विनय ओसवाल, वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक
हिन्दुस्तान को कांग्रेस मुक्त बनाना मोदी जी के बूते की बात नही हैं, लोगों के बीच ऐसे विमर्श अब अपना स्थान बनाने लगे हैं. राजनीति में अपराजेय नेता के रूप में अपनी साख बना चुके मोदी जी के लिए यह शुभ शगुन नहीं है. इसके उलट जिसे उन्होंने राजनीति में “पप्पू“ के रूप में स्थापित किया था, वही एक दिन अपराजेयता के उनके रुतबे का मान-मर्दन कर देगा, ऐसा तो कम-से कम मोदी जी के समर्थकों को अनुमान नहीं ही रहा होगा.
हिन्दुस्तान को कांग्रेस मुक्त बनाना मोदी जी के बूते की बात नहीं है, लोगों के बीच ऐसे विमर्श अब अपना स्थान बनाने लगे हैं. राजनीति में अपराजेय नेता के रूप में अपनी साख बना चुके मोदी जी के लिए यह शुभ शगुन नहीं है. इसके उलट जिसे उन्होंने राजनीति में “पप्पू“ के रूप में स्थापित किया था, वही एक दिन अपराजेयता के उनके रुतबे का मान-मर्दन कर देगा, ऐसा तो कम-से कम मोदी जी के समर्थकों को अनुमान नहीं ही रहा होगा. हालांकि वह यह कह कर अपनी खीज जरूर उतारते नजर आते हैं कि कांग्रेस सरकारें मजबूत नहीं है, आपसी कलह के चलते गिर जाएगी. भले ही गिर जाए, पर इतिहास के पन्नों में एक बार जो दर्ज हो चुका, वो मिटेगा तो नहीं. वैसे ही जैसे इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई थी, दर्ज हो गया और 43 साल बाद भी उनके विरोधियों के लिए च्यवनप्राश बना हुआ है.
चुनावी राजनीति के अंधकूप में उतरकर कभी-कभी बड़े-बड़े विश्लेषक भी खाली हाथ ही बाहर आते हैं, क्योंकि वोटर चतुर हो गया है, वो किसी को अपने मन की थाह सही-सही नहीं देता, जाना दक्षिण को हो, तो बताता उत्तर है.
हिंदुस्तान की राजनीति में इसी माह (दिसम्बर, 18) एक नया पैंतरा आजमाए जाने की शुरुआत हुई है. लोग कहते हैं इस पैंतरे के जन्म का सम्बन्ध भाजपा की हालिया प्रसव पीड़ा के परिणामों से है. पैंतरा खेलने की जिम्मेदारी एकीकृत आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एन. टी. रामाराव के राजनैतिक शिष्य के.चंद्रशेखर राव (केसीआर) और वर्तमान तेलंगाना के मुख्यमंत्री के कंधों पर डाली गई है.
पैंतरा है, “भाजपा विरोधी वोटों को कांग्रेस की झोली में जाने से रोकना“, इसके लिए कांग्रेस विरोध की कडुआहट को कम करने के लिए इस पैंतरे को भाजपा से भी समान दूरी बनाए रखने की चासनी में लपेट दिया गया है.
तेलंगाना में अपनी पार्टी टीआरएस के दुबारा सम्मानजनक जीत हासिल करने के बाद केसीआर अपने मन की बात साझा करते हुए कहने लगे हैं कि प्रदेश की कमान अपने बेटे और संगठन की अपनी बेटी को सौंप कर (मानों पार्टी तथा सरकार और उसका मुखिया उनके निजी व्यापार के क्रियाकलाप हों) वे केंद्र की राजनीति करना चाहते हैं. वे प्रधानमंत्री की कुर्सी की दौड़ में नहीं हैं, रक्षा मंत्री की कुर्सी से वे सन्तुष्ट हो जाएंगे (क्या राफेल जैसे आयुध सौदे उन्हें लुभाने लगे हैं).
आंध्र प्रदेश के चन्द्रबाबू नायडू भी उसी राजनैतिक गुरु एन. टी. रामाराव के शिष्य हैं, जिनके केसीआर. दोनों के बीच राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता नई नहीं है. 2018 में तेलंगाना चुनावों में चंद्रबाबू नायडू ने कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाकर उनको नुकसान पहुंचाने का भरसक प्रयास किया था, जो पूरी तरह चकनाचूर हो गया. इससे तिलमिलाए केसीआर ने अब मोदी जी के नक्शेकदम पर पांव आगे बढ़ा दिये हैं और कोंग्रेस को ही नहीं यूपीए को मजबूत करने के उसके प्रयासों को भी चोट पहुंचाने की ठान ली है. केसीआर और मोदी जी के बीच दुश्मन का दुश्मन दोस्त वाला रिश्ता कायम हो गया है.
उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों से अपने राजनैतिक मंसूबों को उनके मंसूबों के अनुकूल बता 2019 में उनका साथ पाने के लिए केसीआर ने मुलाकात की है. मुलाकातों के बाद वे दिल्ली जाकर प्रधानमन्त्री से भी मिले हैं. लोग कयास लगाते हैं. केसीआर ने दोनों मुख्यमंत्रियों से मुलाकात के परिणामों से उन्हें अवगत कराया है. केसीआर कहते हैं उन्होंने प्रदेशों को आर्थिक स्वतंत्रता देने के मुद्दे पर प्रधानमन्त्री से बात की है.
वैसे उत्तर प्रदेश में अखिलेश और मायावती से मुलाकात करना भी केसीआर के एजेंडे में है. उनकी सांसद बेटी और अखिलेश की पत्नी अच्छी दोस्त बताई जाती है. केसीआर से मिलने को अखिलेश उनसे ज्यादा उत्सुक हैं, ये अखिलेश के हालिया बयान से सामने आया है. अखिलेश ने खुद जा कर उनसे मिलने की बात मीडिया के सामने रखी है. इस उत्सुकता के भी, कांग्रेस के लिए खासे राजनैतिक संकेत है, जिसे कांग्रेस भी समझ रही होगी.
इस नए पैंतरे की कमजोर नस ये है कि इसका आधार राजनैतिक कम और निजी ज्यादा है. किसी के निजी एजेंडे को राजनैतिक एजेंडा यानी तीसरा मोर्चा बनाने की स्वीकृति मिलना असंभव नहीं तो उतना आसान भी नही है, जितना केसीआर ने समझ रखा है. इसे केसीआर से ज्यादा मोदी जी समझते हैं. पर राजनीति में सम्भावनाएं सीमित नहीं होती. 2019 के कुरुक्षेत्र में उतरने के लिए अभी तीन से ज्यादा महीने बाकी हैं.
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