सीबीआई को कीचड़ में लपेटने के बाद अब रिज़र्व बैंक की दुर्गति का अभियान शुरु कर दिया गया है. बीमार वित्त मंत्री ने पूरी अर्थव्यवस्था को आईसीयू में भेजने के बाद कुछ डायरेक्टर्स के जरिये केन्द्रीय बैंक की स्वायत्तता और उसके कामकाज में दख़लंदाज़ी की जो कोशिशें की हैं, उनका बैंक के गवर्नर और डिप्टी गवर्नर सख़्त विरोध कर रहे हैं. सोमवार को बैंक की संयुक्त बैठक में विचार के लिए 20 विषय रखे गए थे, लेकिन आठ घंटे तक चली बैठक में केवल तीन पर ही विमर्श हो सका, वह भी अधूरा.
यह हैरान करने वाली बात है कि इस सरकार के साथ किसी भी अर्थशास्त्री को काम करना रास नहीं आया. तीन मुख्य आर्थिक सलाहकार पद छोड़कर जा चुके है और एक भी नया व्यक्ति उस जगह काम करने के लिए राज़ी नहीं हुआ, जबकि विज्ञापन भी निकाला गया.
फ़िलहाल संकट का कारण यह है कि सरकार रिज़र्व बैंक के नियंत्रण अधिकार कम करके उस ज़िम्मेदारी की बड़ा हिस्सा एक नई कमेटी बनाकर उसको सौंपना चाहती है. ऐसा करके मुकेश अम्बानी की बैंक की भुगतान क्षमता बढ़ जाएगी, जिससे उसको आर्थिक फ़ायदा मिलेगा.
दूसरे, सरकार व्याज दरों के निर्धारण में भी चाहती है कि ऐसा करते समय उसके राजनीतिक लाभ-हानि का ध्यान रखा जाए. अभी बैंक व्याज दरें संशोधित करने का इरादा कर रही है, जिसको सरकार ने दबाव बनाकर रुकवाया हुआ है. अपनी ही केन्द्रीय बैंक की छीछालेदर पर आमादा जेटली ने मंगलवार को एक सख़्त बयान भी जारी कर दिया कि 2008-14 के बीच मनमाने बैंक ऋण दिए गए, पर तब रिज़र्व बैंक चुप रहा.
हालत यह हो गई है कि सरकार और बैंक गवर्नर के मध्य सम्वाद तक बंद है. इस स्थिति पर पूर्व वित्त सचिव आर. गोपालन ने दुख जताया है. पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद प्रणव सेन ने तो इन मतभेदों पर सार्वजनिक बयानबाज़ी करने की निन्दा तक की है. दो दिन पहले डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने सरकार द्वारा हस्तक्षेप की निंदा की थी और आज वित्त मंत्री ने बैंक पर जवाबी हमला कर दिया.
देखना है कि कोई संस्था इनके कार्यकाल में बची रह भी पाएगी या सभी पर कालिख पोत देंगे ?
- हर्ष देव
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