भारत की फिजा में अभिशाप की तरह मंडराता ब्राह्मणवाद को ठोस आधार प्रदान करने वाली मनुस्मृति कितना अमानवीय है, इसकी एक झलक दलित महिलाओं को अपने स्तन तक न ढ़ंकने देने का अधिकार में दिखता था. स्तन ढ़ंकने का अधिकार भी काफी संघर्ष और शहादतों के बाद हासिल हुई है. स्तन ढ़ंकने का अधिकार 1952 ई. में भी बहुजन नेत्री वी. लक्ष्मीकुट्टी के नेतृत्व में ‘स्तन क्लॉथ’ आंदोलन चला जो 1956 ई. तक जारी रहा. ननगेली ने अपने अधिकारों के समर्थन में जो नींव रखी उसी को ज्योतिबाफुले-सावित्रीबाई फुले और बाबासाहेब ने विस्तार दिया, जिसके चलते दलित आज यहां तक पहुंच सका है.
दरअसल, वो 19वीं सदी के दौर में दौरान दक्षिण भारत में महिलाओं को अपने स्तन ढ़ंकने पर पाबंदी थी. इसे जानकर आप हैरान हो जाएंगे कि किस तरह महिलाओं को इस प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता होगा. इस प्रथा से बाहर निकलने के लिए स्त्रियों को काफी कड़े संघर्ष से गुजरना पड़ा था.
ननगेली तुम्हारा आभार … कि मैं आज अपने ब्रेस्ट ढांक सकती हूं. दलित इतिहास में नींव का पत्थर हो तुम और तुम्हारा विरोध ब्राह्मणों ने अपने जातीय विशेषाधिकार और लम्पटता के चलते अमानवीय और घृणित नियम-क़ानून बनाए हुए थे, जिनमें से एक अमानवीय व्यवस्था कि दलित महिलाएं अपने स्तन नहीं ढंक सकती थी.
पिछड़े वर्ग की महिलाओं पर यह बंदिश थी जिसमें दलित भी शामिल थे. अय्यंकल्ली ने यह आंदोलन चलाया था. पिछडे/दलित वर्ग की महिलाओं पर खास तौर पर यह निर्देश था कि वह ब्राह्मणों के सामने अपने स्तन खुला रखें. ऐसा नहीं करने पर उनके स्तन काट लिए जाते थे. स्तन ढंकना ऊंची कहे जाने वाली सवर्ण जातियों की महिलाओं का विशेषाधिकार था.
यदि कोई पिछड़ी/दलित स्त्री अपना स्तन ढंकना चाहे तो उसे उसे “स्तन-कर“ (ब्रेस्ट-टैक्स) जिसे मुलविकर्म कहा जाता था, चुकाना होता था. टैक्स कितना देना होगा, ये भी बाकायदा स्त्री के स्तनों के आकार औऱ प्रकार की जांच करके निर्धारित किया जाता था.
केरल के त्रावणकोर के चिरथेला में अपने पति के साथ रहने वाली ननगेली ने इस टैक्स का सार्वजनिक रूप से विरोध किया और कर-निरीक्षकों को टैक्स देने से मना कर दिया. 1803 ई. में जब टैक्स देने के लिए अधिकारियों द्वारा ननगेली को प्रताड़ित किया गया तो उसने अपने सम्मान और अस्मिता के लिए इस अमानवीय टैक्स का विरोध करते हुए दरांती से अपने दोनों ब्रेस्ट ख़ुद काटकर कलेक्टर के सामने प्रस्तुत किए. अपने आत्मसम्मान और जातीय प्रिविलेज के विरोध करते हुए ननगेली शहीद हो गईं. ननगेली के पति ने अपनी पत्नी के सम्मान, प्रेम और आत्मग्लानि में उसकी जलती चिता में कूदकर आत्महत्या कर ली.
ननगेली की मौत के बाद समाज में जैसे आंदोलन की चिंगारी भड़क गई. सभी नीची जाति के लोग इस अपमान का बदला लेने को उतावले हो गए और बगावत कर दिया. इसी का परिणाम हुआ कि दलित महिलाओं के लिए भी इस कानून को खत्म करने का ऐलान किया गया. ये वो समय था जब समाज में कई तरह के बदलाव हो रहे थे. जिसकी वजह से भी इस प्रथा का अंत होना संभव हो पाया. इस क्रूर-नृशंस प्रथा के अंत होने में अंग्रेजी हुकूमत की बहुत बड़ी भूमिका थी, ठीक उसी तरह जिस तरह सती-प्रथा के अंत होने में अंग्रेजी हुकूमत की अहम् भूमिका थी.
1947 ई. में आज़ादी मिलने के बाद भी त्रिशुर, तलापल्ली, अल्लपुझा आदि जिलों में यह अमानवीय प्रथा प्रचलित रही है. जिन लोगों ने ये घृणित प्रथा बनाये थे उन्होंने ही इन काल्पनिक देवी-देवताओं को बनाया है, और हम उस ब्राह्मण के पैर छुते हैं, जिनको जुते से मारना चाहिए. हम उसी मंदिर में जाकर घण्टा बजाते हैं, जिन पर हमें थूकना चाहिए.
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