विनय ओसवाल, वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक
मुखिया के तानाशाह बन जाने का एक बहुत अहम कारण है, और वह है ’अपने जहाज के सवारों को चुनावी समुद्र पार कराने की पार्टी में उसकी हैसियत’. “इंडिया इज इंदिरा“ का हश्र हम देख चुके हैं और अब “घर-घर मोदी“ का देख रहे हैं. हाल ही में प्रियंका के सक्रिय राजनीति में उतरने से पूरे देश की राजनीति पर उसके प्रभाव को लेकर राजनीति के विश्लेषक मन्थन करने में लग गए हैं. इस पर मैं अपने को उनके साथ खड़ा मानता हूं जो यह कहते हैं – ‘किसी ठोस नतीजे पर पहुंचने के लिए हमें इंतजार करना चाहिए’.
अखिल भारतीय स्तर पर कांग्रेस ही एक अकेली राजनैतिक पार्टी है जो भाजपा विरोधी है. गठबंधनों के इस दौर में उसे हर हाल में अपने इस चरित्र को सुरक्षित रखना होगा. सत्ता की दौड़ में जनसंघ (भाजपा से पूर्व) ने 1980 में अपनी साख को मिट्टी में मिला दिया था. परिणाम सबके सामने है. उसे दुबारा दूसरे नाम भाजपा से अवतरित होना पड़ा. ठीक वैसे ही जैसे कोई दिवालिया फर्म दूसरे नाम से फिर बाजार में उतरे. पर उसके राजनैतिक कौशल की प्रशंसा करनी ही पड़ेगी कि 1984 में मात्र दो सीट से 2014 में पूर्ण साधारण बहुमत वाली पार्टी बनी, भले ही इसका श्रेय मेरे कुछ मित्र आरएसएस को देना चाहें तो दे सकते हैं.
इसी अवधि में भाजपा जमीन से शिखर तक पहुंची और कांग्रेस शिखर से जमीन पर. कई प्रदेशों में भाजपा और कांग्रेस दोनों सत्ता में नहीं हैं. इन प्रदेशों में क्षेत्रीय पार्टियों की सरकारें हैं. वे कांग्रेस और भाजपा दोनों से दूरी बना के चलने की आवाज की समर्थक दिखने का प्रयास सिर्फ अपने-अपने प्रदेशों में अपनी सत्ता को दोनों राष्ट्रीय पार्टियों से सुरक्षित बनाये रखने के लिए कर रही हैं.
कोई भी राष्ट्रीय पार्टी अपने गठबन्धन सहयोगियों के साथ लोकसभा और विधानसभा चुनावों में एक नीति नहीं अपना सकती. लोक सभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा दोनों की श्रेष्ठता को उनके सहयोगी दलों को स्वीकार करना होगा और विधानसभा चुनावों में सहयोगी पार्टियों की श्रेष्ठता राष्ट्रीय पार्टियों को स्वीकार करनी होगी. लोकतन्त्र के हित में मजबूत सरकार जितनी जरूरी है, मजबूत विपक्ष भी उतना ही जरूरी है. वरना सत्ता का मुखिया तानाशाह बन जाता है और अपनी ही पार्टी के सांसदों की नहीं सुनता.
मुखिया के तानाशाह बन जाने का एक बहुत अहम कारण है, और वह है ’अपने जहाज के सवारों को चुनावी समुद्र पार कराने की पार्टी में उसकी हैसियत’. “इंडिया इज इंदिरा“ का हश्र हम देख चुके हैं और अब “घर-घर मोदी“ का देख रहे हैं. यदि यह हैसियत उन पार्टियों में उन जैसा कोई दूसरा नेता नहीं होने के कारण बनती है तो देश के लोकतन्त्र के लिए घातक बन जाती है. दूसरे शब्दों में यह उन पार्टियों के भीतरी खोखलेपन का ही प्रमाण माना जायेगा. चाहे यह हैसियत कांग्रेस में उसके नेता की बने या भाजपा में उसके नेता की. पूर्व में कांग्रेस में इंदिरा गांधी का और वर्तमान में भाजपा में नरेंद्र मोदी का दौर इस बात का स्पष्ट प्रमाण है.
राहुल गांधी को यह दोनों बातें समझ में आ गई है, ऐसा मानने के ठोस कारण हैं. पहला, कर्नाटक सरकार के गठन में क्षेत्रीय दल को अपनी पार्टी के मुकाबले महत्व देना. दूसरा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, और छतीगढ़ में अपनी पार्टी के प्रदेश स्तरीय नेताओं को सम्मान देना. तीसरा उ.प्र. में लोकसभा चुनाव में क्षेत्रीय सपा-बसपा के सामने घुटने न टेकने का साहसिक और स्पष्ट निर्णय करना.
प्रदेशों में किसी राष्ट्रीय पार्टी के लिए अपने किसी सहयोगी पार्टी को किसी भी राजनैतिक लाभ की लालच में अपनी बांह मरोड़ने देने की हद तक छूट देना किसी राष्ट्रीय पार्टी के लिए हितकर नहीं साबित हो सकता. अमित शाह ने शिव सेना को मुंहतोड़ जबाब देकर ठीक ही किया. लोकसभा चुनाव को दृष्टिगत रखते हुए एक सीमा रेखा को लांघकर समझौता करना किसी राष्ट्रीय पार्टी के लिए कभी फायदेमंद साबित नहीं हो सकता.
हाल ही में प्रियंका के सक्रिय राजनीति में उतरने से पूरे देश की राजनीति पर उसके प्रभाव को लेकर राजनीति के विश्लेषक मन्थन करने में लग गए हैं. कुछ का मानना है, कांग्रेस को इसका कोई लाभ नहीं होगा. कुछ मानते हैं थोड़ा बहुत फायदा हो सकता है. बहुत आशान्वित दिखने वालों की संख्या भले ही कम हो पर वो भी विमर्श में उपस्थिति दर्ज कराने वालों में शरीक हैं. मेरा मानना है, फायदा होगा पर कितना, इस पर मैं अपने को उनके साथ खड़ा मानता हूं जो यह कहते हैं – ‘किसी ठोस नतीजे पर पहुंचने के लिए हमें इंतजार करना चाहिए’.
प्रियंका के सक्रिय राजनीति में उतरने को लेकर भी तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे हैं. प्रियंका को राहुल सक्रिय राजनीति में लाये मुझे ऐसा नहीं लगता. एक अरसे से (सम्भवतः राजीव गांधी की हत्या के बाद से) कांग्रेस कार्यकर्ता प्रियंका से सक्रिय राजनीति में उतरने की अपील पुर-जोर तरीके से करते रहे हैं. आज प्रियंका ने बरसों बाद उसे स्वीकार किया है. यह उनका अपना निर्णय है, जैसे अब तक इनकार करते रहना, उनका अपना निर्णय था.
अपने बच्चों की परवरिश करना भारतीय संस्कृति में रची-पची हर मां की जिम्मेदारी होती है. उन्होंने उस जिम्मेदारी को निभाया. एक जिम्मेदार मां ही जिम्मेदारी से देश की सेवा भी कर सकती है, इतना भरोसा तो हर भारतीय कर ही सकता है. शासक और शासित के बीच भी तो कुछ ऐसा ही रिश्ता होता है. एक मां ही नहीं प्रियंका एक जिम्मेदार बहन, एक जिम्मेदार बेटी का रोल तो हमेशा निभाती ही रही है, यह हम सब जानते ही हैं. चुनावों में उनके यह तीनों रोल हर परिवार के दिल को तो छुएगा ही.
हां, उन्हें संगठन में महामन्त्री बनाने का निर्णय कांग्रेस अध्यक्ष होने के नाते राहुल का माना जायेगा. राहुल ने प्रियंका के साथ ही एक अन्य युवा क्षेत्रीय नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी राष्ट्रीय पटल पर लाने और उ.प्र. में आसन्न लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए बंजर हो चुके इस प्रदेश के पूर्वी और पश्चिमी हिस्सों की कमान क्रमशः प्रियंका और ज्योतिरादित्य को देकर उन्होंने यह साबित करने का प्रयास किया है कि वे अब नए तरीके से राजनीति करने के लिए अपनी पार्टी की नीतियां बनाने में सक्षम हैं. अमूमन महामंत्रियों को एक प्रदेश या एक से ज्यादा प्रदेशों की कमान राष्ट्रीय महामंत्रियों को दी जाती रही है. पर उन्होंने किसी एक को पूरे प्रदेश की ही कमान नहीं दी. वे अपने क्षत्रपों को कुचलेंगे नहीं, अपितु उनकी क्षमताओं का भरपूर उपयोग करेंगें. संगठनात्मक निर्णय लेने में आये यही सब परिवर्तन भाजपा की पेशानी पर पसीने का कारण बनते दिख भी रहे हैं.
प्रियंका के राजनीति में अप्रत्याशित प्रवेश पर लोकसभा की अध्यक्ष ने अपनी तात्कालिक प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि – “राहुल ने मान लिया है कि वे राजनीति में फेल हो गए हैं“. वे भूल गयी कि वह एक बड़े जिम्मेदार संवैधानिक पद पर आसीन हैं, भाजपा की साधारण कार्यकर्ता नहीं. इस पद पर अब तक बैठने वालों की श्रृंखला में वे पहली ऐसी लोकसभा अध्यक्ष हैं, जिसने इस पद की गरिमा के खिलाफ बयान दिया है. इस पद पर बैठने वाले से यह उम्मीद नहीं की जाती है. इसे प्रियंका के अवतरण के बाद भाजपा की बौखलाहट के रूप में देखा जा रहा है. दूसरा प्रधानमन्त्री जी जिस समय इस परिवार पर आक्रामक होते हैं, उस समय यह भूल जाते हैं कि उनकी पार्टी के परिवार ने भी तो इसी परिवार का सहयोग ले रखा है.
उ.प्र. की राजनैतिक जमीन कांग्रेस के लिए बंजर हो चुकी है. इस बंजर जमीन में प्रियंका के आने से कांग्रेस को लोकसभा चुनावों में कोई बड़ी सफलता मिलेगी, ऐसी आशा दिवास्वप्न देखने जैसी है. हां, कांग्रेस को मिलने वाले मत प्रतिशत 7.5 में वृद्धि होगी, मेरा ऐसा मानना है. मतों में इस वृद्धि से लोकसभा की सीटों की संख्या में कितनी वृद्धि होगी ? इसके लिए भविष्य में राजनीति में होने वाले परिवर्तनों को देखे बिना कोई अनुमान लगाना बेमानी होगा.
मायावती-अखिलेश यदि पूरी शिद्दत से भाजपा के विरोधी हैं तो दोनो को बदली हुई राजनैतिक परिस्थितियों पर विचार करना चाहिए, वरना इसका फायदा भाजपा को ही होगा, जैसा वह दावा कर रही है और बसपा-सपा गठबन्धन को नुकसान. मुझे ऐसा लगता है चुनाव से पूर्व राहुल बंगाल में ममता बनर्जी, आंध्र में जगनमोहन रेड्डी, छत्तीसगढ़ में जोगी और अन्य प्रदेशों में कांग्रेस से दूर या उसके विरोधी बन गए नेताओं का हांथ मागने के लिए कदम बढ़ाते भी दिखें. परिणाम अभी तो भविष्य के गर्त में दबे हैं. हमें नहीं भूलना चाहिए मोदी जी की लोकप्रियता का ग्राफ भी अभी इतना नहीं गिरा है और राहुल का इतना बढ़ा नहीं है कि भाजपा के लिए कोई बड़ा खतरा पैदा हो जाये.
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