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लुम्पेन की सत्ता का ऑक्टोपस

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लुम्पेन की सत्ता का ऑक्टोपस

जब लोकतंत्र का क्षय एक भीड़तंत्र में हो जाता है, तब ऐसी संस्थाएं अपने लिए एक हत्यारा, षड्यंत्रकारी, मूर्ख, दलाल को चुनता है और उसकी आड़ में जघन्यतम पूंजीवादी वर्ग अपना हित साध लेता है.

आज ज़रूरत है ऐसी मीडिया का सम्पूर्ण बहिष्कार. यही हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है. ऑक्टोपस के आठों हाथों को एक-एक कर काट दो, सर ख़ुद-ब-ख़ुद मर जाएगा.

लुम्पेन जब शासन में आते हैं तब सिर्फ संवैधानिक संस्थाऐं ही नहीं, संवैधानिक ज़िम्मेदारी को निभाने वाले भी उनकी ज़द में आ जाते हैं. जस्टिस लोया से लेकर इंस्पेक्टर सिंह तक इसके उदाहरण हैं. याद रखिए गौ रक्षक दल, सनातन संस्था, संघ, विहिप इत्यादि सरकार संपोषित संस्थाएं नहीं हैं, ये सरकार उनके द्वारा संपोषित है. जब लोकतंत्र का क्षय एक भीड़तंत्र में हो जाता है, तब ऐसी संस्थाएं अपने लिए एक हत्यारा, षड्यंत्रकारी, मूर्ख, दलाल को चुनता है और उसकी आड़ में जघन्यतम पूंजीवादी वर्ग अपना हित साध लेता है.

आर्थिक विषमताओं के बोझ को ढ़ोता हुआ समाज तब धर्म, जाति, प्रांत, भाषा के नाम पर और भी बांट दिया जाता है. सारी कोशिश सिर्फ जन-चेतना को मूल समस्याओं से भटकाने के लिए की जाती है. अगर आप इन विघटनकारी संगठनों और भाजपा के प्रायोजकों की लिस्ट देखेंगे तो एक ही होगी. दूसरी तरफ़ भांड मीडिया, अख़बार और अन्य सूचना के माध्यमों को ख़रीदकर यही वर्ग अपना हित साधता है. किसान और उसकी यातना, मज़दूर और उसका संघर्ष, वनवासी और उनका आंदोलन कोई ख़बर नहीं बनती. इसके पीछे एक सोच यह भी है कि जो गतानुगतिक है उसे हम ख़बर नहीं मानते लेकिन व्यतिक्रम ख़बर बनती है. पत्रकारिता की यह अवधारणा आम आदमी के संघर्ष को गतानुगतिक की श्रेणी में लाकर वर्ग स्वार्थ में खड़ा कर देता है, जबकि करीना कपूर के बेटे के नाम को व्यतिक्रम की श्रेणी में ला देता है.




दो विश्वयुद्धों के समय रॉयटर जैसी एजेंसियां पूरे विश्व में अपने संवाददाताओं के ज़रिए युद्ध की रिपोतार्ज इकठ्ठा करती थी और एक तरह की ऑबजेक्टिविटी भी होती थी. यूरोप और विश्व के हरेक कोने में बैठे लोग डर और उत्सुकतावश इन अख़बारों को आद्योपरांत पढ़ते थे कि कहीं उनके घर के किसी सदस्य या किसी परिचित को युद्ध ने लील तो नहीं लिया.

ये तो हुई युद्ध के समय की पत्रकारिता. साधारण दिनों में भी समाज के अंदर एक भीषण युद्ध चलता है, शोषण, ग़ैर-बराबरी और राजकीय दमन के विरुद्ध. इस समय पूंजीवादी पत्रकारिता वेश्यावृत्ति करती पाई जाती है. ये आपको गाय-गोबर, मंदिर-मस्जिद, इलाहाबाद-प्रयागराज, हनुमान की जात, राहुल का गोत्र जैसे छद्म युद्धों को थोपती है. दिल्ली में जमे लाखों किसानों के संघर्ष पर कुछेक हज़ार लुच्चों का अयोध्या कूच भारी पड़ जाता है.

आज ज़रूरत है ऐसी मीडिया का सम्पूर्ण बहिष्कार. यही हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है. ऑक्टोपस के आठों हाथों को एक-एक कर काट दो, सर ख़ुद-ब-ख़ुद मर जाएगा.

  • सुब्रतो चटर्जी

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