Home गेस्ट ब्लॉग ‘किस किस को कैद करोगे ?’ बढ़ते राजकीय दमन के खिलाफ उठता आवाज

‘किस किस को कैद करोगे ?’ बढ़ते राजकीय दमन के खिलाफ उठता आवाज

40 second read
0
0
1,099

‘किस किस को कैद करोगे ?’ बढ़ते राजकीय दमन के खिलाफ उठता आवाज

हाशिये पर रह रहे समुदाय के साथ खड़े लोकतांत्रिक संगठनों और व्यक्तियों पर हमला इस बात का पुख्ता सबूत है कि हम आज ना सिर्फ एक फासीवादी ताकत से लड़ रहे हैं, बल्कि हमारा सामना ब्राहम्णवादी कटट्र हिन्दुवादी ताकतों से है जो केवल चंद व्यापारियों और सत्ताधारी ब्राहम्ण-बनियों के हितों को साधने में लगी है.

इस ब्राहम्णवादी और फासीवादी सरकार और इसके दमन के औजार जैसे कि कड़े कानूनों (यू.ए.पी.ए., आफ्सपा, पोटा, रासूका और राजद्रोह) जिन्हें दलित और आदिवासियों के समानता के अधिकार के दावे और जन आंदोलनों को दबाने में इस्तेमाल किया जा रहा है. इस सवाल को लेकर विगत दिनों 7  दिसम्बर को पटना के एक सभागार में यौन हिंसा और राजकीय दमन के खिलाफ महिलाएं और जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय द्वारा सम्मेलन का अयोजन किया गया था, हम यहां उस आयोजित सम्मेलन में पेश एक पर्चे को यहां अपने पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं :




आज हम ऐसे माहौल में जी रहे हैं, जहां फासीवादी और ब्राहम्णवादी राज्य बिना किसी रोक-टोक के हाशिये पर रह रहे लोगों, लोकतांत्रिक ढांचों और प्रक्रियाओं का गला घोंटने में लगा है. ऐसा करके भाजपा सरकार इस बात का साफ-साफ संकेत दे रही है कि वह मौजूदा ढांचागत असमानता को बरकरार रखना चाहती है, जिसे नई उदारवादी नीतियों, सामप्रदायिकता, जातिवादी और पितृसत्ता जैसे ताकतों से बल मिलता है. एक तरफ सरकार लोगों को डराने-धमकाने और भयभीत करने में लगी है ताकि लोग उसके बेतुके फैसलों और नीतियों पर सवाल उठाना बंद कर दें.

ऐसे लोग और संगठन जो लोकतांत्रिक और संवैधानिक मुल्यों और ढ़ांचों को बचाने में लगे हैं और जो हाशिये पर रह रहे लोगों की आवाज को बुलंद करते है, उनपर फर्जी मुकदमें कर सरकार ने साफ कर दिया है कि उसे सवाल पूछना गंवारा नहीं. वहीं दूसरी ओर सरकार कटट्र हिन्दुवादी ऐजेंडे को सफल
बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है. भगुआ गुंडई और चरमपंथ का इस्तेमाल कर और भगुआ आतंकवाद को खुली छूट देकर राज्य बडे़ औद्योगिक घरानों और कटट्र हिन्दुवादी ताकतों को फायदा पहुंचाने में लगा है.




आवाज उठाने वालों पर दमन इस सरकार के लिए कोई नई बात नहीं है. तर्कपसंद विचारकों जैसे कि नरेन्द्र दाभोलकर, गोविंद पंसारे, एम.एम. कलबुर्गी और गौरी लंकेश जो भगवा अंधभक्ति के खिलाफ बोलते और लिखते रहे उनकी भगुआ चरमपंथियों जैसे कि सनातन संस्था द्वारा नृशंस हत्याएं करवाई गई. वहीं आम जिन्दगी जीने वाले जुनैद, अखलाक और पहलू खान को भीड़ पीट-पीट कर मार डालती है क्योंकि आज के समय में जहां हमारे समाज में नफरत और डर की राजनीति का बोल-बाला है, ये आम से लोग हिन्दु राष्ट्र के वजूद के लिए खतरा बन गए हैं. मजदूरों के हकों की वकालत करने वाले ट्रेड यूनियन भी दमन की चक्की में पिस रहे हैं.

झारखण्ड में मजदूर संगठन समिति नाम के ट्रेड यूनियन पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, हरियाणा में होंडा फैक्ट्री के कर्मचारियों पर फर्जी मामला बनाया जाता है क्योंकि वे काम करने के शर्तोंं पर सवाल उठाते रहे हैं. वहीं अधिकारों पर काम करने वाले संस्थाओं और लोगों को ब्लैकलिस्ट किया जा रहा है, उनके चंदे के स्त्रोत को एफ.सी.आर.ए. रद्द करने की आढ़ में बंद किया जा रहा है, या उन पर फर्जी मुकदमें कर उन्हे परेशान किया जा रहा है. लोकप्रिय दलित नेताओं, सामाजिक कार्यकत्ताओं, पत्रकारों, विचारकों, वकीलों, छात्र नेताओं, लेखकों और कवियों पर निहायती कड़े कानूनों के अंदर फर्जी केस दर्ज कर उन्हे परेशान किया जा रहा है.




चंद्रशेखर आज़ाद रावण जो उत्तरप्रदेश के लोकप्रिय दलित नेता है और भीम आर्मी के संस्थापक भी, उनपर रासूका नामक बेहद खतरनाक कानून के अंर्तगत मुकदमा दायर किया गया और लगभग डेढ़ साल जेल में रखा गया. तो दूसरी ओर तामिलनाडू के तिरुमुरुगन गांधी, झारखण्ड के बच्चा सिंह, तीस्ता सीताल्वेद, प्रोफेसर जी. एन. साईं बाबा जैसे लोगों पर यू.ए.पी.ए., राजद्रोह जैसे भयावह कानूनांं के अंर्तगत मामले डाले गए हैं.

हाल ही में जून और अगस्त, 2018 में भारत भर से 10 लोकतांत्रिक कार्यकत्ताओं, कवियों, लेखकों, पत्रकारों, और ट्रेड युनियन कार्यकत्ताओं को गिरफ्तार किया गया है और जनवरी, 2018 में भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा के सिलसिले में यू.ए.पी.ए. के अंर्तगत दर्ज मामले में उनका नाम शामिल किया है. जनवरी, 2018 में भीमा कोरेगांव में दलित समुदाय ने हमेशा की तरह यलगार परिषद का आयोजन किया था, जिसमें मराठा शक्तियां पर दलितों के विजय को याद किया जाता है.




जनवरी, 2018 में यलगार परिषद के दौरान हिन्दुचरमपंथियों ने दलितों के ऊपर हिंसा की. जहां इस मामले में बेगुनाहों के नाम जोड़े जा रहे हैं जिनका मामले से कोई लेना-देना नहीं है, वहीं भीमा-कोरेगांव की हिंसा में शामिल और उसको हवा देने वाले चरमपंथियों सांभाजी भीडे और मिलिंद एकबोटे को
खुले आम छोड़ दिया है. राज्य निहायती कड़े कानूनों जैसे कि यू.ए.पी.ए., रासुका, पोटा, राजद्रोह और तामिलनाडू गुन्डा एक्ट का इस्तेमाल कर गरीब-गुरवा, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों की आवाज को बुलंद करने वालां और सत्ता के मनमानी का विरोध और उससे मतभेद रखने वालों को दबाने में लगा है. फौजदारी कानून और कानूनी प्रक्रियाएं आज हाशिये पर रह रहे संघर्षशील तबके और उनके लिए आवाज उठाने वालों के खिलाफ उनके लबों को सिलने और उनकी कमर तोड़ने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. इस पूरे माहौल में कानूनी प्रक्रिया से जूझते रहना अपने-आप में सजा बन जाती है.




इसके अलावा, हाल ही में झारखण्ड में 20 सामाजिक कार्यकत्ताओं, कवियां, लेखकों, बैंककर्मियों और पत्रकारों पर पत्थलगढ़ी सर्मथक होने का आरोप लगाकर राजद्रोह के मुकदमें दायर किए गए. इनमें फादर स्टैन स्वामी और आलोका कुजूर भी शामिल है. इनमें से ज्यादातर लोग झारखण्ड सरकार की नई उदारवादी नीतियां जो जनविरोधी हैं और पुंजीपतियों के हित में बनाई गई है, उसका विरोध करते रहे हैं. इन्होंने झारखण्ड सरकार के उन प्रशासनिक नीतियों और फैसलों का विरोध किया है, जो आदिवासी इलाकों में दमन को बढ़ावा देती है.




फादर स्टेन स्वामी जिनपर राजद्रोह और यू.ए.पी.ए. के अंर्तगत मामले दर्ज किए गए हैं, उन्होंने अपनी पूरी जिन्दगी आदिवासी इलाकों की समस्यों को उजागर करने में बिता दिया. वो सरकार की लैंड बैंक की नीति द्वारा आदिवासियों के सामुहिक और नीजी जमीन पर कबजे, राजनैतिक कैदियों की र्दुदशा और झारखण्ड के जेलों की बदतर स्थिति जैसे मसलों को उठाते रहे हैं. वहीं आलोका, जो खुद भी आदिवासी समाज से हैं वह इस समाज की दयनीय स्थिति और उनके प्रति सरकारी उदासिनता पर सवाल करती रही हैं. इससे कई बातें साफ होती हैं जैसे कि झारखण्ड में भाजपा सरकार संविधान की पांचवी सूची और वन अधिकार कानून, 2006 को लागू करके आदिवासियों के हकों की पहचान करने के बजाय उनके जल, जंगल, जमीन पर कब्जा करने और आदिवासियों को जेल में ठूंसने के चक्कर में लगी है.

सरकारी आंकड़े जैसे कि 2016 के एन.सी.आर.बी. के आंकड़े कहते है कि 2014 से 2016 के बीच दलितों और आदिवासियों के खिलाफ हिंसा में भारी इजाफा हुआ है. एन.सी.आर.बी. के डेटा के हिसाब से 2016 में दलितों और आदिवासियों के खिलाफ 40,801 और 6,568 मामले दर्ज हुए जबकि 2014 में 38,670 और 6,276 मामले दर्ज हुए, ये संख्या 2016 के आंकड़ों से काफी कम थी. साथ ही, हाशिये पर रह रहे समुदाय के साथ खड़े लोकतांत्रिक संगठनों और व्यक्तियों पर हमला इस बात का पुख्ता सबूत है कि हम आज ना सिर्फ एक फासीवादी ताकत से लड़ रहे हैं, बल्कि हमारा सामना ब्राहम्णवादी कटट्र हिन्दुवादी ताकतों से है जो केवल चंद व्यापारियों और सत्ताधारी ब्राहम्ण-बनियों के हितों को साधने में लगी है.




जिनके ऊपर हमने देश की कानून, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था को चलाने का भार दिया था, वे ही आज देश में अराजकता का माहौल तैयार कर बैठे हैं और कानून-व्यवस्था और न्यायिक ढ़ांचें की धज्जियां उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे. इस बात का प्रमाण हमें इस बात से साफ पता चलता है कि मई 2018 में तामिलनाडू के तुतिकोरिन में स्टरलाईट कॉपर फैक्ट्री का विरोध करने वाले नागरिकों पर पुलिस द्वारा गोलियां चलाई जाती हैं, जिसके कारण कईयों की मौत भी हो जाती है. वहीं, अप्रैल 2018 में गढ़चिरौली में 40 नाबालिग और अन्य आदिवासियों को नक्सल बताकर फर्जी मुठभेड में मार डाला जाता है.

और तो और, जून 2018 में झारखण्ड के खुंटी जिले में आदिवासियों द्वारा पत्थलगढ़ी के परंपरा का संवैधानिक हदों में रहकर स्वशासन लागू करने के कदम को झारखण्ड सरकार असंवैधानिक घोषित करती है और पांच आदिवासी महिलाओं के सामूहिक बलात्कार के नाम पर घाघरा और आस-पास के गांवों में पुलिस और अर्धसैनिक बलों द्वारा बेहद गंभीर और शर्मनाक तरीके से दमन किया जाता है जिस दौरान एक व्यक्ति की जान चली जाती है, काफी लोग घायल होते हैं, कईयों को जेल में भर दिया जाता है और आदिवासी महिलाओं पर यौन हिंसा होती है. और बस्तर में आदिवासियों के खिलाफ लगातार चल रहा राजकीय दमन (2008 से आज तक).




इन सभी बातों से यह बात साफ जाहिर है कि राज्य ने पुलिस प्रशासन, सेना और बडे़ व्यापारिक घरानों के टुकड़ों पर पलने वाले गोदी मीडिया के दम पर अपने ही कमजोर और हाशिये पर रह रहे लोगों के खिलाफ जंग छेड़ दी है, ना कि किसी काल्पनिक ताकत ने जिसे आज कल “अर्बन नक्सल“ का नाम दिया जा रहा है.

साथ ही, आज का कारपोरेट द्वारा खिलाया-पिलाया गया कटट्र हिन्दुवादी गोदी मीडिया इसके लिए उतना ही जिम्मेदार है जितना कि ये हिन्दुवादी भाजपा सरकार. गोदी मीडिया के फर्जी खबरों के बाजार और सोशल मीडिया पर लोगों को गरियाने और मानसिक प्रताड़ना करने की संस्कृति ने आम लोगों के बीच उनके खिलाफ जहर भर दिया है जो खुद ही नाइंसाफी झेलते है और जो नाइंसाफी के खिलाफ आवाज उठाते हैं.




ऐसा कर गोदी मीडिया और सरकार बांकि लोगों के बीच खौफ का माहौल बनाना चाहती है और वह चाहती है कि हम सवाल करना बंद कर दे. साथ ही, ऐसा करके ये जन विरोधी नई उदारवादी नीतियों, ब्राहम्णवादी और फासीवादी ताकतों, व्यापारिक घरानों और चरमपंथी हिन्दुवादी विचारधाराओं का स्वार्थ साधने में लगे है.

इस ब्राहम्णवादी और फांसीवादी हिन्दुत्ववादी सरकार और गोदी मीडिया द्वारा जंग का ऐलान सिर्फ दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और लोकतांत्रिक संगठनों और लोगों के खिलाफ नहीं किया गया है, बल्कि यह जंग हमारी सांझी विरासत, संवैधानिक मूल्यों और लोकतांत्रिक ढ़ांचों के खिलाफ है, जिसे बाबा साहब अम्बेदकर और अन्य जन नेताओं ने बड़े जतन से तैयार किया है. ये हमारे एकजुटता, बंधुत्व और प्यार पर एक गहरा आधात है.




Read Also –




प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर पर फॉलो करे…]

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

चूहा और चूहादानी

एक चूहा एक कसाई के घर में बिल बना कर रहता था. एक दिन चूहे ने देखा कि उस कसाई और उसकी पत्नी…