथ्यों के अनुसार किसानों के बड़े तबकों का पूंजी संचय करना तो दूर की बात, खेती-बाड़ी से जो कमाई होती है, उससे साल भर परिवार के खर्च चलाने भर भी वसूल नहीं होता है. नयी उदार अर्थव्यवस्था में कृषि साधन का एकाधिकार का बढ़ना, महाजनी व फसल के व्यापारियों के दबदबे के कारण इन लोगों की हालत दिन-ब-दिन और भी दयनीय हो रही है. अतः स्वाभाविक रूप से परिवार पालने के लिए न केवल भूमिहीन, हाशिये व छोटे किसान भी खेत में मजदूर का काम करते हैं, बल्कि बहुत क्षेत्रें में मध्यम वर्ग के किसानों को भी खेत मजदूर के रूप में काम करना पड़ता है. फिर साल के दूसरे समय में छोटे व हाशिये किसान भी खेती-बाड़ी के लिए मजदूर नियुक्त करते हैं. खेत मजदूरों के हाशिये, छोटे एवं मध्यम वर्ग के किसानों की मजदूरी करने के विषय को लेते हुए बहुत बुद्धिजीवी इस सिद्धांत में पहुंचते हैं कि कृषि में मजदूरी श्रम के जरिये शोषण उत्पन्न करने वालों के पास बढ़ोत्तरी वसूली प्रधान तरीका में रूपांतरित हुआ है, जो पूंजीवाद की विशिष्टता है. परन्तु वे लोग यह नहीं कहते कि यह (अधिशेष) बढ़ोत्तरी मूल्य कौन-से पूंजीपतियों के हाथ में जा रहा है, जिसका बाजार में प्रतियोगिता के नियम के अनुसार उस बढ़ोत्तरी मूल्य (अधिशेष) को पुनः निवेश करके क्रमशः कृषि उत्पादन व्यवस्था को पुष्ट करने की बात है.




भारतीय कृषि में खेती के मजदूरों का अस्तित्व प्राचीन काल से ही रहा है. इसके साथ पूंजीवाद के विकास का कोई संबंध नहीं है. इसका पहला कारण है जाति-वर्ण व्यवस्था व बाद में औपनिवेशिक शोषण. जाति-वर्ण व्यवस्था में शूद्र या अति शूद्र जाति के मनुष्य के सम्पत्ति का अधिकार निषिद्ध था एवं ब्रिटिश शासन में जमींदारी व्यवस्था चालू करके जनता के एक बड़े हिस्से को जमीन से बेदखल किया जाता है.

उल्लेखनीय है कि सन् 1931 में ही ग्रामीण जनता का 38% खेत मजदूर था. इसको अगर पूंजीवाद के आरंभ के तौर पर देखें तो कहना पड़ेगा कि उस वक्त ही भारत का पूंजीवाद जर्मनी, फ्रांस, संयुक्त राज्य अमेरिका के पूंजीवाद के विकास के बराबर पर था, जो बिल्कुल कोरी कल्पना है. हाल के एनएसओ के आंकड़ों में देखा गया है कि कुल कृषि श्रम के अंदर मजदूरी श्रम का परिमाण कम गया है और परिवार के लिए श्रम का परिमाण बढ़ गया है. फिलहाल कुल कृषि श्रम के अंदर परिवार के लिए श्रम का परिमाण 64.2% है, जो सन् 1873 ई0 की तुलना में ज्यादा है. इसका कारण कहा जा सकता है कि कृषि व्यापार की प्रवृत्ति भयंकर रूप से किसानों के विरूद्ध जाने की वजह से ही किसान लोग कृषि कार्य में लागत कम करके मजदूरी-श्रम के बजाय परिवार के लिए श्रम का परिमाण बढ़ाने को लाचार हो रहे हैं.

कृषि का अधिशेष (बढ़ोत्तरी) हड़पने वाला श्रेणियों का प्रतिक्रियाशील बर्ताव तथ्य कह रहा है कि जिन लोगों की जमीन 10 एकड़ से ज्यादा है, वह ग्रामीण जमीन्दार व धनी किसानों के हाथ में कृषि से प्राप्त बढ़ोत्तरी मूल्य (अधिशेष) का एक हिस्सा जमा होता है, उसमें से कुछ हिस्से का पुनःनिवेश हुआ है.

पिछली शताब्दी के 70 और 80 के दशक में पूंजी निवेश में कुछ बढ़ोत्तरी हुई है. मगर कृषि में जिस मात्र से सरकारी निवेश घटना चालू हुआ उसी के साथ-साथ निजी उद्योग से पूंजी निवेश भी घटना चालू हो गया. उल्लेखनीय है कि इस (अधिशेष) बढ़ोत्तरी का औसतन सिर्फ 10.5% ही उत्पादन के लिए व्यय किया जाता है. पंजाब में इसका परिणाम ज्यादा (23%) है.




वर्तमान में संग्रहित सारे तथ्य कह रहें हैं कि भारतीय कृषि में छोटी जमीन की ही प्रधानता है. और इस तरह के जमीन के मालिक खेती-बाड़ी चलाकर अपने परिवार के लिए सालभर की अपनी जीविका का खर्च नहीं पूरा कर पाते हैं. उपर से कृषि औजार और साधन का मूल्य क्रमशः बढ़ता जा रहा है एवं साम्राज्यवादी निर्देश से कृषि में सरकारी निवेश व अनुदान घटता जा रहा है. दूसरी तरफ छोटे व अनौपचारिक किसानों के लिए बैंक कर्ज भी मिलना दुष्कर हो गया है.

इसके आस-पास ब्रिटिशकाल से ही भारतीय समाज में जीविका कर्ज व उत्पादन के खर्च के लिए कर्ज यानी बियाना की पूर्ति सामाजिक वर्ग द्वारा पूरा किये जाने की प्रवृत्ति रही है. वे लोग है-सरकार, महाजन, फसल व्यापारी, जो कभी-कभी एक ही आदमी हो सकता है. इसका कुप्रभाव पड़ता है फसल के दाम पर, मौसम के उतार-चढ़ाव के हिसाब से जो निश्चित रूप से किसानों के हित के विरूद्ध जाता है.

स्वाभाविक रूप से ही अनौपचारिक छोटे व मध्यम वर्ग के किसानों द्वारा उत्पन्न बढ़ोत्तरी (अधिशेष) उनके हाथ में नहीं रहता है, वह महाजन व फसल के व्यापारियों के हाथ में चला जाता है और उत्पादन के क्षेत्र में (अधिशेष) बढ़ोत्तरी के पुनः निवेश की संभावना बहुत ही कम रहती है, क्योंकि महाजनी व्यापार व फसल व्यापार लाभदायक होने पर यह अधिलाभ उत्पादन रहित क्षेत्र में निवेश किया जाता है और इस तरह का उत्पादन-संबंध बरकरार रखने के लिए महाजनी व वाणिज्य संबंधी पूंजी छोटे उत्पादकों के माल के ऊपर ही कब्जा रखता है, उत्पादन प्रक्रिया के ऊपर नहीं. इसलिए यह प्रक्रिया छोटे किसानों को छोटे उत्पादन के रूप में ही रख देता है, वहां से बढ़ोत्तरी चूस लेता है, परन्तु पूंजी के रूप से उसकी श्रम-क्षमता के ऊपर नियंत्रण कायम कर उसको सर्वहारा में रूपान्तरित नहीं करता और दूसरी तरफ उसको पूंजीपति बनने का भी मौका नहीं देती है. पूंजीवादी संबंध विस्तार के स्तर पर रहने से इसके विपरीत घटना होती है यानी उत्पादन में निवेश किया गया पूंजी वाणिज्य संबंधी पूंजी व महाजनी पूंजी को अपने नियंत्रण में ले आता है और कालक्रम से महाजनी पूंजी का उन्मूलन होता है. इससे कृषि अर्थव्यवस्था इस तरह से चलता है, जिससे छोटे और मध्यम वर्ग के किसान गहन कृषि उत्पादन चलाने से भी उन लोगों के हाथ में किसी भी हालत में बढ़ोत्तरी (अधिशेष) इकट्ठा नहीं होता है. बढ़ोत्तरी का एक अंश चला जाता है, महाजन, फसल व्यापारी के हाथ में और दूसरा अंश खाद, कीटनाशी सहित उन्नत कृषि औजार, साधन के व्यापारियों के जरिये साम्राज्यवादी एकाधिकार पूंजी के हाथ में. इस तरह से छोटे व मध्यम किसान उसी हालत में रह जाते हैं. यानी यह अर्द्ध सामन्ती संबंध का पुनः उत्पादन घटते रहता है.




अब तथ्य को देखा जाए, औसतन किसान की कुल आय उसके परिवार की जीविका चलाने के खर्च का महज 35» पूरा करता है.खेती-बाड़ी, मजदूरी, पशुपालन, अन्य कार्य व गैर-कृषि व्यापार से एक किसान परिवार की औसतन मासिक आय होती है 2115 रूपये और परिवार की जीविका का खर्च है 2880 रूपये. यह खर्च रोजाना प्रति व्यक्ति 18 रूपये तय किया गया है.

एन.एस.ओ. के तथ्य के अनुसार 49» किसान परिवार ही कर्जदार है. हालांकि यह हिसाब विभिन्न राज्यों में विभिन्न प्रकार है. आंध्र प्रदेश, पंजाब, केरल, तमिलनाडु में ऋणग्रस्तता का परिमाण ज्यादा है. अब देखा जाए तो ऋण वापसी के लिए ब्याज के वास्ते कितना (रूपया) खर्च होता है. तथ्य के अनुसार औसतन एक किसान परिवार का ऋण का परिमाण है 12484 रूपये, जिसका 30.9% आता है ग्रामीण महाजन व फसल के व्यापारियों से और बाकी का आता है प्रतिष्ठान सहित अन्य से फलस्वरूप कुल कृषि ऋण का परिमाण है 1,12,000 करोड़ रूपया. प्रतिष्ठानिक ऋण का ब्याज 12%-15% और 14-20% के भीतर घूमता रहता है. 40% गैर-प्रतिष्ठानिक ऋण के ब्याज की दर 30% या उससे ज्यादा है. इसलिए बिना किसी विवाद के ब्याज की दर 24% मान लिया जाए, तब ब्याज वापसी के लिए किसानों का व्यय होता है 20,000 (बीस हजार) करोड़ रूपये.

एस्पेक्ट ऑफ इंडियन इकॉनोमी का 46 नं बुलेटिन के विचार से यह हिसाब काफी नहीं है. क्यों ? एनएसओ के तथ्य के अनुसार अधिकांशतः किसान खेती-बाड़ी से उनके परिवार के साल भर की जीविका नहीं कमा सकते. दूसरी तरफ खेती-बाड़ी के खर्च का एक छोटा अंश प्रतिष्ठानिक ऋण के रूप में मिलता है (सन् 2006 में सिर्फ 15%).

ऋण के विषय में एनएसओ के तथ्य को मान लेने से किस प्रकार कृषि कार्य सिद्ध होता है, यह व्याख्या करना मुश्किल हो जाता है. इसलिए गैर प्रतिष्ठानिक ऋण का परिमाण और भी ज्यादा होगा. गैर-प्रतिष्ठानिक ऋण को प्रतिष्ठानिक ऋण के दूना लेने पर सन् 2006 में कुल कृषि ऋण का परिमाण होगा 1,95,000 करोड़ रूपये और ब्याज की दर 21% लेने से कुल ब्याज का परिमाण होता है 41,000 करोड़ रूपये.




प्रसंगवश 2002-03 के हिसाब को देखें तो उस समय कृषि में कुल निवेश था 33,508 करोड़ रूपये और निरा निवेश था 7784 करोड़ रूपये. हिसाब देखने से ही यह समझा जा सकता है कि किस तरह से कृषि से उत्पन्न बढ़ोत्तरी का विपुल अंश महाजन व व्यापारियों के निरंकुश नियंत्रण में रहकर उत्पादन क्षेत्र में पूंजी के संचय में रूकावट पैदा करता है. इस तरह से प्राक् पूंजीवादी शोषण की वजह से छोटे जमीन में उन्नत किस्म का बीज, विभिन्न कृषि कार्य के उपकरण का इस्तेमाल करके गहन खेती करके भी पुनः उत्पादन की शर्त का उल्लंघन होता है और यह व्यवस्था सरल माल उत्पादन के दायरे में ही घुमता-फिरता रहता है.

इसलिए भारतीय कृषि में सबसे नीचे के स्तर से पूंजीवाद के विस्तार होने की संभावना भी नष्ट होती है. कृषि बाजार अर्द्ध सामन्तवादी उत्पादन सबंध के दायरे में ही घुमता-फिरता है. कुछ लोग कृषि माल के बाजार के ऊपर अव्यावहारिक रूप से अनावश्यक बल देते हुए भारतीय कृषि में पूंजीवाद का विस्तार दिखाने की कोशिश करते हैं, जो बात अच्छी तरह से समझने की जरूरत है, वह यह कि अंग्रेजी शासन काल से ही किसानों के एक हिस्से को जबरदस्ती बाजार के लिए उत्पादन करने को बाध्य किया जा रहा है, परन्तु इससे किसान न तो पूंजी ही इकट्ठा कर सके और न ही खेती-बाड़ी से बाहर ही आ सके.




कुछ दिन पहले अर्थशास्त्री अमित भादुड़ी ने कुछ इलाकों में समीक्षा कर पाया कि हिस्सेदार (बटाईदार) खेती के क्षेत्र में –

1. जमीन का मालिक अगर छोटे किसान को खुराक के लिए कर्ज देता है और

2. बाजार का अस्तित्व रहने पर भी हिस्सेदार (बटाईदार) किसान की पूंजी व माल को अगर बाजार में बिना रोक-टोक घुसने का अवसर नहीं रहता है, तब कृषि की उन्नति (बढ़ाने) लायक औजार व साधन मौजूद रहने पर भी जमीन के मालिक की उन्नति के तरफ कोई खास उत्साह नहीं रहता है. इसका कारण क्या है ?

भादुड़ी जी ने दिखाया कि आधुनिक औजार और साधन का इस्तेमाल करके कृषि उत्पादन को उन्नत करने से ऐसी अवस्था दिखाई दे सकती है, जहां उस छोटे किसान को खुराक के लिए और किसी कर्ज की जरूरत नहीं रही है.

ऐसी अवस्था में खुराक के लिए कर्ज के जरिये जिस तरह शोषण चलाना संभव हो और जिससे जिस तरह की बढ़ोत्तरी वसूल की जा सकती है. बाजार नियम से चलने से सबकुछ संभव नहीं होता है. इस प्रकार के जमीन के मालिक गांव में अपना आर्थिक व राजनीतिक नियंत्रण बरकरार रखने के लिए तथा अपना सामन्तवादी एकाधिकार बरकरार रखने के लिए खुराक के कर्ज की व्यवस्था की रक्षा करने की कोशिश करता है. भले ही वह उत्पादक शक्ति के विकास के लिए कितना भी हानिकारक हो.




साधारणतया खेत से फसल संग्रह करने के बाद फसल का मूल्य बहुत कम रहता है. फिर आगामी फसल बनने के पहले जिस समय फसल का मूल्य ज्यादा रहता है, उस समय किसान को खुराक के लिए कर्ज की जरूरत हो जाती है. यह एक ऐसा संबंध है, जो कर्ज के ऊपर कोई ब्याज तय नहीं करने पर भी कर्ज देने वाले बढ़ोत्तरी का विशाल अंश हड़प सकता है. उदाहरणस्वरूप- मान लीजिए फसल संग्रह करने के बाद किसी गांव में 1 मन (करीब 40 किलो) चावल का बाजार की कीमत होती है 400 रूपये. तीन महीने बाद यह कीमत बढ़कर 800 रूपये हो जाती है. फलतः इस समय किसान अगर 1 मन (40 किलो) चावल (400 रूपये मूल्य) उधारी लेता है, तब फसल संग्रह करने के बाद यह कर्ज चुकाएगा, तब उसको 2 मन यानी 80 किलो चावल (800 रूपये प्रति किलो) देना पड़ेगा. यानी इस तरह से गरीब किसान के कर्ज के ऊपर कोई ब्याज तय न भी किया हो, तब भी किसान से 200% ब्याज वसूल किया जाता है.

वस्तुतः यह एक दुर्लभ उदाहरण हो सकता है, मसलन जमीन का मालिक ही साहूकार, महाजन हो, जो महाजन है वही फसल व्यापारी हो, ऐसा सभी जगह इसी रूप में मौजूद नहीं रहता है. पर उदाहरण से उत्पादन-सबंध के अन्तरस्थ अर्थ को समझना सहज है. यहां जो समझना आवश्यक है, वह है –

1. अधिकतम किसान खेती-बाड़ी से सालभर की जीविकोर्पाजन नहीं कर सकता.

2. सरकारी प्रतिष्ठान से कर्ज मिलना दुश्वार है. खुराकी के लिए कर्ज देने वाले साहूकार महाजन व फसल के व्यापारी है और कभी-कभी दोनों भूमिका एक ही आदमी निभाता है.

3. फसल की कीमत ट्टतु के प्रभाव से बढ़ती-घटती रहती है, जो प्रायः गरीब व मध्यम किसानों के हित के खिलाफ जाता है.

4. कृषि उपकरणों की कीमत का बढ़ना और साम्राज्यवाद के निर्देश से कृषि में सरकारी निवेश व अनुदान का घटना.




समाज में उपादान समूह मौजूद रहने से वहां अगर बटाईदार खेती की पद्धति मजबूत नहीं रहे तब भी अनौपचारिक व मध्यम वर्ग के किसान द्वारा उत्पन्न बढ़ोत्तरी किसान के हाथ में नहीं रह सकता. वह इस संबंध के जरिये कृषि उपकरण का नियंत्रण रखने वाले एकाधिकारी पूंजीपति, साहूकार, महाजन व फसल के व्यापारियों के हाथ चला जाता है और फिर इसके उत्पादक स्थान पर निवेश की संभावना बहुत ही कम रह जाती है क्योंकि महाजन व फसल व्यापारियों के हाथ में बढ़ोत्तरी जमा होने से वह फिर वही लाभदायक साहूकारी व फसल व्यापार के अनुत्पादक स्थानों में ही फिर निवेशित होने लगता है. इस तरह की शोषण वाली व्यवस्था को बरकरार रखने या इस तरह का संबंध पुनःउत्पादन के लिए महाजनी व वाणिज्य सम्बन्धी पूंजी छोटे उत्पादकों के माल के ऊपर ही नियंत्रण रखता है, उत्पादन प्रक्रिया को संगठित नहीं करता है. यह प्रक्रिया छोटे किसान को छोटे उत्पादक के रूप में रख देता है और उसको निचोड़ता जाता है. ये शोषक लोग पूंजी के मालिक के रूप में उत्पादक प्रक्रिया संगठित करके श्रम मुक्त बाजार बनाने के खातिर लोगों को मजदूर भी बनने नहीं देता है, और दूसरी तरफ उनके द्वारा उत्पन्न बढ़ोत्तरी को छीन कर उनके एक अंश को पूंजीपति बन बैठने का भी मौका नहीं देता है.

आजकल भिन्न तथ्यों से यह दिखाने की कोशिश की जा रही है कि हिस्सेदारी (बटाईदार) कृषि दिन-ब-दिन घटती जा रही है.असलियत में यह कृषि की उन्नति का कोई सूचक नहीं है, ज्यादा जमीन के मालिक भागीदारी कृषि कानून को टालने के लिए ही भागीदार किसानों को विस्थापित करता जा रहा है. इसलिए भारत के बहुत से इलाके में बहुत से भूमिहीन व अनौपचारिक किसान मौखिक रूप में जमीन ठेका लेकर खेती करवा रहा है. यानी सरकारी खाते में वे लोग जमीन के मालिक भी नहीं हैं, भागीदार भी नहीं हैं, हिस्सेदार भी नहीं हैं. अतः वे लोग खेती करने के लिए कृषि ऋण सहित किसी प्रकार का सरकारी सहयोग भी नहीं पाते हैं.




उनके लिए खेती का खर्च को जुटाने के लिए साहूकार, महाजन के अलावा कोई विकल्प नहीं है, परिणामतः उन्हें ऊंचे ब्याज दर पर ऋण लेना पड़ता है जिसे (ज्यादातर) गुप्त रखा जाता है. हमारे राज्य में भी इस प्रकार के बहुत किसान है. फसल के नष्ट होने या फसल की सही कीमत न मिल पाने से ऐसे किसानों की एक बड़ी संख्या कर्ज के बोझ से दबा रहता है और इसी वजह से बहुतेरे किसान आत्महत्या करने को भी मजबूर हुए.

फसल की कीमत का ऋतुकालीन उतार-चढ़ाव व अर्द्ध सामन्तवादी संबंध कृषि से उत्पन्न फसल के भाव का ऋतुकालीन उतार-चढ़ाव क्यों रहता है ? ज्यादातर लोग फसल के भाव के इस उतार-चढ़ाव के एक सामाजिक नियम के स्तर पर उतार लाते है या मांग पूर्ति के विषय के रूप में देखते हैं. मगर इससे अलग इसका उत्पादन संबंध के साथ जोड़कर नहीं देखते.

फसल संग्रह के बाद बाजार में फसल की पूर्ति बढ़ने के कारण से ही भाव घटता है, ऐसा सोचने का कोई कारण नहीं है. पूंजीवादी व्यवस्था में अगर ऐसा होता है तब तो बाजार के नियम के अनुसार वहां निवेश भी कम हो जाएगा. यह केवल वहां घट सकता है, जहां पूंजीवादी बाजार की मुक्त प्रतियोगिता विकसित नहीं हुई है. किसान कृषि उत्पादन करने को मजबूर होते है, सिर्फ अपने परिवार की जीविका के लिए. इसलिए कृषि फसल के भाव का ऋतुकालीन उतार-चढ़ाव किसी प्रकार से भी पूंजीवादी संबंध का सूचक नहीं है.

सचमुच साम्राज्यवाद व सामन्त के संबंध की प्रधानता से भारत का बाजार इस तरह से विकसित हुआ है कि उस बाजार के ऊपर किसान या उत्पादकों का किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं है. फसल संग्रह के बाद बाजार में फसल का भाव, पूंजीवादी बाजार के नियम से नहीं, फसल के व्यापारी व महाजन के सामाजिक आधिपत्य से तय होता है. फसल के भाव का यह ऋतुकालीन संबंध का अस्तित्व रहा है, अंग्रजों के जमाने से ही. अंग्रेजों द्वारा चालू किया गया जमींदारी व्यवस्था तथा भूमि राजस्व का नकदी भुगतान की व्यवस्था ने समाज में महाजनी व्यवस्था को बलवान किया.




महाजनी ऋण उसको चुकाने की शर्त इस प्रकार से तय होती है कि किसान फसल संग्रह के साथ-साथ उस फसल को बेचने को मजबूर हो जाता है और उसका सुयोग लेता है खुद महाजन या फसल का व्यापारी. स्थिति में काफी परिवर्तन होने के बावजूद भी यह ग्रामीण उत्पादन-संबंध आज भी बरकरार है. इसका कारण है, जिस तरह का प्राक् पूंजीवादी शक्ति इस संबंध का आधार है, उसका आज भी समाज में मौजूद रहना. वर्तमान स्थिति में कई जगहों में खाद, कीटनाशी या भिन्न कृषि उपकरणों के व्यापारी ही महाजन व फसल व्यापारी की भूमिका निभा रहा है.

फसल के व्यापारीकरण ने महाजनी व्यापार को दुर्बल नहीं किया है. अंग्रेजों के शासन काल से ही भारत की कृषि में किसान की ऋणग्रस्तता व महाजनी व्यापार का प्रभुत्व हमेशा रहा है. इस कारण यह प्रश्न तर्कसंगत ढंग से उठेगा कि पिछले 15 सालों में ही क्यों इतनी बड़ी संख्या में किसानों ने आत्महत्या की है ? वास्तव में इस घटना का नयी उदार अर्थनीति की मदद से कृषि का अधिकाधिक व्यापरीकरण व उसके साथ ग्रामीण समाज में प्रचलित उत्पादन संबंध का गहरा संबंध रहा है.

याद रखना जरूरी है कि इस असाधारण ऋणग्रस्तता के साथ कृषि की उत्पादन-क्षमता का संबंध नहीं है. जिस इलाके में फसल का व्यापारीकरण सबसे ज्यादा (69-81%) हुआ है, वहीं किसानों की आत्महत्या की घटना सबसे ज्यादा घटित हुई है. फलतः कृषि में उन्नत पंजाब, हरियाणा जैसे स्थानों पर किसानों की आत्महत्या की घटना ज्यादा घटी है. वैसे कृषि में तुलनात्मक रूप से अनुन्नत महाराष्ट्र व कर्नाटक में भी यह घटी है. दरअसल यह दिखा देता है कि साम्राज्यवादी पूंजी क्रमशः बढ़ने वाला घुसपैठ और महाजन व फसल व्यापारियों का महाजनी शोषण का कारोबार एक-दूसरे के विरूद्ध काम नहीं किया है, बल्कि यह दोनों एक-दूसरे को सहयोग किया है और इनका मिश्रित आक्रमण किसान को और भी दयनीय अवस्था में धकेल दिया है.




अब यह देख लिया जाए कि इस महाजनी कारोबार के प्रति हमारे शासकों का रवैया क्या है ? क्योंकि शासक अगर पूंजीवादी संबंध के प्रतिनिधि हो जाते हैं, तब इसका असर आर्थिक, राजनीतिक उद्यम के क्षेत्र में भी पड़ेगा और वह क्रमशः सामन्तवाद को कमजोर करेगा. प्रथमतः इस उदारीकरण के जमाने में सरकारी निवेश व सरकारी कृषि ट्टण घटते आ रहा है, जिसने महाजनी व्यापार को नये सिरे से उत्साहित किया है. बड़ी संख्या में किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाओं के मद्देनजर ग्रामीण ऋण संबंधी कानून की आलोचना के ध्येय से एस. सी. गुप्ता के नेतृत्व में एक टेक्निकल ग्रुप बनाया गया. रिजर्व बैंक को दिये गये इस टेक्निकल ग्रुप के रिपोर्ट में ग्रामीण महाजनों का उन्मूलन नहीं बल्कि बैंक व ग्रामीण महाजनों के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रस्ताव रख कर कहा गया ‘‘बैंक के ऊपर ज्यादा जिम्मेवारी देने से उसे लेने का देना पड़ेगा क्योंकि इससे ग्रामीण महाजन वर्ग थोड़ा भी सन्तुष्ट नहीं होगा.’’ उस रिपोर्ट में जिस तरह का प्रस्ताव दिया गया है, उसकी मुख्य बातों का लक्ष्य है महाजनी व्यापार का उन्मूलन नहीं, बल्कि बैकिंग कारोबार के साथ जोड़कर महाजनों का नवीनीकरण करना, जिससे भविष्य में देशी-विदेशी वाणिज्यिक बैंक भारत के विस्तृत इलाके में महाजनों के फैलाये गये व्यापार के नेटवर्क का इस्तेमाल कर मुनाफा लूट सके.

अर्द्ध औपनिवेशिक व अर्द्ध सामन्तवादी व्यवस्था के उन्मूलन के बिना अर्थनीति का विकास संभव नहीं है. हमलोग ऊपर यह देख चुके हैं कि भारत के कृषि क्षेत्र में स्पष्ट रूप से अर्द्ध सामन्तवादी संबंध प्रचलित है, जो इस देश के पिछड़ेपन को बरकरार रख साम्राज्यवादी बढ़ोत्तरी पूंजी (अधिशेष पूंजी) का विभिन्न क्षेत्र में रूपांतरित करता है.




पिछले 25 साल से नयी उदारवादी नीति के कारण हुए परिवर्तन में देखें तो यह सामन्तवादी संबंध पूरी तरह से कभी भी कमजोर नहीं हुआ है. अगर किसी क्षेत्र विशेष में यह संबंध गौण हुआ है तो दूसरे रूप में इसका जन्म हुआ है. विशेष रूप से नये उदारवादी युग में साम्राज्यवादी एकाधिकार पूंजी के स्वार्थ के लिए जिस तरह बड़ी संख्या में किसान व आदिवासी को उनके जमीन से विस्थापन किया जा रहा है. उससे ये लोग किसी भी तरह से आधुनिक उद्योग के श्रमिक नहीं बन रहे हैं. वे घर के नौकर, द्वारपाल, थोड़ा-सा माल लेकर फेरी लगाकर बेचने जैसा असंगठित पेशे से युक्त होकर दूसरे रूप में अर्द्ध सामन्तवाद के शिकार बन रहे हैं. देश के दलाल बड़ा पूंजीपतियों द्वारा अपने देश की प्राकृतिक संपदा तेजी से लूटी जा रही है. यह औपनिवेशिक शोषण व अर्द्ध्र सामन्तवादी शोषण असल में परस्पर युक्त एक-दूसरे के अस्तित्व को बनाए रखने की रसद पूर्ति करता है. अर्द्ध सामन्तवादी संबंध देश के पिछड़ेपन को बनाए रख साम्राज्यवादी शोषण का सामाजिक आधार बरकरार रखता है और साम्राज्यवादी शोषण कृषि की बढ़ोत्तरी का एक बड़ा अंश कब्जे में लेकर पूंजी के संचय में दरार पैदा करता है, दलाल बड़े बुर्जुवाओं को ताकतवर बनाकर राष्ट्रीय बुर्जुवाओं के विकास में रूकावट डालता है और इस तरह अर्द्ध सामन्तवादी संबंध को स्थिरता प्रदान करता है. इस प्रकार नयी उदारवादी नीति लागू करने के जरिये देश की उन्नति का जो चित्र सामने लाया जा रहा है, उससे असल में नये-नये रूप से वह सामन्त वर्ग के लोगों की मदद की जा रही है और दूसरी तरफ किसानों के ऊपर थोप दिया है-बर्बर आक्रमण और यह आक्रमण दिन-प्रतिदिन और भी कठोर होता जा रहा है.

इस आक्रमण का मुकाबला करने के लिए चाहिए व्यवस्था बदलने के क्रांतिकारी आंदोलन को तेज कर एक नया प्रजातांत्रिक व्यवस्था बनाना, जिस क्रांतिकारी आंदोलन के केंद्र में रहेगी भूमि क्रांति तथा कृषि क्रांति. मजदूर वर्ग होंगे जिस क्रांति के नेता और किसान होंगे जिसकी प्रधान शक्ति. सिर्फ इस क्रांति के माध्यम से ही हमलोग साम्राज्यवाद, सामन्तवाद और नौकरशाह दलाल बड़ी पूंजी के शोषण से मुक्ति पा सकते हैं.




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