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छल-प्रपंच के आवरण में लिपटी आस्था का चुनावी ब्रह्मास्त्र

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छल-प्रपंच के आवरण में लिपटी आस्था का चुनावी ब्रह्मास्त्र

छल-प्रपंच जनित आस्था को बड़ी खूबसूरत, आकर्षक और लोकलुभावन पैकिंग में लपेटा गया है. अब चुनावी इंद्रप्रस्थ के मैदान में लड़ाई आस्था के ब्रह्मास्त्र से लड़ी जाएगी. भारतीय जन मानस की आस्था भगवान राम के प्रति है, इस बात का सबूत भारतीय दर्शन में अवधारित “कण-कण में राम“ की परिकल्पना से मिलता है. पर छल-प्रपंच की लोकलुभावन पैकिंग में लिपटी आस्था राजनीति, धर्म और समाज के स्थापित ढांचों को गिरा कर धूल-धूसरित कर सकती है, इसका अनुमान तो किसी सत्यनिष्ठ आस्थावान को सपने में भी न रहा होगा.

साम, दाम, दण्ड, भेद के जनक चाणक्य की नीति में छल-प्रपंच का समावेश करने के लिए आस्था को छल-प्रपंच के आवरण में लपेट कर इस्तेमाल करने के प्रयोग की सफलता से राजनेता पस्त तो दिख रहे हैं, पर इसकी काट उनके लिए अभी दूर की कौड़ी ही बनी हुई है.

राजनीति की चाणक्य एकेडमी के शिक्षक जानते हैं कि राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर छः दशकों से ज्यादा समय बाद बादल फाड़ कर निकले बीजेपी के सूर्य को ग्रहण लगाने की सामर्थ्य कांग्रेस के अलावा किसी अन्य दल में नहीं है, इसलिए उनका दुश्मन नम्बर एक वामपंथी नहीं कांग्रेस है.




एकेडमी के शिक्षक यह भी जानते हैं कि पुरुष मनु के शीर्ष पर बैठे ब्राह्मण और संहारक शस्त्रों को धारण करने वाली भुजाओं में सनातनी वैर है (परशुराम और हैहय वंशी क्षत्रिय) और पांव में बिठाए गए शूद्रों के प्रति स्वभाविक ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण के चलते वणिक जंघा से संतोष करने तक सीमित रहने के कारण ही बीजेपी को संसद में दो सदस्यों की हैसियत तक गिरा दिया था.

बीजेपी को पूर्ण बहुमत तक पहुंचाने के ताने-बाने बुनने में नौ दशकों से सिर खपा रही चाणक्य एकेडमी को देर से ही सही 2014 आते-आते समझ आ गया कि जिन हथियारों का इस्तेमाल कर गांधी ने देश की सत्ता अंग्रेजों से कांग्रेस को हस्तांतरित करा दी थी; उन्हीं हथियारों का इस्तेमाल कर देश की सत्ता से कांग्रेस को बेदखल करके उस पर कब्जा किया जा सकता है और उसने वैसा करके दिखा दिया.

गांधी की सीमित आलोचना और डॉ. भीमराव आंबेडकर के प्रति पूर्ण आत्म-समर्पण को एकेडमी ने और उसके निर्देश पर बीजेपी ने अपनी नीति में अंगीकृत कर लिया. अब पिछडा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दे के तथा राष्ट्रीय मुस्लिम मंच को आबाद कर एकेडमी ने अपनी कुरूपता को दूर करने का काम शुरू कर दिया है. ईसाई मिशनरियों के पांव उखाड़ने के उद्देश्य से हनुमान की वंशज जनजातियों यानी वनवासियों-आदिवासियों के बीच, तो वह शुरू से ही काम कर रही थी.




अब तक के विश्लेषण से पाठकों के मन में यह भ्रम पैदा होना स्वाभाविक जान पड़ता है, कि मनुवादी एकेडमी के शिक्षकों की मानसिकता में कोई बड़ा परिवर्तन हो गया है, इसे भी दूर करना जरूरी है. परिवर्तन तो निश्चित हुआ है पर इस परिवर्तन को “छल-प्रपंच“ ही कहना उचित होगा, जिसे सत्ता पाने और फिर बने रहने की तीव्र लालसा के चलते एकेडमी ने अपने सिलेबस में शामिल कर लिया है.

छल-प्रपंच जनित आस्था को बड़ी खूबसूरत, आकर्षक और लोकलुभावन पैकिंग में लपेटा गया है. अब चुनावी इंद्रप्रस्थ के मैदान में लड़ाई आस्था के ब्रह्मास्त्र से लड़ी जाएगी. भारतीय जन मानस की आस्था भगवान राम के प्रति है, इस बात का सबूत भारतीय दर्शन में अवधारित “कण-कण में राम“ की परिकल्पना से मिलता है. पर छल-प्रपंच की लोकलुभावन पैकिंग में लिपटी आस्था राजनीति, धर्म और समाज के स्थापित ढांचों को गिरा कर धूल-धूसरित कर सकती है, इसका अनुमान तो किसी सत्यनिष्ठ आस्थावान को सपने में भी न रहा होगा.

राजनीति, धर्म और समाज के स्थापित ढांचे के गिरने से कांग्रेस ही अकेली हैरत में नहीं हैं सभी राजनैतिक पार्टियां हैं. कांग्रेस हैरत और सदमें दोनों में है. सदमें में इसलिए क़ि उसकी स्थिति “रानी से भिखारन“ वाली बन गयी है. अन्य बहुत से दल तो अपने दोने में सत्ता के ठाकुर के प्रसाद की थोड़ी या ज्यादा नुक्ती प्राप्त कर के संतुष्ट हो जाएंगे, पर कांग्रेस ? कांग्रेस जो खुद प्रसाद की नुक्ती बांटती रही है, कैसे खुद को संतुष्ट करे ?




“हरि को भजे सो हरि का होई“ की सनातन भारतीय परंपरा में एकेडमी ने बड़ा परिवर्तन कर दिया है. इस परिवर्तन के अनुसार अब हरि भजन करने से पहले भगवा-ध्वज को प्रणाम करने वालों को ही हरी-दर्शन देंगे; जैसी बाध्यता का अध्याय जोड़ दिया गया है.

भगवा ध्वज को प्रणाम करे बिना, हरी में अपनी आस्था के वशीभूत मन्दिर जाने या किसी प्रकार के अनुष्ठान करने वाले कांग्रेसी नेताओं का उपहास उड़ाने और इसे नौटंकी करार देने और तरह-तरह के बेतुके सवाल उठाने वालों की उन्मादी भीड़ है, जिसे खुद आस्था के सिर-पैर का पता नहीं है, लेकिन वे इस आत्मविश्वास से लबरेज हैं कि उनके उन्मादी कृत्य राज-काज का अंग हैं.

सिक्के के दो पहलुओं की तरह इस चाणक्य एकेडमी के भी दो पहलू, चेहरे, और मुंह है. एक यानी राजनैतिक पहलू, जिसका अति संक्षिप्त वर्णन ऊपर किया गया है. दूसरा पहलू, देश के दूर-दराज के क्षेत्रों में संचालित सेवा प्रकल्पों की बड़ी संख्या है. इन हजारों प्रकल्पों में विविध कार्यों से जुड़े लाखों कार्यकर्ताओं की बड़ी फौज है, जो गुमनामी में रहकर पूर्ण समर्पण भाव के साथ दी गयी जिम्मेदारी को निभाते रहते हैं.




देश में एक भी राजनैतिक दल ऐसा नहीं जिससे जुड़ी संस्थाएं सेवा के क्षेत्र में इस तरह के प्रकल्प चलाती हों और उन प्रकल्पों से जुड़े कार्यकर्ताओं की संख्या चाणक्य एकेडमी का दशांश ही मुकाबिल हो. कम-से-कम पिछले तीस वर्षों से सक्रिय राजनीति कर रहे दल क्यों इस ओर आंख मीचे रहे ? इसके लिए वे खुद ही जिम्मेदार हैं. यही कारण है, बीजेपी को हराने के लिए किसी भी दल को अपने ऊपर भरोसा नहीं है. सभी खास तौर पर कांग्रेस आमजन का बीजेपी से मोहभंग होने पर आस लगाए बैठी है (राजस्थान, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़).

ऐसा भी नहीं है कि बीजेपी के प्रति आमजन का मोह भंग नहीं हुआ है. निश्चित हुआ है, पर उसकी भरपाई आस्था के छल-प्रपंच से कर लेगी ऐसा उसे भरोसा है.

  • विनय ओसवाल
    वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक

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One Comment

  1. Subroto Chatterjee

    December 3, 2018 at 1:31 pm

    पूँजीवादी क्राईसिस को रेखांकित करता एक सशक्त, तथ्यपरक लेख

    Reply

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