दरअसल हम भारतीयों को अपना जीवन जीने से अधिक दूसरे अपना जीवन हमसे कमतर जीने वाली बीमार मानसिकता के साथ जीने में जीवन का सार अधिक दीखता है. हमारी विनम्रता का ढोंग, हमारे अच्छे होने का ढोंग, हमारे संवेदनशील होने का ढोंग, हमारे सामाजिक होने का ढोंग इत्यादि-इत्यादि हमारी इसी बीमार मानसिकता के कारण होता है. हम इतने बीमार हैं कि पूरा जीवन ढोंग करते हुए जीते हैं. ढोंग में इतना डूब जाते हैं और हमारा ढोंग इतना जीवंत हो जाता है कि ढोंग हमारे जीवन का सबसे प्रमुख हिस्सा बन जाता है. हमारा हंसना, मुस्कुराना, हमारे द्वारा दूसरों का स्वागत करना, हमारे द्वारा आतिथ्य करना, हमारे तर्क, हमारे विचार, हमारी सोच, हमारी मानसिकता मतलब हमारे जीवन का हर पहलू ढोंग के इर्द-गिर्द घूमता है. हमें पता ही नहीं चल पाता कि जीवन में वास्तव में सरल, सहज, ईमानदार व संवेदनशील होना क्या होता है ?
हम ढोंग के इर्ग-गिर्द ताने-बाने बुनने व उनमें जीने को ही जीवन की व्यवहारिकता, सहजता इत्यादि सब कुछ मानने लगते हैं. हम दूसरों के सामने खुद को महान व आदर्श प्रस्तुत करने के ढोंग के नशे के कारण अपने ही साथ हिंसा करते रहते हैं. हम अपने आपको प्रस्तुत चाहे जिस रूप में करें लेकिन स्वयं उत्तरोत्तर अधिक हिंसक होते चले जाते हैं. हमको पता भी नहीं होता लेकिन हम अपने ढोंग को, अपनी हिंसक मानसिकता को अपने बच्चों को स्थानांतरित करते हैं. उन लोगों पर स्थानांतरित करते हैं जो हम पर विश्वास करते हैं या हमको आदर्श मानते हैं. ऐसे ही ढोंग व हिंसक मानसिकता हमारे समाज में गहरे पैठ बनाते चले जाते हैं. ये तत्व समाज में प्रतिष्ठित होते चले जाते हैं, समाज व समाज के लोग इसी तरह बनते चले जाते हैं. यही हमारे व हमारे समाज की कंडीशनिंग/संस्कार बन जाते हैं.
यदि हम ध्यान से अपने बचपन से अपने जीवन को देखें तो पाएंगे कि हमारे समाज का तानाबाना अपने पड़ोसियों, अपने रिश्तेदारों, अपने गांव या मुहल्ले के लोगों तथा जिसको भी अपने से कमतर साबित कर/मान सकते हों या जीवन में कुछ संघर्ष करके कमतर साबित कर/मान सकते हों. कमतर साबित करने/मानने की इस जद्दोजहद में सबसे प्रमुख बात है कि कमतर साबित करने का आधार संपत्तियां कब्जाना/संग्रह करना है, सैकड़ों वर्षों से हमारे आपके मन के गहरे भीतर में जो सामंतवादी हिंसक मानसिकता पैठ बनाए हुए है.
यदि हम अपने अंदर ईमानदारी से झांके तो हम पाएंगे कि हमें अंदर से खुशी नहीं होती यदि हमारा पड़ोसी, हमारा रिश्तेदार, हमारा मित्र, हमारी जान-पहचान का कोई हमारी तरह सुविधाओं व सम्मान के सहित जीवन जीने लगता है या हमसे बेहतर सुविधाओं के साथ जीवन जीने लगता है. हमें खुशी अपने जीवन में मिली सुविधाओं, सफलताओं व सम्मान की तुलना में दूसरे को हमसे कमतर देखने, समझने, मानने से अधिक मिलती है. इसके लिए हम अपने भीतर हिंसक होने, असहज व असरल रहने, झूठ को जीवंत अभिनय के साथ जीते रहने, बीमार मानसिकता का होने, जीवन भर लगातार ढोंग के साथ जीने को अपने जीवन का मूलभूत तत्व बना लेते हैं. हम इन तत्वों के बिना जीवन जी पाने की कल्पना भी नहीं कर पाते हैं.
झूठ, अभिनय, ढोंग, आंतरिक असहजता व असरलता, विनम्रता का ढोंग इत्यादि में ही जीवन भर लिप्त रहते हुए एक बार ही मिलने वाले जीवन को जीना स्वयं के साथ सबसे बड़ी व सूक्ष्म हिंसा है. यह अत्यंत खतरनाक हो जाती है जब यही हम अपनी अगली पीढ़ी को व दूसरे जो हम पर विश्वास करते हैं, हमें आदर्श के रूप में देखते हैं, को भी स्थानांतरित करते चले जाते हैं.
हम अच्छी सरकारी नौकरी पाते हैं/विदेश जाते हैं/सफलता पाते हैं. हम खुश होते हैं, हमारा परिवार खुश होता है लेकिन यदि हमारा पड़ोसी, हमारा मित्र, हमारा रिश्तेदार भी वही सफलताएं पा लेता है या हमसे अधिक पा लेता है, तो भले ही हम ढोंग दिखाएं लेकिन अंदर से हम खुश नहीं होते. हमें अपने जीवन की खुशी छोटी लगने लगती है जबकि हम अब भी उन्हीं सुविधाओं व सफलताओं में ही जीवन जी रहे होते हैं, जिसके लिए हम खुशी महसूस करते थे. दूसरे को भी मिलते ही हमारी खुशी खतम हो जाती है.
दरअसल हम और हमारा समाज मानसिक, भावनात्मक व जीवन मूल्यों के संदर्भ में बेहद और बेहद बीमार व ढोंगी है. अत्यधिक खतरनाक अवस्था तक बीमार है. यही बीमारी हमें व हमारे समाज को भरपूर बेशर्मी, ढोंग, झूठ व फरेब के पुलंदों व धूर्तता के साथ क्रमतर रूप से और अधिक और अधिक भ्रष्ट, असंवेदनशील, अलोकतांत्रिक, हिंसक व क्रूर बनाती चली जाती है.
मानसिक, भावनात्मक व जीवन मूल्यों के संदर्भ में हमारे बीमार होने का ही प्रतिफल है कि हम वास्तव में विनम्र नहीं हैं, सहज नहीं हैं, सरल नहीं हैं, संवेदनशील नहीं हैं. अपवादस्वरूप जो लोग ऐसे हैं भी, हम उनके साथ होने में सहजता महसूस नहीं करते हैं, इसलिए चाहे अनचाहे हम ऐसे लोगों का परोक्ष-अपरोक्ष तिरस्कार करते हैं, विरोध करते हैं, उपेक्षित करते हैं, दोयम समझते हैं. यदि व्यवहारिकताओं की वजह से हम खुलकर यह सब नहीं व्यक्त कर पाते तो हम अपरोक्ष रूप से यह सब व्यक्त करते हैं. अपरोक्ष रूप से भी न व्यक्त कर पाएं तो अपने भीतर तो इन सब तत्वों को जीते ही रहते हैं.
हमारे व हमारे समाज के बीमार मानसिकता के होने के मूल पर हमारे समाज की घिनौनी जाति-व्यवस्था ही है क्योंकि इसी जाति-व्यवस्था के कारण ही अपने ही समाज के लोगों से घृणा करना, दोयम मानना व साबित करना, विद्वता व महानता का ढोंग करना, फरेब में जीना, मानसिक हिंसा में जीना इत्यादि-इत्यादि को हम संस्कार के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी स्थापित व संवर्धित करते चले आ रहे हैं.
यदि हम व हमारा समाज बीमार न हों तो हम व हमारा समाज भ्रष्ट नहीं होगा. हमें भारी भरकम वेतन सुविधाएं मिलने के बावजूद गरीबों को कम न्य़ूनतम मजदूरी को जस्टिफाई करने के लिए कुतर्क नहीं देंगे. यदि कोई यह कहेगा कि समान काम के लिए समान वेतन व सुविधा मिलनी चाहिए तो हम बेशर्मी के साथ कुतर्क नहीं देंगे. उल्टे समाज को बेहतर बनाने का प्रयास करेंगे.
हम बेशर्मी के साथ समान काम के लिए समान वेतन के लोकतांत्रिक व सामाजिक मूल्य के लिए शिक्षामित्रों के लगातार होने वाले शोषण को जस्टिफाई नहीं करेंगे, बल्कि उनके साथ खड़े होंगे. हम यह सीख जाएंगे कि जब पूरा समाज बेहतर सुविधाओं के साथ जीवन जीता है, केवल तभी ही हमारा, हमारे बच्चों व समाज का वास्तविक व बेहतर विकास होता है. केवल तभी हम सहजता, सुरक्षा व अभय के साथ जीवन जीने की ओर बढ़ सकते हैं.
- सामाजिक यायावर
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